Wednesday, December 27, 2017

मिर्जा गालिब (1954) ..........राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली पहली हिंदी फिल्म .....

मिर्जा गालिब (1954)
                                                   

आम खाने के शौकीन मिर्जा ग़ालिब का पूरा नाम 'मिर्जा असल-उल्लाह बेग खां ' था उनका जन्म 27 दिसंबर 1797 को मुगल शासक बहादुर शाह के शासनकाल के दौरान आगरा के एक सैन्य परिवार में हुआ था छोटी उम्र में ही ग़ालिब से पिता का इंतकाल हो गया था जिसके बाद उनके चाचा ने उन्हें पाला, लेकिन उनका साथ भी लंबे वक्त का नहीं रहा उनका सहारा भी जाता रहा बाद में उनकी परवरिश उनकी नाना-नानी ने की थी ग़ालिब का विवाह 13 साल की उम्र में 'उमराव बेगम 'से हो गया था शादी के बाद ही वह दिल्ली आए और उनकी पूरी जिंदगी यहीं बल्लीमारान की गली मीर कासिम जान की हवेली में बीती उन्होंने फारसी, उर्दू और अरबी भाषा की पढ़ाई की थी उनके लिखे शेरो में में उदासी सी दिखती है जो उनके उथलपुथल और त्रासदी से भरी जिंदगी से निकल कर आई है चाहे उनका वो कम उम्र में अनाथ होना हो, या फिर अपने सात नवजात बच्चों को खोना या भारत में मुगलों के हाथ से निकलती सत्ता से राजनीति में आई उथल-पुथल हो ..... उन्हें कभी नियमित माहवार नहीं मिली जब अंग्रेज़ो ने 'बहादुरशाह जफ़र' को अपनी हिरासत में लेकर जबरन गद्दी से उतार दिया तो उन्होंने भी वित्तीय कठिनाई झेली उनकी पेंशन बंद हो गई इन कठिनाइयों के बावजूद ग़ालिब ने अपनी परिस्थितियों को विवेक, बुद्धिमत्ता, जीवन के प्रति प्रेम से मोड़ दिया। उन्होंने पुरानी दिल्ली की बल्लीमारान की बेनूर अँधेरी-सी 'गली क़ासिम' की हवेली में अपने वफादार खिदमतकार 'कल्लन 'के साथ बड़े तंगहाली के आखरी दिन गुज़ारे उनकी उर्दू कविता और शायरी को उनके जीवनकाल में सराहना नहीं मिली, लेकिन आज उनकी विरासत विशेषकर उर्दू गजलों में उनकी श्रेष्ठता को काफी सराहा जाता है,सोहराब मोदी की फिल्म मिर्ज़ा ग़ालिब हालाँकि उनके पूरे जीवन काल का तो चित्रण नहीं करती लेकिन यह मिर्ज़ा ग़ालिब पर बनी फिल्मो में से सबसे श्रेष्ठ है
 


भारत भूषण  और निगार सुल्ताना
फिल्म की कहानी को 'सादात हसन मंटो ' ने आखिरी मुगल राजा,बहादुर शाह जफ़र के समय काल के दौरान प्रसिद्ध शायर मिर्जा गालिब के जीवन के एक प्रकरण के माध्यम से दर्शाया है मिर्ज़ा मुग़ल काल के आख़िरी शासक बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी शायर भी रहे थे फिल्म मे मिर्ज़ा ग़ालिब की पत्नी ( निगार सुल्ताना ) और प्रेमिका नवाब जान ( सुरैया ) के बीच के द्वंद्व को आधार बनाया गया है बहादुर शाह ज़फर के रूप में इफ्तिखार के अभिनय ने मिर्ज़ा ग़ालिब को चार चाँद लगा दिए थे 1954 में 'मिनर्वा मूवीटोन 'की फिल्म ‘मिर्जा गालिब’ राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली पहली हिंदी फिल्म थी इसके बाद राष्ट्रीय पुरस्कारों को कई वर्गों में बांटा गया इस फिल्म के लिए गजलों के बादशाह 'तलत महमूद' की मखमली और गायिका,अभिनेत्री 'सुरैया 'की मिठास भरी आवाजों में गाई गई गजलें और गीत बेहद मकबूल हुए भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी सुरैया की महानता के बारे में कहा था कि उन्होंने मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी को आवाज़ देकर उनकी आत्मा को अमर बना दिया।..... 'आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक.' ,' फिर मुझे दीदए तर याद आया।'., 'दिले नादां तुझे हुआ क्या है।'., 'मेरे बांके बलम कोतवाल' 'कहते हैं कि गालिब का है अंदाज-ए-बयां' .....गुलाम मोहम्मद के संगीत और शकील बदायूं के बेहतरीन गीत से सजी यह फिल्म बेहद कामयाब रही और इसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म और सर्वश्रेष्ठ संगीत के राष्ट्रीय पुरस्कार मिले दिल्ली के राष्ट्रपति भवन में फिल्म की एक विशेष स्क्रीनिंग भी की गई थी . ..राजिंदर सिंह बेदी के अर्थपूर्ण संवाद मुग़ल काल की याद दिलवाने में कामयाब रहे,लच्छू महाराज और बद्री प्रसाद द्वारा निर्देशित शानदार नृत्य फिल्म मिर्ज़ा ग़ालिब की जान है भारत भूषण ,सुरैया, निगार सुल्ताना ,दुर्गा खोटे मुराद,मुकरी,उल्हास,कुमकुम,इफ़्तेख़ार,रोशन, के आलावा चरित्र भूमिकाओं में बैज शर्मा ने अफीम खाने वाले एक अफीमची का शानदार किरदार निभाया है



