Thursday, July 8, 2021

'धर्मपुत्र 1961' - यश चोपड़ा की पहली और आखरी विवादस्पद राजनीतिक फिल्म

 
 धर्मपुत्र - (1961)

यश चोपड़ा ने अपने सगे भाई के बैनर बी.आर.फिल्मस के तले पांच फिल्मों का निर्देशन किया धूल का फूल (1959), धर्मपुत्र (1961), वक्त (1965) इत्तिफाक (1969) एवं आदमी और इंसान (1969 ) "वक़्त" की अपार सफलता से उत्साहित होकर उन्होंने 1973 में स्वयं की फिल्म निर्माण कम्पनी "यश राज फिल्म्स" की स्थापना कर डाली हमारी हिंदी फिल्म इंडस्ट्रीज़ में बेहतरीन रोमांटिक फिल्मे बनाने के लिए यश चोपड़ा का नाम अव्वल दर्ज़े पर आता उन्हें 'रोमांटिक फिल्मो का जादूगर 'तक कहा जाता है लेकिन यश चोपड़ा जैसे उम्दा फ़िल्मकार को सिर्फ 'रोमांस का बादशाह कहना ज्यादती होगी क्योंकि यश चोपड़ा ने अपने कॅरियर के शुरूआती दौर में राजनैतिक और सामाजिक फिल्मे भी बनाई थी जिसकी चर्चा कभी कभार भूले बिसरे से होती रहती है 

यश चोपड़ा 
1951 में जालंधर ( पंजाब ) के रहने वाले यश चोपड़ा यूँ तो घर से बंबई इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने आये थे बड़े भाई बी.आर चोपड़ा पहले से बंबई में बड़े फ़िल्मकार थे यश चोपड़ा को भी बस फिल्मे ही बनानी थी जब उन्होंने अपनी ये ख़्वाहिश बड़े भाई के सामने जाहिर की तो बड़े भाई बी.आर चोपड़ा ने पहले उन्हें हरफनमौला अभिनेता आई.एस जौहर के यहाँ काम के गुर सीखने भेज दिया जहाँ यश चोपड़ा कुछ समय तक उनके असिस्टेंट रहे लेकिन यश चोपड़ा को उनका काम कुछ जमा नहीं वापिस जाने पर बड़े भाई बी.आर चोपड़ा को मनाना आसान नहीं था उनकी नाराज़गी भी मोल लेनी पड़ती उन्होंने बड़ी तरकीब से बी.आर चोपड़ा के अजीज दोस्त रहे अभिनेता मनमोहन कृष्ण से सिफ़ारिश लगवाई ये सिफारिशी तरकीब काम कर गई और वो अपने बड़े भाई के पास वापिस लौट गए यहाँ यश चोपड़ा ने बी.आर फ़िल्म्स के साथ सेकेंड असिस्टेंट डायरेक्टर के तौर काम करना शुरू कर किया कुछ सालों की मेहनत के बाद बी.आर चोपड़ा ने यश चोपड़ा को अपने बैनर की पहली फ़िल्म निर्देशित करने का मौक़ा दिया लेकिन शर्त थी कि यश चोपड़ा को उनके चीफ़ असिस्टेंट ओमी बेदी के साथ मिलकर ही फ़िल्म 'को-डायरेक्ट' करना होगी यश चोपड़ा थोड़ी उलझन में ही थे कि उसी दौरान हुआ ये कि ओमी बेदी को कहीं और से अकेले ही किसी और फ़िल्म को निर्देशित का ऑफ़र आ गया और वो बी.आर चोपड़ा की फिल्म छोड़ कर चले गए इस तरह यश चोपड़ा को अकेले ही फ़िल्म 'धूल का फूल' निर्देशित करने का सुनहरी मौका मिला उन्होंने अपनी पहली निर्देशित फिल्म धूल का फूल (1959) में सांप्रदायिक सौहार्द का सूक्ष्म रूप से चित्रण किया था ये फिल्म एक मुस्लिम अभिवावक द्वारा नाजायज हिन्दू बच्चे को गोद लेने के बारे में थी लेकिन फिल्म 'धूल का फूल' की अपेक्षा अपनी दूसरी निर्देशित फिल्म 'धर्मपुत्र' में उन्होंने विषय को उलट दिया इसमें एक कुंवारी ,अविवाहित मुस्लिम मां जन्म के बाद अपने शिशु को हिंदू परिवार में छोड़ जाती है इस नाजायज़ मुस्लिम बच्चे को हिन्दू अभिवावक अपनाते है और अपने खानदान का नाम देते है युवा होने पर यही बेटा एक ऐसा कट्टरपंथी हिंदू बन जाता है जिसके लिए अपना सनातन धर्म सर्वप्रथम और श्रेष्ठ है और जो वर्तमान में मुस्लिमो को सबसे बड़ा बड़ा शत्रु मानता है उनसे नफरत करता है जबकि वो स्वयं नहीं जानता की वो एक मुस्लिम दंपति की ही संतान है

