Wednesday, January 3, 2018

नीचा नगर’ ( 1946) ......जो भारत का पहला अंतर्राष्ट्रीय अवार्ड ले कर आई लेकिन भारत में बड़ी मुश्किल से रिलीज़ हो पाई

नीचा नगर’ ( 1946)
 1946 में आज़ादी मिलने से एक वर्ष पहले चेतन आनंद की फिल्म ‘नीचा नगर’ ने कान फिल्मोत्सव में अवॉर्ड जीतकर यह साबित कर दिया था कि उम्दा फिल्मों के निर्माण में हम भी पीछे नहीं रहेंगे चेतन आनन्द ने अपनी पहली फिल्म नीचा नगर (1946) में  पूंजीवाद और सामंतवाद में संघर्ष को दिखाया था यह ग्रामीण भारत के अभाव का एक काव्यात्मक चित्रण है और अभिजात वर्ग द्वारा गरीब किसानों के शोषण पर प्रकाश डाला गया फिल्म गहराई से समाजवाद के विचारों से प्रभावित हैं, फिल्म सामाजिक विषमता जैसे अच्छे विषय के चयन और उच्च क्वालिटी के कारण भारत की पहली ऐसी फिल्म बनी जिसने Cannes Film Festival में Grand Prix Award जीता नीचा नगर’ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की पहचान बनाने वाली पहली फ़िल्म थी ख़्वाजा अहमद अब्बास द्वारा लिखित और उमा आनंद, कामिनी कौशल तथा रफ़ीक अहमद के अभिनय से सजी यह फ़िल्म समाज के अमीर और ग़रीब वर्ग के बीच की खाई में झांकती और मानवीय संवेदनाओं को टटोलती है बेहतरीन निर्देशन कौशल की वजह से 'नीचा नगर' का शुमार भारतीय सिनेमा की बेहतरीन फ़िल्मों में किया जाता है। इस फ़िल्म ने भारतीय सिनेमा में सामाजिक यथार्थवाद के चित्रण की परम्परा शुरू की और समानांतर सिनेमा की फ़िल्मों के अन्य निर्देशकों के लिए सृजन का एक नया रास्ता खोला संगीत निर्देशक के रूप में पंडित रवि शंकर की पहली फिल्म थी 'एक निराली ज्योति बुझी' ,'कब तक घिरी रहेगी ' ,'रात उठो की वक्त की गर्दिश ने' जैसे गीतों के जरिये रविशंकर जी ने समाज में व्याप्त शोषण रंगभेद के विरुद्ध संघर्ष को रेखांकित करता हुआ उलेखनीय संगीत दिया जो फिल्म संगीत की आम परिपाटी से अलग एक चेतन प्रगतिशील धारा को रेखांकित करता है ...


नीचा नगर रूसी लेखक मैक्सिम गोर्की के उपन्यास Lower Depths से प्रेरित थी फिल्म की कहानी अमीर और गरीब के बीच की लड़ाई है फिल्म का सबसे पावरफुल किरदार निभाया सरकार साहब की भूमिका निभाने वाले रफ़ी पीर ने जो बाद में पकिस्तान चले गए रफ़ी पीर ने एक अमीर आदमी का किरदार निभाया जो नगर पालिका का अध्यक्ष चुन लिया जाता है और कम दामों पर जमीने खरीद लेता है जिस पर ऊंची इमारतें बनवाना चाहता है उसकी जमीन दलदल वाली है क्योंकि उस पर से होकर एक नाला गुजरता है साम, दाम, दंड, भेद से वह नाले का बहाव गरीबों की बस्ती नीचा नगर की तरफ मुडवा देता है इससे नीचा नगर में बीमारियाँ फैलने लगती है बस्ती का पानी का कनेक्शन भी काट दिया जाता है फिर सरकार साहब गरीबों के हितैषी का रूप धर कर बीमार मरीजों के लिए नीचा नगर में अस्पताल खोल देता है यहाँ नीचा नगर के लोग अहिंसक आन्दोलन पर उतर आते है वे घोषणा करते हैं कि वे मरना मंजूर करेंगे मगर अमीर सरकार साहब के अस्पताल में इलाज नहीं करवाएंगे इन दृश्यों पर गांधी के असहयोग आन्दोलन की पूरी छाप है चेतन का कैमरावर्क दृश्यों को शानदार तरीके से उभारता है अमीर के किरदार का नाम दिया गया है सरकार साहब सरकार साहब के किरदार में रफ़ी पीर का स्टाइलिश अभिनय तो फिल्म की विशेषता है ही उसे उभारने में कैमरे के शाट्स देखने लायक है सरकार साहब और बस्ती के लोग जब आमने सामने होते हैं तब सरकार साहब के शाट्स लो एंगल से लिए गए है जिससे किरदार सभी पर हावी नज़र आता है दूसरी तरफ बस्ती के लोगों के प्रतिनिधिमंडल के शाट्स हाई एंगल से लिए गए हैं जिनमें जिनमें वे दबे हुए दिखते है.


