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पारसमणि (1963) |
बाबूभाई मिस्त्री की फिल्म
पारसमणि (1963) अकेली ऐसी फिल्म है जो फंतासी होकर भी याद की जाती है यह पहली फिल्म है, जिसमें पर्दे पर नजर आने वालों को किसी ने याद नहीं रखा लेकिन पर्दे के पीछे काम करने वालों को आज भी याद किया जाता है.....न तो नायक महिपाल याद रहते हैं और न ही नायिका गीतांजलि .....याद रहते हैं इसके सदाबहार गाने और बाबू भाई मिस्त्री का रचा गज़ब का तिस्लमी माया जाल ...
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महिपाल भंडारी पारसमणि क्व एक दृश्य में |
पारसमणि की कहानी काल्पनिक है ऐसी फिल्मों के लिए महिपाल भंडारी सही नायक माने जाते थे पारस (महिपाल) एक काल्पनिक राज्य के सेनापति ( जुगल किशोर ) का बेटा है जिसकों समुद्र में आये तूफान में उसके बाप ने खो दिया है जो एक गरीब ग्रामीण क़ो मिलता है वो इसकी परवरिश वो अपनी बेटी के साथ करता है जवान होने पर पारस एक निपुण तलवारबाज और गायक बनता है उसके गाने की ख्याति दूर दूर तक है एक दिन उसका सामना राजकुमारी (गीतांजलि) से होता है है और पारस उसके प्यार में पड़ जाता है महाराज (मनहर देसाई ) पारस को अपने महल में गाने के लिए बुलाता है और खुश हो उसे कुछ भी मांगने को कहता है पारस राजकुमारी का हाथ मांग लेता है महाराज क्रोधित हो जाता है और पारस को बंदी बनाने का हुक्म देता है पारस अपने दोस्त टीपू (मारुती राव ) के साथ फरार हो जाता है राजकुमारी पारस को शादी न होने की वजह बताती है एक अभिशाप के तहत अगर राजकुमारी पारस से शादी करेगी तो महाराज ( राजकुमारी के पिता ) उसी दिन मर जायेगे महाराज को सिर्फ पारसमणि से ही बचाया जा सकता है पारस अपने प्यार को पाने के लिए पारसमणि नामक एक दुर्लभ मणि की तलाश में निकल जाता जाता है जिसके बारे में कहाँ जाता है की पारसमणि के छूने से कभी भी बुढ़ापा नहीं आता पारस विभिन्न स्थानों से पारसमणि का सुराग प्राप्त करता है पारसमणि की तलाश में अनेक मायावी शक्तियों का सामना करते हुए एक भयानक तिस्लमी जंगल में पहुंचता है जहाँ उसका सामना मायानगरी की जादूगरनी ( जीवनकला ) से होता है जो पारस के रूप और यौवन से आकर्षित हो कर उसे कैद कर लेती है .......बस यही से शुरू होती है एक ऐसी जंग जो पारसमणि को हासिल कर के ही ख़त्म होती है इस लड़ाई में पारस की बहन रूपा (नलिनी चोंकर ) उसका साथ देती है अंत में पारस पारसमणि को प्राप्त करता है और महाराज को जीवन दान देकर राजकुमारी को अपना बना लेता है साथ ही उसे ये राज़ भी पता चलता है की वो इस राज्य के ही सेनापति का खोया बेटा है
