Sunday, July 22, 2018

मुकेश .......ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना


' मुकेश चंद माथुर ' 
मशहूर गायक,अभिनेता मुकेश का असली नाम 'मुकेश चंद माथुर ' था मुकेश चंद माथुर का जन्म 22 जुलाई 1923 को हुआ था अपने पिता लाला जोरावर चंद माथुर और माँ चाँद रानी की दस संतानों में मुकेश चंद माथुर सातवें नंबर पर थे.उनके पिता लाला जोरावर चंद माथुर इंजीनियर थे और वह चाहते थे कि मुकेश उनके नक्शे कदम पर चलें लेकिन वह अपने जमाने के प्रसिद्ध गायक अभिनेता 'कुंदनलाल सहगल' के प्रशंसक थे और उन्हीं की तरह गायक अभिनेता बनने का ख्वाब देखा करते थे दिल्ली के मंदिर मार्ग स्थित एम बी स्कूल ( अब एन पी बॉय्ज़ सीनियर सेकेंड्री स्कूल ) से उन्होंने मैट्रिक किया था दिलचस्प बात यह है कि संगीतकार रोशन भी इन्हीं के साथ पढ़ते थे  मुकेश ने दसवीं तक पढ़ाई करने के बाद स्कूल छोड़ दिया और दिल्ली लोक निर्माण विभाग में सहायक सर्वेयर की नौकरी कर ली जहां उन्होंने सात महीने तक काम किया मुकेश की आवाज़ बहुत खूबसूरत थी उनके एक दूर के रिश्तेदार अभिनेता 'मोतीलाल' ने तब पहचाना जब उन्होंने उसे अपने बहन की शादी में गाते हुए सुना। मुकेश जी की बहन सुंदर प्यारी जी का विवाह था इन बहन के ससुर के चचेरे भाई के नाते फ़िल्म अभिनेता मोती लाल भी बारात में आए थे मोतीलाल अपने दोस्त फ़िल्म निर्माता और अभिनेता तारा हरीश को भी साथ लाये थे उस समय फेरों में बहुत समय लगता था और जब तक बारात पंडाल में प्रवेश नहीं कराती थी जब तक दूल्हे का सेहरा नहीं गया जाता था इसलिए बारातियों का मनोरंजन करने के लिए मुकेश को खड़ा कर दिया गया उनके गाने सुन अभिनेता मोती लाल और तारा हरीश बहुत प्रभावित हुए इस दौरान मुकेश जी मैट्रिक करके दिल्ली में ही सीपीडब्लूडी में सर्वेयर की नौकरी करने लगे लेकिन अभी सात-आठ महीने बीते थे कि मोती लाल का तार आ गया कि मुंबई आ जाओ मुकेश वह तार देख बहुत ख़ुश हुए लेकिन पिताजी को यह सब पसंद नहीं था लेकिन मुकेश जी ने ज़िद करके जैसे तैसे पिता को मना लिया.और नौकरी छोड़कर अक्तूबर 1939 में वह मुंबई चले गए 


मोतीलाल उन्हें बम्बई ले गये और अपने घर में रखा यही नहीं उन्हें अपने साथ रखकर 'पंडित जगन्नाथ प्रसाद' से संगीत सिखाने का भी इंतजाम कर दिया ये वो दौर हुआ करता था जब 'के.एल सहगल ' की तूती बोलती थी। इस दौरान मुकेश को एक हिन्दी फ़िल्म 'निर्दोष' (1941) में मुख्य कलाकार का रोल मिला। लेकिन फिल्म टिकट खिड़की पर बुरी तरह से नकार दी गयी पार्श्व गायक के तौर पर उन्हें अपना पहला काम 1945 में फ़िल्म 'पहली नज़र ' में मिला। जिसमें अदाकारी मोतीलाल ने की लेकिन मुकेश पर तो के.एल. सहगल सवार थे और वो उनकी आवाज़ में ही गा रहे थे  ''दिल जलता है तो जलने दे '' गाना अगर आप सुने तो आप को इस बात का एहसास भी होगा इस गीत में मुकेश के आदर्श गायक के.एल सहगल के प्रभाव का असर साफ़-साफ़ नज़र आता है। मोती लाल जी ने उन्हें के.एल. सहगल की आवाज़ से बाहर आने को कहा ......पहली नजर' में अनिल विश्वास के संगीत निर्देशन में 'दिल जलता है तो जलने दे' गीत के बाद मुकेश कुछ हद तक अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो गए लेकिन मुकेश ने इस गीत को सहगल की शैली में ही गाया था सहगल ने जब यह गीत सुना तो उन्होंने कहा, "अजीब बात है, मुझे याद नहीं आता कि मैंने कभी यह गीत गाया है." इसी गीत को सुनने के बाद सहगल ने मुकेश को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था......के.एल. सहगल की आवाज़ में गाने वाले मुकेश ने पहली बार 1949 में फ़िल्म 'अंदाज़' से अपनी आवाज़ को अपना 'अंदाज़' दिया। उसके बाद तो मुकेश की आवाज़ हर गली हर नुक्कड़ और हर चौराहे पर गूंजने लगी। लोग अब उनकी आवाज को पहचानने लगे थे लंबे संघर्ष के बाद ही उनके गायन को सफलता मिली.

