Tuesday, January 16, 2018

आलम आरा (1931 ) ....आर्देशिर ईरानी की जिस फिल्म से हिंदी सिनेमा ने बोलना सीखा

आलम आरा (1931 )
                                                

                                     ALAM ARA  ...  "All living. Breathing. 100 Percent Talking".


1913 में अपनी फिल्म राजा हरीश चंद्र के साथ दादा साहेब फाल्के जी ने देश के स्वदेशी सिनेमा में प्राण फूंके बेजान चित्रों ने चलना सीखा अपने पौराणिक पात्रो को परदे पर देख दर्शक मंत्रमुग्ध थे .....ये वो दौर था जब भारत में अंग्रेज़ो से आजादी हासिल करने का आंदोलन अंगड़ाई लेने लगा था महात्मा गान्धी प्रवासी वकील के रूप में दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय के लोगों के नागरिक अधिकारों के लिये संघर्ष शुरू कर चुके थे 1915 में उनकी भारत वापसी हुई उसके बाद उन्होंने यहाँ के किसानों, मजदूरों और शहरी श्रमिकों को अत्यधिक भूमि कर और भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाने के लिये एकजुट करना शुरू कर दिया था भारतीय फिल्मो की और हिन्दुस्तानियो के बढ़ते रुझान से अंग्रेज़ बेहद चिंतित थे क्योंकि इन फिल्मो से वो अपनी संस्कृति और धर्म से जुड़ रहे थे ये फिल्मे उनको एक सूत्र में जोड़ रही थी उनकी एक एकजुटता ब्रिटिश हकूमत के लिए खतरे की घंटी थी उनको डर था की ये एकजुटता उनके खिलाफ जा सकती लिहाज़ा अंग्रेज़ो ने भारतीयों के फिल्म निर्माण की राहो में रोड़े अटकाए उनको रॉ मेटीरियल की राशनिंग की गई उन दिनों फिल्मो को प्रोसेसिंग के लिए देश से बाहर भेजा जाता था इन फिल्मो पर तमाम टैक्स लगाए जाने लगे लेकिन सलाम करना होगा दादा साहेब फाल्के ,अर्देशिर ईरानी और जे.जे मदान के हौंसले को जिन्होंने तमाम दिक्कते सहते हुए हिंदुस्तानी सिनेमा की इस विधा को जन्म दियाऔर भारत में मूक सिनेमा का सुनहरा सफर शुरू हुआ  ....भारतीय फिल्मे बनने और चलने लगी .....

वजीर मोहमद खान
1913 से 1931 के दौर में लगभग 1250 मूक फिल्मो का निर्माण हुआ जो हमारे इतिहास का सुनहरी दस्तावेज़ है जब इन फिल्मो का प्रदर्शन होता था तो बीच बीच में ज्यादातर अंग्रेजी भाषा के सब टाइटल के साथ कहानी समझाई जाती थी और एक कोने में बैठा ओर्केस्ट्रा फिल्म के अनुरूप लाइव संगीत बजाता था ये बेहद थकाने वाला काम था इसलिए इन मूक फिल्मो में आवाज़ और ध्वनि की कमी अब खलने लगी थी भारतीय मूक सिनेमा में आवाज़ लाने का बीड़ा आर्देशर ईरानी में उठाया 1929 में बम्बई के एक्सेल्सिअर थियेटर में यूनिवर्सल पिक्चर रिलीज की फिल्म  ‘शो बूट’ देखने के बाद इम्पीरियल मूवी टोन के मालिक आर्देशर ईरानी को भी भारत की पहली बोलती और गाती फिल्म (टाकी) बनाने का विचार आया उनके अनुसार शो बूट केवल 40 प्रतिशत टाकी थी चूंकि इससे पहले भारत में कभी भी टाकी नहीं बनाई गई थी इसलिए अर्देशर ईरानी के सामने भारी कठिनाइयों थीं आवाज वाली फिल्म बनाने के लिए तकनीकी जानकारी और विशेषज्ञता उपलब्ध नहीं थी.....भारत में  न ही साउंड प्रूफ स्टेज उपलब्ध थे,..और न ही रिकॉर्डिंग रूम ..... लेकिन फिर भी आर्देशर ईरानी ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए काम आगे बढ़ाने का फैसला किया ईरानी का संघर्ष जारी रहा उन्होंने बम्बई के ड्रामा लेखकों में से वरिष्ठ सबसे लेखक जोसेफ डेविड के एक प्रसिद्ध ड्रामा को सिल्वर स्क्रीन पर लाने का फैसला किया  "आलम आरा जोसेफ़ डेविड निर्देशित एक पारसी नाटक था आर्देशिर इसे देखकर बड़े प्रभावित हुए और उन्होंने तय किया कि वो गाने डालकर इस पर फ़िल्म बनाएंगे आलम आरा का हिंदी में अर्थ होता है .....' जहान की रोशनी '

