ये वो समय था जब देश की आज़ादी का सूरज लालिमा ले रहा था और इस के साथ
हिंदी सिनेमा भी दुनिया में स्वर्णिम इतिहास लिखने को बेताब हो रहा था उस
समय '
रतन (1944 )' प्रदर्शित हुई और इस साल की सबसे कामयाब फिल्म बन
गई .....'रतन' को हिंदी सिनेमा में एक मील का पत्थर माना जाता है रतन प्रसिद्ध भारतीय संगीत निर्देशक '
नौशाद अली' जी की सफलता
फिल्म थी जो सिर्फ उनके संगीत के दम पर हिट हो गई और वह अपनी
पीढ़ी के एक प्रमुख लोकप्रिय संगीत निर्देशक के रूप में उभरे ,लोग आज
भी इस फिल्म को सिर्फ नौशाद साहेब के अमर संगीत के लिए ही याद करते है
......इस फिल्म के हिट होने में नौशाद के संगीत का कितना मजबूत योगदान है इस बात से आप अंदाज़ा लगा सकते है की 'रतन' के निर्माता
'जेमिनी दीवान 'ने
ये फिल्म सिर्फ 75 हज़ार में बनाई थी और पहले ही वर्ष में लगभग तीन लाख
रूपये की कमाई सिर्फ गीतों की रॉयल्टी से ही हो गई और इस के
ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड की बिक्री ने भी रिकॉर्ड तोड़ दिए ....नौशाद साहेब ने भी रतन
के संगीत के लिए उस समय 25 हज़ार की भारी भरकम रकम ली थी और
सुर्खियों में आ गए जबकि उनके समकक्ष संगीतकार सिर्फ कुछ रूपये माहवार
पर ही फिल्म टाकीज़ के लिए काम करते थे
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स्वर्णलता |
'रतन' एक रोमांटिक,संगीतमय फिल्म थी, लेकिन इसका अंत दुःखद है ,....कहानी आर.एस चौधरी की थी जिसे एम्.सादिक ने डायरेक्ट किया था फिल्म की कहानी कुछ इस प्रकार थी .....गोविंद
( करण दीवान ) और गौरी ( स्वर्णलता ) बचपन के दोस्त हैं और आपस में बेहद प्यार करते है। लेकिन दोनों अलग-अलग जाति से हैं गोविन्द 'बनिया 'जाति से और गौरी' राजपूत ' जाति की है इसलिए उनकी शादी वर्तमान के सामाजिक परिवेश में संभव नहीं है गोविन्द के पिता
( बद्री प्रसाद ) की गाँव में ही छोटी सी दुकान है गोविन्द की माँ उसे अपने पिता के काम धंधे के सहायता करने को कहती है लेकिन गोविन्द तो गौरी के प्रेम में पागल है कहानी में दिलचस्प मोड़ तब आता है जब अल्हड गौरी की शादी धोखे से अपने से बड़े उम्रदराज़ अमीर आदमी
( वास्ती ) से कर दी जाती है जो एक बच्ची का बाप भी है ,गोविन्द और गौरी एक दूसरे को भूल नहीं पाते और और शादी के बाद भी जंगल में एक प्राचीन मूर्ति के पास मिलते है इस तरह से छिप कर मिलने से समाज में दोनों की बदनामी होती है, इधर गौरी के उम्रदराज़ पति को जब अपनी युवा पत्नी के पहले प्यार के बारे में पता चलता है तो वह अपनी शादी कम उम्र गौरी से होने पर आत्म ग्लानि महसूस करता है और अपनी बहन और बड़ी भाभी को गौरी की शादी धोखे से उससे करवाने के लिए फटकारता है वो न केवल विरहा आग में तड़पते प्रेमियों को मिलाने का फैसला करता है बल्कि ये निर्णय लेता है की समाज, बिरादरी कुछ भी कहे वो गौरी और गोविन्द की शादी करवा के ही रहेगा .....लेकिन सच्चे प्यार के रास्ते में बंधनो की झूठी शान लिए अड़े समाज से हताश हो गोविन्द जहर खा कर मौत को गले लगा लेता है ,गोविन्द के पिता गौरी को अपने बेटे की मौत का जिम्मेदार मानते है गौरी का पति उसकी और गोविन्द की शादी की बात बताता है ,लेकिन तब तक गौरी भी गोविन्द की मौत के सदमे से दम तोड़ चुकी होती है दोनों प्रेमियों की असमय मौत के बाद उस प्राचीन मूर्ति में दरार आ जाती है जो कभी उनके सच्चे प्यार की गवाह बनी थी गोविन्द की मौत के बाद भी उसका पिता बदहाल हालत में अपने बेटे को जंगल में पागलो की तरह ढूंढ़ता रहता है ......फिल्म का दुःखद अंत होता है
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बद्री प्रसाद ,राजकुमारी शुक्ला की मीठी नौक झोंक फिल्म में हास्य का रंग भरती है
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आमिर बानो, करण दीवान और स्वर्णलता वास्ती ,मंजू ,चन्दा गुलाब ,बद्री
प्रसाद ,राजकुमारी शुक्ला, अजूरी फिल्म के मुख्य कलाकार थे .....फिल्म में कुल 9 गाने थे ,गीतकार डी.एन
मधोक के गीतो को नौशाद जी ने पारंपरिक वाद्ययंत्रों के साथ प्रयोग किया था
लोक धुनों पर आधारित गीतों में राग अधिक और ताल कम थी और नतीजा जबरदस्त रहा ...
