Saturday, December 9, 2017

सेहरा (1963 ) .....व्ही शांता राम की ऐसी फिल्म जिसकी कामयाबी का सेहरा संगीतकार "रामलाल हीरापन्ना "के सर बंधा

सेहरा (1963 )

यकीन करना मुश्किल है की हिंदी फिल्म उद्योग जिस समय अपने विकास के शुरूआती दौर में था उसी समय एक ऐसा फिल्मकार भी था जिसने कैमरे, पटकथा, अभिनय और तकनीक में तमाम प्रयोग कर कई बेमिसाल फिल्में बनाई यह फिल्मकार थे व्ही  शांता राम .......करीब छह दशक लंबे अपने फिल्मी सफर में व्ही  शांता राम ने हिंदी व मराठी भाषा में कई सामाजिक एवं उद्देश्यपूरक फिल्में बनाईं और समाज में चली आ रही कुरीतियों पर चोट की उनकी बनाई अनेक फिल्मों में धार्मिकता और सामाजिकता के ही दर्शन ही नहीं होते चुटीलापन, गंभीरता, हास्य-व्यंग्य, रस-रंग और कला के विभिन्न आयाम भी झलकते हैं बहुरंगी छटाओं, छवियों और कहानियों वाली उनकी फिल्मों ने भारतीय सिनेमा को सदाबहार दृष्टियां दीं तकनीक एवं कथावस्तु के स्तर पर हमेशा कुछ नया करने का प्रयास किया इस कारण आज भी हिन्दी फिल्मों में पहली बार मूविंग शॉट फिल्माने का श्रेय भी व्ही शांता राम को जाता है उन्होंने बच्चों के लिए रानी साहिबा नाम से 1930 में एक फिल्म बनाई। उन्होंने चंद्रसेना (1935) में पहली बार ट्रॉली का प्रयोग किया उन्होंने 1933 में पहली रंगीन फ़िल्म 'सैरंध्री' बनाई लेकिन वो सफल नहीं रहे भारत में एनिमेशन का इस्तेमाल करने वाले भी वह पहले फ़िल्मकार थे वर्ष 1935 में प्रदर्शित हुई फ़िल्म 'जंबू काका' (1935) में उन्होंने एनिमेशन का इस्तेमाल किया था उनकी फ़िल्म डा.कोटनिस की 'अमर कहानी' (1946) विदेश में दिखाई जाने वाली पहली भारतीय फ़िल्म थी


व्ही शांता राम
व्ही शांता राम ने प्रभात फ़िल्म को छोड़कर बाद में राजकमल कला मंदिर का निर्माण किया और कई उम्दा फिल्में बनाईं और उन्होंने मनोरंजन के साथ संदेश को हमेशा प्राथमिकता दी दुश्मनी भुला कर प्यार और मोहब्बत का सन्देश देती सेहरा (1963 ) उनकी एक उत्कृष्ट रोमांटिक ,ड्रामा फिल्म है राजस्थान की सुन्दर पृष्ठभूमि पर बनी सेहरा की कहानी दो कबीलो की खानदानी दुश्मनी पर आधारित है ये दुश्मनी और हिंसक हो जाती है जब इन कट्टर दुश्मन कबीलो के युवा प्रेमी आपस में प्यार कर बैठते है ......शेरपाल (उल्हास) और तेलाब (मनमोहन कृष्ण ) दो विरोधी कबीलो के समूहों के सरदार हैं शेरपाल ने अपनी बेटी अंगारा (संध्या) की परवरिश एक लड़के की तरह की है वो पहनावा भी लड़को की तरह पहनती है और हथियार चलाने में उस का कोई सानी नहीं  जूही (मुमताज़ )उसकी विश्वसनीय सहेली है उसके पिता ने सम्मान और गरिमा की रक्षा के लिए अंगारा को अपने समुदाय को सौंप दिया है


