Friday, March 30, 2018

गरम हवा (1973) ......हिन्दुस्तान के अनचाहे विभाजन और टूटे रिश्तो का दस्तावेज समेटे सबसे मार्मिक फिल्म

गरम हवा - (1973)
हिन्दी साहित्य की तरह हिन्दी सिनेमा पर भी यह अारोप लगाया जा सकता है कि उसने हिन्दुस्तान के इतिहास में अाये सबसे बड़े ज़लज़ले यानि बँटवारे का सीधा सामना नहीं किया। हिन्दी साहित्य पर लगाये अारोप में सच्चाई का कुछ अंश ज़रूर रहा होगा लेकिन 1973 में अायी एम.एस सथ्यू की फिल्म ‘गरम हवा’ हमारे सिनेमा इतिहास में मौजूद इस आरोप को पाटने का काम करती है ये फिल्म आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कि वह तब थी जब बनी थी यह एक ऐसी फिल्म है जो जितनी ईमानदारी से सवाल उठाती है उतने ही सशक्त ढंग से उनका जवाब भी देती है और देखने वालों को झकझोर देती है उन्हें कुछ सोचने पर मजबूर कर देती है इस फिल्म को शायद आप में से ज़्यादा लोगों न देखा हो या शायद नाम भी न सुना हो और अगर ऐसा है तो यह वो फ़िल्म है जिसका नाम आपको मरने से पहले देखी जाने वाली फिल्मों की फ़ेहरिस्त में शामिल कर लेना चाहिए विवादस्पद उर्दू लेखिका ' इस्मत चुग़ताई ' की लघु कहानी पर फिल्म 'गरम हवा' आधारित है जिसे मशहूर शायर कैफी आजमी और शमा जैदी ने लिखा है। गर्म हवा की कहानी है हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बंटवारे के बाद उठने वाले उन सवालों की जो हिंदुस्तान में ही रह जाने वाले मुसलमानों के ज़हन में बंटवारे की बाद की परिस्थितियां उठाती है इस फिल्म की राजनितिक सेंसिटीव थीम की वजह से इस फिल्म को उस वक्त काफी कोंट्रोवर्शियल बताया गया लेकिन फिर भी फ़िल्मी आलोचक सालों से इसे हमारे इतिहास की एक बहुत महत्वपूर्ण फिल्म मानते आये है गरम हवा अपने ईमानदार कॉसेप्ट से सलीम मिर्जा की नाजुक कहानी में भी इंसानियत लाने की कोशिश के कारण सराही जाती है जो आपके अंदर गुस्सा, लाचारी और उम्मीद भर देगी एम.एस. सथ्यू द्वारा निर्देशित ‘गरम हवा’ आपको भारत-पाकिस्तान बंटवारे के उस सच से भी परिचित कराएगी जिसका दुःख आज भी ना जाने दोनों तरफ के कितने परिवारों के दिलोदिमाग़ में छुपा हुआ है जिसे आज़ादी के बाद दोनों देशो की वर्तमान सरकारों तक किसी ने कभी महसूस ही नहीं किया वर्चस्व और अहंकार  की लड़ाई में किसी भी संवेदनशील सरकार ने यह नहीं सोचा कि देश के टुकड़े होने से स्थानातरण और पुनर्वास के बीच लाखों परिवार ओर जिंदगियां इस भूल से रौंदी जाएंगी आजादी के 70 सालों के बाद भी प्रभावित व्यक्तियों की कराह हमारे वर्तमान को आज भी टीसती रहती है विभाजन की राजनीति-सामाजिक विभीषिका से हमारा देश कभी उबर नहीं पाया।


