Wednesday, November 14, 2018

नजमा - (1943 ) ...गुजरे जमाने की नवाबी-शान-ओ-शौकत और रूढ़िवादी खोखले मूल्यों पर 'महबूब खान' का प्रहार

नजमा - (1943 )

1935 से 1942 के बीच महबूब खान ने 'सागर मूवीटोन' और 'नेशनल स्टूडियो 'के लिए ग्यारह फिल्मों का सृजन किया और प्रत्येक फिल्म से अपार सफलता पाई। लेकिन 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण फिल्म इंडस्ट्री को काफी आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ा इस दौरान 'सागर मूवीटोन 'की आर्थिक स्थिति काफी कमजोर हो गई और उसे बंद करना पड़ा 1942 में 'नेशनल स्टूडियो 'के भी बंद होने पर महबूब खान सहित कई लोग बेरोजगार हो गए थे लेकिन संगीतकार अनिल विश्वास का बांबे टाकीज में चला जाना महबूब को ठीक नहीं लगा क्योंकि बेरोजगार तो सब हुए थे और अनिल विश्वास के अकेले के सामने संकट नहीं था। शायद इसीलिए अनिल विश्वास का जाते वक्त महबूब द्वारा फिल्म शुरू करने पर वापस लौट आने का वादा करने के बावजूद महबूब ने जब 1943 में जब अपने ' महबूब प्रॉडक्शन 'की शुरुआत की तो अनिल विश्वास को नहीं बुलाया इस प्रकार बगैर किसी तकरार या मान-मनौव्वल के एक लंबी रचनात्मक अंतरंगता का पटापेक्ष हो गया।और इसके साथ ही महबूब का संगीतकार अनिल विश्वास के साथ अंतरंगता का दौर भी पूर्णता समाप्त हो गया और दोनों ने अपने अपने अलग रास्ते चुन लिए

 
महबूब की रचनात्मकता का दूसरा दौर 1943 से 1948 का है जिसमें उन्होंने छह फिल्मों का निर्माण किया। उनकी फिल्म निर्माण संस्था का प्रतीक चिह्न बना 'हंसिया हथौड़ा ' और जब वह रजतपट पर आता था तो नेपथ्य में संगीतकार रफीक गजनवी की आवाज में आगा हश्र कश्मीरी का यह शेर गूंजता था - 'मुद्दई लाख बुरा चाहे तो क्या होता है, वही होता है जो मंजूर ए खुदा होता है।'' इसके बैनर तले उन्होंने 1943 में 'नजमा', 'तकदीर' और 1945 में 'हूमायूं' जैसी फिल्मों का निर्माण किया 30 जुलाई 1943 को रिलीज़ हुई फिल्म 'नजमा', महबूब खान की सफल फिल्मों में शुमार की जाती फिल्म 'नजमा' के साथ ही महबूब के सिनेमा में तब के सबसे बड़े स्टार अशोक कुमार का प्रवेश हुआ

1943 में ही अशोक कुमार की सबसे कामयाब फिल्म बॉम्बे टाकीज की 'किस्मत' भी प्रदर्शित हुई और इसमें संगीतकार अनिल विश्वास ने संगीत रचना की थी। अब अजीब संयोग देखिये जहाँ महबूब खान पहली बार बांबे टाकीज के हीरो माने जाने वाले अशोक कुमार को निर्देशित कर रहे थे और वही अनिल विश्वास भी पहली बार महबूब खान से अलग होकर किसी फिल्म का संगीत दे रहे थे और दोनों फिल्मो के हीरो अशोक कुमार साहेब थे उस ज़माने में आप अभिनय सम्राट अशोक कुमार के रुतबे का अंदाजा इस बार से बखूबी लगा सकते है की महबूब खान ने इस फिल्म के लिए अशोक कुमार को एक लाख रुपए मेहनताना दिया था जोकि उस समय के मौजूदा दौर में एक रिकॉर्ड रकम थी क्योंकि ज्यादातर कलाकार फिल्म कम्पनियो के तय मासिक वेतन पर काम करते थे और उनका मेहनताना ज्यादा से ज्यादा 500 रुपये से अधिक नहीं था जिसमे उन्हें उस फिल्म कंपनी की फिल्म में अभिनय के साथ साथ गाना भी पड़ता था ऐसे में आप उस दौर में अशोक कुमार को मिलने वाले एक लाख रुपये की तुलना आज के ज़माने से करे तो करोडो रुपये बैठते है 

 