मनमोहन कृष्ण ,रहमान और माला सिन्हा 

यश चोपड़ा के साथ बी.आर चोपड़ा 
फिल्म धर्मपुत्र' का केंद्र बिंदु देश की राजधानी ब्रिटिश अधीन दिल्ली है 1920 से 1947 की दिल्ली की साझा संस्कृति और धर्म के नाम पर तार-तार होते समाज को कालजयी फिल्म‘धर्मपुत्र’ बखूबी दिखाती है इसका एक प्रमुख कारण शायद ये भी है की फिल्मकार बी.आर.चोपड़ा ने विभाजन के दौरान अपने पैतृक शहर लाहौर में हुए खून-खराबे को बड़े करीब से अपनी आंखों से देखा था उन्हें भी विभाजन के बाद लाहौर छोड़कर एक रिफ्यूजी की तरह दिल्ली आकर रहना पड़ा तब तक दिल्ली पाकिस्तान से आये पंजाबी शरणार्थियों से पट गई थी तब तक विभाजन की विभीषिका को भी एक दशक से ज्यादा हो चुका था आपसी वैमनस्य का भाव समाज में अभी भी जिंदा था,नफऱतें खत्म नहीं हुई थीं पंजाबी हिन्दू और सिख रिफ्यूजी पाकिस्तान में अपने साथ भोगी त्रासदी को दिल्ली वालों के साथ साँझा करते रहते थे यहाँ सबके पास सुनाने के लिए विभाजन और हिन्दू मुस्लिम दंगो की बेहद दर्दनाक एक से एक सच्ची दास्तानें थी किसी ने अपने खोया था और कोई अपना बसा बसाया घर और कारोबार छोड़ जान बचा भाग आया था इन किस्सों में उन बेसहरा लोगो ने अपने घर ,जमीन और मातृभूमि के साथ साथ अपने निर्दोष सगे सम्बन्धियों को हमेशा के लिए खो दिया था दिल्ली के ऐसे ही माहौल में कुछ वर्ष रहने के बाद बी.आर चोपड़ा बंबई चले गए लेकिन दिल्ली की उस शरणार्थी बस्ती के लोगो के विभाजन के दर्दनाक सच्चे किस्से उन्हें कचोटते रहे 
मूल उपन्यास 'धर्मपुत्र '

बम्बई आकर उन्होंने आचार्य चतुर सेन शास्त्री का मशहूर उपन्यास ‘धर्मपुत्र’ पढ़ा जिसे दिल्ली की पृष्टभूमि को आधार बना लिखा गया था जिसे पढ़ते ही बी.आर चोपड़ा के जेहन में दिल्ली प्रवास के दौरान शरणार्थियों से सुनी दंगो की वही रक्तरंजित कहानियाँ फिर से  उभर आयी इस उपन्यास को पूरा पढते ही उन्होंने उस पर फिल्म बनाने का फैसला ले लिया जिसके निर्देशन की जिम्मेदारी उन्होंने अपने अनुज यश चोपड़ा को दी यश चोपड़ा ने भी ‘धर्मपुत्र’ उपन्यास पढ़ा वैसे तो इस पूरे उपन्यास को महज़ दो ढाई घंटे में समेटना कठिन था लेकिन यश चोपड़ा ने इसे चुनौती के रूप में सहर्ष स्वीकार कर लिया आखिरकार चतुरसेन द्वारा लिखे इस मूल उपन्यास पर फिल्म 'धर्मपुत्र' बनने का रास्ता खुला और फिल्म बनी और रिलीज़ भी हुई लेकिन मूल उपन्यास के नाम पर ही जब फिल्म 'धर्मपुत्र रिलीज़ हुई तो अपेक्षा के अनुरूप ऐसा परिणाम आया की जिसकी कल्पना दोनों भाइयो बी.आर चोपड़ा और यश चोपड़ा ने नहीं की थी वो क़ानूनी मसले पर तो फंसे ही साथ साथ उनकी फिल्म 'धर्मपुत्र' उन्हें आर्थिक रूप से भी नुकसान दे गई इसके बाद उन्होंने कभी भी इस तरह के मुद्दे पर कभी कोई फिल्म कभी नहीं बनाई कई दशकों बाद तक यश चोपड़ा भी सिर्फ प्रेम कहानियों पर फिल्मे बनाते रहे लेकिन ठीक 43 वर्ष बाद 2004 उन्होंने फिल्म 'वीरज़ारा 'में धार्मिक सद्भाव के साथ फिर इस विषय को हलके से जरूर छुआ था 

तबस्सुम और शशि कपूर 

अब बात करते है फिल्म की कहानी की .... फिल्म की कहानी मशहूर अभिनेता दलीप कुमार के वाइस ओवर से शुरू होती है ये 1925 में भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान दिल्ली के दो परिवारों,नवाब बदरुद्दीन (अशोक कुमार ) और गुलशन राय ( नाना पलसीकर ) की कहानी है दोनों परिवार एक ही मोहल्ले में आपस में भाईचारे और प्रेम से रहते है दोनों हिन्दू, मुस्लिम परिवार एक दूसरे के इतने करीब हैं कि वे वास्तव में एक ही घर साझा करते हैं और एक दूसरे के तीज और त्यौहार एक साथ मिलकर मनाते है दोनों परिवारों में एक दूसरे के धर्म के आधार पर कोई मतभेद नहीं है 