यह फिल्म चालीस के दशक के अागरा की कहानी है जिसके केन्द्र में मौजूद है हमारा कथा नायक सलीम मिर्ज़ा ( बलराज साहनी ) का परिवार। जिसके ज्यादातर रिश्तेदार पाकिस्तान चले गए हैं और वह वहाँ जाएँ न जाएँ की स्थिति में घिरा हुआ हैं। सलीम मिर्जा के के दो बेटे हैं बाकर मिर्ज़ा (अबू सिवानी  ) और सिकंदर मिर्ज़ा ( फारुख शेख ) मिर्ज़ा परिवार जिसने सबके साथ मिलकर साझा अाज़ादी का सपना देखा लेकिन जब अाज़ादी अाई तो उसने पाया कि उसे बड़ी बेदर्दी से किनारे कर दिया गया है ............कहानी शुरू होती है बंटवारे और उसके बाद होने वाली महात्मा गांधी जी की हत्या के बाद तकसीम हिंदुस्तान में बदलते हुए हालातों से जिसमें आगरे के एक जूता व्यापारी सलीम मिर्ज़ा के खानदान के सदस्य बदले हालातों के मद्देनज़र धीरे-धीरे पाकिस्तान रवाना होने लगते हैं लेकिन सीधा-सच्चा और ईमानदार सलीम मिर्ज़ा इस पलायन को उनका बेफिज़ूल का डर करार देते हुए हिंदुस्तान में ही रुकने का फैसला करता है जिसे इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि हालात वाकई बदल चुके थे खासतौर से हिंदुस्तान में रह जाने मुसलमानों के लिए और इसका अहसास उसे आहिस्ता-आहिस्ता अपने साथ पेश होने वाले वाकयातों में तब होता है जब अपनी कारोबारी ज़रूरतों के मद्देनज़र उसका पुराना बैंक उसे लोन देने से इंकार कर देता है महज़ इस डर की बिनाह पर कि कहीं वह भी कुछेक और मुसलमानों की तरह कर्ज़ा लेकर पाकिस्तान भाग जायगा कारोबारी मुश्किलात से जूझते सलीम मिर्ज़ा का बड़ा भाई हलीम मिर्ज़ा ( दीना नाथ जुत्थि ) जो कि मुस्लिम लीग का एक नेता भी था और जिसके नाम मिर्ज़ा बंधुओं की पुश्तैनी हवेली थी वो बिना हवेली सलीम मिर्ज़ा के नाम लिखाये पाकिस्तान चला जाता है क्योंकि वो मानता है की आज़ाद भारत में मुसलमानों के लिए कोई भविष्य नहीं है जिसकी वजह से हवेली पर सरकार का कस्टोडियन का क़ब्ज़ा हो जाता है सलीम मिर्ज़ा को अपनी बूढ़ी माँ ( बदर बेगम ) को गोद में उठाकर हवेली खाली करनी पड़ती है और परिवार को किराये के मकान में रहना पड़ जाता है तकसीम हिंदुस्तान में सलीम मिर्ज़ा को एक किराये का मकान हासिल करने के लिए जाने कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं कितनी ही जगह उसे महज़ इसलिए मकान देने से इंकार किया जाता है क्योंकि वह एक मुसलमान है मिर्ज़ा को समझ नहीं आता है कि कैसे वह अपने ही वतन में अछूत समझा जाने लगा है ? तंग हो कर बेगम जमीला ( शौकत आजमी ) मिर्ज़ा को पाकिस्तान चलने के लिए कहती है लेकिन मिर्ज़ा नहीं अपनी बेगम की सलाह से इत्तिफ़ाक़ नहीं रहता और उसे समझाता है एक दिन सब सही हो जायेगा आज़ाद हिंदुस्तान में और कई समस्याओं के साथ बेरोज़गारी की समस्या भी मुंह उठाए खड़ी होती जिसका शिकार सलीम मिर्ज़ा का छोटा बेरोज़गार बेटा सिकंदर मिर्ज़ा भी बनता है जो हिंदुस्तान में अपने भविष्य को लेकर फिक्रमंद एवं भेदभाव और सिफ़ारिशवाद के माहौल से तंग आने लगता है सिकंदर मिर्ज़ा को सुशिक्षित होने के बाद भी सिर्फ अपने मज़हब के कारण नौकरी नहीं मिलती