जुबैदा
ईरानी ने अपने इस परियोजना को गुप्त रखा जिस समय आर्देशिर ईरानी आलम आरा बना रहे थे उसी समय कृष्णा मूवीटोन,मदान थिएटर्स जैसी कंपनियां भी बोलती फ़िल्म बनाने की कोशिश में थी ईरानी 'आलम आरा' की शूटिंग जल्द से जल्द ख़त्म करना चाहते थे ताकि उनकी फ़िल्म भारत की पहली बोलती फ़िल्म बन जाए लेकिन ये काम इतना आसान न था उन्होंने एक अमेरिकी विशेषज्ञ डीमनग से साउंड रिकॉर्डिंग की मूल बातें जानी जो 100 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से इम्पीरियल मूवी टोन के लिए सिर्फ रिकॉर्डिंग यंत्र सेट करने के लिए अाते थे ईरानी और उनकी यूनिट इंपीरियल स्टूडियो ने टैनोर सिंगल सिस्टम कैमरा विदेश से आयात किया दिन में शूटिंग करना बड़ा मुश्किल होता था फिल्म रिकॉर्डिंग रात 1 बजे से 4 बजे के दौरान की जाती क्योंकि उनका स्टूडियो रेलवे ट्रैक के पास था और दिन के समय ट्रेन के शोर से बचना असंभव था।..... "टैनोर सिंगल सिस्टम कैमरे से शूट करने में बड़ी दिक़्क़त होती डबिंग का तो सवाल ही पैदा नहीं होता एक ही ट्रैक पर साउंड और पिक्चर रिकॉर्ड होती इसलिए कलाकारों को एक ही टेक में शॉट देना पड़ता फ़िल्म के ज़्यादातर कलाकार मूक फ़िल्मों के दौर के थे ऐसे में उन्हें टॉकी फ़िल्म में काम करने की तकनीक के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं थी उन्हें घंटों तक सिखाया जाता कि माइक पर कैसे बोलना है ? उन्हें ज़बान साफ़ करने के तरीक़े भी बताए जाते इसके लिए अवध से विशेष तौर पर बुलाये बाशिंदो की सेवाएँ ली गई सिर्फ कलाकारों और तकनीशियनों के बजट के लिए लगभग 4,0,000 रुपये का भुगतान किया गया जिन्होंने पहली भारतीय टॉकी बनाने में ईरानी की मदद की थी श्री रुस्तम भरूचा ( एक बहुमुखी वकील जो बाद में इंपीरियल स्टूडियोज का प्रबंधन कर चुके थे ) उनका सहयोग भी सराहनीय कहा जा सकता है वो आलम आरा के सहायक निर्देशक थे जिन्होंने आलम आरा के संवाद और गीतों की रिकॉर्डिंग में ईरानी की सहायता की थी

