Monday, November 20, 2017

मौसम (1975) ...मौसम की तरह रंग बदलते रिश्तो की कहानी


1975 का साल फिल्म इंडस्ट्रीज़ के लिए एक निर्णायक वर्ष था इसी साल 'शोले 'जैसी बड़े बजट की फिल्म भी आयी और 'जय संतोषी माँ 'जैसी कम बजट की फिल्म ने भी कर्तिमान बनाये ऐसे ही माहौल में 29 दिसम्बर 1975 को गुलज़ार साहेब की 'मौसम 'भी परदे पर आती है  गुलज़ार की दूसरी फिल्मो की तरह तरह मौसम भी साहित्य पर आधारित A.J. Cronin के उपन्यास ,The Judas Tree,और कमलेश्वर के उपन्यास 'आगामी अतीत ' पर आधारित है यह उपन्यास 'धर्मयुग' में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ था फिल्म मौसम  का एक तमिल वर्ज़न Vasandhathil or Naal भी 1982 में आया था जिसमे संजीव कुमार की भूमिका जैमनी गणेशन ने निभाई थी जब मौसम फिल्म की शूटिंग हो रही थी गुलजार "आंधी " (1975) भी बना रहे थे दोनों फिल्मो की स्क्रिप्ट को लगभग एक ही समय में लिखा गया था और दोनों में उनके मनपसंद नायक संजीव कुमार थे दोनों ही फिल्मे केवल कुछ महीनो के अंतराल पर रिलीज़ भी हुई संजीव कुमार की असाधारण अभिनय प्रतिभा के बारे में गुलज़ार कोई संदेह नहीं करते थे


फिल्म की कहानी बेहद सरल मगर उलझी हुई है जिसमे रिश्ते तो है पर किरदार उन्हें निभा नहीं सकते सिर्फ महसूस कर सकते है....... फिल्म डॉ.अमरनाथ गिल (संजीव कुमार ) की कहानी से शुरू होती है जो कई सालों बाद दार्जिलिंग वापिस लौटता है जहाँ वो अपने 25 साल पहले खोये प्यार की तलाश करने का फैसला करता है जिसमे बारे में अब उसे कुछ भी पता नहीं डॉ.गिल के पास एक अतीत है बरसो पहले उसने जो कुछ किया था जिसके लिए उसकी अंतरात्मा अपराध बोध महसूस कर रही है वह अतीत के टूटे टुकड़ों और ढीली छोरों को बांधने की कोशिश कर रहा है जाड़ों की नर्म धूप, गर्मियों में तारों से सजे आसमान या फिर दूर जंगल के सन्नाटे में बीती खामोश रातों में वो अकेला बदलो से ढकी हिमालय की घाटी में अपने खोए हुए प्यार की तलाश कर रहा है

फ्लेशबैक के जरिये कहानी को स्क्रीन पर पेश करना गुलजार साहेब की खासियत रही है फिल्म में फ्लेशबैक यही से शुरू होता है अमरनाथ कलकत्ता से दार्जलिंग मेडिकल की परीक्षा देने आया है पैर में मोच आने की वजह से उसकी मुलाकात एक पहाड़ी वैद्य हरिहर थापा (ओम शिवपुरी ) की बेटी चंदा ( शर्मीला टैगोर ) से होती चंदा अपने पिता की पहाड़ो से जड़ी बूटी ढूढने में मदद करती है चंदा शहरी सभ्यता से वाकिफ नहीं अमरनाथ चंदा की सादगी पर मोहित हो उसे प्यार करने लगता है चंदा के साथ अमरनाथ संबंध बनाता है और वापस आने का वादा करता है लेकिन वह अपना वादा पूरा नहीं करता और लौट कर वापिस नहीं आता पच्चीस साल बाद अमरनाथ वो अमरनाथ गिल बनकर एक धनी आदमी के रूप में दार्जलिंग लौटता है और चंदा और उसके पिता की खोज करता है काफी ढूंढने पर उसे पता चलता है हरिहर वैद्य की मृत्यु हो चुकी है और चंदा की शादी एक अपंग वृद्ध व्यक्ति से कर दी गई थी उसे ये जान कर गहरा सदमा लगता है की चंदा ने एक बेटी को जन्म दिया और उसका इंतज़ार करते करते पागल हो कर मर गई अब अमरनाथ गिल का एक ही मकसद है चंदा की बेटी को हर हाल में ढूँढना और अपने पाप का प्रायश्चित करना लेकिन उसे जिस हाल में मिलती है वो देख वो दंग रह जाता है बात बात पर गाली देने वाली चंदा की बेटी कजरी (शर्मीला टैगोर ,डबल रोल ) अब गंगू रानी (दीना पाठक ) के कोठे की सबसे मशहूर वेश्या है अमरनाथ गिल उसे इस दलदल से निकलने का फैसला है वो गंगू रानी को कजरी की कीमत अदा कर अपने घर ले आता है लेकिन यहाँ हालात बदलने की बजाय और उलझ जाते है जहाँ एक वैश्या की घर पर रखने के लिए अमरनाथ को बदमानी झेलनी पड़ती है वही कजरी उसे प्रेम करने लगती है ........रिश्ते फिर मौसम की तरह बदलने लगते है दुविधा से घिरा अमरनाथ कजरी को बताता है की वो उसका नाजायज़ बाप है अब रिश्ते फिर एक बार दोराहे पर बिखरे पड़े है कजरी अपने उस बाप को कैसे माफ़ करे जिसका इंतज़ार करते करते उसकी मां मर गई और वो खुद बाजार में बिक गई ? अमरनाथ कजरी से कहता है...." मेरे साथ चलो 'बेटी' पीछे मुड़कर देखने के लिए हम दोनों के पास कुछ भी नहीं है कजरी अपने नाजायज़ बाप अमरनाथ के चली जाती है और फिल्म का अंत होता है