रहमान और माला सिन्हा फिल्म 'धर्मपुत्र' में 
माला सिन्हा और निरुपा राय 
मुस्लिम नवाब साहेब की बेटी हुस्न बानो  ( माला सिन्हा ) हिन्दू परिवार के बेटे अमृत लाल (मनमोहन कृष्ण ) को अपना भाई मान कर राखी बांधती है, हुस्न बानो अपने ट्यूशन टीचर जावेद ( रहमान ) के साथ प्रेम करती है लेकिन नवाब बदरुद्दीन उनके प्यार अस्वीकार कर देता है क्योंकि जावेद एक प्रतिष्ठित परिवार से नहीं हैं वो जावेद को बेहद अपमानित करते हैं दिल्ली के समाज में इज़्ज़तदार नवाब बदरुद्दीन पर उस समय आफत का आसमान टूट पड़ता है जब उनकी बेटी हुस्नबानो शादी से पहले ही गर्भवती हो जाती है नवाब साहेब हुस्नबानो और जावेद से बेहद खफा होते है मगर गुलशन राय के बेटे डॉ अमृत लाल और उसकी पत्नी सावित्री (निरुपा राय ) के समझाने पर जब नवाब साहेब हुस्नबानो की शादी जावेद से करने के किये राजी होते है लेकिन तब तक अपमानित जावेद शहर छोड़कर जा चुका होता है कुछ समय के बाद शहर से दूर हुस्नबानो जावेद के नाजायज़ बच्चे को जन्म देती है नवाब बदरुद्दीन के परिवार की इज़्ज़त बचाने के लिए अमृत राय और उनकी पत्नी सावित्री हुस्नबानो के नाजायज़ बच्चे को अपनाकर लेकर उसे अपने हिन्दू परिवार का नाम देते है और नवाब बदरुद्दीन की समाज में शर्मसार होने से बचा लेते है

मनमोहन कृष्ण और निरुपा राय 
लेकिन हुस्नबानो अपने प्रेमी जावेद और उसके बच्चे को भूल नहीं पाती कुछ अरसे के बाद एक नाटकीय घटनाक्रम में जावेद उसे एक दरगाह के बाहर मिल जाता है और नवाब बदरुद्दीन हुस्नबानो की शादी जावेद से निकाह कर देते है साथ साथ उनके नाजायज़ बच्चे के बारे में सारी सच्चाई बयां कर उसे हमेशा के लिए भूल जाने को कह देते है हुस्न बानो निकाह के बाद एक बार फिर गर्भवती होती है लेकिन एक हादसे में उसका गर्भपात हो जाता है डॉक्टर कहते है की वो अब जिंदगी में कभी  माँ नहीं पायेगी इसे अपने दुर्भाग्य की नियति मानकर हुस्नबानो और जावेद भारी मन से दिल्ली छोड़कर लखनऊ चले जाते है  जावेद और बानो के दिल्ली छोड़ने के बाद सावित्री बाद में अपने खुद के जुड़वां लड़कों सुदीप (रोहित ) और सुदेश (देवेन वर्मा)  और एक लड़की रेखा (तबस्सुम ) को भी जन्म देती सारा परिवार राजी खुशी अपने घर रंगमहल में प्यार और सौहार्द से रहता है

देश में अंग्रेज़ो से आज़ादी लेने की लहर उफान पर है गांधीजी के नेतृत्व में अंग्रेज़ो को भारत से खदेड़ने के लिए कई आंदोलन अपने चरम पर है दिल्ली में भी अंग्रेज़ो के खिलाफ लोगो का गुस्सा बढ़ रहा है लेकिन माहौल में विभाजन की जहरीली सुगबुगाहट भी है धर्मनिरपेक्ष अखंड भारत की निति पर विश्वास करने वाला नवाब बदरुद्दीन अपने मुस्लिम समाज के खिलाफ जाकर देश के विभाजन का पुरजोर विरोध करता है और अपने समाज को अंग्रेजो की हिन्दू मुस्लिम को हमेशा के लिए बांटने वाली इस कुटिल चाल से आगाह भी करता है लेकिन उनका अपना समाज उनकी बात सुनने से मना कर देता है नबाब अंग्रेज़ो के खिलाफ अपनी मुहिम जारी रखता है राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेते हुए वो अंग्रेज़ो की दी हुई अपनी 'खान बहादुर' की उपाधि को भी वापिस कर देते है दिल्ली में अंग्रेज़ो के खिलाफ एक आंदोलन में भाग लेते हुए पुलिस थाने से जबरन यूनियन जैक उतार कर तिरंगा लगाने के दौरान नवाब बदरुद्दीन अंग्रेजी पुलिस की गोली से शहीद हो जाते है 