मास्टर विठ्ठल

आर्देशिर ईरानी की ही फिल्म 'बुलबुले ए परिस्तान ' (1926 ) निर्देशित कर भारत की पहली महिला निर्देशक बनने का गौरव हासिल कर चुकी बेगम फातिमा की बेटी 'ज़ुबेदा 'को 'आलम आरा ' की नायिका बनाना तय किया गया मशहूर निर्माता निर्देशक 'महबूब खान ' ने भी 1927 से 1931 के दरमियान 6 मूक और 11 सवाक फिल्मों में अभिनय किया और 'हीरो' बन पाने की कोशिश में जी जान से लगे थे लेकिन हर बार मौका उनके हाथ से फिसलता रहा ईरानी सेठ ने महबूब खान को हिंदुस्तान की पहली सवाक फिल्म 'आलम आरा' का नायक बनाना तय किया था महबूब खान भी बहुत खुश थे उनके परिधान वगैरह भी तैयार करा लिए गए थे महबूब की ख़ुशी ऐन वक्त पर काफूर हो गई जब उन्हें पता चला की उनको इस फिल्म में नहीं लिया जा रहा ....हुआ कुछ यूँ था की ऐन वक्त पर इतने महंगे और महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट के लिए जिसे भारत के इतिहास का पहला बोलता चित्रपट बनना था एक नामालूम छोटे से अभिनेता महबूब खान पर दाँव खेलना ईरानी सेठ ने माकूल नहीं समझा लेकिन उन्होंने सीधे तौर पर महबूब को मना भी नहीं किया आलम आरा में मार धाड़ के दृश्य भी मौजूद थे तो ईरानी ने तत्कालीन साइलेंट सिनेमा के सबसे बड़े स्टंट स्टार मास्टर विठ्ठल को कास्ट करने की ठानी जिसे भारत का "डगलस फेयर्बियनकस " भी कहा जाता था मास्टर विठ्ठल ने भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखने से पहले फ़िल्म 'खज़ाना ' में एक भूमिका अदा करके प्रसिद्धि हासिल की थी इसके बाद मास्टर विठ्ठल शारदा स्टूडियो में शामिल हो गए और एक जबरदस्त एक्शन हीरो के रूप में उभर कर सामने आए भारत की पहली टाकी में काम करने के लिए उन्होंने शारदा से अपना अनुबंध को तोड़ा और ईरानी के साथ समझौता कर लिया। आलम आरा के नायक अब महबूब खान नहीं मास्टर विट्ठल बन गए इसके बाद महबूब ख़ान भी सागर मूवीटोन से जुड़ गए और कई फ़िल्मों में सहायक अभिनेता के रूप में काम किया। कभी अभिनेता संजय दत्त की पत्नी रही रिया पिल्लै बेगम फातिमा की बेटी जुबेदा की ही पोती है फातिमा बेगम के बारे में विस्तार से जानने के लिए  लिंक पर क्लिक करे  https://pawanmehra73.blogspot.in/2018/02/blog-post.html



लेकिन ईरानी सेठ एक और मुसीबत में फँस गए शारदा से अनुबंध के उल्लंघन पर विठ्ठल के खिलाफ क़ानूनी मामला दर्ज हो गया विट्ठल को फिल्म में लेने के लिए साइनिंग अमाउंट दे दिया था लेकिन मास्टर विठ्ठल तो फ़िल्म मे हीरो बनने से पहले ही मुक्कदमेबाजी मे फंस गए ऐसे समय मे विठ्ठल की कानूनी मदद के लिए उस समय के बम्बई के सबसे बड़े वकील 'मोहम्मद अली जिन्ना ' सामने आए। जो बाद में पाकिस्तान के संस्थापक और ''क़ायदे आज़म '' कहलाये फिल्मो के लिए जिन्ना की पसंदीदगी किसी से ढकी छुपी नहीं थी यह तो सभी जानते हैं कि एक समय ऐसा भी आया था जब कानून की पढ़ाई से उनका दिल उचाट हो गया था, और वह एक शेक्सपियर ड्रामा कंपनी के साथ काम करना शुरू कर दिया था लेकिन फिर वह अपने पिता के सामने झुक गए और अंत एक वकील बन गए अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद जिन्ना एक बैरिस्टर बनने के लिए विदेश भी गए और 1895 में केवल 19 साल की उम्र में वह कानूनी करियर शुरू करने के लिए भारत लौट आए अगले साल वह बम्बई के एकमात्र मुस्लिम बैरिस्टर बन गए ..... जिन्ना ने विट्ठल का मुकुदमा लड़ा था जिन्ना ने अदालत में ‘आलम आरा ‘ में काम करने के विठ्ठल के अधिकार का भरपूर और बहुत प्रभावी बचाव किया और इस बात को सुनिश्चित किया कि ईरानी को अपनी इस ऐतिहासिक फिल्म के लिए उनकी पसंद का हीरो मिले .......नायक बनने के लिए विट्ठल को मुकुदमा जीतना पड़ा लेकिन फिर एक समस्या आ खड़ी हुई जब मुकदमे बाजी की तमाम कठिनाइयों के अंत में जब शूटिंग शुरू हुई तो पता चला कि उनके एक्शन हीरो विठ्ठल का हिंदी और उर्दू उच्चारण सही नहीं था वह मराठी होंने के कारण आलम आरा में अपने संवाद सही रूप से बोल नहीं पा रहे थे नतीजतन ईरानी ने कहानी में बदलाव लाकर उन्हें गूंगा बना दिया गया इसलिए उन्हें फिल्म आलम आरा में अक्सर अर्द्ध उनींदापन की हालत में दिखाया गया है और इस तरह हिंदी फिल्मों का बोलता मुख्य स्टार बनने की उनकी उम्मीदों पर पानी फिर गया वो फिल्म में तो थे लेकिन आलम आरा में ज्यादातर संवाद उनके हिस्से में नहीं है लेकिन मास्टर विठ्ठल ने अागे जा कर मराठी फिल्मों के अभिनेता और निर्देशक के रूप में खुद की अपनी पहचान बनाई आलम आरा पृथ्वीराज कपूर की भी पहली फिल्म मानी जाती है इस फिल्म में उन्होंने एक वफादार मंत्री की भूमिका अदा की थी

