फिल्म 'खंडहर' में शबाना आज़मी ने सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार जीता था |
गिरती हुई दीवारों के साथ खामोश खड़ी पुरखों की निशानी, इस पुरानी हवेली का खंडहर अपने अन्दर कितनी ही कहानियाँ छुपाए आज भी हसरत से खड़ा है ....... दौर इक ऐसा भी था यहाँ कभी क़हक़हे लगते थे ... लेकिन अब सिर्फ सन्नाटे हैं और दूर तलक़ सिर्फ़ वीरानियाँ ......... बागबाँ ने कभी खुद के लहू से सींचा होगा इस इमारत को ....... कितना मुश्क़िल होता है न ईंट-ईंट जोड़कर इक घर बनाना और फ़िर जहाँ कभी पत्ते न हिलते थे घर के बागबाँ की मर्ज़ी के बगैर ,वहाँ अब रिश्तों की दरार आ जाये, जो कभी इक-दूसरे की धड़कन हुआ करते थे आज सब की अलग-अलग दहलीज़ हो गई .........क्या इस बेबसी पर रोया होगा न मुसव्विर .........?
बंगाली और हिंदी फिल्मो के निर्देशक मृणाल सेन की 1984 में आई कलात्मक फिल्म 'खण्डहर' का बस इतना सा फलसफा है
फिल्म 'खंडहर' के दृश्य में शबाना आज़मी और गीता सेन |
8 जून 1984 की गर्मियों में ख़ामोशी से आई 'खण्डहर' बहुत ही कम शो के साथ रिलीज़ हुई क्योंकि यह वो दौर था कब भारत में आर्ट फिल्मो का युग सिमटने लगा था इस तरह की फिल्मे सिर्फ इंटरनेश्नल फिल्म फेस्टिवल में देखने और दिखाने तक सिमित हो गई जिसका अंतिम एक मात्र सहारा दूरदर्शन ही होता था जहाँ इन्हे दिखाया जाता था हमसे अधिकतर लोगो ने अगर 'खण्डहर' को देखा भी होगा तो दूरदर्शन पर ही देखा होगा ये कड़वी सच्चाई है सिनेमा में टिकट लेकर 'खण्डहर' देखने वाले नाममात्र के सिने प्रेमी ही होंगे
प्रेमेंद्र मित्रा की बंगाली लघु कहानी, टेलीनापोटा अभिशकर (डिस्कवरिंग टेलीनापोटा) पर आधारित मृणाल सेन के निर्देशन में बनी फिल्म 'खण्डहर' की कहानी बहुत दर्दनाक है फिल्म में किसी की जान तो नहीं जाती लेकिन स्थितियां कुछ ऐसी हैं कि देखकर ही संवेदनशील दर्शक विचलित हो जाता है फिल्म खंडहरों में रहने वाली एक बेबस वृद्ध माँ और उसकी बेटी 'जामिनी' की मार्मिक कहानी प्रस्तुत करती है जिसका शहर के तीन दोस्तों से मिलने के बाद कुछ दिनों के लिए सही पर जीवन बदल जाता है ये दोस्त एक छोटे से अंतराल में उन मां-बेटी की कहानियां समझते हैं दरअसल उस लड़की की मां एक लड़के का इंतजार कर रही हैं जो उसकी बेटी जामिनी से शादी करने वाला है जबकि वह आदमी तो पहले से ही कोलकाता में शादी कर चुका है इन तीन दोस्तों में से एक दोस्त उन माँ-बेटी की विषम परिस्थति को समझता है और जामिनी से मन ही मन प्रेम करने लगता है
एक शहर में रहने वाला कमर्शियल फोटोग्राफर,सुभाष (नसीरुद्दीन शाह) को उसका दोस्त दीपू (पंकज कपूर) दो दिनों के लिए अपने दूर दराज़ के पुराने पुश्तैनी पारिवारिक घर में घूमने का आग्रह करता है इस यात्रा में का उनका एक और दोस्त अनिल (अन्नू कपूर) भी शामिल हो जाता है उनका ये छोटा सा टूर सिर्फ अपने काम के तनाव को दूर करने और मौजमस्ती के लिए है तीनों दोस्त इत्मीनान से छुट्टी मनाने के लिए तैयार हैं पहले बस और फिर बैलगाड़ी से उस घर तक बड़ी मुश्किल से पहुँच पाते है जहाँ जाकर वो पाते है जिस को दीपू घर बता रहा था वो तो अपने समय की एक औपनिवेशिक हवेली है जो अब एक खस्ताहाल टूटे हुए स्तंभों और गुफाओं का एक चक्रव्यूह है इस घर के उजाड़ और डरावने खंडहरों को देख वो हताश हो जाते है
फिल्म 'खंडहर' के दृश्य में शबाना आज़मी और नसीरुद्दीन शाह |
फिल्म 'खंडहर' के दृश्य में शबाना आज़मी और पंकज कपूर |
दरअसल ये खंडहर कभी एक सामंती परिवार की विशाल हवेली थी जहाँ अब उजाड़ के बीच में मात्र दो लोगों का एक परिवार रहता है एक माँ (गीता सेन) और उसकी बेटी,जामिनि (शबाना आज़मी) जो हवेली के एक हिस्से की उत्तराधिकारी हैं माँ बीमार,लकवाग्रस्त और अंधी है इस उम्मीद पर जिन्दा है कि उसका दूर का एक रिश्तेदार निरंजन एक दिन आएगा और उससे किये वादे के मुताबिक उसकी बेटी जामिनि से शादी करेगा लेकिन सच्चाई कुछ और है वह युवक अब शादी कर अपनी पत्नी और एक बच्चे के साथ शहर में एक शानदार जीवन जी रहा है दीपू की चचेरी बहन जामिनि सच्चाई जानती है लेकिन उसे अपने तक ही सीमित रखती है