शशि कपूर माला सिन्हा और निरुपा राय 

'धर्म पुत्र' अभिनेता शशि कपूर की बतौर नायक पहली फिल्म थी 

घटनाक्रम तेज़ी से बदल रहा है देश में अब आज़ादी के सूरज की लालिमा दिखाई देने लगी है डॉ अमृत लाल के परिवार में हिन्दू संस्कारो और रीतिरिवाज़ों में पला बड़ा दलीप ( शशि कपूर ) गंभीर,गर्म खून वाला ,एक बांका नौजवान, रोज सुबह उठकर रामचरित मानस का पाठ करने वाला, अपने नास्तिक भाइयों सुदेश राय,सुदीप राय बहन रेखा राय को रोज खरी खोटी सुनाने वाला ,मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान रामचन्द्र जी के जीवन के बारे में समझाने वाला, मुस्लिमों से चिढने और नफरत करने वाला एक कट्टर सनातनी हिन्दू बनता है जिसे हिन्दू धर्म के खिलाफ किसी से कुछ भी सुनना गवारा नहीं दलीप एक युवती मीना ( इंद्राणी मुखर्जी ) की और आकर्षित है लेकिन मीना दलीप के धर्म के प्रति कट्टरपंथ को लेकर चिंतित रहती है दलीप भारत को आजादी मिलने तक मीना से सगाई न करने की कसम खाता है कहानी में दिलचस्प मोड़ तब आता है पंद्रह साल बाद के बाद जावेद और हुस्नबानो डॉ अमृत लाल से मिलने दिल्ली वापिस आते है सावित्री और डॉ राय उनका गर्मजोशी से स्वागत करते हैं दिल्ली में उथल-पुथल मची हुई है लेकिन हुस्नबानो दलीप को मिलने को बेकरार है हुस्नबानो अपने जवान बेटे को देखकर तब निराश हो जाती है जब दलीप माँ के कहने के बावजूद भी उसके पांव छूने से इसलिए इंकार कर देता है क्योंकि वो एक मुस्लिम महिला है 

इन्द्राणी मुखर्जी 


भारत एक तरफ तो स्वतंत्रता के पाने के कगार पर खड़ा है तो दूसरी और अपने इतिहास के एक बहुत ही भयावह हालात का सामना कर रहा है दुर्भाग्य से ठीक इसी वक्त अंग्रेज़ हुक्मरानो द्वारा आज़ादी की घोषणा के साथ साथ भारत और पाकिस्तान के विभाजन की तारीख भी लिखी जा चुकी है देश में भीषण सांप्रदयिक दंगे हो रहे है दिल्ली भी इससे अछूती नहीं है आज़ादी मिलने से पहले दिल्ली की सड़कों पर गूंजने वाले 'हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई' -'इंकलाब जिंदाबाद' जैसे नारो की जगह खून-खराबा, नफरत ,उन्मादी चीखें, 'अल्लाह-ओ-अकबर' ,'हर-हर महादेव' 'जय बजरंग बली 'के उद्घोष हो रहे है दिल्ली से हिन्दू और मुसलमानो दोनों का पलायन जारी है भय और आंतक में डूबी दिल्ली में हर किसी पर खून सवार है भीषण मार काट मची हुई है दलीप भारत के विभाजन और दंगो का जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ मुस्लिम समुदाय को मानता है दरअसल अब वो  नहीं चाहता कि मुस्लिम  इस मुल्क में रहें दलीप एक ऐसा कट्टरपंथी दल बनाता है जिसका मकसद यहाँ रह गए मुसलमानों को तुरंत दिल्ली छोड़ने के लिए मजबूर करना है जिसकी शुरुआत उसे अपने ही घर से करनी है धार्मिक उन्माद की आग में जलता दलीप अपने घर में रह रहे हुस्नबानो और जावेद को भी तुरंत घर छोड़ कर चले जाने को कह देता है ऐसा न करने पर उन्हें अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहने की धमकी भी देता है दलीप की धमकी से पूरा परिवार सन्न रह जाता है उन्हें पहली बार महसूस होता है की युवाओं में राष्ट्रवादी जोश की जगह 'हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान' और 'कायदे आजम का इलान,बन कर रहेगा पाकिस्तान' ने ले ली है अंग्रेजों की 'फूट डालो और राज करो 'की नीतियां हिंदुओं और मुसलमानों के बीच एकता को तोड़ने में कामयाब होती दिख रही है आज़ादी की जंग अब हिन्दू-मुसलमान में बदल चुकी है 

दिल्ली की जहरीली फिजाओं में उत्तेजक नारे गूँज रहे है ,लोगो के घरो को चुन चुन कर सिर्फ उनके धर्म के आधार पर जलाया जा रहा है और उन्हें मारा जा रहा है दलीप को पहले अपने घर ( रंगमहल ) को पहले साफ़ करना है एक विशाल हजूम के साथ , जलती मशालें हाथ में लेकर, वो निकल पड़ता है अपने ही घर रंगमहल की तरफ....  रंगमहल को चारों और से दंगाइयों की भीड़ घेर लेती है दलीप अपने ही घर में रह रहे हुस्नबानो और जावेद को जान से मारने के लिए आगे बढ़ता है अमृत लाल और सावित्री दलीप को गुस्से में आग बबूला देख उन्हें सच बता देते है की वो जिनको मारने जा रहा है वो ही उसके असली माँ बाप है अपनी असल पहचान उजागर होने के बाद दलीप की दुनिया पूरी तरह उलट जाती है वो जिन लोगों के लिए नफ़रत का लावा दिल में लिए घूमता रहा वो खुद उन्हीं में से एक है ये राज़ उसे मानसिक रूप से तोड़ कर रख देता है अपनी पहचान और उनसे उपजी की मान्यताओं के बीच का टकराव किसी भी इंसान के ज़हनी सुकून को तहस-नहस कर सकता है.यही दिलीप के साथ होता है वो एक एक ऐसे अंधे मोड़ पर खड़ा है जहां पर इंसानियत और जज्बात दोनों एक दूसरे पर हावी है अब 'धर्मपुत्र 'दलीप के सामने धर्म संकट खड़ा है जिन लोगो से वो जीवन भर नफरत करता रहा उसकी रगो में उनका ही खून दौड़ रहा है अब अपने धर्म और समाज के प्रति वो अपने कर्तव्यों का निर्वाह कैसे करेगा ? क्या मुसलमानों के लिए उनकी नफरत उन्हें उनके जन्म और उनके पालन-पोषण के धर्म में सामंजस्य स्थापित करने की अनुमति देगी ? अपने हिन्दू मित्रो से अब वो क्या कहेगा ? कि वो मुसलमान है ? क्या मुस्लिम माँ हुस्नबानो अपने हिन्दू कट्टरपंथी बेटे दिलीप के साथ तालमेल बिठा पाती है ? फिल्म का क्लाइमेक्स जानने के लिए आपको फिल्म 'धर्मपुत्र ' एक बार जरूर देखनी चाहिए 

