Thursday, January 25, 2018

महल (1949 ) .....रहस्य रोमांच की कहानी पर बनने वाली पहली ब्लॉकबस्टर हिन्दी फ़िल्म थी जिसने आने वाली परम्परागत फिल्मो के मायने ही बदल दिए

महल - (1949)

कमाल अमरोही
देश अभी नई नई मिली आज़ादी का जश्न मना ठीक से मना भी नहीं पाया था की आज़ादी के सबसे मजबूत सिपाही रहे गाँधी जी की हत्या हो जाती है सन 1949 वो दौर था जब देश राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की हत्या के सदमे से उबरने की कोशिश कर रहा था इसका साफ असर फिल्म इंडस्ट्रीज़ पर भी पड़ा कुंदन लाल सहगल का भी देहांत हो चुका था और और नूरजहां पाकिस्तान में जा कर बस चुकी थी गांधी जी की हत्या के ठीक एक साल बाद उस दौर में दुलारी ,बरसात ,अंदाज़ ,पतंगा ,दिल्लगी ,एक थी लड़की ,जैसी संगीतमय रोमांटिक फिल्मो की भीड़ में कमाल अमरोही एक बिलकुल हट के रहस्य रोमांच से लबरेज़ कहानी पर बनी "महल " लेकर आते है और छा जाते है ये फिल्म भारत की पहली रहस्य रोमांच थ्रिलर बन जाती है बॉम्बे टाकीज की इस फिल्म का कथानक बिलकुल नया था और अपनी समकक्ष फिल्मो से बिलकुल अलग ...."महल " के हॉरर दृश्यों में आज की तरह धांय-धांय का शोर करने के बजाए एक ठंडी ध्वनि, हॉल में बैठे दर्शक की नसों में झिरझिरी पैदा कर गई जिसे आप आज भी महसूस कर सकते है यही इस फिल्म की खासियत भी है ये फिल्म आज भी ब्रिटिश फिल्म इन्सीट्यूट की दस रोमांटिक हॉरर फिल्मो की लिस्ट में शामिल है "महल " हिंदी सिनेमा में महत्वपूर्ण अलौकिक रहस्य रोमांच पर आधारित फिल्मो को शुरू करने वाली स्टार्टर फिल्म है जिसने इस तरह की फिल्मो मार्ग प्रशस्त किया
 
विजयलक्ष्मी

कमाल अमरोही ने "महल " के नायक के रूप में अशोक कुमार को चुना जो किस्मत (1943) के सुपर हिट होने के कारण अपने कैरियर के शीर्ष पर थे उनकी फिल्म किस्मत अभी तक सिनेमा घरो पर चिपकी हुई थी और धूम मचा रही थी ,ये अशोक कुमार के अभिनय का ही कमाल था की जब भी फिल्म "महल " में उनके चेहरे पर डर झलकता है उसकी शिकन दर्शक महसूस करते है कमाल अमरोही ने कई स्थापित प्रतिष्ठित अभिनेत्रियों और नए चेहरों का स्क्रीन परीक्षण किया गया लेकिन बात जमी नहीं कमाल अमरोही एक ऐसा संवेदनहीन और खूबसूरत सर्द चेहरा पेश करना चाहते थे जो पहली ही नजर में दर्शको की रीढ़ की हड्डी में सिहरन पैदा कर दे आखिर में आ कर बात सुरैया पर जा टिकी लेकिन उनका स्टारडम आड़े आ गया आखिरकार दो स्क्रीन टेस्ट के बाद,नवेली मधुबाला, को सोलह अभिनेत्रियों में से चुना गया मधुबाला राजकपूर की पहली फिल्म नील कमल (1947 ) समेत लगभग एक दर्जन फिल्मे करने के बाद भी अभी इतनी मशहूर नहीं हुई थी लेकिन "महल "के बाद वो 1950 के दशक की सबसे सफल और शानदार अभिनेत्रियों में शुमार हो गई जबकि उस समय मधुबाला सिर्फ सोलह वर्ष की थी फिल्म में वीराने में झूला झूलती आत्मा ,सर्द रातों में महल में मोमबत्ती लेकर घूमती एक अनजान लड़की ,और गूंजता रहस्मयी संगीत 'आएगा आनेवाला आएगा ' इस डरावने मंजर को हिंदी सिनेमा के परदे ने पहले कभी नहीं देखा था लिहाज़ा फिल्म देखने वाले दर्शक भी सहम हुए थे पुनर्जन्म को आधार बना कर बनने वाली"महल " पहली ब्लॉकबस्टर सुपरहिट हॉरर हिन्दी फ़िल्म बन गई जिसने आने वाली रोमांटिक और सामाजिक फिल्मो के परम्परागत मायने बदल दिए और हिंदी सिनेमा में रहस्य और रोमांच से भरपूर फिल्मे बनने दौर शुरू हुआ मशहूर फिल्म निर्देशक बिमल रॉय महल में मुख्य एडिटर थे "महल "की एडिटिंग करते करते वो इतने प्रभावित हुए की आगे जा कर उन्होंने इसी पुनर्जन्म फॉर्मूले को अपनी फिल्म मधुमती (1958) में बखूबी आजमाया