फिल्म इप्टा के कलाकारों का मिला जुला प्रयास था नीचा नगर' ने आज 71 साल बाद भी अपनी अहमियत नहीं खोई है फिल्म का अंतिम दृश्य अत्यंत ही प्रभावशाली बन पड़ा है नायिका गंदे नाले से फैली बीमारी की चपेट में आ जाती है मगर सरकार साहब के अस्पताल में अपना इलाज कराने से इनकार कर देती है और उसकी शहादत हो जाती है उसकी चिता की लपटों को फ्रेम में लेता हुआ कैमरा लोगों द्वारा थाम ली गयी मशालों पर चला जाता है बहुत ही खूबसूरत प्रतीकात्मक दृश्य है लोगों के हाथों में मशालें हैं और उनके चेहरे दीप्तिमान है मशालें ले कर लोगों का हूजूम सरकार साहब के घर की तरफ निकल पड़ता है मशालों की लौ से झिलमिलाती रोशनी की लंबी पंक्ति के दृश्य विश्व के किसी भी बड़े निर्देशक के काम से कमतर नहीं है सबसे दिलचस्प बात यह है की चेतन आनंद ने ये दृश्य धुंधले हो गए फिल्म के खराब रा स्टाक पर शूट किये उनके पास दूसरा रा स्टाक खरीदने के पैसे नहीं थे और फिर ये फिल्म की राशनिंग का ज़माना था मगर चेतन ने खराब रा स्टाक का उपयोग शाम के धुंधलके में मशालों का दृश्य फिल्माने के लिए किया और एक अद्भुत रचना कर डाली जबकि आज के निर्देशक ऐसे प्रभाव उत्पन्न करने के लिए जान बूझ कर फिल्म को धुंधला करते है

कामिनी कौशल तथा रफ़ीक अहमद

1946 में पाम दी’ओरे ( सर्वोत्तम फ़िल्म ), कान फ़िल्म फेस्टिवल से हिन्दी फ़िल्म जगत को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने की शुरुआत करने वाले चेतन आनंद पहले भारतीय फ़िल्मकार है सिविल परीक्षा में चांस न मिल पाने की वजह से चेतन आनंद जी ने बम्बई में फिल्मो में किस्मत आजमाने का फैसला किया चेतन आनंद जी को फणी मजूमदार की फिल्म 'राजकुमार (1944 )' नरगिस के साथ मिली भी लेकिन वो बतौर नायक सफल नहीं हुए 'नीचा नगर चेतन आनंद, पंडित रविशंकर और अभिनेत्री कामिनी कौशल तीनो की पहली फिल्म थी... कामिनी कौशल उस समय कॉलेज की पढ़ाई कर रही थी उनका परिवार भी फिल्म-करिअर को अच्छा नहीं समझता था इसलिए उसने चेतन आनंद की इस ऑफर को अस्वीकार कर दिया था लेकिन मुंबई में जब चेतन आनंद ने एक बार फिर उसे अपनी फिल्म में काम करने का आग्रह किया तो कामिनी कौशल ने अपने बड़े भाई के अनुरोध पर इस फिल्म में काम करने की स्वीकृति दे दी कामिनी कौशल का वास्तविक नाम उमा कश्यप था चेतन आनन्द की पत्नी का नाम भी ‘उमा’ था इस कारण वे नाम बदलना चाह रहे थे चेतन आनंद ने कामिनी कौशल को उसके असली नाम उमा कश्यप के बजाय फिल्मी नाम कामिनी कौशल दे दिया थ फिल्म में उमा आनंद के अतिरिक्त उसके कॉलेज के मित्र रफीक अहमद और रेडियो सहकर्मी इम्तियाज अली भी काम कर रहे थे, फिल्म का पूरा वातावरण परिवार जैसा था