'धर्मपुत्र 'का टर्निंग पॉइंट - जब दलीप को जब पता चलता है की वो एक मुस्लिम की संतान है 

धर्मपुत्र' अभिनेता दलीप कुमार की आवाज़ के साथ शुरू होती है और अभिनेता राजेंद्र कुमार पर फिल्माए गए विशेष गीत 'ये किसका लहू ये कौन मरा ' के साथ समाप्त होती है शशि कपूर इससे पहले कई फिल्मो में बाल कलाकार के रूप में काम कर चुके थे लेकिन एक नायक के तौर पर उनकी पहली फिल्म थी शशि कपूर ने एक हिन्दू कट्टरतावादी युवक दलीप राय की सशक्त भूमिका निभाई धर्मपुत्र’ के दलीप की छवि से निकलने में शशि कपूर को भी काफी मशकत करनी पड़ी इस फिल्म के बाद बाद शशि कपूर ने ‘चारदीवारी’ और ‘प्रेमपत्र’ जैसी असफल फिल्मों में काम किया इसके बाद उनकी ‘मेहंदी लगी मेरे हाथ’, ‘मोहब्बत इसको कहते हैं’, ‘नींद हमारी ख्वाब तुम्हारे’, ‘जुआरी’, ‘कन्यादान’, ‘हसीना मान जाएगी’ जैसी फ़िल्में आई लेकिन सारी नाकामयाब रही

दिलचस्प बात ये है कि बॉक्स ऑफिस पर असफ़ल रहने के बावजूद धर्मपुत्र ने 9वें नेशनल फ़िल्म अवॉर्ड में बेस्ट फ़ीचर फ़िल्म इन हिंदी का अवॉर्ड जीता सर्वश्रेष्ठ संवाद के लिए (अख्तर-उल-इमान ) को फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिला अख्तर-उल-इमान के लिखे कुछ बेहतरीन संवाद देखिए जो आज के माहौल में भी प्रासंगिक हैं

'' हिंदू – मुस्लिम दो कौमों का नहीं, तारीख़ के एक दौर का नाम है हिंदू-मुस्लिम इस देश की एक तहज़ीब, एक सभ्यता का नाम है. हिंदू-मुस्लिम इस धरती के उन दो बेटों का नाम है, जिनकी ख़ुशी और ग़म, जिनका जीना और मरना एक है. ये दोनों एक थे, एक ही हैं और एक ही रहेंगे.”

“ज़माना देखते-देखते बदल जाता है, वो ज़मीं-आसमान, जहां कल मुहब्बत के नारे गूंजते थे, आज वहां नफरत के शोले भड़क रहे हैं. इंसान कितनी जल्दी बदल जाता है, कितनी जल्दी हर बात भूल जाता है. ”

“धर्म आदमी को इंसान नहीं बनाता, इंसान को इंसान से लड़ाता है.”

“बंटवारा तो सगे भाइयों में भी होता है, मगर तलवार मारकर खून को खून से अलग नहीं किया जा सकता.”

“तूने धरम को एक दहकती हुई भट्टी और तपता हुआ लोहा बना दिया है, जिसको तेरे सिवा जो भी हाथ जलाएगा जल के राख़ हो जाएगा. आज मैंने तुझे पहचान लिया. हमारे बेटे के रूप में तू वो बुराई है जो सदियों से इस धरती पर जन्म ले रही है. जो भेस बदल-बदल कर हर मुल्क, हर कौम में चली जाती है. तूने राम को वनवास दिलाया था, सीता को घर से निकलवाया था, तूने ईसा को सलीब पर चढ़वाया था, इब्राहिम को आग में तूने डलवाया था, मुहम्मद को मक्के से तूने निकलवाया था. तू हर अच्छाई का दुश्मन है, तू वो है जो मज़हबों की सूरत बिगाड़ देता है.”