फिल्म  'मौसम ' के सेट पर शर्मीला टैगोर और गुलज़ार 

मौसम मनुष्य स्वभाव पर बनी गुलज़ार साहेब की बेहतरीन फिल्म है संजीव कुमार और शर्मिला टैगोर ने फिल्म में बेहतरीन अभिनय किया है  संजीव कुमार ने फिल्म में एक परिपक्व आदमी और युवा की शिद्दत से भूमिका निभाई है  उन्हें इसी वर्ष 1975 में "मौसम" और "अर्जुन पंडित" के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार के लिए नामित किया गया था। हालांकि,"मौसम" के लिए मात्र नामांकन से उन्हें संतुष्ट होना पड़ा वही शर्मीला टैगोर ने कजरी और चंदा दोनों किरदारों के चरित्र के अलग-अलग रंगों में सफलतापूर्वक निभाया जिसके लिए उन्हें नेशनल अवार्ड (बेस्ट एक्ट्रेस ) भी मिला दीना पाठक,ओम शिवपुरी ,सत्येन कप्पू ,सी.एस दुबे ,लिली चक्रवती फिल्म के अन्य कलाकार है दीना पाठक कोठे की मालकिन के रोल में अपनी इमेज से अलग दिखती है

गुलज़ार साहेब को मदनमोहन के साथ सिर्फ दो फिल्में करने का मौका मिला। एक तो कोशिश (1973) और दूसरी मौसम (1975) इस जोड़ी का ‘दिल ढूंढता है’ फिल्म का सर्वश्रेष्ठ गीत है मौसम में इस गीत "दिल ढूंढ़ता है फिर वही फुर्सत के रात दिन " के दो वर्जन थे एक लता व भुपेंद्र के युगल स्वरों में और दूसरे भूपेंद्र का एकल गीत इन दोनों ही वर्जन में भावनाओं का शब्दों में जबरदस्त चित्रण किया गया है गीत के मुखड़े की बात छोड़ भी दें तो इस गीत के हर अंतरे को आपने जरूर कभी ना कभी जिया होगा या अभी भी जी रहे होंगे यही वज़ह है कि जाड़ों की नर्म धूप, गर्मियों में तारों से सजा वो आसमान या फिर दूर जंगल के सन्नाटे में बीती वो खामोश रात जैसे गीत में इस्तेमाल किये गए बिंब आज भी अपने से लगते हैं आज की भाग-दौड़ भरी एक और तनावपूर्ण ज़िंदगी में कभी किसी दिन मन में ख़याल आता है कि काश आज छुट्टी मिल जाती इस भागती ज़िंदगी से तो फिर ख़यालों में ही सही घूम तो आते यादों की गलियारों से जिन गलियारों से होते हुए जाती है सड़क बर्फ़ से ढके पहाड़ों की तरफ़ वो पहाड़ जिनमें गूंजती हुई ख़ामोशी की कल्पना कभी गुलज़ार साहब नें की थी मौसम के संगीत की सफलता को ख़ुद मदन मोहन नहीं देख पाए इस फिल्म को संगीत निर्देशक मदन मोहन की मृत्यु के बाद जारी किया गया था इस गीत को को लेकर एक किस्सा है