देव आनंद ने अपनी आत्मकथा में जिक्र किया है कि किस तरह चेतन के घर पर मुंबई के तमाम कलाकार, अभिनेता, संगीतकार और लेखक इकट्ठा हुआ करते थे बलराज साहनी, उनकी पत्नी दमयंती, जोहरा सहगल और उनकी बहन, ख़्वाजा अहमद अब्बास, पंडित रविशंकर जैसे तमाम लोग उनके पॉली हिल के घर पर नियमित आने वालों में थे ये सभी दूसरे विश्व युद्ध के दौरान ही 1942 में बने 'इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन' (इप्टा) से जुड़े हुए थे कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े होने के कारण अमीर बनाम ग़रीब की जंग इनकी कहानियों और फ़िल्मों में ज़्यादा जगह पाती रही नीचा नगर के स्क्रिप्ट लेखक ख़्वाजा अहमद अब्बास और हयातुल्लाह अंसारी थे तीनों वामपंथी थे. ( बाद में हयातुल्लाह अंसारी कांग्रेस से जुड़े गये. वो यूपी से विधायक और राज्य सभा में सासंद बने ) 'नीचा नगर में प्रख्यात रंगमंच की कलाकार ज़ोहरा सहगल ने भी अभिनय किया था

नीचा नगर' फिल्म हमेशा ही गुमनामी के अँधेरे में रही. वास्तव में वह दर्शकों तक कभी पहुच ही नहीं सकी इतने बड़े देश में जहाँ सबसे अधिक संख्या में फ़िल्में बनती है और हर तरह की ऊल-जलूल फ़िल्में सिनेमाघरों के पर्दों पर उतरती हैं वहां इस फिल्म को रिलीज करने वाला कोई नहीं मिला उसी साल शुरू हुए अंतर्राष्ट्रीय 'कान्स फिल्म समारोह' में उसने अपना परचम फहराया जब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु को पता चला कि एक भारतीय फिल्म ने अंतर्राष्ट्रीय खिताब जीता है तो उन्होंने यह फिल्म देखने की ख्वाइश जाहिर की दिल्ली के तब 'वाइसरीगल लॉज', जो अब राष्ट्रपति भवन कहलाता है, में 'नीचा नगर' का एक शो रखा गया शो में नेहरु जी के अलावा माउन्टबेटन दंपत्ति भी मौजूद थे फिल्म के शो के बाद नेहरु ने फिल्म की खूब तारीफ़ की और माउन्टबेटन ने सलाह दी कि फिल्म के अंग्रेजी में सब-टाइटल तैयार किये जाय और उनके साथ यह फिल्म देश विदेश में प्रदर्शित की जाये .उन्होंने चेतन आनंद से कहा कि वे उस जमाने के बहुत बड़े फिल्मकार अलेक्जेंडर कोरडा के नाम एक चिट्ठी लिख देगे जो फिल्म के अंग्रेजी सब-टाइटल बनवाने में मदद करेंगे मगर देश के विभाजन के बाद उपजे हंगामें और दंगो में यह फिल्म की किसी को याद नहीं रही मगर आज़ादी के बाद जेहरू जी को यह फिल्म जरूर याद रही सन 1950 में जब दिल्ली में पहली एशियाई कांफ्रेंस हुई तब उसमें भाग लेने वाले प्रतिनिधियों को उन्होंने राष्ट्रपति भवन में ‘नीचा नगर’ विशेष तौर पर दिखाई गणमान्य दर्शकों में मिश्र के राष्ट्रपति अब्दुल नासर, युगोस्लाविया के मार्शल टीटो, बर्मा के यू थांट जो बाद में संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बने और श्रीलंका की राष्ट्रपति एस भंडारनायके के अलावा कांग्रेस के सभी बड़े नेता, स्वतंत्रता सेनानी, फिल्म और व्यवसाय जगत की प्रमुख हस्तियाँ मौजूद थीं