एम राजन और संध्या फिल्म सेहरा के एक दृश्य में
एक प्रतियोगिता में अंगारा विरोधी कबीले के सरदार तेलाब के बेटे विक्रम ( प्रशांत ) को पराजित करती है विक्रम उसे लड़का समझता है लेकिन जब उसे पता चलता है की अंगारा एक लड़की है तो उस प्यार करने लगता है...लेकिन दोनों एक पुरानी खानदानी दुश्मनी के विवाद के कारण शादी नहीं कर सकते कहानी में मोड़ तब आता है जब अंगारा के पिता एक खूनी संघर्ष में मारे जाते है और उसका अपना कबीला उसके लड़की होने पर पिता द्वारा सौंपी गई सत्ता पर उंगली उठाता है अंगारा की मां ( ललिता पवार ) अब अंगारा से एक लड़की की तरह व्यवहार करने को कहती है और उसे लड़के वाली पोशाके ही पहनने को कहती अंगारा अपने पिता की दी गई योद्धा की पोशाक छोड़ देती है और शर्म और अनुग्रह के साथ एक पूर्ण लड़की की तरह जीने लगती है
अंगारा पर गमो का पहाड़ तब टूट पड़ता है जब उसके कबीले का एक युवक मंगल ( एम.राजन ) ये दावा करता है की वो उसका मंगेतर है और उसके पिता मरने से पहले उसकी शादी तय कर गए थे अंगारा इस शादी से इंकार कर देती है लेकिन कबीले का समुदाय फैसला करता है कि अंगारा को अपने पिता के शब्दों की कीमत साबित करने के लिए मंगल से विवाह करना चाहिए अंगारा भाग्य की नियति मान और अपनी मोहब्बत विक्रम को भूल कर मंगल से शादी कर लेती है  लेकिन घटनाये एक हिंसक मोड़ लेना शुरू करती हैं मंगल शादी के बाद उसे बुरी तरह प्रताड़ित करता है अंगारा को बेहद अपमान सहना पड़ता है उसे तपते उजाड़ रेगिस्तान में अपने वजूद की अग्नि परीक्षा भी देनी पड़ती है व्ही शांताराम के बारे में कहा जाता है की है उनकी फिल्मों में अभिनय की प्राथमिकता सबसे अंत में होती है..........फिल्म का कलाइमेक्स दुखद है जब तपते रेगिस्तान के एक छोर पर उसका प्रेमी विक्रम प्यासा और मरणासन हालत में मिलता है और अंगारा से पानी मांगता है वह उसे अपने पति की इच्छा के खिलाफ पानी देने का प्रयास करती है लेकिन मंगल अंगारा को गोली मार देता है अंगारा और विक्रम एक साथ मर जाते हैं और रेगिस्तान के कबीलो में कही जाने वाली कहानियो में हमेशा के लिए दफ़न हो जाते है