कई मशहूर फ़िल्मी आलोचको ने 'धर्मपुत्र 'को देश की आजादी के बाद भारत के क्रूर विभाजन और हिंदू कट्टरवाद को दर्शाने वाली पहली हिंदी फिल्म घोषित कर दिया हुई जाहिर है इस बात की कल्पना भी यश चोपड़ा ने कभी नहीं की थी "धर्मपुत्र "से मुस्लिम वर्ग तो नाराज़ हुआ ही साथ साथ फिल्म को दक्षिणपंथी समूहों के विरोध का सामना करना पड़ा इस कारण से फिल्म 'धर्मपुत्र 'पर कुछ समय के लिए प्रतिबन्ध लग गया बाद में जब कई कानूनी दांव पेंच के बाद ये फ़िल्म रिलीज़ हुई तो बॉक्स ऑफिस पर चल नहीं पाई बी.आर.चोपड़ा को बहुत आर्थिक नुकसान हुआ इससे सबक लेते हुए यश चोपड़ा ने भी भविष्य में फिर कभी राजनीतिक फ़िल्में न बनाने की तौबा कर ली यही नहीं उस दौर के कई निर्माता-निर्देशकों ने भी सबक लेते हुए विभाजन पर फ़िल्में बनाने से ख़ुद को कुछ समय के लिए रोक लिया था या इस विषय से ही तौबा कर ली वर्षों यह विषय फिर किसी फ़िल्मकार ने नहीं उठाया 

'धर्मपुत्र'  ब्रिटिश राज के दौरान भारत के विभाजन से पैदा हुए साम्प्रदायिक घटनाओ पर आधारित थी फिल्म में विभाजन की पृष्ठभूमि के बीच धार्मिक कट्टरता, कट्टरता और सांप्रदायिकता जैसे संवेदनशील मुद्दों को बखूबी छुआ गया था अपनी दूसरी राजनैतिक फिल्म 'धर्मपुत्र' (1961) निर्देशित कर यश चोपड़ा ने उस समय सबको अचंभित कर दिया जाहिर है की फिल्म का विषय बेहद संवेदनशहील था नतीजन देश के कई भागो में फिल्म की स्क्रीनिंग पर इतना बवाल हुआ की फिल्म को प्रतिबंधित करना पड़ा फिल्म 'धर्मपुत्र 'जब रिलीज़ हुई तो देश को आज़ाद हुए 13 वर्ष बीत चुके थे लेकिन विभाजन के घाव अभी हरे थे और नफरतो का लावा अभी भी उबल रहा था लोग विभाजन के दौरान ख़ुद के साथ हुए अत्याचारों को भुला नहीं पाए थे जिन लोगो ने अपनों को दंगो में खोया था उनकी कहानिया अभी भी सुनी और सुनाई जा यही थी जिसका नतीजा ये हुआ की फिल्म की स्क्रीनिंग के दौरान जमकर उत्तेजक धार्मिक नारेबारी होती थी थिएटर में ख़ासकर लोग उत्तेजित हो जाते और सिनेमाघरों में दंगे जैसी स्थिति पैदा हो जाती स्क्रीन पर शशि कपूर के लगाए धार्मिक नारो के साथ लोग जम कर उत्तेजक नारे लगाते एक बात जो खासकर दिल्ली के लोगो को इस फिल्म से जोड़ती है वो यह है की फिल्म में दिल्ली के कई मशहूर मोहल्लो और स्थानों का जिक्र आता है और शूटिंग भी दिल्ली की है फिल्म का अंत भी दिल्ली के राजघाट पर होता है शायद इसलिए दिल्ली के लोगो ने अपने आप को फिल्म 'धर्मपुत्र 'के ज्यादा करीब पाया और दिल्ली के सिनेमा घरो में ये बवाल कुछ ज्यादा ही देखने को मिला फिल्म को कुछ समय के लिए मालिकों ने सिनेमा घरो से हटा लिया बाद में सरकार ने इसे प्रतिबंधित कर दिया और जब काफी समय के बाद तमाम क़ानूनी झंझटो के बाद प्रतिबन्ध हटा तो देर हो चुकी थी चर्चित होने और माउथ पब्लिकसिटी होने के बावजूद भी इसे दर्शक नहीं मिले 

