Friday, January 12, 2018

किसान कन्या (1937) .....भारत में बनी पहली रंगीन हिंदी फ़िल्म


'KISAAN KANYA' The first Hindi color film in India

रंगों का जीवन में क्या महत्व है ये वही जान सकता है जिसके पास रंग ना हो भारत में रंगीन सिनेमा बनाने का चलन काफी देर से शुरू हुआ लंबे समय तक फिल्में श्वेत-श्याम ही बनती रही ब्लैक एंड वाइट फिल्मे भी चाव से देखी जाती थी देश में अंग्रेजी रंगीन फिल्में अब भारत में में आने लगीं थी और दर्शक रंगीन फिल्मों में रुचि लेने लगे ये विदेशी शार्ट फिल्मे होती थी लेकिन इन जर्मनी और ब्रिटेन की रंगीन फिल्मे दिखाने वाले सिनेमा हाल सिमित थे और इन फिल्मो का कथानक विदेशी होने के कारण भारतीय दर्शको को इनमे कोई रूचि भी नहीं थी इस बीच भारत में गैवा कलर का नेगेटिव आयात होने लगा तब निर्माताओं में रंगीन फिल्में बनाने की इच्छा जागृत होने लगी पहली सवाक फ़िल्म आलम आरा (1931) बनाने वाली इंपीरियल फ़िल्म कंपनी के अर्देशिर ईरानी ने देश में रंगीन फ़िल्म बनाने का प्रबंध किया हिंदुस्तानी फिल्मो में रंग डालने का विचार आर्देशिर ईरानी जी के दिमाग में ही आया था आर्देशिर ईरानी की फिल्म में कलर डालने की तरकीब हिट हो गई और फिर उसके बाद से तो भारतीय फिल्मो की बेरंग दुनिया कहीं गुम हो गई और दिल को सुकून देने वाले रंगों ने जगह ले ली  ' किसान कन्या ' भारत में बनी पहली रंगीन हिंदी फ़िल्म है जिसका प्रदर्शन सन 1937 में हुआ



यहां ये बता देना ज़रूरी समझाता हूँ की व्ही. शांताराम ने सन 1933 में ‘सैरन्ध्री’ फिल्म बनाई थी प्रभात फिल्म कंपनी के व्ही. शांताराम ने बड़े उत्साह से फिल्म सैरंध्री को रंगीन बनाने की तैयारी की एक मराठी फिल्म के कुछ दृश्य भी रंगीन फिल्माए गए थे परंतु उन दोनों फिल्मों की प्रोसेसिंग विदेश में हुई थी जर्मनी के प्रसिद्ध UFA STUDIO (Universum Film Aktiengesellschaft से उन्होंने बात की और शूटिंग करके नेगेटिव जर्मनी भेजा गया वहां सैरंध्री प्रोसेस हुई प्रिंट बने लेकिन जब बड़े उत्साह से इसे प्रदर्शित किया तो पर्दे पर आकृतियां धुंधली दिखाई दीं पता चला कि भारत में प्रयोग में लिए जा रहे प्रोजेक्टर इतने शक्तिशाली नहीं थे कि फिल्म के रंग साफ नजर आएं इस तरह रंगीन फिल्म बनाने का पहला प्रयास विफल हो गया इसने निर्माताओं के उत्साह पर पानी फेर दिया दूसरे इस तरह की फिल्म को दिखाने के लिए जितने प्रभावशाली कार्बन की जरूरत होती है वे आम तौर पर भारतीय सिनेमाघरों के प्रोजेक्टर्स में उपलब्ध नहीं थे नतीजा अगले कई सालो तक निर्माताओं ने रंगीन सिनेमा में रुचि नहीं ली इसलिए विफल 'सैरंध्री 'के 6 वर्ष बाद इंपीरियल की किसान कन्या आई इसलिय आर्देशिर ईरानी को ही भारत की पहली रंगीन फिल्म बनाने का श्रेय जाता है