लता दीदी के साथ गायक मुकेश 
मुकेश के दिल के अरमान हीरो बनने के थे और यही वजह है कि गायकी में कामयाब होने के बावजूद भी वह अदाकारी करने के इच्छुक थे। पार्श्व गायक मुकेश को फ़िल्म इंडस्ट्री में अपना मकाम हासिल कर लेने के बाद, कुछ नया करने की चाह जगी और इसलिए इन्होंने फ़िल्म निर्माता (प्रोड्यूसर) बन गये। साल 1951 में फ़िल्म ‘मल्हार’ और 1956 में ‘अनुराग’ बनाई  अभिनय का शौक बचपन से होने के कारण ‘माशूका’ और ‘अनुराग’ में बतौर हीरो भी आये। लेकिन बॉक्स ऑफिस पर ये दोनों फ़िल्में फ्लॉप रहीं। कहते हैं कि इस दौर में मुकेश आर्थिक तंगी से जूझ रहे थे। बतौर अभिनेता-निर्माता मुकेश को सफलता नहीं मिली। गलतियों से सबक लेते हुए फिर से सुरों की महफिल में लौट आये। 50 के दशक के आखिरी सालों में मुकेश फिर पार्श्व गायन के शिखर पर पहुँच गये।.....  यहूदी, मधुमती, ( 1958)  अनाड़ी (1959 ) जैसी फ़िल्मों ने उनकी गायकी को एक नयी पहचान दी मुकेश यहूदी फ़िल्म के गाने में अपनी आवाज़ देकर फिर से फ़िल्मी दुनिया पर छा गए और फिर ‘जिस देश में गंगा बहती है(1960) के गाने के लिए वे फ़िल्मफेयर के लिए नामकित हुए। 'प्यार छुपा है इतना इस दिल में, जितने सागर में मोती' ( सरस्वतीचंद्र -(1968 ) ,और 'ड़म ड़म ड़िगा ड़िगा' (छलिया-1960 ) जैसे गाने संगीत प्रेमियों के ज़बान पर चलते रहते थे। इन्हें गीतों ने मुकेश को प्रसिद्धि की ऊँचाइयों पर पहुँचा दिया। उन्होंने अपनी गायन प्रतिभा को निखारने के लिए बहुत परिश्रम किया


