गुरुदत्त, - प्यासा (1957) |
हर सिनेमा की तरह भारतीय सिनेमा में भी तीन बातें महत्वपूर्ण हैं,
लाइट, कैमरा और एक्शन लेकिन सच्चाई यह है कि यहां की फिल्मों में कैमरा और
लाइट की कलाकारी कम ही की जाती है लेकिन गुरुदत्त साहेब का श्याम श्वेत
सिनेमा इसका अपवाद है गुरुदत्त की सिनेमाई समझ के बारे में काफी
कुछ कहा जाता रहा है, मसलन, वह समय से काफी आगे की सोच रखने वाले फिल्मकार
थे फिल्मों के तकनीकी पक्ष को उन्होंने बेहद करीब से समझा था फिल्मों में
खामोशी भरे दृश्य को भी लाइट और कैमरा की मदद से सफल बनाने वाले गुरु दत्त
पहले ऐसे निर्देशक थे, जिन्होंने दर्शकों को फिल्मों की बारीकियों से रूबरू
करवाया गुरुदत्त की 'प्यासा' (1957) दुनिया में अब तक बनी टॉप 100 फिल्मों में से
एक है इस फिल्म में गुरुदत्त और वहीदा की केमिस्ट्री कमाल की थी बेहतरीन
संगीत और अभिनय की वजह से इस फिल्म ने बॉलीवुड में इतिहास रचा दिया
फिल्म ‘प्यासा’ के लिए उन्होंने वहीदा को साइन किया गुरुदत्त पहले इस फिल्म
के लिए दिलीप कुमार को लेना चाहते थे दलीप साहेब ने गुरुदत्त को कहा की ...''मैं इससे मिलता जुलता रोल फिल्म' देवदास ' (1955 ) पहले में कर चुका हूँ और एक ही तरह के किरदार को दुबारा दोहराने में वो मजा नहीं आता '' दलीप कुमार ने गुरुदत्त को सुझाव दिया की आप ये रोल खुद क्यों नहीं कर कर लेते आप परदे पर इस किरदार को मुझ से बेहतर कर सकते है
दलीप साहेब के सुझाव के बाद गुरुदत्त ने अपना मन बदल लिया और खुद ही इस फिल्म में विजय वाला लीड रोल करने का फैसला किया चर्चा तो
ये भी थी कि फीमेल लीड के लिए गुरुदत्त मधुबाला और नर्गिस को लेने के बारे
में विचार कर रहे थे तकनीकी पक्ष के अलावा भी एक फिल्मकार के तौर भी
गुरुदत्त को अपनी समाजिक जिम्मेदारियों का अहसास था तभी तो माना जाता है कि
गुरुदत्त आजादी के बाद ऐसे पहले फिल्मकार थे, जिन्होंने अपनी फिल्मों में
यह दिखाने की कोशिश की कि जिस तरह के सामाजिक न्याय की बात आजादी से पहले
की जाती थी, वह आजादी के बाद लोगों को नहीं मिला यही वजह है कि उनकी
अधिकांश फिल्मों का नायक त्रासदी का शिकार दिखता है गुरुदत्त कितने
सवेदनशीलशील फ़िल्मकार थे इस बात का अंदाज़ा आप को इस छोटी से घटना से लगेगा
'प्यासा' के शुरुआती दिनों में यह फैसला लिया गया था कि फिल्म की कहानी
कोठे पर आधारित होगी और गुरुदत्त ने फिल्म के पटकथा लेखक अबरार अल्वी से
साफ़ कह दिया की इस बारे में भरपूर रिसर्च की जाये कई कहानियो को पढ़ने और
तमाम जानकारी लेने के बाद अबरार अल्वी जी ने उनसे कहा की ...."अगर किसी
कोठे पर जा कर जानकारी जुटाई जाये तो कहानी में वास्तविक आ जाएगी "...अबरार
अल्वी की बात गुरुदत्त साहेब को जम गई लेकिन बस एक दिक्कत थी गुरु दत्त और
अबरार अल्वी कभी किसी कोठे पर नहीं गए थे...... आखिर हिम्मत करके उन्होंने
कोलकाता के मशहूर रेड लाइट एरिया में जाने का निर्णय किया और दोनों अपनी
पहचान छिपा कर दिन ढलने पर निर्धारित कोठे पर पहुँच भी गए वहां नाच
गाने की महफ़िल जमने ही वाली थी दोनों एक कोने में बैठ गए और बारीकी से हर
चीज़ का मुआयना करने लगे थोड़ी ही देर में एकखूबसूरत तवायफ भी आ गई और नाच
गाने का दौर शुरू हो गया तमाम लोग हुस्न और नाच गाने का वाह वाह कर लुत्फ़
लेने लगे तभी गुरु दत्त का ध्यान नाचने वाली उस खूबसूरत तवायफ पर गया
उन्होंने गौर से उसको देखा तो महसूस किया की वो नाचते हुए लड़खड़ा रही है