फिल्म की कहानी सआदत हसन मंटो के उपन्यास पर आधारित है सआदत हसन मंटो अपनी कहानियो में बोल्ड शब्द डालने के लिए जाने जाते थे मंटो ने अपनी कहानी में उस समय की सबसे जवलंत "जमींदारी समस्या " को छुआ था जो भूमिहार किसानो और जमींदारों में खाई पैदा कर रही थी जमींदारी प्रथा किसानो के लिए किसी नासूर से कम नहीं थी वह अपने शोषण के लिए मुख्यता जमींदारों को जिम्मेदार मानते थे सआदत हसन मंटो की छवि के कारण अभी लोग इस फिल्म का विरोध कर ही रहे थे की एक विवादस्पद दृश्य के कारण फिल्म सेंसर बोर्ड़ के पास अटक गई जबकि फिल्म में कोई भी अश्लील दृश्य नहीं था सेंसर बोर्ड को फिल्म के जिस दृश्य पर एतराज़ था उसमे नायिका पद्मा देवी अपने कंधे पर धान की पुआल रख कर गाना गाती है हवा चलने पर उसकी चुनरी उड़ जाती है जिससे उसके पेट का काफी हिस्सा परदे पर दिखाई दे जाता है हालाँकि इससे पहले और इससे ज्यादा बोल्ड दृश्य और चुम्बन दृश्य हिमांशु राय की मूक फिल्मो में आ चुके थे लेकिन रंगीन फिल्म होने के कारण ये दृश्य ब्रिटिश सेंसर बोर्ड़ को "उत्तेजक "लगा सेंसर बोर्ड़ ने इसे भारतीय महिलाओं की छवि के अनुरूप बताया बाद में काफी जिरह और कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद ये मसला सुलझ गया विवाद होने के कारण" किसान कन्या "सुर्खियों में आ गई और इसे बॉक्स ऑफिस पर फायदा मिला आर्देशिर ईरानी ने फिल्म के इसी विवादस्पद दृश्य को भुनाने के लिए इसे फिल्म के प्रचार पोस्टर में प्रमुखता से जगह दे  दी 



एम .जियाउद्दीन कहानी कहानी किसानो और जमींदारों के बीच शोषण और संघर्ष को दर्शाती है एक लालची और क्रूर जमींदार अपने जुल्मों से किसान-मज़दूरों का जीना मुश्किल किए हुए है गाँव का एक निर्धन किसान राम ( निसार ) जमींदार के खेतो में तमाम जुल्मो को सहते हुए ईमानदारी से काम करता है एक दिन जमींदार का क़त्ल हो जाता है सारे गांववालों को लगता है की जमींदार ( घानी ) का क़त्ल राम ने किया है राम को इस जंजाल से उसकी खूबसूरत बेटी बंसरी ( पद्मा देवी ) अपनी बुद्धि से बचाती है फिल्म में मुख्य भूमिका पदमवती,जिल्लो ,गुलाम मोहम्मद ,निसार ,सैय्यद अहमद और घानी ने निभाई थी किसान कन्या को रंगीन फोटोग्राफी की वजह से आशातीत सफलता तो मिली, पर कहानी के दृष्टिकोण से यह काफ़ी कमज़ोर मानी गई फ़िल्म समीक्षकों के अनुसार फ़िल्म की कहानी के हिसाब से किसान कन्या नाम सही नहीं था इसकी कहानी फ़िल्म की नायिका बंसरी पर अधिक देर केंद्रित नहीं रहती जबकि किसान कन्या दर्शकों को सिनेमा हाल तक खींचने में सौ प्रतिशत सफल रही और गुंडे की भूमिका में उस जमाने के मशहूर अभिनेता ग़ुलाम मोहम्मद ने अपने जीवन का सर्वोत्कृष्ट अभिनय किया था वे पूरी फ़िल्म में छाए हुए थे जमींदार की पत्नी रामदेई के रूप में तब की चोटी की अभिनेत्री जिल्लोबाई ने अत्यंत संवेदनशील अदाकारी की थी बंगाली नायिका पद्मा देवी ने भी अपने हिस्से में आए काम को बड़ी खूबी और तन्मयता से निभाया था फिल्म 10 गाने थे और संगीत राम गोपाल पाण्डे का था इसे ग्रामोफ़ोन द्वारा रिलीज़ किया गया अमेरिका में फिल्म निर्माण का अध्ययन किए मोती गिडवानी ने किसान कन्या का निर्देशन किया 137 मिनट लम्बी ये फिल्म सफल साबित हुई फिल्म के लिए मदान थियेटर ग्रुप्स ने आर्देशिर ईरानी के आग्रह पर विशेष शक्तिशाली कार्बन से लैस प्रोजेक्टर वाले घरेलू थियेटर बनवाये ताकि भारत की पहली रंगीन फिल्म के रंग खिल कर परदे पर आ सके आर्देशिर ईरानी को ही हिंदी सिनेमा में आवाज़ लाने और श्याम श्वेत फिल्मो को रंगीन करने का श्रेय जाता है