पृथ्वी राज कपूर
अब बात करते है इस बोलती टॉकी की कहानी की करते है आलम आरा में एक प्रेम कहानी दिखाई गई थी जो एक शहज़ादे जहांगीर खान (मास्टर विट्ठल ) और बंजारी लड़की आलम आरा (जुबैदा ) के बीच है जिसमें खोने और वापस मिलने की कहानी भी शामिल है एक काल्पनिक रियासत कुमारपुर नगर में शाही परिवार का राज है फिल्म में एक सुल्तान और उसकी दो झगड़ालू बेगमे दिलबहार और नवबहार है दोनों की आपस में नहीं बनती दोनों के बीच झगड़ा तब और बढ़ जाता है जब एक फकीर ( वजीर मोहमद खान ) ये भविष्यवाणी करता है कि सुल्तान के उत्तराधिकारी को नवबहार ही जन्म देगी आक्रोश में पागल दिलबहार ( सुशीला ) बदला लेने के लिए राज्य के प्रमुख और वफादार मंत्री आदिल ( पृथ्वी राज कपूर ) से प्यार की गुहार करती है और उस से जिस्मानी सम्बन्ध बनाना चाहती है पर आदिल उसके इस प्रस्ताव को ठुकरा देता है वह कहता है उसके लिए उसका देश पहले है .......गुस्से में आकर दिलबहार आदिल को कारागार में डलवा देती है और उसकी बेटी आलमआरा को देश निकाला दे देती है आलमआरा को बंजारे अपनी बस्ती में पालते हैं युवा होने पर आलमआरा महल में नाटकीय ढंग से वापस लौटती है और उसी शहज़ादे से प्यार करने लगती है अंत में दिलबहार को उसके किए की सजा मिलती है, और शहज़ादे और आलमआरा की शादी होती है आदिल की रिहाई और दिलबहार को सजा देने के साथ ही फिल्म का सुखद अंत होता है फिल्म में मुख्य भूमिकाये मास्टर विट्ठल ,जुबैदा,पृथ्वी राज कपूर ,जिल्लोबाई ,सुशीला और वजीर मोहमद खान ने निभाई थी  ........10,500 फीट लंबी इस फिल्म में सात गाने थे फिल्म और इसका संगीत दोनों को ही व्यापक रूप से सफलता प्राप्त हुई फिल्म का गीत "दे दे खुदा के नाम पर" जो भारतीय सिनेमा का भी पहला गीत था और इसे अभिनेता वज़ीर मोहम्मद खान ने गाया था जिन्होने फिल्म में एक फकीर का चरित्र निभाया था "दे दे खुदा के नाम पर" बहुत प्रसिद्ध हुआ उस समय भारतीय फिल्मों में पार्श्व गायन शुरु नहीं हुआ था इसलिए इस गीत को हारमोनियम और तबले के संगीत की संगत के साथ सजीव रिकॉर्ड किया गया था कुछ आलोचक इसे बोलने वाली फिल्म कहने की बजाय इसे गाने वाली फिल्म भी कहते है क्योंकि इसमें बोलना कम और गाना अधिक था इस फिल्म में कई गीत थे और इसने फिल्मों में गाने के द्वारा कहानी को आगे बढा़ये जाने की परम्परा का सूत्रपात  भी किया 1931 में आर्देशिर ईरानी के अथक प्रयास के बाद ‘आलमआरा’ परदे की शोभा बनी इसने भारत में बोलती फिल्मों को जन्म दिया कई आलोचक इस फिल्म को फिल्मी क्रांति का जन्मदाता भी मानते हैं फिल्म में कुल 78 अभिनेताओं और अभिनेत्रियों ने अपनी आवाज़ दर्ज करवाई  दे दे खुदा के नाम पे ,या रब ,रुकता है आसमान ,तेरी कातिल निगाहो ने मारा ,दे दिल को आराम आये ,भर भर के जाम पिला जा ,दरस बिना तरसे नैन प्यारे जैसे लोगो की जुबा पर चढ़ जाने वाले गानो को संगीत फ़िरोज़ एम मिस्त्री और बी.ईरानी ने तैयार किया था