दर्द भरे नगमों के बेताज बादशाह मुकेश के गाए गीतों में जहां संवेदनशीलता दिखाई देती है वहीं निजी ज़िंदगी में भी वह बेहद संवेदनशील इंसान थे  और दूसरों के दुख-दर्द को अपना समझकर उसे दूर करने का प्रयास करते थे। .......एक बार एक लड़की बीमार हो गई। उसने अपनी मां से कहा कि....''अगर मुकेश उन्हें कोई गाना गाकर सुनाएं तो वह ठीक जाएगी  " मां ने जवाब दिया कि ...''मुकेश बहुत बड़े गायक हैं, भला उनके पास तुम्हारे लिए कहां समय है ? अगर वह आते भी हैं तो इसके लिए काफ़ी पैसे लेंगे।'' तब उसके डॉक्टर ने मुकेश को उस लड़की की बीमारी के बारे में बताया। मुकेश तुरंत लड़की से मिलने अस्पताल गए और उसे गाना गाकर सुनाया। और इसके लिए उन्होंने कोई पैसा भी नहीं लिया। लड़की को खुश देखकर मुकेश ने कहा ....“यह लड़की जितनी खुश है उससे ज्यादा खुशी मुझे मिली है। 1946 में मुकेश की मुलाकात एक गुजराती लड़की से हुई। नाम था बची बेन ( सरल मुकेश )।......सरल से मिलते ही मुकेश उनके प्रेम में डूब गए। मुकेश दोनों परिवारों के तमाम बंधनों की परवाह न करते हुए अपने जन्मदिन 22 जुलाई 1946 को सरल के साथ शादी के अटूट बंधन में बंध गए। यहां एक बार फिर मोतीलाल ने उनका साथ देते हुए अपने तीन अन्य साथियों के साथ एक मंदिर में शादी की सारी रस्में पूरी कराई। मुकेश जी के एक बेटा नितिन मुकेश और रीटा और नलिनी दो बेटिया है सरल मुकेश ने मुकेश की जीवन संगनी बन कर हर कदम पर उनका साथ दिया

महेंद्र कपूर और मन्ना डे के साथ मुकेश 
साल 1974 में फ़िल्म' रजनीगंधा 'के गाने के लिए मुकेश को राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार दिया गया। विनोद मेहरा और फ़िरोज़ ख़ान जैसे नये अभिनेताओं के लिए भी इन्होंने गाने गाये। 70 के दशक में भी इन्होंने अनेक सुपरहिट गाने दिये जैसे फ़िल्म 'धरम करम 'का 'एक दिन बिक जाएगा। ' फ़िल्म आनंद और अमर अकबर एंथनी की वो बेहतरीन नगमें। ......साल 1976 में यश चोपड़ा की फ़िल्म 'कभी कभी 'के शीर्षक गीत के लिए मुकेश को अपने करियर का चौथा फ़िल्मफेयर पुरस्कार मिला और इस गाने ने उनके करियर में फिर से एक नयी जान फूँक दी। मुकेश के गायन में शामिल यह सहजता ओढ़ी हुई नहीं थी यह उनके व्यवहार में भी शामिल थी एक मशहूर रेडियो प्रोग्राम में मुकेश को याद करते हुए गायक 'महेंद्र कपूर ' ने उनसे जुड़े कुछ किस्से सुनाए थे. ....पहला किस्सा कुछ यूं था कि महेंद्र कपूर को उनके गीत ‘नीले गगन के तले’- ( हमराज़ (1967 ) के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार मिला तो किसी और गायक ने उन्हें इस बात की बधाई तक नहीं दी जबकि मुकेश बधाई देने खुद उनके घर पहुंचे थे मुकेश ऐसा तब कर रहे थे जब महेंद्र कपूर उनसे सालों जूनियर थे इसी रेडियो प्रोग्राम में महेंद्र कपूर ने मुकेश से जुड़ा एक और किस्सा साझा किया था....... एक बार उनके बेटे के स्कूल प्रिंसिपल ने उनसे अनुरोध किया कि वे स्कूल के एक कार्यक्रम में मुकेश को बुलवाना चाहते हैं और यदि महेंद्र कपूर चाहें तो यह हो सकता है महेंद्र इसके तैयार हो गए उन्होंने मुकेश से कार्यक्रम में आने के लिए बात की और साथ ही यह भी पूछा कि... वे इसके लिए कितने पैसे लेंगे? कार्यक्रम में आने पर मुकेश ने सहमति जता दी और पैसों की बात पर कहा....‘मैं तीन हजार लेता हूं.’ ....इसके बाद मुकेश उस कार्यक्रम में गए गाना गाया और मजेदार बात यह रही कि बिना रुपये लिए ही वापस आ गए बकौल महेंद्र अगले दिन जब उन्होंने बताया कि कल बच्चों के साथ बहुत मजा आया तब मैंने पूछा कि ...'आपने रुपये तो ले लिए थे न ?....'. तो उन्होंने आश्चर्य जताते हुए पूछा ..'कैसे रुपये?'.... मैंने कहा कि आपने जो कहा था कि तीन हजार रुपये.? ........इस पर वे बोले कि मैंने कहा था कि....' तीन हजार लेता हूं पर यह नहीं कहा था कि "तीन हजार लूंगा." ....‘मुकेश जी ने महेंद्र कपूर से कहा कि कल को अगर नितिन ( मुकेश के पुत्र नितिन मुकेश ) तुम्हें अपने स्कूल में बुलाएगा तो क्या तुम उसके लिए पैसे लोगे?’ ......मुकेश की यही सहजता थी जो उनके लिए जूनियर-सीनियर का भेद पैदा नहीं होने देती थी इसका एक और उदाहरण ये है कि लता मंगेशकर फिल्म उद्योग में भी उनसे जूनियर थी और उम्र में भी लेकिन मुकेश उन्हें हमेशा " दीदी "कहा करते थे मुकेश अपने काम के प्रति इतने समर्पित थे कि जब तक उनकी रिकॉर्डिंग नहीं हो जाती थी तब तक वह सिर्फ़ पानी और गरम दूध ही लेते थे जिससे उनका गला बिलकुल ठीक रहे और उनके सुरों में रत्तीभर भी कमी न आए मुकेश की एक ख़ास बात यह भी रही कि उन्होंने संगीत की बहुत ज्यादा विधिवत शिक्षा भी नहीं ली कुछ दिग्गज गायकों को सुन सुन कर और गीत गा गा कर ही मुकेश ने ख़ुद को संवारा, निखारा.संगीतकार खेमचंद्र प्रकाश के चचेरे भाई जगन्नाथ प्रसाद से मुकेश ने शास्त्रीय संगीत सीखा था इनके अलावा वह किसी के शागिर्द नहीं रहे पर अब्दुल करीम खाँ और बड़े ग़ुलाम अली खाँ की चीज़ें बहुत सुनते थे और इनका बहुत सम्मान करते थे. 