बाबू भाई मिस्त्री के रचे बिना कम्प्यूटर ग्राफिक्स के हैरतअंगेज़ दृश्य इस ईस्टमैन कलर फिल्म की जान है फिल्म के केवल कुछ दृश्य ही आंशिक रंगीन है और पूरी फिल्म ब्लैक एन्ड वाइट है जब फिल्म अचानक ब्लैक एन्ड वाइट से रंगीन होती है तो हाल में बैठा दर्शक भी अपने आप को किसी जादुई दुनिया में महसूस करता है यही बाबू भाई मिस्त्री का वो माया जाल है जिसके लिए उन्हें आज भी याद किया जाता है महिपाल भंडारी ,गीतांजलि,मारुतीराव ,नलिनी चोंकर ,मनहर देसाई ,जुगल किशोर और अरुणा ईरानी, हेलेन ,जीवनकला ने पारसमणि में मुख्य भूमिका निभाई थी
एस.डी बर्मन, नौशाद, मदन मोहन, रोशन, कल्याणजी- आनंदजी, राहुलदेव बर्मन, हुस्नलाल-भगतराम आदि संगीतकारों के अरेंजर रहे लक्ष्मीकांत कुडाळकर और प्यारेलाल शर्मा ने इस फिल्म से फिल्म इंडस्ट्रीज़ में जमे जमाए संगीतकारों को चुनौती पेश की और आने वाले कई सालों तक वे हिंदी के सबसे लोकप्रिय संगीतकार रहे 'पारसमणि’ के गीत लिखे थे फारुक कैसर, असद भोपाली और इंदीवर ने संगीतमय फिल्म पारसमणि की सफलता के बाद इंदीवर शोहरत की बुंलदियो पर जा पहुंचे पारसमणि का हर गीत लोकप्रिय हुआ उस समय ‘बिनाका गीतमाला में कभी भी छोटी फिल्मों के, खासतौर पर स्टंट फिल्मों के गीतों के लिए दरवाजे बंद थे, लेकिन ‘पारसमणि’ के गीतों ने वह मिथक तोड़ दिए सभी गीत खूब बजे
रोशन तुम्ही से दुनिया ( रफी ), वो जब याद आए ( रफी-लता ), चोरी- चोरी जो तुमसे मिली ( लता-मुकेश ), मेरे दिल में हल्की सी ( लता ) ने हलचल मचा दी, लेकिन फिल्म का सरताज गीत था
‘हंसता हुआ नूरानी चेहरा’ ( लता-कमल बारोट ) इसका ऑर्केस्ट्रेशन जबर्दस्त है आज की भाषा में कहें तो गजब का एनर्जी लेवल है। यह गीत बिनाका गीतमाला की पहली पायदान पर कई हफ्ते तक बजता रहा हेलन पर फिल्माए के गाने
"ऊई माँ ऊई माँ ये क्या हो गया " का भी जबाब नहीं लक्ष्मी कान्त-प्यारे लाल ने कई साल तक कल्यानजी आन्नद जी के सहायक के रूप में कई फिल्मों में संगीत दिया "छैला बाबू" लक्ष्मी कान्त-प्यारे लाल की पहली फिल्म थी पर यह 7 रील बनने के बाद बंद हो गयी थी लेकिन 5 अप्रैल ,1963 में रिलीज़ हुई फटेंसी फिल्म 'पारस मणी 'से उनके नाम का डंका बज गया किसी संगीतकार की पहली ही फिल्म हिट हो, इसका बिरला नमूना है यह फिल्म पारसमणि ।.. ... जब पारसमणि' पिक्चर के कास्ट छपवाये गए तो उसमें संगीतकार का नाम लिखा गया था.... 'प्यारेलाल - लक्ष्मीकांत' यह लिखा था बाबूभाई मिस्त्री ने लक्ष्मीजी ने तो कुछ नहीं कहा लेकिन प्यारेलाल जी ने बाबू भाई से कहा ...