मदन मोहन के संगीत रचने का तरीका अनूठा था "दिल ढूंढ़ता है फिर वही फुर्सत के रात दिन " गाने की धुन वो हारमोनियम पर बना रहे थे और साथ साथ किचन में मटन भी बना रहे थे वो किचन से बाहर आते और गुलज़ार साहेब से पूछते की ...."कैसी बनी धुन "...?.गुलज़ार साहेब उन्हें कहते ...."मजा नहीं आया "  मदन मोहन कहते ...."चलो कुछ और बेहतर सोचता हूँ " वो दुबारा गुनगुनाते हुए किचन में वापिस जाते और मटन के रस में विह्स्की मिला आते  दरअसल इस गीत का मिसरा ग़ालिब की मशहूर गजल के हिसाब से "जी ढूंढ़ता है" था गुलज़ार साहेब ग़ालिब के मौलिक मिसरे से कोई छेड़छाड़ नहीं करना चाहते थे लेकिन मदन मोहन इसे "जी "को "दिल "करने पर अड़ गए  गुलज़ार इस गाने की रिकार्डिंग पर ग़ालिब का पूरा दीवान उठा लाये लेकिन मदन मोहन ने गुलज़ार को ग़ालिब का मिसरा बदलने पर मजबूर कर दिया इस तरह "जी ढूंढ़ता है" "..."दिल ढूंढ़ता है" बन गया इसी गाने की धुन पर मदन मोहन जी ने कई अलग अलग तरह की धुनें बनाई और दशको बाद फिल्म वीर ज़ारा (2004) में इनमे से एक धुन "तेरे लिए हम जिए "का इस्तेमाल यश चोपड़ा ने किया......."रुके रुके से कदम "और "छड़ी रे छड़ी " गाने भी सुंदर है आज जब तेज संगीत और शोर शराबे वाले बेमतलब गाने गला घोट देते है ,वही गुलज़ार साहब के गाने जिन्दगी को बचाए रखने के लिए शुद्ध हवा का काम करते है

फिल्म  'मौसम ' की शूटिंग पर संजीव कुमार और अपनी बेटी 'बोस्की ' के साथ गुलज़ार  
  
"मेरे इश्क़ में लाखों झटके " गाने से जुड़ा भी एक किस्सा है  संभवत: गुलजार साहेब को अपनी फिल्म के लिए किसी एक विशेष कोरियोग्राफर की जरूरत महसूस नहीं होती थी लेकिन इस गाने में वो शर्मीला टैगोर के नृत्य से संतुष्ट नहीं थे उनको किसी में बताया की पास के ही स्टूडियो में कोरियोग्राफर सरोज खान मौजूद है गुलज़ार साहेब ने सरोज खान को बुलावा भेजा वो आ भी गई गुलज़ार साहेब ने सरोज खान से आग्रह किया की वो शर्मीला टैगोर को डांस के कुछ स्टेप्स बताये और कोरियोग्राफर सरोज खान ने गुलज़ार साहेब का सम्मान करते हुए मौसम फिल्म का हिस्सा ना होते हुए भी सिर्फ इस गाने के लिए शर्मीला टैगोर को डांस के स्टेप्स बताये और गाना पूरा हुआ  अपनी संजीदा फिल्मों से गुलजार साहेब ने जहां लोगों का मनोरंजन किया वही उन्हें सोचने पर भी मजबूर किया

गुलजार साहेब पर बिमल रॉय, बासु भट्टाचार्य और ऋषिकेश मुखर्जी जैसे निर्देशकों का मुकम्मल प्रभाव रहा है इन महान निर्देशकों ने ही "मिडिल पाथ " सिनेमा बनाया गुलज़ार ने थोक भाव में फिल्मे नहीं बनाई संख्या से ज्यादा उन्होंने गुणवत्ता का खयाल रखा व्यवसायिक सिनेमा में रहते अपनी फिल्मो को बचाये रखना निश्चय ही बड़ी उपलब्धि है यही कारण है की आज भी वो लगातार प्रासंगिक बने रहें हैं उनकी कोई फिल्म ऐसी नहीं जो गुमनामी के अंधेरे में खोयी हो इनकी फिल्मों में गंभीर बातों को सरल, मनोरंजक और दिल को छू लेने के अंदाज में पेश किया जाता है कि सभी को यह आसानी से समझ आ जाती है मौसम गुलजार की शिल्प कौशल और उनकी अनूठी कहानी कहने का एक उदाहरण है गुलज़ार साहेब की उत्कृष्ट कृति "मौसम "को आप जितना अधिक देखते हैं उतना ही आप इसे समझते हैं और आप फिल्म में किरदारों के साथ एक बंधन विकसित करना शुरू करते हैं गुलज़ार की मौसम एक किताब तरह महसूस होती है जिसे जितनी बार पढ़ो कुछ नयी बात समझ में आती है ...........और यही तो गुलज़ार साहेब की फिल्मो की विशेषता है.....
 
मौसम (1975)


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