तीनो दोस्त कुछ दिनों के लिए शहरी जीवन की आपाधापी से दूर खंडहरों के इस सन्नाटे का आनंद लेने का निर्णय करते है गाँव के कुछ पुराने मंदिर-तालाब और खंडहर सुभाष का मन मोह लेते हैं वो उनकी तस्वीरें लेने का निर्णय करता है जामिनि की माँ दीपू के फोटोग्राफर मित्र सुभाष को ही निरंजन समझ बैठती है और उससे जामिनी को शादी करने की विनती करती है वह यह मान रही है कि निरंजन ही जामिनी से शादी करने के अपने वादे को पूरा करने के लिए दीपू के साथ लौट आया है
उसने नीले रंग की साड़ी तो पहनी है, लेकिन बेल बूटे वाली वाला नहीं, वो तो बहुत पहले ही फट गया थी
इसे वाक्यांश को जामिनी के स्वयं के त्याग किए गए सपनों के रूप में भी समझा जा सकता है जो शायद फिर से खिलना चाहते हैं फिल्म के अंत में जब तीनो दोस्त उसे खंडहरों में अकेला छोड़कर वापिस शहर लौट जाते है तो लगभग टूटते हुए वह अपनी माँ से विनती करती है,
‘’जामिनी, जामिनी’’...अपनी बेटी को कमजोर लेकिन माँग भरे स्वर में पुकारती एक माँ की यह दर्द भरी चीख हिंदी सिनेमा में अब तक सुनी सबसे भयावह चीखों में से एक है जो आपको विचलित कर देती है और हम उसके साथ लगभग रोने लगते हैं और फिल्म के अंत में तीनो दोस्तों को शहर जाते हुए खंडहरों की ओट से झांकती जामिनि सीधा आपके कलेजे को चीर देती है शहर में सुभाष के दफ्तर में टँगी उसकी यही आखरी तस्वीर ये बताती है की उसकी जगह बस यही थी जामिनी के किरदार के लिए अभिनेत्री शबाना आजमी को अपने करियर का तीसरा राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला था
फिल्म 'खंडहर' के सेट पर नसीरुद्दीन शाह और निर्देशक मृणाल सेन के साथ छायाकार के.के महाजन |
केंद्रीय
कथानक में इतनी गम्भीरत होते हुए भी निर्देशक वामपंथ का मोह नहीं छोड़ पाता वह संक्षेप
में सही पर पंकज कपूर के जरिये मृणाल सेन जमींदारी उन्मूलन और श्रमिक वर्ग की दुर्दशा का उल्लेख करना नहीं भूलते ......... मृणाल सेन ने अपनी दुर्लभ हिंदी फिल्मों में से एक में शांति, लालसा और परित्याग की
एक गहन तस्वीर चित्रित की है पात्रों की सूक्ष्म अंतरक्रिया, अव्यक्त भावनाओं की छटा
और घटनाओं के तनाव को कभी भी सामने नहीं आने देने के कारण मृणाल सेन ने पूर्णता का
वह गुण हासिल किया है जो पहले उनकी फिल्मों में नहीं देखा गया था 'खंडहर' संभवतः उनकी
अब तक की सर्वश्रेष्ठ फिल्म है और निस्संदेह उनकी सबसे पसंदीदा फिल्मों में से है 'खंडहर'
के लिए मृणाल सेन को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी मिला शबाना
आज़मी ,नासिर ,पंकज कपूर ,अन्नू कपूर ,गीता सेन सरीला मजूमदार फिल्म से सभी कलाकार
मंजे हुए है लेकिन सिनेमेटोग्राफर के.के महाजन अपने बेहतरीन काम से इन सबको पीछे छोड़ देते है उनका कैमरा वर्क 'खंडहरों' में
दफ़न 'जामिनि ' के किरदार के रहस्य को और गहरा कर देता है
फिल्म 'खंडहर' के सेट पर नसीरुद्दीन शाह और निर्देशक मृणाल सेन |
इसे 1984 के कान्स फिल्म फेस्टिवल में अन सर्टेन रिगार्ड सेक्शन में प्रदर्शित किया गया था यह फिल्म शिकागो इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल (1984) से गोल्डन ह्यूगो और मॉन्ट्रियल वर्ल्ड फिल्म फेस्टिवल (1984) से विशेष जूरी पुरस्कार की विजेता है ये फिल्म 'खंडहर' खामोशियों,लुप्त होते शब्दों, अण्डाकार वाक्यों और अनकही बातचीत की हैं यह एक सर्वश्रेष्ठ फिल्म है बॉक्स-ऑफिस पर इस फिल्म का अंजाम जो भी हुआ हो लेकिन फिल्म प्रेमियों के लिए इसे देखना अनिवार्य है
1985
फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ पटकथा पुरस्कार : मृणाल सेन
1984
सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार : मृणाल सेन
1984
सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार : शबाना आज़मी
1984
सर्वश्रेष्ठ संपादन के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार : मृण्मय चक्रवर्ती
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