. मैं लक्ष्मीकांत की बहुत इज़्ज़त करता हूँ, और वो तीन साल बड़े भी हैं,इसलिए इसे आप 'लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल' कर दीजिए।" तो इस तरह से बनी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल' की जोड़ी।.......पारसमणि' फिल्म के संगीत ने लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल को आसमान पर पहुंचा दिया पारसमणि’ को वे कभी नहीं भूले लक्ष्मीजी ने तो अपने बंगले का नाम भी 'पारसमणि' रखा था।" जो अब पारसमणि बिल्डिंग में तब्दील हो चुका है
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लक्ष्मी कांत प्यारेलाल के साथ रफ़ी जी |
यूँ तो इस तरह की फंतासी फिल्मे हमेशा C ग्रेड की केटेगरी में रखी जाती यही है लेकिन पारसमणि एक फंतासी फिल्म होते हुए भी सुपर हिट रही तो उसका कारण इसका सुपरहिट संगीत तो था ही लेकिन मुख्य कारण बाबू भाई के रचे स्पेशल इफेक्ट थे जिसके लिए वो हॉलीवुड तक जाने जाते थे कैमरे के साथ उनके प्रयोग कला की एक नई परिभाषा रच देते थे मिस्त्री के कामों ने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलाई। उनके प्रशंसकों में प्रसिद्ध रूसी निर्देशक वेस्वोलोद पुदोव्किन भी शामिल है। बाबूभाई मिस्त्री को काले और अंधेरे दृश्यपटल के साथ काले धागों के अनोखे ट्रिक भरे प्रयोगों में महारत हासिल थी एक शरीर की आत्मा को का दूसरे शरीर में रूपांतरित होना ,और डबल एक्सपोजर जैसे कई इफेक्टकस ,जहरीले साँपों के सिर पर मानव शीश को उगते हुए दिखाना ,आसमान से फरिश्तों का धरती को निहारना ,परियो का पुष्प वर्षा करना ,जिन्न और हनुमान को बादलो के बीच में से उड़ाना ये सब देख दर्शक नतमस्तक हो जाते थे बाबू भाई के कैमरे से अब सब कुछ संभव था इच्छाधारी नागिन अपना रूप बदल सकती थी , शीशमहल उड़ सकते थे, जादुई कालीन हवा में हिचकोले खाते हुए उड़ता था देवताओं, राजा महाराजाओं और दानवों की आंखों से एक साथ चिंगारी और लावा फूट सकता था उनके अस्त्र और शस्त्र भयंकर अग्निवर्षा कर भस्म सकते थे , घुप्प अंधेरे सिनेमाघरों में दर्शक हतप्रभ हो कर आँखे फाड़ कर देखता रह जाता था पौराणिक कथाओं को पर्दे पर चरितार्थ होते देखना किसी रहस्य से कम नहीं था क्योंकि उसकी बचपन में सुनी कथाओं-परीकथाओं की कल्पनाएं आंखों के सामने साकार हो रही थीं .यह सब देख लोग दांतों तले अंगुलिया दबा लेते यह सब कैमेरामैन और बाबू भाई मिस्री के स्पेशल इफेक्टंस का प्रभाव था इस मायावी दुनिया को सिर्फ सफ़ेद और काले धागे के माध्यम से ही परदे पर साकार कर देते थे जिसका आज के डिजिटल युग में भी कोई सानी नहीं कैमरे के साथ उनके प्रयोग कला की एक नई परिभाषा रच देते थे सिनेमा में उनके योगदान और नाम की चर्चा फॉक्स स्टूडियोज के रिकार्डो में भी दर्ज है
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बाबूभाई मिस्त्री |
पारसमणि बाबूभाई मिस्त्री की प्रसिद्ध आलोचनात्मक फिल्मों में एक थी जिसे प्यार, बदले और शान-ओ-शौकत की एक भव्य परीकथा माना जाता है आम तौर पर फंतासी फिल्मो को सी ग्रेड की फिल्मे माना जाता है और गंभीर सिनेमा का शौकीन दर्शक वर्ग ऐसी फिल्मे देखने के लिए सिनेमा का रुख कम ही करता है लेकिन पारसमणि ने ये मिथक भी तोड़ दिया पारसमणि (1963) बॉक्स ऑफिस पर सिर्फ संगीत औरबाबूभाई मिस्त्री के रचे जादुई संसार के कारण सफल रही
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