चेतन आनंद

बावजूद नेहरु और सरकारी दिलचस्पी के और कान्स के पुरस्कार के 'नीचा नगर' के निर्माता राशिद अनवर वितरकों को फिल्म बेचने और उसे सिनेमाघरों में प्रदर्शित कराने में सफल नहीं हो सके फिल्म के निर्माण के लिए राशिद अनवर ने एक सेठ से कुछ पैसे उधार लिए थे मूल रकम पर ब्याज की राशि बढती जा रही थी रकम उधार देने वाला सेठ जो कपास का व्यवसायी था धमकी दे रहा था कि उसके पैसे नहीं चुकाए गए तो वह फिल्म की नीलामी करा देगा उसने न केवल ऐसी धमकी दी बल्कि वह फिल्म का निगेटिव भी लेबोरेट्री से उठा ले गया और उनके डिब्बे अपने रूई की गांठों के गोदाम में ला पटके यह फाइनेंसर अपने पैसों के अलावा अन्य कोई बात सुनने को तैयार नहीं था .........नीचा नगर' मुश्किलों में घिरी है इसकी खबर नेहरु जी तक भी पहुची और उनकी राशिद अनवर साहब से लम्बी खतो-किताबत भी हुई वे भी इस बात से उदास हुए कि अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाली पहली भारतीय फिल्म शायद थियेटर में कभी रिलीज न हो सकेगी और आम जनता उसे कभी नहीं देख सकेगी राशिद अनवर ने एक अन्य परिचित फिल्म निर्माता से राय ली उसने उसे सलाह दी कि क्योंकि वितरक फिल्म उठाने को तैयार नहीं हैं इसलिए बॉक्स आफिस अपील के लिए फिल्म में एक गाना और एक नृत्य का आइटम डाल ले और वह खुद ही फिल्म को सिनेमाघरों में रिलीज कर दे और अपना पैसा वसूल ले लेकिन चेतन आनंद चाहते थे कि फिल्म वैसी ही रिलीज हो जैसी कान्स में प्रस्तुत की गयी थी अब प्रधानमंत्री नेहरू जी के दखल के कारण फाइनेंसर जो फिल्म के निगेटिव की नीलामी पर आमादा था ....वो थोडा नरम पड़ा ...और रिलीज प्रिंट बनाने के लिए निगेटिव के डिब्बे लेबोरेट्री को भेज दिए और इस तरह एक संकट टला लेकिन बाद में दुर्भाग्य से  लेबोरेट्री में आग लग गयी और 'नीचा नगर' फिल्म की निगेटिव उसमें जल कर पूरी तरह ख़ाक हो गयी लेकिन उससे पहले फिल्म के कुछ प्रिंट बना लिए गए और प्रदर्शन के लिए वहां से बाहर आ गए सन 1950 में राष्ट्रपति भवन में फिल्म के शो के बाद फिल्म के निर्माता ने 'नीचा नगर' को अपने स्तर पर रिलीज करने की कोशिश की तो उसे बम्बई में कोई ढंग का सिनेमा हाल ही नहीं मिला और उसे बम्बई के एक उपनगर के मामूली सिनेमाघर में फिल्म प्रदर्शित करनी पड़ी फिल्म की तकदीर देखिये स्थानीय दर्शकों ने इस प्रयोगवादी सिनेमा के प्रति घोर अरुचि दिखाई उनके लिए फिल्म में गाने नहीं थे, डांस नहीं थे, कोई लटके-झटके नहीं थे. ....दर्शकों ने पहले ही शो में सिनेमाघर की सीटें फाड़ डाली और अपने टिकट के पैसे वापस मांगने लगे.उसके बाद निर्माता रशीद अनवर की हिम्मत फिर और किसी अन्य जगह यह फिल्म लगाने की नहीं हुई जब नीचा नगर जो कान फेस्टिवल के लिए भेजा गया था, तो गीत और नाच गाने के सीन भी कम करने पड़े फिल्म के दो क्रांतिकारी गाने उस समय अंग्रेजी राज़ होने के बाद भी सेंसर की नज़र से कैसे बच गए ...? ये चकित करने वाली बात है