विजयलक्ष्मी और अशोक कुमार 

महल फ़िल्म से जुड़ा एक बहुत ही रोचक प्रसंग यह है कि उस समय अधिकांश कलाकार बड़ी बड़ी टाकीज़ कंपनियों में नौकरी किया करते थे अशोक कुमार भी हिमांशु राय और देविका रानी की बॉम्बे टाकीज़ कंपनी में नौकरी ही किया करते थे इसी तरह प्रसिद्ध लेखक सादात हसन मंटो और कमाल अमरोही भी हिमांशु रॉय के मुलाजिम ही थे इन दोनों लेखकों को फिल्म 'महल 'की कहानी लिखने के लिए कहा गया था लेकिन ना केवल कमाल अमरोही की कहानी को चुन लिया गए बल्कि उन्हें फ़िल्म के निर्देशन का काम भी सौंप दिया गया कहते है इससे मंटो को बहुत धक्का लगा और वो हिंदी फिल्मो का मोह को त्याग पाकिस्तान चले गए 

कमाल अमरोही की "महल "हिंदी सिनेमा में पुनर्जन्म ,रहस्य रोमांच ,की चाशनी में लिपटी पहली हॉरर कहानी है उस दौर की अधिकांश फिल्मों की तरह यहाँ भी फिल्म की शुरुआत वॉइस ओवर से होती है या कहें निर्देशक कमाल अमरोही की ये एक लाक्षणिक विशेषता रही है एक 40 साल पुराने सुनसान महल में हरि शंकर ( अशोक कुमार ) रहने के लिए आता है ये महल उनके पिता ( एम्.कुमार ) ने सरकारी नीलामी में ख़रीदा है महल को किसने बनाया कोई नहीं जनता ? क्योंकि महल के कागज़ों में इसके मालिक के बारे भी कोई ठोस जानकारी नहीं है  इस महल का एक पुराना माली कृष्णा हरि शंकर के कुदेरने पर उन्हें एक कहानी सुनाता है जो एक असफल मोहब्बत का दर्दनाक वाकया है....... 40 साल पहले, किसी अनजान आदमी ने इस महल को बनाया था वो आदमी और उसकी प्रेमिका कामिनी ( मधुबाला ) इस महल में रहते थे एक तूफानी रात में उस आदमी का जहाज डूब गया उसकी प्रेमिका कामिनी दिन भर उस आदमी के वापिस आने का इंतज़ार करती लेकिन वह आदमी फिर कभी वापिस नहीं आया कुछ दिनों बाद कामिनी की भी मृत्यु हो गई लेकिन मरने से पहले उसने कहा ...." उसका प्यार कभी असफल नहीं होगा " माली कहता है की उस लड़की कामिनी की अतृप्त आत्मा आज भी महल में घूमती है और उस आदमी के लौटने की प्रतीक्षा आज भी करती है जिससे वो प्यार करती थी