सलीम मिर्जा की लाडली बेटी अमीना मिर्ज़ा ( गीता सिद्धार्थ ) की सगाई अपने चचेरे भाई और हलीम के बेटे काजिम ( जलाल हाशमी ) से तय हुई है काजिम शादी करने के मकसद से आगरा लौटता है लेकिन शादी की तैयारियों के बीच जरुरी कागजात न होने की वजह से पुलिस उन्हें जबरन पाकिस्तान वापिस भेज देती है प्रश्न उठाया जाता है की एक पाकिस्तानी राजनितिक पार्टी के नेता के बेटे से हिन्दुस्तांन में रहने वाली अमीना की शादी कैसे हो सकती है ? दुखी अमीना को फूफेरे भाई शमशाद ( जलाल आगा ) का सहारा मिलता है शमशाद अमीना से एक तरफ़ा मोहब्बत करता है अमीना पहले से ही अपने पीछे पड़े शमशाद की शादी के प्रस्ताव को कुबूल कर लेती है लेकिन वह मोहब्बत भी शादी में तब्दील नहीं होती शमशाद का परिवार भी अमीना को ठुकरा देता है अमीना मिर्ज़ा को सिर्फ बंटवारे के कारण दो बार प्यार में धोखा मिलता है अमिना का दिल टूट जाता है और वो गहरे अवसाद में मौत को गले लगा लेती है ,अपना कारखाना जला देने ,पुश्तैनी हवेली पर कब्ज़े और पाकिस्तानी जासूस होने के लांछन के बाद भी सलीम मिर्जा आगरा न छोडऩे की जिद्द पर अड़े रहते हैं संदेह और बेरूखी के बावजूद उनकी संजीदगी में कोई फर्क नहीं आता उन्हें उम्मीद है कि महात्मा गांधी की शहादत बेकार नहीं जाएगी सब कुछ ठीक हो जाएगा जूता व्यापारियों की नवगठित यूनियन की बेमानी हड़ताल में उनका साथ न देने के कारण यूनियन मिर्ज़ा का बहिष्कार कर देती है परेशानियों के चलते कारोबार की पतली होती हालत से घबराकर मिर्ज़ा का बड़ा बेटा बाकर मिर्जा भी पाकिस्तान जाने का फैसला कर लेता है एकदम अकेले रह गए सलीम मिर्ज़ा के लिए हालात दुखद बनते जाते है आमिना की मौत के बाद तो जैसे उनकी रही-सही हिम्मत भी टूट जाती है और वे भी मजबूरन न चाहते हुए भी पाकिस्तान जाने का फैसला कर लेते हैं जब मिर्ज़ा अपने बेटे और बीवी के साथ बेमन से तांगे पर बैठकर स्टेशन जा रहे होते हैं तो रास्ते में बेरोजगार नौजवानों का समूह अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन कर रहा होता है जिसे देख कर सिकंदर मिर्जा में एकाएक जोश जागता है सलीम मिर्जा अपने छोटे बेटे सिकंदर मिर्जा से कहते है .......'' जाओ बेटा अब मैं तुम्हे नहीं रोकूंगा आखिर इंसान कब तक अकेला जी सकता है '' .......अंतत: सर हिलाते हुए सलीम मिर्ज़ा भी अपने पुराने तांगे वाले ( विकास आनंद ) को घर वापस चलने के लिए कहते हैं और घर की चाबियाँ अपनी बेगम को सौंपते हुए कहते है .....'' मैं भी अकेली जिंदगी की घुटन से तंग आ गया हूँ '' और वह भी उस रास्ते जाते जलूस में शामिल हो जाते है .............