14 मार्च 1931 शनिवार का दिन भारतीय सिनेमा के लिए बेहद ख़ास मायने रखता है इसी दिन 87 साल पहले हिंदुस्तानी सिनेमा को आवाज़ मिली औऱ भारतीय सिनेमा ने बोलना सीखा इसी दिन मुंबई के गिरगांव में स्थित मैजेस्टिक सिनेमा हॉल में आर्देशिर ईरानी निर्देशित 100% परसेंट टॉकी का दावा करती फिल्म  'आलम आरा' रिलीज़ हुई ये भारत की पहली बोलती फ़िल्म ( टॉकी ) थी अखबार में आलम-आरा का विज्ञापन प्रकाशित होने के बाद ही आगामी कुछ सप्ताह के सारे टिकट बिक गए थे शो 3 बजे शुरू होना था, पर सवेरे 9 बजे ही मैजेस्टिक सिनेमा के बाहर अपार भीड़ हो गई थी पहले ही दिन इस फिल्म की टिकटें 50-50 रुपये में बिकी थी। मैजेस्टिक सिनेमा में जब फ़िल्म का प्रीमियर हुआ तो खुद आर्देशिर ईरानी एक-एक मेहमान का स्वागत करने के लिए गेट पर खड़े थे पहली सवाक फिल्म देखने के लिए मैजेस्टिक सिनेमा पर भारी भीड़ जुटी और पुलिस को भीड़ नियंत्रित करने के लिए लाठीचार्ज तक करना पड़ा अर्देशिर ईरानी निर्देशित आलम-आरा का जादू देखने भारी भीड़ इस थिएटर के बाहर उमड़ी थी। प्रतिदिन आलम आरा के तीन शो साढ़े शाम पांच बजे,आठ बजे और दस बजे चलाये जाते थे और शनिवार, रविवार और बैंक की छुट्टियों के दिन तीन बजे का स्पेशल शो चलाया जाता था। स्कूल और कॉलेज के लड़के-लड़कियों के लिए रविवार को सुबह दस बजे एक स्पेशल शो रखा गया था।

लेकिन बड़े दुख की बात ये है भारतीय सिनेमा की इस ऐतिहासिक फ़िल्म का कोई प्रिंट अब मौजूद नहीं है और अब ‘आलमआरा’ सिर्फ़ तस्वीरों के ही माध्यम से याद की जाती है कैमरे के प्रिंट के साथ समस्या ये थी कि उसे संरक्षित नहीं किया जा सकता क्योंकि वो नाइट्रेट प्रिंट था जो बड़ी जल्दी आग पकड़ लेता था उस वक़्त फ़िल्म के नेगेटिव बहुत ज़्यादा दिन नहीं चलते थे आलम आरा के बहुत लिमिटेड प्रिंट्स बने थे क्योंकि भारत के अधिकतर सिनेमा घर मूक फिल्मो को दिखाने के अनुकूल बने थे उस वक़्त फ़िल्म आर्काइव जैसी कोई संस्था भी आस्तित्व में नहीं थी जब बंबई मे स्टूडियो कल्चर ख़त्म होने लगा तो फ़िल्मों के प्रिंट्स को कौड़ियों के भाव कबाड़ियों को बेच दिया गया क्योंकि ये ऐतिहासिक स्टूडियो अब कमर्शियल इमारतों मेंतब्दील होने लगे थे  National film Archive of India, Pune के अनुसार 1967 में आलम आरा को Lost Film की श्रेणी में डाल दिया गया इसका मतलब है की ये फिल्म अब किसी भी स्टूडियो नहीं पाई जाती फिल्म का बस एक प्रिंट पुणे में रखा गया था वो भी  2003 में जल कर खाक हो गया जाहिर है इन दुलर्भ फिल्मो को सरंक्षित करने की जिम्मेदारी जिन लोगो के कंधो पर थी उन्होने इस जिम्मेदारी को सही दंग से नहीं निभाया