आर्देशिर ईरानी ने किसान कन्या’ के तमाम किरदारों में रंग भरे आर्देशिर ईरानी ने एक बेजान फिल्म में रंग डाल कर एक अजूबा कर दिखाया सिने कलर में बनी इस फिल्म को हाथ से रंगा गया था दर्शकों को चटकीले रंगों में बनी किसान कन्या के रूप में पद्मा देवी खासी प्यारी लगी‘ किसान कन्या’ भारत में ही प्रोसेस की गयी फिल्म थी 'किसान कन्या' फिल्म की नायिका पद्मा को कलर फिल्म में काम करने वाली पहली नायिका होने के कारण "कलर क्वीन "का खिताब मिला था भारत की पहली पूरी तरह स्वदेशी रंगीन फ़िल्म किसान कन्या बंबई के मैजेस्टिक सिनेमा घर में रिलीज की गई थी 'किसान कन्या 'हॉलीवुड के प्रोसेसर सिने कलर के तहत बनी थी इस प्रोसेसर को इंपीरियल फ़िल्म कंपनी ने भारत और पूर्वी देशों के लिए ख़रीद लिया था इसके विशेषज्ञ वोल्फ हीनियास की देखरेख में शूट और प्रोसेस की गई फ़िल्म में रंग इतने अच्छे निखरे थे कि दृश्य वास्तविक लगते थे निर्माता ने विषय भी ग्रामीण अंचल का चुना था ताकि पर्दे पर वन, पेड़, नदी, खेत और पहाड़ की प्राकृतिक छटा ख़ूबसूरती से आए इस काम में भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री को वांछित सफलता मिली केमरामेन रुस्तम ईरानी ने शानदार कलर फोटोग्राफी की ..मगर इतनी मेहनत के बाद भी फिल्म 'किसान कन्या 'को जैसी व्यावसायिक सफलता मिलनी चाहिए थी वो नहीं मिली......... भारत की पहली रंगीन फिल्म 'किसान कन्या ' मास्टर निसार के जीवन में अंधकार ले कर आई 'किसान कन्या 'के असफल होने के बाद वो गुमनामी के अँधेरे में खो गए आर्थिक परेशानियों के चलते उन्हें दलीप कुमार के साथ लीडर ,कोहिनूर आज़ाद जैसी फिल्मो में छोटे छोटे रोल कर गुज़ारा करना पड़ा .......मगर फिर भी आज रंगीन सिनेमा के मामले में हम भले ही डिजिटल युग में प्रवेश कर गए हो  लेकिन भारत की पहली रंगीन फिल्म के यादे भुलाये नही भूलती ......




भारत की इस पहली कलर फिल्म के बाद से हमने फिल्मों की रंगीनियत के मामले में  पीछे मुड़कर नहीं देखा उसके बाद टेक्नि कलर ,ईस्टमैन कलर और न जाने कितनी तरह की तकनीकों से गुजरने के बाद मुगल-ए- आज़म (2004) की रंगीन प्रस्तुति के साथ ही एक नए युग की शुरुआत हुई है दलीप कुमार की नया दौर (2007) और देव आनंद की हम दोनों (2011) तो कलर हो के डिजिटल फॉर्मेट में रिलीज़ भी ही चुकी है इस क्रम में और भी कई फिल्में हैं, जिनके रंगीन प्रदर्शन की तैयारियां चल रही हैं,, गुरुदत्त की प्यासा और विमल राय की मधुमती ,अफसाना, धूल का फूल, देवदास, साहब बीबी गुलाम और चौदहवीं का चांद,हकीकत ,चोरी-चोरी, दिल तेरा दीवाना को भी रंगीन कर के प्रदर्शन की तैयारियां चल रही हैं  हर फिल्म पर कई-कई करोड़ रुपये खर्च होंगे ये एक अच्छी कोशिश है देखें यह नई कोशिश कितनी सफलता पाती है लेकिन वितरकों के ठन्डे रेस्पॉन्स की वजह से चोरी चोरी और दिल तेरा दीवाना जैसी कलर की हुई फिल्मे डीवीडी फॉर्मेट में रिलीज़ करनी पड़ी ये दुःखद है क्योंकि इन फिल्मो को डिजिटली कलर करने में काफी समय और पैसा लगता है फिल्म के हर एक फ्रेम को रिस्टोर करना पड़ता है अगर इतनी मेहनत और पैसे लगाने के बाद भी फिल्म परदे पर न आये तो कोई भी इस प्रकार का रिस्क नहीं लेगा और दर्शक बेहतरीन ब्लैक एन्ड वाइट फिल्मो को रंगीन देखने से महरूम रह जायेगे


निसार और पद्मा किसान कन्या के एक दृश्य में


      


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