धर्मपुत्र के कलाइमेक्स में दिल्ली के राजघाट पर सितारे 

'किसका लहू है कौन मरा 'गीत में राजेंदर कुमार 
फिल्म धर्मपुत्र में संगीतकार एन. दत्ता और गीतकार साहिर लुधियानवी के संयोजन के माध्यम से कुछ यादगार गीत भी समेटे हैं "नैना क्यो भर आये" (आशा भोसले") ,जो दिल दिया मचल गया" ये मंदिर है वो बुतखाना ये मानो चाहे वो मानो" में जब भी अकेली होती हूँ  (आशा भोसले) "सारे जहां से अच्छा" (आशा भोसले, मोहम्मद रफ़ी ) ये "जो दिल दीवाना मचल गया" "जय जननी जय भारत माँ" (महेंद्र कपूर)  "तुम्हारी आंखें" (महेंद्र कपूर)  "आज की रात" (महेंद्र कपूर मोहम्मद रफ़ी)  बहुत अच्छे हैं किसका लहू है कौन मरा  (’महेंद्र कपूर ) मे राजेंद्र कुमार एक अतिथि भूमिका है उनके होने से से इस जोशीले गीत के प्रभाव में वृद्धि होती है प्रत्येक गीत, सुनने लायक है लेकिन दुर्भाग्य से एक आध गीत ही सुपर चार्ट में अपनी जगह बना पाए अमर गीतों से सुसज्जित होने के बाद भी धर्मपुत्र’ बॉक्स ऑफिस पर लुढ़क गई अंधे धार्मिक कट्टरपंथ के खिलाफ यश चोपड़ा और गीतकार साहिर लुधियानवी ने सद्भाव का प्रयास किया लेकिन साम्प्रदायिक तनाव ऐसा हुआ कि उनकी सारी मेहनत बेकार हो गई 'धर्मपुत्र' से सबक लेते हुए वर्षों के बाद भी यह विषय किसी भी फ़िल्मकार ने नहीं उठाया हमारे फिल्मकार ऐसे विषयो से बचते रहे' धर्मपुत्र' में भी कुछ ऐसी बाते है जो सवाल छोड़ जाती है देश के बहुसंख्यक समुदाय को वेबजह कुछ ज्यादा ही उग्र स्वभाव का दिखाना हज़म नहीं होता जबकि विभाजन के बाद पाकिस्तान से भारत आये लोगो की कहानियाँ कुछ और ही बयां करती है शशि कपूर के धार्मिक कट्टरपन को हिन्दू देवी देवताओं के उदाहरण के साथ उसके ही भाई बहनो द्वारा बार बार मजाक उड़ाना और एक विशेष वर्ग को जरुरत से ज्यादा सहनशील दिखाते हुए सिर्फ दलीप को बार बार दोषी ठहराना भी न्यायोचित नहीं कहा जा सकता इतनी बेहतरीन परवरिश के बावजूद आखिर सिर्फ दलीप राय ही कट्टर क्यों हुआ बाकि के बच्चे क्यों नहीं ? धर्मपुत्र ' ने बहुत से सवाल पैदा किये जैसे की मुस्लिम बच्चे ( दलीप राय ) को उसकी वास्तविक असलियत बताने के कई मौके आते है लेकिन उसके मां-बाप  उसे सच्चाई क्यों नहीं बताते ?  ऐसे हज़म न होने वाले और भी कई सीन फिल्म में है संवाद लेखक अख्तर उल ईमान ने तो ''बँटवारा तो सगे भाइयो में भी होता है'' संवाद के जरिये देश के विभाजन को ही अपनी मौन स्वीकृति दे देते है निरुपा राय का एक अन्य संवाद जब वो दलीप से पूछती है की '' तू किस परंपरा की बात कर रहे हैं जो एक जवान लड़की की शादी एक बूढ़े आदमी से करवाती हैं और फिर उसे जिन्दा मरने के लिए पति की चिता में धकेल देती हैं ? वो समाज जो महिलाओं को अपने अधीन रखता हैं ? वह किन हिंदू परंपराओं की रक्षा कर रहा है, तू किस के लिए लड़ रहा है ? अख्तर उल ईमान का ये संवाद भी सिर्फ बहुसंख्यक वर्ग पर निशाना साधता है जिससे बचा जा सकता था 

 इस फ़िल्म के रिलीज़ से पहले बड़ा शोर था और ये कितनी महत्वाकांक्षी फ़िल्म थी इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि ये दिलीप कुमार के उद्बोधन से शुरू होती है लेकिन जब किसी ऐतिहासिक घटना को लेकर कोई निर्माता या निर्देशक फ़िल्म बनाता है तो उसकी फिल्म को  ऐतिहासिक दस्तावेज़ी के क़रीब दिखना चाहिए लेकिन 'धर्मपुत्र 'के साथ ऐसा नहीं हुआ...... यही यश चोपड़ा कमजोर पड़ गए और निर्देशन में मात खा गए फिल्म वास्तविकता से दूर हो कर पटरी उतर गई और व्यर्थ के मेलोड्रामा के तब्दील हो गई अब अगर बात फिल्म के तकनीकी पक्ष की करे तो यश चोपड़ा की "धर्मपुत्र" तकनीकी मोर्चे पर भी पिछड़ गई एडिटर प्राण मेहरा की एडिटिंग थोड़ी और अच्छी हो सकती थी कला निर्देशन और धरम चोपड़ा का छायांकन भी (काले और सफेद में ) और बेहतर हो सकता था ये दोनों ही चीजे फिल्म का माइन्स पॉइंट कही जा सकती है मध्यांतर के बाद दंगो के दृश्य में डर और खौफ का माहौल दिखाने में निर्देशक कुछ हद तक सफल रहा 