जब एक बार सोहराब मोदी जी से किसी पत्रकार में पूछा की.... 'आप अपनी हर फिल्म में इतिहासिक पात्र खुद निभाते है क्या कारण है की आप ने अपनी ही फिल्म में ग़ालिब की भूमिका नहीं निभाई ' ? सोहराब मोदी ने हसंते हुए कहा ....."मेरी बुलंद आवाज़ 'पृथ्वी वल्लभ' और 'पोरस 'के लिए तो सही हो सकती है लेकिन मुलायम दिल 'असद-उल्लाह बेग ' के लिए नहीं क्योंकि वो इस तरह बात नहीं करते थे इसलिए मेरी आवाज़ मिर्ज़ा ग़ालिब के किरदार के साथ इंसाफ नहीं होगा इसी बात को देखते हुए मिर्ज़ा ग़ालिब का रोल मैंने नहीं किया "......सोहराब मोदी की यह साफगोई बताती है के उनके लिए फिल्म बनाना सिर्फ पैसा कमाने का जरिया भर नहीं था वो अपनी फिल्म के हर किरदार को खुद अपने हाथो से तराशते थे भारत भूषण के फिल्मी करियर में निर्माता-निर्देशक सोहराब मोदी की फिल्म मिर्जा गालिब का अहम स्थान है इस फिल्म में भारत भूषण ने शायर मिर्जा गालिब के किरदार को इतने सहज और असरदार ढंग से निभाया कि यह गुमां होने लगता है कि गालिब ही परदे पर उतर आए हों।


मिर्ज़ा ग़ालिब का अंत दुखद है अंत में चोहदवीन / नवाब जान ( सुरैया ) की मौत हो जाती है और ग़ालिब अकेला रह जाता है ,भारत भूषण और सुरैया के शानदार अभिनय से सजी मिर्जा ग़ालिब आज भी एक लोकप्रिय फिल्म है और मिर्जा ग़ालिब के दीवानो और कद्रदानों की भी आज कोई कमी नहीं आगरा, दिल्ली और कलकत्ता में अपनी ज़िन्दगी गुजारने वाले ग़ालिब को मुख्यतः उनकी उर्दू ग़ज़लों को लिए याद किया जाता है उन्होने अपने बारे में स्वयं लिखा था कि....'' दुनिया में बहुत से कवि-शायर ज़रूर हैं, लेकिन उनका लहजा सबसे निराला है ''
सोहराब मोदी के मिनर्वा मूवीटोन के बैनर तले बनी ' मिर्ज़ा ग़ालिब ' वास्तविक हरदिल अज़ीज़ शायर मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ “ ग़ालिब” को सच्ची श्रद्धांजलि है और उनके जीवन पर बनी सर्वश्रेष्ठ फिल्मो में से अव्वल मानी जाती है  जिसे सोहराब मोदी ने बड़े सुन्दर से बनाया है 

सुरैया और भारत भूषण
“ हैं और भी दुनिया में सुख़न्वर बहुत अच्छे
     कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़-ए बयां और ”
             













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