'अंखिया मिला कर' , 'रिमझिम बरसे बदरवा' ,'अंगड़ाई तेरी है बहाना ', 'हिन्दुस्तान के
हम है ','मिलकर बिछड़ गई ','अंखिया , जब तुम ही चले परदेस' , 'ओ जाने वाले बलमवा
लौट के आना' , 'जब तुम ही चले परदेस लगा कर ठेस ', 'परदेसी बालमा बादल आया
सावन के बादलों उनसे जा कहो ' .....जैसे गीतों को जोहराबाई अम्बाले वाली,
आमिर बाई कर्नाटकी , मोहम्मद रफ़ी और रतन के नायक करण दीवान ने अपने स्वर
देकर अमर बना दिया जोहराबाई अम्बाले वाली,आमिर बाई कर्नाटकी संगीत की दुनिया का एक सम्मानित नाम थी ,'रतन' के गाने देश आज़ाद होने के बाद भी लाहौर और दिल्ली की गलियों में खूब बजे
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स्वर्ण लता और करण दीवान
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इस फिल्म के बारे में एक किस्सा नौशाद साहेब
अक्सर अपने साक्षात्कार में सुनाते थे वो कहते थे .......
."मेरे पिता
नहीं चाहते की उनका बेटा फिल्मों में संगीत दे और गाने बजाने में रूचि ले
क्योंकि उस समय फिल्मों में सभ्रांत परिवारों के लोग नहीं जाते थे ......और संगीत को बुरा समझा जाता था .... लेकिन पिता जी से चोरी छिपे मैं कुछ फिल्मों
में संगीत दे चुका था ......लेकिन लोग जानते कम थे ..... मैं मशहूर 'रतन '
फिल्म के बाद ही हुआ और लोग मुझे पहचानने लगे जब मेरी बारात जा रही
थी तो मैं तो सेहरा पहने घोड़ी पर बैठा था और बैंड बाजे वाले आगे आगे चलते
हुए 'रतन' फिल्म के गाने ही बजा रहे थे और बाराती रतन के गानों की धुन
पर झूमकर नाच रहे थे . .....और बदकिस्मती देखिये मैं उन्हें अपने पिता जी के डर के कारण बता भी
नहीं सकता था की ये मेरे बनाये गाने है ....इस फिल्म के संगीत को लेकर एक विवाद तब खड़ा हो गया था तब फिल्म की नायिका रही स्वर्णलता ने 'रतन 'के हिट होने के कुछ सालो बाद पाकिस्तान टेलीविजन को दिए एक साक्षात्कार में ये कह दिया की कहा था ..