आज न तो आलम आरा के प्रिंट उपलब्ध हैं और न ही फिल्म के प्रदर्शन का साक्षी बना मैजेस्टिक सिनेमा हॉल    इस ......मैजेस्टिक सिनेमा हॉल अब नहीं है यहाँ बसने वाली नई पीढ़ी इस बात से भी अंजान है कि उनके इलाके में मैजेस्टिक सिनेमा हुआ करता था दक्षिण मुंबई में गिरगांव में स्थित मैजेस्टिक सिनेमा के स्थान पर अब बहुमंजिला मैजेस्टिक शॉपिंग सेंटर खड़ा हो चुका है  हिंदी सिनेमा की पहली बोलती फिल्म ने सफलता का कीर्तिमान रच दिया, पर अफसोस की बात यह है कि चौदह मार्च, 1931 को मैजेस्टिक सिनेमा में प्रदर्शित हुई आलम आरा फिल्म के अस्सी वर्ष पूरे होने पर 14 मार्च 2011 को अखबार, न्यूज चैनल एवं पत्र-पत्रिकाओं में जश्न मनाया जा रहा था लेकिन मैजेस्टिक सिनेमा की जमीं पर खड़ी व्यावसायिक इमारत में लोग आलम-आरा के प्रदर्शन के अस्सी साल के जश्न से अंजान थे अब यकीन करना जरा मुश्किल होगा की कभी यहाँ अभिनेत्री ज़ुबेदा के दीवानो की भीड़ उमड़ा करती थी और नवयुवक आलम आरा के हीरो मास्टर विठ्ठल के चाल ढाल की नक़ल उतारा करते थे भारतीय सिनेमा के इतिहास की अनमोल धरोहर बन चुके इस मैजेस्टिक सिनेमा हॉल को सरंक्षित करने का समय किसी के पास कभी नहीं रहा आज मैजेस्टिक सिनेमा की इमारत के खंडहरों के कंकाल उन बुज़ुर्गों की तरह लगते हैं जो अपने गुज़रे हुए अतीत की कहानी सुनाने को बेताब हैं मगर कोई सुनने वाला नहीं आज इस मैजेस्टिक सिनेमा को बंद हुए कई दशकों का वक़्त बीत चुका है लेकिन हिंदुस्तान के एक स्वर्णिम अध्याय के गवाह के तौर पर इसके अवशेष आज भी मौजूद हैं मैजेस्टिक शॉपिंग सेंटर के सामने स्थित मैजेस्टिक सिनेमा बस स्टॉप के जरिए ही पता चलता है कि यहां मैजेस्टिक सिनेमा हॉल हुआ करता था अब बस स्टॉप में ही मैजेस्टिक सिनेमा का इतिहास शेष है फिल्म के मूल प्रिंट की तरह मैजेस्टिक सिनेमा का भी नामो-निशां मिट चुका है


1931 से अब तक फिल्म के साउंड सिस्टम ने मोनो साउंड से लेकर DOLBY ATMOS तक कई विजय यात्रा तय की लेकिन इस विजयगाथा की शुरुआत ‘आलमआरा’ही से हुई सुखद बात ये है की अभी हाल मे केंद्रीय विद्यालय के पाठ्य क्रम मे फ़िल्म अालम अारा के इतिहास को शामिल किया गया है और बच्चो को इस फ़िल्म के बारे मे पढ़ाया जा रहा है यकीकन ये एक अच्छी शुरुअात है मेरी बेटी ने जब अपनी किताब में देखकर मुझे इस फिल्म के बारे में पूछा तो मुझे अच्छा लगा हमारी ऐतिहासिक फिल्मो को बच्चो के पाठ्य क्रम में जगह मिलनी ही चाहिए


आर्देशिर ईरानी


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