गुरुदत्त साहेब ये देख कर हैरान रह गये की वो नाचने वाली तवायफ गर्भवती थी
फिर भी लोग उसे नचाए जा रहे थे.और वो अपना दर्द भूल कर सिर्फ चंद सिक्को के
लिए नाचे जा रही थी गुरु दत्त का मन भर आया उन्होंने अपने दोस्त
अबरार अल्वी से कहा ..'चलो यहां से' ...और नोटों की एक मोटी गड्डी जिसमें
कम से कम हजार रुपये रहे होंगे, उसे वहां रखकर बाहर निकल आए इस
घटना के बाद दत्त ने कहा कि मुझे साहिर के गाने के लिए चकले का सीन मिल
गया और वह गाना था, 'जिन्हें नाज है हिन्द पर हो कहां है.' गुरु दत्त ने तय
किया कि वो साहिर लुधियानवी की इस नज़्म को अपनी फ़िल्म में इसी सिचुएशन
पर इस्तेमाल करेंगे
उन्होंने इस गाने की रिकार्डिंग की तारीख तय
कर दी और रिहर्सल के लिए तय समय पर मोहम्मद रफ़ी उनके यहाँ पहुंच
गए लेकिन संगीतकार एसडी बर्मन का कहीं पता नहीं था ग़ुरूदत्त
ने बिना समय गवाँए रफ़ी से कहा ......"आप संगीत के बादशाह हैं.आप क्यों
नहीं बिना संगीत के इस नज़्म को गुनगुना देते.?"........रफ़ी ने थोड़ी देर
सोचा और उस नज़्म को अपनी सुरीली आवाज़ में गाने लगे.गुरु दत्त ने उसे अपने
निज़ी टेप रिकॉर्डर पर रिकॉर्ड कर लिया स्टूडियो में रिकार्ड न होने की वजह
से उसकी गुणवत्ता ज़रूर ख़राब हुई, लेकिन सीन में वास्तविकता आ गई.और
हूबहू अपनी फ़िल्म प्यासा में इसका इस्तेमाल किया उन्होनें इस गाने को भी
रेड लाइट एरिया के माहौल में फिल्मा कर उस गर्भवती तवायफ का दर्द सिनेमा के
परदे पर उड़ेल कर रख दिया....... अगर आपने ये गाना देखा है तो आप ने भी उस
दर्द को महसूस किया होगा
ये सदियों से बेखौफ़ सहमी सी गलियां
ये मसली हुई अधखिली ज़र्द कलियां
ये बिकती हुई खोखली रंगरलियाँ
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
कहाँ हैं, ...कहाँ हैं, ...कहाँ हैं ?
कहते है की 'प्यासा ' में गुरुदत्त के निभाए किरदार 'विजय' को देख कर दलीप कुमार को तमाम उम्र इस फिल्म को छोड़ देने का अफ़सोस रहा ...22 फरवरी 1957 को रिलीज़ हुई ‘प्यासा को 2011 में टाइम पत्रिका ने
वैलेंटाइन डे के मौक़े पर सर्वकालीन रोमांटिक फ़िल्मों में शामिल किया था
अबरार अल्वी दस सालों तक गुरुदत्त के सहायक, लेखक और सलाहकार रहे और अंतिम
समय तक गुरुदत्त के साथ रहे गुरुदत्त पर उनकी एक पुस्तक भी आई है जिसका नाम
है 'टेन इयर्स विद गुरुदत्त : अबरार अल्वीज जर्नी' जिसमे उन्होंने इस घटना
का जिक्र भी किया था अब ऐसे फिल्मकार आपको कहीं नहीं मिलेंगे, लेकिन
'प्यासा' (1957) , 'कागज के फूल' (1959), 'साहब, बीबी और गुलाम' (1962) जैसी फिल्मों वाले
''गुरुदत्त '' याद आते रहेंगे प्यासा को डिजिटल वर्जन में रिस्टोर करके
दुबारा तैयार किया गया है अब पता नहीं ये कब तक आजकल के मल्टीप्लेक्स
सिनेमा के परदे आ पाती है ? .....और आती भी है या नहीं ? ....हम तो सिर्फ
इंतज़ार ही कर सकते है ...? बरहाल हमें भी नाज़ है "प्यासा" पर और फिल्म के जरिए कलात्मक बारीकियाँ दर्शाने में माहिर गुरूदत जैसे महान फिल्मकार पर...................
एक ख़ूबसूरत फ़िल्म से जुड़ी हुई बहुत दिलचस्प जानकारी !
ReplyDeleteब्लॉग के लिखने का मक़सद साकार होने की दिशा में है.. शुक्रिया..
ReplyDeleteमेरे एकमात्र पसंदीदा अभिनेता गुरूदत जी ही हैं
ReplyDeleteएक महान अभिनेता थे गुरुदत्त जी ।
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