'नजमा' मुस्लिम उच्च वर्ग के ऐसे परिवार की कहानी थी जो लखनवी तहज़ीब का पैरोकार है ,फिल्म की कहानी एक मुस्लिम प्रेम कथा है लखनऊ शहर में रहने वाले मेडिकल छात्र यूसुफ ( अशोक कुमार ) अपने पडोसी की बेटी नजमा ( वीना ) के प्यार में पड़ जाता है ,उसका दोस्त ( याकूब, ) उसे नजमा से शादी के लिए उत्साहित करता रहता है यूसुफ के पिता ( मुराद ) युसूफ की शादी उसकी अनपढ़ चचेरी बहन रजिया ( सितारा ) से बचपन में ही तय कर चुके है लेकिन युसूफ नजमा से प्यार के चलते शादी से मना कर देता है बाद में अपने पिता के बीमार होने और उनके दिए वचन के कारण वो मजबूर हो कर रजिया से शादी के लिए हाँ कर देता है ...... नजमा की शादी भी लखनऊ शहर के एक अमीर नवाब मुकर्रम ( एम.कुमार ) से तय हो जाती है ,शादी के बाद भी युसूफ नजमा को नहीं भुला पाता ,युसूफ की बेगम रजिया को जब युसूफ और नजमा की प्रेम कहानी पता चलती है तो वो गुस्से और नफरत से भर जाती है और नजमा को युसूफ से दूर चले जाने को कहती है लेकिन उनकी उनकी बाते नजमा का शौहर मुकर्रम सुन लेता है ,आगबबूला हो वह युसूफ को मारने के इरादे से घर से निकलता है लेकिन उसकी कार दुर्घटनाग्रस्त हो जाती है ........और अब नजमा के शौहर नवाब मुकर्रम की जान बचाने की जिम्मेदारी धर्मसंकट में फंसे शहर के सबसे बड़े डॉ युसूफ के पास है युसूफ अपना फ़र्ज़ निभाते हुए सफल ऑपरेशन करके नवाब मुकर्रम की जान बचा लेता है और वो मुकर्रम को यकीन दिलाते है की वो उनके और नजमा के रास्ते में नहीं आयेगे ,युसूफ उनके रास्ते से हट जाता है नजमा नवाब मुकर्रम की हो जाती है इस तरह युसूफ नज़मा पर अपनी मोहब्बत कुर्बान कर अपनी बेगम रजिया के पास वापिस लौट जाता है और फिल्म का सुखद अंत होता है 

नजमा' के कलाकार थे अशोक कुमार, वीना, सितारा, एम.कुमार, याकूब और मुराद, माजिद ,निसार अहमद अंसारी ,बीबी बाई ,वास्कर , .....इसके लेखक थे 'आगा जानी कश्मीरी,'..... गीतकार'अंजुम पीलीभीती' और संगीतकार थे 'रफीक गजनवी' ......गाने भी खूब चले थे ,यह उच्च और निम्नवर्ग मुस्लिम समाज की कहानी थी जिसमें गरीब अपने बड़प्पन से इस खाई को पाटता है। महबूब ने पहली बार विश्वसनीय ढँग से गुजरे जमाने की नवाबी-शान-ओ-शौकत और उनके रूढ़िवादी खोखले मूल्यों को प्रस्तुत किया गया था। 'नजमा' शिक्षा और मुस्लिम समुदाय के भीतर आधुनिक विकास के लिए आवश्यकता के महत्व पर जोर तो देती है, साथ ही परिवार के सम्मान और शादी को कायम रखने जैसी परंपराओं के मूल्य का चित्रण भी करती है 'नजमा 'महबूब की सफल फिल्म थी ,फरदून ईरानी की सिनेमाटोग्राफी शानदार है और अधिकांश संवाद उर्दू भाषा में है ,महबूब की फिल्म 'नजमा 'को उस ज़माने के मुस्लिम समाज का 'ब्लू प्रिंट 'भी कहा जाता है ....कहा जाता है की महबूब खान ने कभी स्कूल की चौखट पर पाँव नहीं रखा लेकिन उसने खुद को हिंदी सिनेमा का एक स्कूल बनकर दिखा दिया समूचे हिंदी सिनेमा में ऐसा कोई दूसरा फिल्म निर्देशक नहीं है। महबूब खान अपने जीवन के अंतिम दिनों में 16वीं शताब्दी की कवयित्री हब्बा खातून की जिंदगी पर एक फिल्म बनाना चाहते थे लेकिन उनका यह ख्वाब अधूरा ही रह गया उनके आदर्श रहे पंडित जवाहरलाल नेहरू की असमय मौत और 'सन ऑफ इंडिया' (1962)' की असफलता ने उन्हें अंदर तक तोड़ कर रख दिया और वो इस महत्वकांशी फिल्म को बनाने से पहले ही इस दुनिया से रुखसत हो गए

No comments:

Post a Comment