गर्म हवा’ जहां एक ओर बंटवारे के बाद हिंदुस्तान में रह जाने वाले मुसलमानों की दुश्वारियों का ईमानदारी से चित्रण करती है, वहीं दूसरी ओर उन्हें हालात से घबरा कर पलायन करने के बजाय डटकर हालात से मुकाबला करने का यथायार्थवादी और व्यावहारिक सुझाव भी देती है ‘गर्म हवा’ उन फ़िल्मों में से है जो बंटवारे के बाद हिंदुस्तान में रह जाने वाले मुसलमानों के सांप्रदायिक द्वेष, घृणा और नफरत के माहौल में अपना वजूद बचाने की जद्दोजहद को, पीड़ा को निहायत ही संजीदगी, ईमानदारी और सच्चाई से बयान करती है  इस फिल्म को लिखने वाले कैफ़ी आज़मी और शमा ज़ैदी ने कहानी के मानवीय पक्ष और भावनाओं का पूरा-पूरा और सूक्ष्म ध्यान रखा है

बलराज साहनी 

इस फिल्म में तकनीकी गुणवत्ता और बारीकियों से अधिक ध्यान कहानी के यथार्थ धरातल और चित्रण पर दिया गया आगरा पूरी दुनिया में अपने चमड़ा उद्योग के लिए मशहूर है फिल्म में 1947 में विभाजन के गंभीर महीनों में एक उत्तर भारतीय मुस्लिम चमड़ा व्यापारी और उनके परिवार,की दुर्दशा दिखाई गई है इस लिए गरम हवा की ज्यादातर शूटिंग ओरिजनल लोकेशन पर की गई थी जिसके चलते फिल्म के दृश्य इतने असरदार बन पाए हैं मिर्ज़ा की हवेली,उसका कारखाना, उसका किराये का मकान कुछ भी बनावटी नहीं लगता हैं फिल्म की शूटिंग उत्तर प्रदेश,के आगरा, फ़तेहपुर सीकरी के आस पास हुई है आगरा के बाशिंदे आर.एस लाल माथुर की पीपल मंडी में बनी एक पुरानी हवेली को सलीम मिर्ज़ा की हवेली के लिए चयनित किया गया इस फिल्म के जरिए सिनेमैटोग्राफर इशान आर्य ने आगरा और फतेहपुर सीकरी की नैसर्गिक खूबसूरती कैमरे में कैद की थी कैमरा एक पल को भी आपको आगरे से दूर नहीं ले जाता पर उस दौरान, पूरे हिन्दुस्तान के हाल और हालात बखूबी बयान कर देता रहता है फ़िल्म का कला पक्ष निहायत ही सबल है कहानी,स्क्रीन-प्ले एवं संवाद बेहद ही मर्मस्पर्शी और प्रासंगिक हैं कैफ़ी आज़मी का लिखा एक एक संवाद पिघले शीशे की तरह कानो में उतर जाता है और एक एक दृश्य सजीव हो उठता है .......गरम हवा में हिम्मत और हौसले से भरे कुछ शानदार पल हैं जैसे कि वो सीन जिसमें सलीम की बुजुर्ग मां को गोद में उठाकर ले जाना पड़ता है क्योंकि वो अपने उस घर को छोड़ने से इनकार कर देती हैं जिसमें कभी वो बचपन में दुल्हन बनकर आई थी। ज़रा याद कीजिए जब हवेली को खाली करने का मिर्ज़ा परिवार को कस्टोडियन का नोटिस मिलता है,तो बूढी मां कहती है, ‘मैंने तो दो ही बेटे जने थे,यह कमबख्त तीसरा कौन आ गया ?’..........  