मुमताज़ और संध्या फिल्म सेहरा के एक दृश्य में

सेहरा के संगीतकार रामलाल हीरा पन्ना थे रामलाल हीरा लाल के बारे में एक बात मशहूर थी की उनके गाने एक ही टेक में रिकॉर्ड हो जाते थे कहा जाता है कि वे एक कान में हीरा तथा दूसरे कान में पन्ना पहनते थे इस कारण उनका नाम रामलाल हीरापन्ना पड़ गया था वो मुख्यता अपनी बांसुरी और शेहनाई के कारण मशहूर थे शांताराम फिल्म नवरंग के एक गाने ."तू छिपी है कहाँ "..गाने में शेहनाई वादक राम लाल की शहनाई से प्रभावित थे इस का फल राम लाल मिला व्ही शांताराम जी ने उन्हें अपनी अगली फिल्म "सेहरा " का संगीतकार बना दिया लेकिन सेहरा का संगीतकार बनाने से पहले व्ही शांता राम ने एक महीने तक उनकी बनाई धुनें सुनी ...सेहरा के सभी गीतों के शब्द उनकी बनाई धुनों पर बाद में लिखे गए  "पंख होते तो उड़ आती रे " के कारण रामलाल अमर हो गए राग भूपाली के ऊँचे सुरो पर आधारित इस गीत को लता जी के सर्वश्रेष्ठ गीतों में एक माना जाता है गीत का आरम्भ ही अलाप के अदभुत नियंत्रण से होता है बीच बीच में जल तरंग का सुन्दर प्रयोग राम लाल ने किया है जहाँ राग देस पर आधारित "तक़दीर का फसाना जा कर किसे सुनाये " मन को विरह से भर देता है वही दूसरी और बीकानेर - जैसलमेर के बालू टीलों पर फिल्माया गया गीत "तुम तो प्यार हो सजना " एक बेहद रुमानियत भरा गीत है यह गीत राग 'मारू बिहाग', जो 'बिहाग' का एक परवर्ती स्वरुप है को आधार बनाकर स्वरबद्ध किया गया है यह गाना मारू बिहाग पर रचे हुए गीतों में सर्वोत्कृष्ट है लेकिन इसकी सबसे बड़ी विशिष्टता है इसका फिल्मांकन। गाना ज़्यादातर लॉन्ग शॉट में फिल्माया गया है जिसमे नायक-नायिका मरुस्थल में कल्लोल करते दिखाई देते हैं। क्लोज अप शॉट्स कम हैं जिनमे चेहरे के भाव ठीक से कैप्चर हुए हैं। संध्या रॉय एक कुशल नृत्यांगना थीं और उन्होंने कुछ अच्छी भंगिमायें प्रस्तुत की हैं। लेकिन सबसे ज़बरदस्त बात है फोटोग्राफी, जो मरुस्थल की चांदनी रात में परछाइयों तक को पूरी खूबसूरती से कैप्चर करती है। यह एक निर्देशक के रूप में शांताराम की डिटेल्स पर पकड़ तो दर्शाता ही है, सिनेमाटोग्राफर की दक्षता को भी प्रदर्शित करता है। इस फिल्म के लिए सिनेमैटोग्राफर कृष्णराव वशिरडे को फिल्मफेयर पुरस्कार मिला था। बाकि लताजी और रफ़ी साहब की गायकी की गुणवत्ता को शब्दों में बांधना सूरज को चिराग दिखाने जैसा होगा।कम्पोजीशन पूरी तरह रोमांस के अनुरूप हैं और हसरत जयपुरी के शब्द भी पूरी तरह उपयुक्त हैं।


इसके आलावा हसरत जयपुरी के लिखे मस्त नजर की कटार ,जा रे जा तुझे हम जान गए ,उजड़ गए हम मोहब्बत में, न घर तेरा न घर मेरा , हम है नशे में लता रफ़ी आशा और हेमंत कुमार की आवाज़ में अच्छे है वाकई ही आप सेहरा को इस दशक की एक बेहतरीन संगीतमय उपलब्धि कर सकते है इस फिल्म में जितने अच्छे गीत थे, उससे कहीं ज़्यादा खूबसूरत नृत्य सीक्वेंस थे फिल्म का संगीत फिल्म के रिलीज़ होने से पहले ही हिट हो गया था फिल्म में कुल नौ गाने थे और सभी कर्णप्रिय थे। 

सेहरा ने व्ही शांता राम के निर्देशन में एक और सुनहरा अध्याय जोड़ दिया ये व्ही शांता राम की पारखी नज़र का ही कमाल था कि उन्होने स्टूडियो-दर स्टूडियो नकली जेवरों की सप्लाई करने वाले रवि कपूर नामक एक लड़के को हिंदी सिनेमा का जम्पिंग जैक बना दिया जीतेन्द्र के पिता ज्वेलरी के व्यवसाय के अलावा फिल्मों में प्रयुक्त होनेवाले नकली जेवरों की सप्लाई भी किया करते थे इसी सिलसिले में जीतेन्द्र विभिन्न स्टूडियोज़ के चक्कर लगाया करते थ यहीं से उन्हें फिल्मों में काम करने का चस्का लगा एक दिन वे फिल्मालय स्टूडियो पहुंचे, जहाँ वी. शांताराम की फिल्म ‘नवरंग’ की शूटिंग चल रही थी व्ही शांता राम की नज़र जब जीतेन्द्र पर पड़ी, तो उन्होंने जीतेन्द्र से उनकी पढ़ाई के बारे में पूछ-ताछ की बातचीत के दौरान जीतेन्द्र ने व्ही शांता राम से फिल्मों में काम करने की अपनी इच्छा को ज़ाहिर किया व्ही शांता राम जीतेन्द्र के पिता के मित्र थे इसलिए ना कहकर उन्हें नाराज़ नहीं करना चाहते थे उनकी इच्छा को देखते हुए व्ही शांता राम ने जीतेन्द्र को सेहरा में एक छोटी सी भूमिका दे दी जिसमें जीतेंद्र को तब के दिग्गज अभिनेता उल्हास (शेरपाल) के साथ एक सीन में यह संवाद बोलना था....  'सरदार सरदार, दुश्मन बेदर्दी से गोलियां बरसाता हुआ आ रहा है,'........ हालाँकि ये एक छोटा सा संवाद था लेकिन दिलचस्प बात यह रही कि अपनी फिल्मी ज़िंदगी का यह पहला संवाद बोलने के लिए जब जीतेंद्र ने कैमरे का सामना किया तो वह बुरी तरह हकलाने लगे ,उनकी हालत ख़राब हो गई बड़ी मुश्किल से करीब 20 टेक के बाद जीतेंद्र वह संवाद बोलने में सफल हुए 
 