हरि शंकर महल के बेडरूम में अपनी पुरानी तस्वीर देख कर हैरान जाता है जबकि वो यहाँ पहले कभी नहीं आया महल में एक रहस्यमयी औरत का अनजान साया उसे आकर्षित करने कोशिश करता है ये साया उसे पूरे महल में दिखाई देता है और अपने वजूद का एहसास करवाता है हरि शंकर इस साये का पीछा करता है हरि शंकर के दोस्त श्रीनाथ ( कानू रॉय ) उसे कहतें है ये उसका वहम है लेकिन ये अनजान साया श्रीनाथ को कहता है की "वो वहम नहीं है और वो साया महल के बुर्ज से छलांग लगा देता है अब शंकर को यह भ्रम हो जाता है वह पिछले जन्म की इस अधूरी प्रेम कहानी का वही आदमी है जो कामिनी को अकेला छोड़ मर गया था श्रीनाथ उसे महल छोड़कर वापिस कानपुर लौट जाने को कहता है ट्रैन में बैठने के बाद भी ये अनजान रूह शंकर का पीछा नहीं छोड़ती हरिशंकर महल वापिस लौट आता है जहाँ ये खूबसूरत साया ( मधुबाला ) उसे उसी महल में झूला झूलता मिलता है वो शंकर से कहती है की “ मैं तुम्हारा ही इंतज़ार कर रही हूँ मैं जानती की तुम जरूर आओगे  ” लेकिन जैसे ही हरिशंकर उसे छूने की कोशिश करते है वो कहती है ''मुझे छूना मत सिर्फ महसूस करना '' दोस्त श्रीनाथ शंकर को चेतावनी देता है ये रूह उसे अपने खूबसूरत भ्रम में फंसा कर मौत के लिए उकसा रही है... लेकिन शंकर नहीं मानता ....एक दिन श्रीनाथ उस रूह पर गोली चला देता है ये रूह श्रीनाथ को चेतावनी देती है..." वो शंकर और उसके दरमियान न ही आये तो अच्छा होगा "..... ये रूह शंकर को बताती है की .."तुम वही आदमी हो जिसने मेरे लिए ये महल बनाया था मैं तुम्हारा इंतज़ार करते करते मर गई और सदियों से भटकती रही लेकिन तुमने दूसरा जन्म ले लिया जब तुम फिर से इस महल में आये तो मैंने तुम्हें पहचान लिया अब तुम्हारा जिन्दा जिस्म ही हमें मिलने से रोक रहा है तुम्हे भी मेरी तरह मरना होगा कामिनी की रूह उसे अपने मिलन एक दूसरा तरीका भी बताती है दूसरा तरीका ये है की रूह को कोई ऐसा शरीर मिल जाए जिसे शंकर बेपनाह प्यार करता हो लेकिन वो जिन्दा जिस्म कौन होगी ? ये बताने का वादा कर कामिनी की रूह चली जाती है


अब शंकर की हालात पागलो जैसे ही जाती है श्रीनाथ और शंकर के पिता उसको इस रहस्यमयी मुसीबत से बचाने के लिए उसकी शादी रंजना ( विजयलक्ष्मी ) से कर देते है लेकिन कामिनी की रूह की रहस्यमय पुकार शंकर का पीछा यहाँ भी नहीं छोड़ती  शंकर खुद को कामिनी रूह और पत्नी रंजना में बुरी तरह फंसा पाता है अपने पति की हालत से परेशान रंजना कहती है की.... "अगर आप मुझे नहीं चाहते तो मुझे छोड़ दीजिये ".अपने पति शंकर की अपेक्षा से दुखी रंजना जहर खा कर आत्महत्या कर लेती है और इलज़ाम शंकर पर आता है शंकर को फांसी की सजा हो जाती है लेकिन वो कामिनी की रूह कौन है ? ..... महल का क्या राज है ? जब ये सनसनीखेज राज खुलता है तो हाल में बैठे दर्शको की धड़कन जैसे बंद हो जाती है क्योंकि हमारे सिनेमा का दर्शक महल से पहले हिंदी फिल्मो के इस तरह के अंत का आदी कतई नहीं था यही राज अंत तक फिल्म में दर्शको को बांधे रखता है जिसमे कमाल अमरोही सफल रहे फिल्म का अंत होता है उस दुविधा में .....'' जब मरना चाहा तो मर ना सके और जब जीवनदान मिला तो जी ना सके ''.......शंकर का दोस्त अंत में कहता है की ... ''इंसान इतना जब्त नही कर सकता " फिल्म के आरम्भ में सुनसान महल में लगी एक तस्वीर दिखाई गई है जिसमे अशोक कुमार कुर्सी पर बैठे दिखाए गए है फिल्म के अंत में उसी कुर्सी पर उसी तस्वीर की तरह अशोक कुमार मृत पाए जाते है ये दृश्य फिल्म "महल " का सबसे प्रभावी दृश्य है बहुत कम दर्शकों ने गौर किया होगा कि फिल्म जिस फ्रेम से आरंभ होती है उसी फ्रेम पर समाप्त होती है मधुबाला अपनी रहस्यमयी खूबसूरती ,प्यार ,समर्पण के साथ नायक अशोक कुमार को अपने चक्रव्यूह में ऐसा बांध कर रखती है की दर्शक अंत तक अपनी सीट से नहीं हिलता उसकी मौत ही इसे चक्रव्यूह से छुटकारा दिलाती है 