अपने अंतिम सफर पर मुकेश 
भले ही मुकेश को राजकपूर की आवाज कहा जाता रहा हो पर मुकेश ने सबसे ज्यादा गीत दिलीप कुमार के लिए गाए हैं और उनके द्वारा गाए गए गीत सबसे ज्यादा दिलीप कुमार पर ही फिल्माए गए है। मुकेश को सामान्यतया दर्द भरे गीतों का जादूगर माना जाता रहा। राज कपूर की लगभग सभी फिल्मों की आवाज़ मुकेश थे कभी तो ऎसा लगता है मानो जैसे ईश्वर ने मुकेश को राजकपूर के लिए ही बनाया है या फिर राजकपूर मुकेश के लिए बने हैं।मुकेश की लोकप्रियता सात समंदर पार तक तब पहुंची जब सन 1951 में आर के की 'आवारा' फ़िल्म रिलीज़ हुई. मुकेश को सर्वाधिक लोकप्रियता तब मिली जब उन्होंने राज कपूर के लिए विशेषकर राज कपूर द्वारा निर्मित फ़िल्मों के लिए गाना शुरू किया मुकेश के गीतों को सबसे ज्यादा लोकप्रियता जहां आर के स्टूडियो की फ़िल्मों से ही मिली लेकिन उन्हें राज कपूर द्वारा निर्मित किसी भी फ़िल्म के गीतों के लिए कोई भी बड़ा पुरस्कार नहीं मिला हालांकि यह गनीमत है कि मुकेश को मिले चार फ़िल्मफेयर पुरस्कारों में पहला फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जिस 'अनाड़ी' फ़िल्म के लिए मिला उसके नायक राज कपूर ही थे और जिस गीत 'सब कुछ सीखा हमने' के लिए यह पुरस्कार मिला वह राज कपूर पर ही फ़िल्माया गया था राज कपूर के बाद मुकेश के गीत जिस अभिनेता पर सबसे ज्यादा जमे और पसंद किए गए वह मनोज कुमार ही हैं जिनकी लगभग 20 फ़िल्मों में मुकेश ने अपने स्वर दिये जिनमें हरियाली और रास्ता, हिमालय की गोद में, पत्थर के सनम, उपकार, पूरब और पश्चिम, रोटी कपड़ा और मकान, संन्यासी, और दस नंबरी जैसी फ़िल्में शामिल हैं  ........1974 में रिलीज फिल्म 'रजनीगंधा' (1974) के गाने 'कई बार यूं ही देखा है' के लिए मुकेश नेशनल अवॉर्ड से भी सम्मानित किए गए। मुकेश राजकपूर की फिल्म 'सत्यम शिवम सुंदरम' (1978) के गाने 'चंचल निर्मल शीतल' की रिकॉर्डिंग पूरी करने के बाद वह अमरीका में एक कंर्सट में भाग लेने के लिए गए जहां 27 अगस्त 1976 को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया ,ये भाग्य की विडंबना ही कही जाएगी की लता मंगेशकर जिसे वो दीदी बुलाते थे उस कंर्सट में उनके साथ थी और मुकेश जी का पार्थिव शरीर ले कर वो मुंबई वापिस आई मुकेश के निधन की खबर सुनकर राज सन्न रह गए और उनके मुंह से निकल पड़ा- 'आज मैंने अपनी आवाज़ खो दी मुकेश के जाने से मेरी आवाज और आत्मा दोनों चली गई.'.