'मैं जब भी अकेली होती हूँ  ' गाने में माला सिन्हा 

कई खामियों ,आलोचना ,प्रतिबन्ध ,और आर्थिक नुकसान झेलने के बावजूद भी 'धर्मपुत्र' राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार हिंदी में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के लिए राष्ट्रपति का रजत पदक पाने में कामयाब रही फिल्म धर्मपुत्र जिन खंभों पर फिल्म टिकी है वे है इसकी स्क्रिप्ट और डायलॉग हैं जो फिल्म के हिटिंग पॉइंट हैं सर्वश्रेष्ठ संवाद के लिए अख्तर उल ईमान फिल्मफेयर अवार्ड ले गए अभिनय के हिसाब से अशोक कुमार ,माला सिन्हा भावनात्मक दृश्यों में अच्छे दिखते हैं और रहमान और निरूपा रॉय भी अपनी भूमिकाओं में अच्छी तरह से फिट बैठे हैं लेकिन स्टैंड आउट प्रदर्शन अभिनेता मनमोहन कृष्ण द्वारा दिया गया है फिल्म मूल रूप से मनमोहन कृष्ण और शशि कपूर की  कही जा सकती है जिन्होंने हिंदू धर्म के दो पहलुओं उदारवादी और अतिवादी को मूर्त रूप दिया जैसे ही आस्था और धार्मिक पहचान का सवाल चरमोत्कर्ष की ओर आता है इन दो अभिनेताओं का तनाव परदे पर देखते बनता है मनमोहन कृष्ण के कलाइमेक्स में अपने बेटे शशि कपूर के साथ टकराव के दृश्य बेहतरीन है यहाँ एक दिलचस्प बात ये है की यश चोपड़ा की दोनों ही फिल्मो में हिन्दू और मुस्लिम अभिवावक की भूमिका बी.आर चोपड़ा के अभिन्न दोस्त रहे चरित्र अभिनेता 'मनमोहन कृष्ण 'ने ही निभाई है तबस्सुम भी अपनी छोटी भूमिका में बहुत अच्छी लगी हैं जबकि इंद्राणी मुखर्जी के हिस्से में सिर्फ अच्छा दिखना और मुस्कुराना आया बाद में अभिनेता से हास्य अभिनेता बने देवेन वर्मा की भी ये पहली फिल्म थी लीला चिटनीस (मीना की माँ ) और शशिकला भी (डांसर के रूप में ) में परदे पर अपनी उपस्तिथि दर्ज़ करवाती है बाल कलाकार मास्टर बबलू आकर्षक लगे मूक फिल्मो के कलाकार रहे अभिनेता गायक मास्टर निसार ने भी एक संक्षिप्त भूमिका निभाई है 


आज हम ऐसे दौर में हैं जब देश के विभाजन को झेलने वाले लोग कमोबेश समाप्त हो चले हैं सआदत हसन मंटो, इस्मत चुगताई, अमृता प्रीतम, राजिंदर सिंह बेदी कुलदीप नय्यर, भीष्म साहनी, प्राण, बलराज साहनी जैसे लोगों ने खुद विभाजन का दंश झेला था इसलिए अपने अपने कर्म क्षेत्र में उनका रुख ज्यादा मानवतावादी था उनकी रचनाएं और फिल्में मानवीय पहलू उजागर करती हैं आज के दौर में गुलज़ार साहेब एक मात्र ऐसे शख्स है जो अपनी रचनाओं में विभाजन का दर्द यदा कदा उड़ेलते रहते है आजादी के बाद नई स्थितियों से तालमेल बिठाने में शुरूआती दस-बारह साल निकल गए बाद में उस पर कुछ फिल्में तो बनीं जिनमे विभाजन का जिक्र तो किया लेकिन ये फिल्मे यथार्थ से बचती रहीं धर्मपुत्र 'एक मर्मस्पर्शी और बेहद कठिन कहानी थी जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी 1960 के दशक में थी जब बंटवारे के घाव ताजा थे देश के विभाजन की दर्द भरी कहानियाँ शायद हमारे लिए सिर्फ एक सुनी सुनाई बात हो सकती है लेकिन जिन लोगो ने निर्वासन के दर्द के साथ इसे झेला है अपनों को खोया है उनकी वास्तविक पीड़ा किसी ने महसूस नहीं की मेरा खुद का मानना है की देश के आज़ाद होने की कीमत तो इन्ही लोगो ने अपने घर बार लुटा , अपनों को खो कर चुकाई है जिसका कोई मोल नहीं लगा सकता इन्होने न तो किसी सरकार से मदद या आरक्षण माँगा और न ही किसी ने सरकार ने उनकी सुध ली लेकिन एक अच्छी बात ये है की ये शरणार्थी अपने मेहनत के बल पर फिर उठ खड़े हुए

ऐसा बिलकुल भी नहीं है की यश चोपड़ा की 'धर्मपुत्र 'बिलकुल सटीक तरीके से विभाजन की विभीषका दर्शाती है शायद इसे निर्देशक की मजबूरी भी कह सकते है क्योंकि चतुरसेन शास्त्री के उपन्यास को जस का तस परदे पर उतारने के चक्कर में या बाजारवाद के चलते मजबूरन मानवीय मूल्यों नजरअंदाज कर दिया होगा लेकिन फिर भी देश के बॅटवारे को छूती फिल्मो का जिक्र यश चोपड़ा की फिल्म 'धर्मपुत्र' के बिना अधूरा ही माना जायेगा हिंदी सिनेमा के सौ वर्ष पूरे होने पर दिल्ली के सिरीफोर्ट ऑडिटोरियम में सेंटेनरी फिल्म-फेस्टिवल आयोजित किया गया था उसी फेस्टिवल में 'धर्मपुत्र' दिखाई गई जिसे आज के दौर में देखना एक अविस्मरणीय अनुभव था छोटी-मोटी खामियों के बावजूद, और कुछ मिनटों के अप्रत्याशित मेलोड्रामा के बावजूद 'धर्मपुत्र 'समय की कसौटी पर खरी उतरती है जैसा की कि मैंने पहले उल्लेख किया है यह विषय आज दौर में भी उतना ही प्रासंगिक है जितना तब था छह दशक पुरानी फिल्म का मूल आधार उस समय की तुलना में आज के बदले राजनीतिक परिवेश में कही ज्यादा प्रासंगिक लगता है

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