Monday, February 19, 2018

"अमर" (1954 ) ......काले और सफेद कैनवास पर उकेरी सत्य और इच्छा, नैतिक अधर्मता और न्याय के बीच नैतिक संघर्ष की कहानी

"अमर" (1954 )


हिंदी सिनेमा के जाने माने मशहूर फ़िल्मकार महबूब खान ने कभी भी स्कूल की चौखट पर पांव नहीं रखा लेकिन पढ़े लिखे नहीं होने के बावजूद भी वो अभिनय की ऐसी पाठशाला बन गए जिस पाठशाला ने देश को दलीप कुमार समेत न कितने तराशे हुए अनमोल हीरे दिए हालाँकि ये कलाकार अपने समकालीन फिल्मकारों की फिल्मे भी कर चुके थे लेकिन उनकी अभिनय प्रतिभा का बेहतर इस्तेमाल महबूब खान की फिल्मो में ही देखा का सकता है उनकी फिल्म 'मदर इण्डिया' ने ऑस्कर में नामांकित हो भारत को अपने सिनेमा पर गर्व करने का मौका भी दिया अपनी फिल्मो की बदौलत इस व्यक्ति ने न केवल खुद को ऑडियोज़ीज़िकल व्याकरण सिखाया,बल्कि भारत की अगली पीढ़ियों को सिनेमाई प्रतिभा की एक दुर्लभ विरासत को भी प्रदान किया जिसे दुर्भाग्य से सहेजा नहीं जा सका जो बेहद अफसोसजनक है

कहा जाता है शोमेन राजकपूर ने अपनी फिल्मो में सिर्फ औरत के बाहरी शारीरिक सौंदर्य को सिनेमा के सुनहरी परदे पर चटख रंगो के साथ उकेरा लेकिन महबूब खान ने अपनी फिल्मो में औरत की सच्ची आत्मा को ब्लैक एन्ड व्हाईट में भी सशक्त ढंग से दर्शाया उनकी फिल्मे महिला प्रधान कहानियो पर आधारित होती थी ऐसे समय में जब बहुत सी महिलाओं की जिंदगी घर की चारदीवारी तक सिमित थी तब महबूब की फिल्मो में महिलाएं बेहद मजबूत दिखती थी जो धैर्य और अदम्य साहस के साथ प्रतिकूल परिस्थितियों में खड़ी रहती थीं अन्यायपूर्ण समाज से लड़ने के लिए उनमे नैतिक साहस था किसी भी परिस्थिति में टूटना उनको अस्वीकार्य था उनकी फिल्मो मे महिला पात्र को इस तरह से उकेरा जाता था की नायक के लिए कोई ज्यादा संभावना बचती नहीं थी "औरत" (1940) से लेकर "सन ऑफ इंडिया" (1962) तक की महबूब खान की अधिकांश फिल्मो की तरह "अमर" भी महिला किरदार पर केंद्रित थी इस फिल्म में उन्होंने बलात्कार जैसे बोल्ड विषय को छुआ था जाहिर है उस समय ये आसान काम नहीं था 1 अक्टूबर 1954 (शुक्रवार) को रिलीज़ हुई यह एक बहुत ही साहसी कहानी थी निर्देशक मेहबूब की सराहना की जानी चाहिए उन्होंने समय से आगे जा कर एक ऐसी कहानी पर फिल्म बनाने का साहस किया जो कहीं ना कहीं पुरानी रूढ़ि वादी परम्पराओं को तोड़ती है शायद इसलिए मेहबूब को अपने समय से आगे का फिल्मकार माना जाता है महबूब खान की फिल्म 'अमर दुष्कर्मी के पीड़ित से विवाह के समझौतावादी फैसले के विषय पर है' ज्ञातव्य है कि मेहबूब खान के लेखक एस.के काला ,मेहरिश ,एस.अली राजा ने एक फ्रेंच कृति से प्रेरित होकर 'अमर' की पटकथा लिखी परंतु मूल का क्लाइमैक्स उन्होंने बदल दिया