वह दृश्य जब मिर्ज़ा परिवार अपनी हवेली छोड़कर जा रहा होता है और मिर्ज़ा की बूढी मां  पुश्तैनी हवेली छोड़कर जाने को राज़ी नहीं होती है और लकड़ी वाली कोठरी में छुपकर बैठ जाती है .....तबियत ख़राब होने पर मरने से पहले बूढी मां को जब उसकी पुश्तैनी हवेली में वापस लाया जाता है, तो उसके चेहरे पर कैसे ख़ुशी के भाव होते हैं और जहां वह चैन से प्राण त्याग पाती है ....... फिल्म का क्लाइमेक्स जिसमें सलीम जिन्होंने पाकिस्तान जाने का फैसला आखिर ले लिया है लेकिन रास्ते में अपनी माँगो के लिए लड़ते मजदूरों का जुलुस देख कर उन्हें रुकने का नया मकसद मिल जाता है......... बैंक मैनेजर से क़र्ज़ न मिलने पर मिर्ज़ा सच ही तो कहते हैं, “ जो भागे हैं उनकी सज़ा उनको क्यों मिले जो न तो भागे हैं न ही भागना चाहते हैं ?” ..........जब काज़िम अपने प्यार को हासिल करने अपने घर आता है तो सलीम मिर्जा उन्हें कहते है .....'' पुलिस थाने में बता कर तो आये हो ना ?'' तो काज़िम का जवाब बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देता है वो कहता है .....'' अपने ही घर में आने के लिए पुलिस को बताना जरुरी है क्या ? सलीम मिर्ज़ा का हर बार किसी अपने को रेल से पकिस्तान विदा करना, उनकी बेगम का हवेली छोड़कर जाते समय चूल्हा तोड़ना, दादी का अंत समय में किराए के घर से हवेली तक जाने तक जैसे कुछ दृश्य आपके ह्रदय को झकझोर देंगे

जलाल आगा और गीता सिद्धार्थ 'गर्म हवा 'के एक दृश्य में 

फारूख शेख 
एम.एस सथ्यू लंबे समय से वामपंथी पीपल्स थियेटर एसोसिएशन ( आई.पी.टी.ए ) से जुड़े रहे थे इस प्रकार फिल्म में सबसे ज्यादा भूमिकाएं दिल्ली, मुंबई और आगरा में आई.पी.टी.ए ट्रॉप्स के मंजे हुए अभिनेताओं द्वारा निभाई गईं गर्म हवा के मुख्य कलाकार ‘बलराज साहनी, फारूख शेख़, शौकत आज़मी ,गीता सिद्धार्थ, जलाल आग़ा, ए.के हंगल, युनुस परवेज़, जमाल हाशमी’,बदर बेगम थे मुंबई के एक कानून के छात्र फारूक शेख ने तब तक आई.पी.टी.ए नाटकों में छोटी भूमिकाएं कीं थी बेरोजगार युवा मुस्लिम लड़के सिकंदर मिर्ज़ा की भूमिका के साथ फारूक शेख ने अपनी पहली फिल्म की शुरुआत की  फारुख शेख ने अपनी पहली फिल्म ‘गर्म हवा’ में मुफ्त में काम करने को हामी भरी थी। जब रमेश सथ्यू यह फिल्म बना रहे थे और उन्हें ऐसे कलाकार की जरूरत थी,जो बिना फीस लिए तारीखें दे दें वैसे इस फिल्म के लिए फारुख शेख को 750 रु.मिले, लेकिन तुरंत नहीं, बल्कि पांच साल बाद। यूं तो पूरी फिल्म अभिनेता बलराज साहनी पर आधारित थी, लेकिन फारूख शेख ने दर्शकों के बीच अपनी पहचान बनाने में सफल रहे। एकदम युवा फारुख को फ़िल्मी परदे पर देखकर अच्छा लगता है बलराज साहनी ने मुख्य किरदार सलीम मिर्जा की भूमिका इन्तेहाई संज़ीदा तरीके से निभाई एक ईमानदार वतनपरस्त मुस्लिम की भूमिका में बलराज अपने सहज अभिनय के बल पर सलीम मिर्ज़ा के पात्र को जैसे जीवंत कर देते हैं सच्चाई पर आधारित इस फिल्म के किरदार सलीम मिर्जा के बारे में के बारे में जानते ही बलराज साहनी काम करने को तैयार हो गए थे