चेतन आनंद ने ये दृश्य  खराब रा स्टाक का उपयोग कर शाम के धुंधलके में मशालों का दृश्य फिल्माने के लिए किया और एक अद्भुत रचना कर डाली

अब भाग्य का खेल देखिये.... फिल्म का एक प्रिंट कलकत्ता पंहुचा होगा वहां फिल्म देख कर एक बंगाली नौजवान ने चेतन आनंद को चिट्ठी लिखी कि वह फिल्म से बड़ा प्रभावित हुआ है और उसे इससे प्रेरणा मिली है कि वह भी ऐसी फिल्म बनाएगे जब यह चिट्ठी आनंद परिवार में पहुंची तो उसे भेजने वाले को कोई नहीं जानता था चिट्ठी लिखने वाला नौजवान था ..सत्यजित राय.....यह भी अजब संयोग रहा की 'नीचा नगर' अगर आज हमारे लिए उपलब्ध है उसके लिए भी सत्यजित रॉय के केमरामैन का योगदान नहीं भुलाया जा सकता कई बरसों बाद एक दिन ये केमरामैन कलकत्ता के चोर बाज़ार में घूम रहे थे उन्होंने देखा कि एक कबाड़ी के यहाँ किसी फिल्म के डिब्बे पड़े हैं जिज्ञासावस वे एक रोल उठा कर देखने लगे उन्हें अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ वे मुड़े और अपने साथ चल रहे मित्र से कहा ...."अरे देखो तो ये तो 'नीचा नगर' है."...... उन्होंने फिल्म के सारे डिब्बे महज दस रुपयों में कबाड़ी से खरीद लिए वो प्रिंट आज पुणे की फिल्म इंस्टिट्यूट के अभिलेखागार में राष्ट्रीय धरोहर के रूप में संरक्षित है आज भी 'नीचा नगर' का कोई प्रमोटर नहीं है एक विडियो कंपनी ने बहुत ही बुरे तरीके से 'नीचा नगर' की वीसीडी जारी की जिसे दस रुपयों में भी कोई खरीददार नहीं मिला अपनी धरोहर को ठीक से प्रस्तुत करना ही हमें नहीं आता नीचा नगर' भारतीय सिनेमा की ऐसी धरोहर है जिस पर आने वाली पीढियां गर्व कर सकेंगी उन्हें यह जान कर आश्चर्य होगा की सत्यजित रॉय की 'पाथेर पांचाली' (1955) के निर्माण से दस बरस पहले ऐसी फिल्म बन चुकी थी दस साल बाद सत्यजित राय को 'पाथेर पांचाली' बनाने की प्ररेणा चेतन आनंद की नीचा नगर से ही मिली जिसने भारतीय सिनेमा को अंतर्राष्ट्रीय पहचान दी 1946 में चेतन आनंद की फिल्म ‘नीचा नगर’ ने कान फिल्मोत्सव में अवॉर्ड जीतकर यह साबित कर दिया था कि उम्दा फिल्मों के निर्माण में हम भी पीछे नहीं हैं' नीचा नगर के निर्माण के बाद भारत में "ऑफ बीट सिनेमा " का युग शुरू हुआ और भारतीय दर्शक ऐसी प्रयोगधर्मी फिल्मो में दिलचस्पी लेने लगे
 (चित्र आभार - फिल्म इंस्टिट्यूट अभिलेखागार ( पुणे ) के सौजन्य से )

1 comment:

  1. many many thanks for this valuable information. Yes ever since my childhood I had been hearing about this movie but thanks to eagle video that I was able to see it in around 2006. And also thanks to the cameraman who purchased it's print from scrape shop of Calcutta.

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