प्रशांत ,संध्या ,उल्लास, मनमोहन कृष्ण ,मुमताज़, एम् राजन ,ललिता पंवार ,ललिता कुमारी ,बाबूराव पेंडरकर ,जीतेन्द्र फिल्म के मुख्य कलाकार है. लेकिन अभिनय के लिहाज़ से सिर्फ उल्लास ,मनमोहन कृष्ण ही प्रभावित करते है एम.राजन ने अपने वही जाने पहचाने खलनायकी वाले तेवर दोहराये है जिसके लिए वो जाने जाते है संध्या कई दृश्यों में ओवर एक्टिंग की शिकार बनी संक्षिप्त से रोल में मुमताज़ सुन्दर लगी है "पंख होते तो उड़ आती रे " गाने में संध्या के साथ उसका नृत्य बेहतर है जबकि उस समय मुमताज़ फिल्मो में स्थान बनाने के लिए संघर्ष कर रही थी हालाँकि शांताराम उन्हें अपनी ही फिल्म स्त्री (1961 ) में मौका दे चुके थे

मनमोहन कृष्ण ,एम् राजन,संध्या ,उल्हास  
फिल्म सेहरा में बड़े चटक रंगो के साथ बेजान रेगिस्तान की खूबसूरती को कृष्णा राव वशिरदे ने फिल्माया बेहतर छायांकन के लिए फिल्म फेयर अवार्ड भी उन्हें मिला उन्होंने सर्वश्रेष्ठ रंगीन छायांकन के लिए ए.जे पटेल पुरस्कार भी जीता,जहां उन्हें नकद पुरस्कार के रूप में 5000 प्राप्त हुआ लेकिन व्ही शांता राम नवरंग जैसी कामयाबी को फिर नहीं दोहरा पाए सेहरा एक औसत बिजनेस करने वाली फिल्म साबित हुई समीक्षकों ने फिल्म को सराहा लेकिन दर्शको का जो प्यार इस फिल्म को मिलाना चाहिए था वो नहीं मिला....हाँ रामलाल का संगीत हिट रहा और इस कामयाबी का सेहरा वो अपने सर बंधवाने में कामयाब रहे संगीतकार रामलाल ने व्ही शांताराम की ही दो फिल्मों  'सेहरा' और 'गीत गया पत्थरों ने' के लिए संगीत दिया और फिर गुमनामी में खो गए ये कुछ अजीब लगता है कि करियर की इतनी शानदार शुरुआत के बाद इतने प्रतिभा सम्पन्न संगीतकार को काम नहीं मिला ? इसके कारणों का तो अधिक पता नहीं चलता। लेकिन कुछ लोगों का मत है कि उन्हें अपनी फिल्म में ब्रेक देते समय शांताराम ने उनसे कोई अनुबंध साइन कराया था जिसके कारण वह अनुबंध की अवधि में और किसी के साथ काम नहीं कर सकते थे और कुछ अनबन हो जाने के कारण खुद शांताराम ने दो फिल्मों के बाद उन्हें नहीं लिया। और इस तरह रामलाल प्रतिभा के बावजूद पटल से गायब हो गए। इससे यही लगता है कि कामयाबी के लिए सिर्फ प्रतिभा पर्याप्त नहीं। भाग्य की बड़ी भूमिका होती है

                                                                
                                           

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