बलराज साहनी का किरदार अपने साथ एक असमंजस, एक व्यथा लेकर चलता है वो प्रतीक बन दर्शाता है उन लाखों इंसानो की कहानी जो 1947 में दो टुकड़ो में बांट दिए गए भाग्य की विडंबना देखिये जहाँ फिल्म 'गर्म हवा 'से फारूक शेख से अपने अभिनय की शुरुआत की तो वही बलराज साहनी की ये आखरी फिल्म साबित हुई बलराज साहनी की जिन्दगी ने दुखों की कईं करवटें ली पहली करवट में उनकी पत्नी से उनका साथ जिन्दगी भर के लिए उस समय छूट गया जब उन्हे उनकी सबसे ज्याद जरूरत थी अपने वामपंथी विचारों के चलते वो कईं बार जेल गए। जिसका असर उनकी फिल्मों पर भी पड़ा। जिन्दगी में दुखों की एक करवट उस समय उन पर भारी पड़ी जब उनकी बेटी शबनम का अकस्मात देहांत हो गया। इसके बाद क्या बचा था बलराज साहनी पूरी तरह टूट गए और ऐसी हिम्मत नहीं कर पाए कि वो दोबारा जिन्दगी से लड़ पाते। दुख और संघर्ष के किरदार निभाते- निभाते गरम हवा की डबिंग के पूरा होते ही 13 अप्रैल 1973 को जब देश में चारों ओर बैसाखी की धूम थी बलराज साहनी ने दुनिया को अलविदा कह दिया। बलराज साहनी जब तक सांस लेते रहे, काम करते रहे। यह एक अच्छा संयोग था की उनकी अंतिम फ़िल्म ‘गरम हवा’ थी जिसमें सलीम मिर्ज़ा का निभाया हुआ उनका अंतिम किरदार रहा। शायद ये किरदार उनके सबसे ज़्यादा करीब रहा होगा । जिसमें उनकी जिन्दगी की झलक बंटवारे का दर्द, संघर्ष में गुज़रा जीवन, और हर कदम पर एक लड़ाई लड़ी थी हर एक परेशानी को अल्लाह मियां के हवाले छोड़कर सलीम मिर्ज़ा (बलराज साहनी ) हर एक मुश्किल का सामना करते हैं खुद पर पाकिस्तानी जासूस की तोहमत लगने के बाद भी वो अपना आपा नहीं खोते ..... भाई के नाम हवेली होने के कारण सरकार द्वारा बेघर कर देना हो या गुस्साए हुए लोगों द्वारा उनका कारखाना जला देना हो, या फिर बेटी की मौत का गम फिल्म के एक दृश्य में जब उनकी बेटी अमीना हाथ की नस काटकर जान दे देती है। बलराज साहनी ने अपनी संवेदना से इस दृश्य को अमर कर दिया। उन्होंने अपने जीवन में विभाजन की त्रासदी तो देखी ही थी कुछ दिन पहले (5 मार्च 1972) ही उनकी बेटी शबनम की भी असफल विवाह के चलते मृत्यु हुई थी। इस दृश्य में मानों उन्होंने अपनी वास्तविक जिंदगी का ही कोई हिस्सा खोया था। आज बलराज साहनी हमारे बीच नहीं है लेकिन लगभग साठ वर्ष के अपने जीवन में उन्होंने अपने को अधिक व्यापक और विशाल क्षेत्रों में व्यक्त कर पाने के लिए कई कला-माध्यमों को चुना