दिलीप कुमार ,मधुबाला ,निम्मी अभिनीत 'अमर' का कथासार कुछ इस प्रकार है दिलीप कुमार (अमरनाथ ) लंदन से कानून की शिक्षा लेकर लौटे हैं अमरनाथ शहर का एक प्रसिद्ध क्रिमिनल वकील है जो सार्वजनिक जीवन में किसी भी नैतिक अपराध के विरोध में है और उनके शहर में नगर सेठ राय साहेब ( उल्लास ) की कन्या अंजू ( मधुबाला ) एक सोशल एक्टिविस्ट है वह गरीबों को न्याय दिलाने की चेष्टा करती है अमरनाथ,अंजू के बीच प्रेम पनपता है अंजू के पिता अमर के पिता के मित्र है अत: उनकी शादी में कोई बाधा नहीं है महबूब ने फिल्म का प्रारंभ दूध बेचने वाली ग्वालन सोनिया से किया गया है जो भैंसों से बातचीत करती है और उसने मवेशियों के नाम भी रखे हैं। प्राय: वह गोबर में सनी रहती है सोनिया के पास से गुजरते हुए अमर कहते है,... 'कम्बख्त कभी नहा लिया कर तू .....गंधाती रहती है....' बस्ती का दादा जयंत (संकट छलिया ) सोनिया पर फिदा है सोनिया की सौतेली मां उसे प्राय: पीटती रहती है एक रात वह जलती लकड़ी से पिटाई करती है और संकट से बचती हुई सोनिया भागकर अमर के बंगले में प्रश्रय पाती है बरसात की रात डरी हुई सोनिया अमर से चिपट जाती है वह भय से कांप रही है फिल्मकार महबूब संकेत देते है कि उस तूफानी रात अमर,सोनिया के बीच शारीरिक सम्बन्ध बने अब वो दुष्कर्म है या नहीं पता नहीं ? खासकर दुष्कर्म वाले दृश्य को दलीप कुमार और निम्मी जैसे दो दिग्गज कलाकारों के बीच बिना किसी अश्लीलता के सिर्फ काली और सफ़ेद परछाइयों और और खिड़की के टूटते कांच की ध्वनि के माध्यम से महबूब ने खूबसूरती से फिल्माया है ताकि दर्शक देखे कम और समझे ज्यादा .......ये प्रयास कबीले तारीफ है ये दृश्य ही फिल्म की कहानी में एक टर्निंग पॉइंट साबित होता है ....., कुछ दिनों बाद सोनिया गर्भवती हो जाती है और लाख सवाल करने पर भी गर्भस्थ बच्चे के पिता या कहें दुष्कर्मी का नाम नहीं बताती गाँव वालो की हत्या के प्रयास में गुंडे संकट का केस अंजू अमर को लड़ने के लिए कहती है और हिंसक गुंडा संकट न्यायालय द्वारा दंडित होता है उसे सजा हो जाती है अमर भी अपराध बोध से ग्रसित हो जाता है उसके सामने असमंजस की स्थिति है की वो अंजू को सब बता दे या अपना जुर्म कबूल कर ले


इधर जेल से छूटा संकट सौतेली मां को धन देकर सोनिया से विवाह करना चाहता है गर्भवती सोनिया से संकट उसके नाजायज़ बच्चे के बाप का नाम जानना चाहता है न्याय के लिए लड़ने वाली अंजू भी 'अपराधी' का पता मालूम करने का बीड़ा उठाती है इस बीच, अंजू और अमर की शादी की तैयारियां जोर-शोर से चल रही है संवेदनशील वकील साहब अपराध बोध से छटपटा रहे हैं और इन दृश्यों में दिलीप कुमार ने कमाल का अभिनय किया है वे अंजू के नाम इकरार-ए-जुर्म का खत भी लिखते हैं परंतु घटनाक्रम ऐसा चलता है कि खत दे नहीं पाते। बहरहाल, रोचक घटनाक्रम के अंत में अंजू अमर की शादी सोनिया से करा देती है वकील नायक अदालत में अपना गुनाह कबूल करता अमर फिल्म में अंजू के रोल के लिए पहले महबूब खान ने अभिनेत्री मीना कुमारी को लिया था फिल्म के कुछ दृश्य शूट भी हुए पर उन दिनों अपने शोहर कमाल अमरोही और वालिद अली बक्श के बीच पिसती मीना कुमारी से महबूब खान ने किनारा करना ही बेहतर समझा और अंजू वाला रोल मधुबाला के हिस्से आ गया पूरी घटना विस्तार से पढ़ने के लिए इस लिंक पर जाये