60 के दशक में मुकेश का करियर अपने चरम पर था और अब मुकेश ने अपनी गायकी में नये प्रयोग शुरू कर दिये थे उस वक्त के अभिनेताओं के मुताबिक उनकी गायकी भी बदल रही थी। पिछले कुछ बरसों में विभिन्न म्यूज़िकल रिएलिटी शो के चलते फ़िल्म संगीत की दुनिया में गायक-गायिकाओं की बाढ़ सी आ गयी है लेकिन मुकेश का आज भी कोई सानी नहीं है अपने उस दौर में मुकेश शिखर के तीन पार्श्व गायकों में थे मुकेश शादी से पहले रोज़ रात को डायरी लिखा करते थे लेकिन गुजराती परिवार की सरल मुकेश उर्फ़ बची बेन से 1946 में शादी होने के बाद उनका डायरी लिखना कम हो गया था जब उनसे किसी ने पूछा जाता की आप डायरी क्यों लिखते हैं इस पर मुकेश जी ने कहा था, "मैं अपनी ज़िंदगी की यादों को संजोना चाहता हूँ, ख़ुशियों को, दुखों को, संघर्षों को. मेरी इच्छा है कि एक दिन मैं अपनी आत्मकथा लिखूँ '' लेकिन बदक़िस्मती से उनका यह सपना पूरा नहीं हो सका असल में जीवन की आपाधापी में मुकेश समय से पहले ही दुनिया से चले गए वरना उनके और भी बहुत से गीत हम सभी को सुनने को मिलते और शायद उनकी आत्मकथा भी पढ़ने को मिलती..

एक बार मुकेश कहीं बाहर विदेश गए हुए थे उसी दौरान फिल्म 'विश्वास' (1969) की रिकॉर्डिंग करनी पड़ी इस फ़िल्म के लिए 'चांदी की दीवार न तोड़ी' जैसे कुछ दिलकश गीत मुकेश पहले ही रिकॉर्ड करा चुके थे लेकिन एक गीत 'आपसे हमको बिछड़े हुए एक जमाना बीत गया' अभी रिकॉर्ड होना था.तब फ़ैसला किया गया कि अभी इस गीत को मनहर उधास की आवाज़ में रिकॉर्ड करा लिया जाये बाद में जब मुकेश आएंगे तो मनहर की जगह उनके ही स्वर में रिकॉर्ड कर लेंगे. मनहार और सुमन कल्याणपुर की आवाज़ में यह गीत स्वरबद्ध कर लिया गया.जब मुकेश मुंबई वापस आए तो उनको कहा गया कि अब वह इस गीत को रिकॉर्ड करा दें. लेकिन जब मुकेश ने वह गीत सुना तो गीत सुनकर बोले- क्या कमी है इस गीत में, मनहर ने इसे इतना अच्छा गाया है तो उस बेचारे को हटाकर मुझसे क्यों गवा रहे हो.'' इसके बाद वह गीत मनहर के स्वर में ही रहा मुकेश की यह बात सभी को हैरान करने वाली थी कोई और होता तो ऐसा कभी नहीं कहता यही बात बताती है कि मुकेश जितने अच्छे गायक थे उतने अच्छे इंसान भी थे.