..'रतन ' के गीतों की धुनें नौशाद ने नहीं गीतकार डी.एन माधोक ने रची थी..''. हालाँकि वो इसका कोई प्रमाण नहीं दे सकी स्वर्ण लता ने ऐसा क्यों कहा ? ये भी राज ही रहा ....स्वर्णलता का जन्म एक सिख खत्री परिवार में हुआ था ये भी विडंबना है की फिल्म की भांति अपनी असली जिंदगी में स्वर्णलता नाज़ीर अहमद खान नाम के एक अभिनेता के साथ प्यार में पड़ गई, और उससे शादी कर ली जो स्वर्णलता से उम्र में 20 साल बड़ा था भारत में अपने लाखो चाहने वालो को छोड़ बंटवारे के बाद स्वर्णलता नाज़ीर के साथ पाकिस्तान चली गई जहाँ स्वर्णलता ने अपना नाम बदल कर 'सईदा बानो ' रख लिया नजीर और स्वर्णलता ने कई पंजाबी और उर्दू फिल्मो में काम किया ,पाकिस्तान में स्वर्णलता में सबसे बड़ी हिट पंजाबी फिल्म
''हीर (1955 ) '' थी और यदि आप पंजाबी समझते हैं तो इसमें कुछ शानदार गाने हैं चरित्र अभिनेत्री के रूप में उर्दू फिल्म 'दुनिया न माने (1971 ) ' स्वर्णलता की आखरी फिल्म थी
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करण दीवान और बद्री प्रसाद
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संगीत निर्देशक
नौशाद ने ही करण दीवान को रतन के गाने
"जब तुम ही चले परदेस 'से एक गायक
के रूप में ब्रेक दिया गया था की और फिल्म हिट होने के बाद करण दीवान भी
लोकप्रिय हो गए बाद में उन्होंने उन्होंने
पिया घर आजा (1947),
मिटटी के खिलौने (1948), और लाहौर (1949) जैसी फिल्मों में भी गाया था।
उनकी अन्य महत्वपूर्ण फिल्में
जीनत (1945), लाहौर (1949), दहेज (1950),
बहार ( 1951), 3 बत्ती चार रास्ता (1953) थी .....बाद में उन्होंने रतन की सह
अभिनेत्री गायिका मंजु से शादी कर ली मंजू जिन्होंने ‘प्रभात फ़िल्म
कंपनी’ की साल 1939 में हिंदी और मराठी में बनी फ़िल्म
‘आदमी’ ( मराठी में
माणुस ) से करियर की शुरूआत की थी,लेकिन मंजू महज़ छह साल के अपने
करियर में साल 1944 में बनी ‘रतन’ के बाद करण दीवान से शादी करके
फ़िल्म-जगत को अलविदा कह कह गई अभिनेता करण दिवान ने अपना फ़िल्मी कॅरियर पंजाबी फिल्म
' पूरन भगत (1939) ' से शुरू किया था ,'रतन 'उनके कॅरियर सबसे सफल फिल्म थी .. फ़िल्म 'रतन' का एक और खूबसूरत पक्ष था वो थे फ़िल्म के हास्य दृश्य, यह सारे दृश्य नायक गोविन्द के माता पिता के थे ...बीच बीच में जब भी फिल्म गंभीर होती हो हास परिहास का जिम्मा गोविन्द की माँ और पिता के जिम्मे है बद्री प्रसाद जब भी गोविन्द की माँ से नाराज़ होते है तो गोविन्द से कहते है
....''मैं तो चला ...जब गंगा जी से पण्डे मेरी लाश लेकर आये तो रोना मत... तिजोरी में जो है सब तेरा '' .... '' और बदले में हर बार गोविन्द की मां कहती है ..''.
गंगा जाये हमारे दुश्मन जो हमें देख न सकते हो''.... तो दर्शको के चेहरे पर हंसी आ जाती है उनका ये संवाद माहौल को हल्का करता है सिनेमेटोग्राफर 'द्वारका दिवेचा' का छायांकन बेहतर है अपने ज़माने की मशहूर एक्ट्रेस और डांसर
'अजुरी 'का एक डांस नंबर
'' जाने वाले बालमवा लौट के आ '' एक सही सिचुएशन पर आता है जब गोविन्द गौरी के ससुराल में दिवाली की रात पहली बार मिलता है
रतन हिंदी सिनेमा में अपना
विशिष्ठ स्थान रखती है और ये हिंदी सिनेमा के नभ पटल पर नौशाद साहिब
का किया एक
"स्वर्णिम हस्ताक्षर " है....'रतन 'गुलाम भारत की पहली हिंदी फिल्म थी जिसने लगातार 50 हफ्ते चलकर गोल्डन जुबली मनाई थी 'रतन' फिल्म के निर्माता 'जैमिनी दीवान 'अभिनेता करण दीवान के बड़े भाई थे .......
बेशक यह नौशाद साहब की अनमोल कृति थी आने वाली कई पीढ़िया इस फिल्म
को नौशाद के अमर गीतों की वजह से सदियों याद रखेगी
वैसे इन फिल्मो का मर्म संवेदनशील दर्शक ही समझ सकते हैं जिनकी संख्या अब घट रही है
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करण दीवान |
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