  https://pawanmehra73.blogspot.in/2018/01/blog-post.html

लेकिन अफसोस, एक अच्छी कहानी के बावजूद, फिल्म अमर फ्लाप हो गई क्योंकि दर्शकों ने नैतिक रूप से कमजोर और बलात्कारी नायक अमर नाथ को स्वीकार नहीं किया साथ ही दिलीप द्वारा निम्मी के लिए मधुबाला का परित्याग भी दर्शको को रास नहीं आया शायद दर्शक दलीप कुमार और मधुबाला की रोमांटिक जोड़ी को कही न कही अपने जेहन में समेटे हुए थे ऐसे में अपनी गलती स्वीकार कर मधुबाला को छोड़ कर निम्मी से शादी करता दलीप कुमार उन्हें पसंद नहीं आया और दर्शको ने अपना फैसला महबूब खान को सुना दिया महबूब खान को अपना ये महत्वकांशी प्रयोग भारी पड़ा और दलीप कुमार ,मधुबाला ,निम्मी ,जयंत मुकरी ,उल्लास ,हुस्न बानो ,मुराद ,जैसी बेहद मशहूर स्टार कास्ट के बावजूद 'अमर 'नहीं चली हालाँकि  एक वकील अमरनाथ के शीर्षक रोल को दलीप कुमार ने बेहद उम्दा ढंग से निभाया एक मार्मिक दृश्य में अमर के अपराध बोध से पिसते दलीप कुमार अपने मुनीम से कहते हैं कि "इस पूरे बंगले को तोड़ दो और नया मकान बना दो।" ये दृश्य दलीप कुमार के अभिनय की गहराई को दिखाता है सोनिया के रोल में निम्मी ने अपने अभिनय को सिर्फ अपने चेहरे से उत्पन अभिव्यक्तियों के जरिए अभिव्यक्त किया गया है उन्होंने बलात्कार के दर्द को अपने चेहरे के भावो से जी कर अपने रोल को वाकई अमर कर दिया है मधुबाला आकर्षक लगी लेकिन आखिर में उनका त्याग दर्शको को पसंद नहीं आया जयंत विलेन की रोल में कई दृश्यों में दलीप कुमार को टक्कर देते दिखते है उनका एक संवाद ....'' वकील साहेब अबकी बार मेरी गर्दन और बचा लीजिये आइंदा मोहब्बत के मामले में जरा सोच समझ कर चाकू निकाला करूँगा '' मशहूर हुआ था आगा जानी कश्मीरी के संवाद कहानी के अनुरूप थे

फिल्म 'अमर' को मशहूर संगीतकार नौशाद के अमर संगीत के लिए याद किया जा सकता है फिल्म में लगभग 10 गाने थे 1954 में आई फिल्‍म अमर के गाने जल्दी ही लोगों की जुबान पर चढ़ गए थे। शकील बदायूं के गीतों इन्साफ का मंदिर है ये भगवान का घर है , तेरे सदके बलम , ना मिलता गम तो ,ना शिकवा कोई ,हिट हो गए और आज तक सुने जाते है आर.कौशिक ने बेहतर ध्वनि रिकॉर्डिंग के लिए पहला फिल्मफेयर अवार्ड जीतकर इस केटेगरी का शुभारंभ किया अब क्या कहे की इतनी बेहतरीन फिल्म बनाने के बावजूद भी बॉक्स ऑफिस ने महबूब खान के श्रम साध्य प्रयासों के साथ 'इंसाफ' नहीं किया उन्हें फिल्म के न चलने से निराशा हुई लेकिन महबूब खान की फिल्म "अमर" (1954 ) काले और सफेद कैनवास पर उकेरी सत्य और इच्छा, नैतिक अधर्मता और न्याय के बीच नैतिक संघर्ष की कहानी है समीक्षक और आलोचक अच्छे सेट, अद्भुत ध्वनि प्रभावों और प्रतिभाशाली फोटोग्राफी के लिए महबूब खान की कृति 'अमर 'को आज भी याद करते है

निम्मी ने एक इंटरव्यू में बताया था की '' फिल्म अमर (1954) के सेट पर हम दोनों ( मधुबाला -निम्मी) में गहरी दोस्ती हो गई थी। हमारे बीच दिलीप कुमार को लेकर भी चर्चाएं होने लगीं जो उस फिल्म में मुख्य अभिनेता की भूमिका निभा रहे थे दिलीप कुमार को अपना दिल दे चुकीं मधुबाला के दिमाग में निम्मी की बातों से थोड़ा शक पैदा हुआ। मधुबाला के मन में यह स्वभाविक सवाल उठा, 'निम्मी दिलीप का उतना ही ख्याल क्यों रखती है, जितना मैं रखती हूं? अगर ऐसा है तो मुझे क्या करना चाहिए ?' एक दिन मधुबाला ने निम्मी से कहा, 'निम्मी, क्या मैं तुमसे कुछ पूछ सकती हूं? मुझे विश्वास है कि तुम मुझसे झूठ नहीं बोलोगी और मुझसे कुछ नहीं छुपाओगी।' जब निम्मी ने उन्हें आश्वस्त किया तो उन्होंने कहा कि'' अगर तुम दिलीप कुमार के बारे में वैसा ही महसूस करती हो जैसा मैं करती हूं तो मैं तुम्हारी खातिर उनकी जिंदगी से निकल जाऊंगी और मैं उन्हें तुम्हारे लिए दिलीप को छोड़ दूंगी।' निम्मी को यह सुन कर गहरा धक्का लगा। फिर निम्मी ने खुद को संभालते हुए मधुबाला से दोस्ताना अंदाज में कहा कि ' उन्हें दान में शोहर नहीं चाहिए '....



       पवन मेहरा  
                                                (सुहानी यादे ,बीते सुनहरे दौर की )

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