कहते है की 'सेड सांग्स ' कभी पुराने नहीं होते ये हर मौसम में ताजे रहते है मुकेश के गाये सेड सांग्स के कारण ही उन्हें  विरहा का मर्म समझने वाला गायक माना जाता है मुकेश एक सुरीली आवाज़ के मालिक थे और यही वजह है कि सिर्फ हिन्दुस्तान ही नहीं, बल्कि विदेश के संगीत प्रेमियों के दिलों में भी वो बसते है मुकेश के गीतों की चाहत उनके चाहने वालों के दिलों में सदा जीवित रहेगी।उनके गीत हम सबके लिए प्रेम, हौसला और आशा का वरदान हैं। मुकेश जैसे महान गायक न केवल दर्द भरे गीतों के लिए,बल्कि वो तो हम सबके दिलों में सदा के लिए बसने के लिए बने थे। उनकी आवाज़ का अनोखापन, भीगे स्वर संग हल्की-सी नासिका लिए हुए न जाने कितने संगीत प्रेमियों के दिलों को छू जाती है। वो एक महान गायक तो थे ही, साथ ही एक बहुत अच्छे इंसान भी थे। वो सदा मुस्कुराते रहते थे और खुशी-खुशी लोगों से मिलते थे मुकेश भावनाओं को सबसे सच्ची आवाज देने वाले गायक थे और यही बात मुकेश को आज भी लोकप्रिय बनाए हुए है. ...‘गर्दिश में तारे रहेंगे सदा...’ गाते हुए मुकेश बहुत-कुछ खत्म होने बाद भी थोड़ा बहुत बचा रहने की दिलासा देते हैं....... हताशा और दिलासा का यह दर्शन मुकेश के कई गानों में है ये दोनों भाव निकलते दर्द से ही हैं, उस दर्द से जो हम सबके जीवन का अनिवार्य हिस्सा है इसलिए हर शब्द जो मुकेश के गले से निकलता है हमारे आसपास से गुजरता हुआ महसूस होता है हम आज भी इस गाने को सुनते हुए इसके दर्शन की पूरी कद्र करते हैं हम आज भी घंटों का वक्त खर्च कर मुकेश को न सिर्फ सुनते हैं बल्कि याद भी करते हैं तभी तो इस गाने में मजबूरन उन्हें भी कहना पड़ता है ‘...हर इक पल मेरी हस्ती है, हर इक पल मेरी जवानी है.’.....मुकेश ने अपने 35 साल के फ़िल्म संगीत करियर में लगभग 525 हिन्दी फ़िल्मों में लगभग 900 गीत ही गाये जो रफ़ी, किशोर कुमार और लता मंगेशकर की तुलना में बहुत ही कम हैं लेकिन मुकेश के गाये गीतों की लोकप्रियता इतनी ज्यादा रही कि अक्सर लोग यही समझते हैं कि मुकेश ने भी हज़ारों फ़िल्म गीत गाये होंगे राज कपूर, मनोज कुमार,साथ ही मुकेश ने राजेश खन्ना, शशि कपूर, जीतेंद्र, सहित दिलीप कुमार, धर्मेन्द्र और अमिताभ बच्चन जैसे कई बड़े नायकों पर फ़िल्मांकित गीतों को अपनी आवाज़ दी.उन्होंने अनिल बिस्वास, हुस्नलाल भगतराम, खेम चंद्र प्रकाश, रोशन, बुलों सी रानी, मदन मोहन, जयदेव, सी रामचन्द्र, सरदार मलिक, चित्रगुप्त, सचिन देव बर्मन, नौशाद से लेकर शंकर जयकिशन, लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल, कल्याणजी आनंदजी, ख्य्याम, रवि, उषा खन्ना, राहुल देव बर्मन, सलिल चौधरी, बप्पी लहिड़ी, राजेश रोशन और रवीन्द्र जैन तक चोटी के संगीतकारों की धुनों पर गीत गाये देश भर में ही नहीं दुनिया के कई देशों में अपने गीतों के शो पेश करके मुकेश ने सभी को मंत्रमुग्ध कर लिया यहाँ तक मुकेश को अपने गीतों के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार और फ़िल्मफेयर जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कार भी मिले

मुकेश .- (1923-1976 )

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