'महल' में अशोक कुमार के चेहरे पर जब डर झलकता है उसकी शिकन दर्शक महसूस करते है


जब खेमचंद प्रकाश ने इस गीत 'आएगा आने वाला' की धुन बनाई तो इसके बारे में दोनों निर्माताओं की राय विभक्त थी निर्माता सावक वाचा को यह धुन बिल्कुल पसंद नहीं आई जबकि अशोक कुमार को यह धुन 'आएगा आने वाला' अच्छी लगी अशोक कुमार और सवाक वाचा दोनों इस फिल्म के निर्माता थे खेमचंद्र प्रकाश के संगीत में बनी इस फिल्म के गाने बहुत लोकप्रिय हुए महल फ़िल्म के गाने 'आएगा आने वाला' पहला गाना है जिसके साथ लता जी को उनकी गायकी का श्रेय मिला ,"महल " को लता जी की डेब्यू फ़िल्म मानते हैं हालांकि कुछ लोग इसका श्रेय मजबूर (1948 ) को देते हैं गीतकार नक्षभ के इस मशहूर गाने की रिकार्डिंग के समय समस्या खड़ी हो गई थी अब इस गीत 'आएगा आने वाला' में यह असर डालना था कि गाने की आवाज़ दूर से क्रमश: पास आ रही है उन दिनों अपने देश में रिकार्डिंग की तकनीक अधिक विकसित नहीं थी लेकिन संगीतकार खेमचंद प्रकाश ने इस का हल निकाल लिया रिकॉर्डिंग स्टूडियो के बीच में माइक रखा गया तथा कमरे के एक कोने से गाते गाते लता धीरे धीरे चलते हुये माइक के पास पहुँची इस तरह गीत में वांछित प्रभाव पैदा किया गया गीत के म्यूजिक रिकार्ड में गायिका का नाम ‘कामिनी’ छपा था। ‘कामिनी’ फ़िल्म ‘महल’ में नायिका मधुबाला का नाम था जब फ़िल्म रिलीज़ हुई तो यह गीत बेहद मशहूर हो गया रेडियो पर श्रोताओं के ढेरों पत्र गायिका का नाम जानने के लिये पहुँचने लगे फलस्वरूप एच.एम.व्ही को रेडियो पर जानकारी प्रसारित करनी पड़ी कि इस गीत की गायिका का नाम "लता मंगेशकर " है





जब जब भी फिल्म में घडी की पेंडलुम रुकती है तो ये गाना "आएगा आने वाला' आता" है जो दर्शको को भीतर तक सिहरन पैदा कर देता है ....... बजते घंटाघर के घंटे और तूफानी रात में मोमबती लेकर घूमती , झूला झूलती मधुबाला इस डर को और बढ़ाती है ‘आयेगा आने वाला’ के बाद जहाँ लता को सफलता मिली वही मधुबाला भी फिल्म इंडस्ट्री में एक सफल अभिनेत्री के रूप में स्थापित हो गई ...... छुन छुन घुंघरू बाजे ,दिल ने फिर याद किया ' मैं वो हंसी हूँ 'एक तीर चला , मुश्किल है बहुत मुश्किल ' घबरा के जो हम, गाने भी मधुर थे राजकुमारी और लता की आवाज़ में गाने मधुर बने है फ़िल्म में लच्छू महाराज के शानदार नृत्य निर्देशन का एक नमूना डांस के रूप में दिखता है।

मधुबाला

पुनर्जन्म की कहानी को आधार बना कर  बनने वाली पहली हिन्दी फ़िल्म का श्रेय प्राप्त करने वाली 1949 में आई " महल " सुपरहिट थी हालाँकि फिल्म के अंत में जब राज खुलता है तो ये पुनर्जन्म वाली कहानी का पटाक्षेप हो जाता है और एक नए ही रहस्य से सामना होता है अशोक कुमार और मधुबाला अभिनीत यह फ़िल्म एक ऐसी लड़की की कहानी है जो अभावग्रस्त पिता की संतान है,लेकिन उसके मन में इच्छा एक ऐसे प्रेम को पाने की है जैसा राजकुमारियों को मिलता है अभाव की प्रतिक्रिया में जन्मा प्रेम पैदा करता है  एक साजिश को,,....साजिश का शिकार होता है एक नौजवान जो उस लड़की को एक अतृप्त आत्मा मान बैठता है और उस की खूबसूरती के तीर-ए -तरकश का शिकार होकर उससे मिलन की चाह में अपने जीवन को ख़त्म करने को भी तैयार हो जाता है महल कम किरदारों के माध्यम से कसी हुई कहानी कहने का बहुत अच्छा प्रयास है अमरोही साहब की अन्य फिल्मों की तरह यहाँ भी उर्दू के अल्फाज ज्यादा हैं भाषा और स्थान का सम्बन्ध कमजोर होना इस फ़िल्म की भूल कही जा सकती है कई संयोग-दुर्योग से हिचकोले खाती हुई कामिनी की अपने लिए लिखी पटकथा का अंत किसी और जगह होता है फ़िल्म का सन्देश है कि भ्रम हमेशा खूबसूरत जाल बिछा के ही आता है आप चाहते ना चाहते फंसते चले जाते हैं ।.....बॉम्बे टाकीज़ द्वारा निर्मित फिल्म "महल "कमाल अमरोही के लिए भी मील का पत्थर साबित हुई जहाँ तक पुनर्जनम का हिंदी फ़िल्मों से संबंध है, तो इस राह पर भी हमारे फ़िल्मकार महल के बाद चले पड़े जन्म मरण,आत्मा परमात्मा जैसे रहस्यपूर्ण विषय अब हमारे फिल्मकारों की गहरी आस्था बन गए और जिस पर हमारा हिंदी सिनेमा आज तक चल रहा है 'महल' के बाद में आयी फ़िल्म मधुमती (1958) , मिलन (1967),नीलकमल, (1968 ), क़र्ज़ (1980 ) ,कुदरत (1981 ), बीस साल बाद (1962), मेरा साया (1966), अनीता (1967) आदि कुछ रहस्यप्रधान फिल्मे थी जिनमे रोमांच पैदा करने के लिए पुनर्जन्म का आंशिक तड़का लगाया गया था भूल भुलैया (2007) की कहानी महल से ही प्रभावित थी जिसे पर्सनेलटी डिसॉर्डर जैसे विषय के साथ जोड़कर परोसा गया था 


फिल्म में एक माली की बेटी नायक से एकतरफा प्रेम कर बैठती है और उसे लुभाने के लिए तरह तरह के यत्न करती रहती है,मधुबाला अशोक कुमार को ये विश्वास दिला देती है वो पुनर्जन्म लेकर उसके लिए आया है और वो अपनी जान देने को भी तैयार हो जाता है इस फिल्म की सारवस्तु बस यही है। ..मैंने जानबूझ कर कलाइमेक्स नहीं लिखा ऐसी फिल्मो की समीक्षा में आमतौर पर कलाइमेक्स नहीं लिखा जाता ताकि उत्सुकता बनी रहे फिल्म के अधिकांश दृश्य बहुत भावुक हैं, इसलिए दर्शकों को किरदारों के साथ सहानुभूति हो जाती है  ये फिल्म की ब्लैक एन्ड वाइट फोटो ग्राफी का कमाल है ख्याति प्राप्त सिनेमाटोग्राफर Josef Wirsching का कैमरा वर्क बेहद उम्दा है जो बाद में कमाल अमरोही के फेवरिट सिनेमाटोग्राफर बन गए कई मूक फिल्मो में भी इन्होने अपने जोहर दिखाए थे जिसमे हिमांशु राय की  The Light of Asia (1925 ) प्रमुख है 

लगभग 72 साल पुरानी बॉम्बे टॉकीज की 'महल' (1949 ) में किसी खौफनाक दृश्य या चेहरे का प्रयोग नहीं है न ही दर्शको को डराने के लिए तेज़ साउंड का सहारा लिया गया है सारा भय केवल परिस्थितिजन्य खौफ और कलाकारों के चेहरे के भावो से से पैदा किया गया है जो आज की भी रंगीन हारर फिल्मों पर भारी पड़ता है फिल्म में जब कथाकार ,फोटोग्राफर, निर्देशक, कलाकार ,भी कोई इफेक्ट नहीं बना सकते तो संगीत निर्देशक यह काम करता है किसी खामोश सीन में धीमे या तेज संगीत से प्रभाव पैदा कर देता है या शोर को एक दम कुछ  समय के लिय खामोश कर देता है आज के दर्शकों को शायद थोड़ी धीमी गति की लगे लेकिन निर्देशन और स्क्रीन प्ले गजब का है अगर  आप आज 72 साल बाद भी 'महल 'को देखेंगे तो तो यकीनन आपके रोंगटे खड़े हो जायेगे इसका कलाइमेक्स आप को उलझा कर रख देगा



No comments:

Post a Comment