बलराज साहनी की मां की भूमिका सबसे पहले प्रसिद्ध गायिका बेगम अख्तर को दी गई थी लेकिन उन्होंने मना कर दिया बाद में बदर बेगम ने ये भूमिका निभाई बदर बेगम तब 70 की थी और मोतियाबिंद होने के कारण उन्हें लगभग दिखाई देना बंद हो चुका था हालांकि जब वह सोलह साल की थीं,तो वह हिंदी फिल्मों में काम करने के लिए बॉम्बे गई थी वाडिया मूवीटोन एक फिल्म में भी उन्होंने काम किया था गर्म हवा की पूरी यूनिट ने उनकी देखभाल की आवाज़ स्पष्ट न होने के कारण फिल्म में उसकी आवाज बाद में अभिनेत्री दीना पाठक द्वारा डब गई आमिना की भूमिका निभाने वाली गीता सिद्धार्थ ने अपने फ़िल्मी कैरियर का सबसे महत्वपूर्ण रोल इस फिल्म में निभाती हैं उस दौर की मध्यम वर्ग की एक आम मुस्लिम लड़की जिसके लिए विवाह ही उसके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना होती है और उसमें अगर दो-दो बार धोखा खा जाए तो उसके दिल की हालत क्या होती है गीता उसको बखूबी पेश करती हैं बाक़ी कलाकारों में सलीम मिर्ज़ा की पत्नी की भूमिका निभाने वाली ‘शौक़त कैफ़ी’,सलीम मिर्ज़ा के मतलबपरस्त रिश्तेदार की भूमिका में युनुस परवेज़, भतीजे की भूमिका में जमाल हाशमी, सिंधी व्यापारी की भूमिका में ए.के.हंगल, तांगे वाले की भूमिका में विकास आनंद, शमशाद की भूमिका में जलाल आग़ा आदि सभी अपनी-अपनी भूमिका से साथ पूरा न्याय करते हैं.गर्म हवा ए.के हंगल साहेब को अपनों ज़िन्दगी के करीब लगती थी

फ़िल्म का संगीत प्रसिद्ध शास्त्रीय संगीतकार 'उस्ताद बहादुर खान 'द्वारा दिया गया था इसमें अज़ीज़ अहमद खान वारसी और समूह द्वारा गाई  एक कव्वाली ‘आक़ा सलीम चिश्ती, मौला सलीम चिश्ती’ भी थी इस कव्वाली में लगता है व्यथित और चोटिल आमिना के संतप्त हृदय की पीड़ा को जैसे स्वर मिल गए हो अपने दूसरे प्यार शमशाद का निवेदन कुबूल करने वाला दृश्य और उसमें फिल्माई गई ये क़व्वाली बेहद प्रभावशाली है  हिंदी फिल्मों में देश के विभाजन पर फिल्मकारों की लंबी चुप्पी को ‘गर्म हवा’ तोड़ती है यह फिल्म हिंदी सिनेमा के मुख्यधारा के खिलाफ सिमित बजट में बनी थी फिल्म के निर्माण में इप्टा के आगरा स्थित रंगकर्मियों और स्थानीय कलाकारों ने सक्रिय सहयोग दिया। प्रगतिशील विचारों से प्रेरित यह फिल्म समानधर्मी कलाकारों और तकनीशियनों का सामूहिक प्रयास थी। ‘गर्म हवा’ छोटी फिल्म कही जा सकती है जिसमें बलराज साहनी से आलावा कोई पॉपुलर स्टार नहीं था और न हिंदी फिल्मों के प्रचलित मसाले थे फिल्म जैसे तैसे पूरी तो हो गई लेकिन इसे रिलीज़ करवाने में बेशुमार दिक्कतों का सामना करना पड़ा इस फिल्म को रिलीज़ करने से सेंसर बोर्ड हिचकिचा रहा था उसे फिल्म 'गरम हवा 'की रिलीज़ होने से सांप्रदायिक अशांति डर था सांप्रदायिक अशांति के डर से आठ महीनों तक फिल्म की रिलीज़ को रोका गया सेंसर बोर्ड के अधिकारियों की राय थी कि ऐसे विषय से फिल्मकारों को बचना चाहिए था इसके विपरीत फिल्मकार और सचेत सामाजिक एंव राजनीतिक एक्टिविस्ट विभाजन के बाद से दबे विषयों पर बातें करने के लिए तत्पर थे। दिल्ली में फिल्म के पक्ष में समर्थन जुटाने की कोशिश में राजनीतिक हलकों और सांसदों के बीच फिल्म का प्रदर्शन किया गया। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और सूचना प्रसारण मंत्री इंद्र कुमार गुजराल की पहल और समर्थन से फिल्म सेंसर बोर्ड से पास हुई और दर्शकों के बीच पहुंची पहले फिल्म को प्रयोग के तौर पर बंगलौर के दो सिनेमा घरों में रिलीज़ किया गया लोगो की सकारात्मक प्रतिक्रिया के बाद पूरे भारत में रिलीज़ का मार्ग प्रशस्त हुआ 1974 में कोलाबा,मुंबई के रीगल सिनेमा में गरम हवा’ का प्रीमियर आयोजित किया गया लेकिन बाल ठाकरे और शिवसेना ने सिनेमा हॉल को जला देने की धमकी दे दी आखिर प्रीमियर के दिन ही दोपहर में फिल्म की विशेष स्क्रीनिंग में भाग लेने के बाल ठाकरे को लिए राजी किया गया उन्होंने फिल्म देखने के बाद इसे दिखाए जाने के अनुमति दी फिल्म रिलीज़ हुई और 'गरम हवा' को आलोचनात्मक और व्यावसायिक सफलता भी मिली देश में सांप्रदायिक अशांति के लिए खतरा मने जाने वाली गरम हवा को उस वर्ष का राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा दिए जाने वाला 'राष्ट्रीय नर्गिस दत्त पुरस्कार ' मिला कहानी और संवाद के लिए इस्मत चुगताई और कैफी आजमी भी पुरस्कृत हुए थे। इस वर्ष के 'आस्कर' पुरस्कार ' के लिए इसे भारतीय प्रविष्टि के रूप में भेजा गया था और कॉन फिल्म समारोह में इसे 'गोल्डन पाम पुरस्कार' के लिए नामजद किया गया था।एम.एस.सथ्यु का कुशल एवं चुस्त निर्देशन इस फिल्म को उन उंचाइयों पर ले जाता है जहाँ इसे क्लासिक और कालजयी फ़िल्मों की फ़ेहरिस्त में शामिल करना लाज़मी हो जाता है तीन 'फिल्मफेयर पुरस्कार' भी इसने अपने नाम किये 2005 में, इंडियाटिक्स मूवीज ने शीर्ष 25 बॉलीवुड फिल्मों में ' गर्म हवा 'को स्थान दिया।


एम.एस सथ्यू की ‘गर्म हवा’ एक फिल्म नहीं मार्मिक दस्तावेज है बंटवारे के दर्द का अदाकारी,कैफ़ी आज़मी साहेब की चुभती-कचोटती-समेटती कलम,उस्ताद बहादुर खान साब की रूहानी मौसिकी और ख़्वाजा सलीम चिश्ती की दरगाह पर फिल्मायी गयी कव्वाली, ‘गर्म हवा’ को कुछ इस तरह आपके सामने परोसती है आप अपने आप को बहुत देर तक फिल्म से अलग नहीं रख पाते शायद इसलिए एम.एस सथ्यू ने इसे लगभग चार दशक बाद फिर से डिजिटल कर रिलीज़ करने का फैसला किया फिल्म के निगेटिव क्षतिग्रस्त हो गए थे ऐसे में उसे डिजिटली स्टोर करना जरूरी हो गया था पुणे में कैमो स्टूडियो में इसे डिजिटल करने का काम शुरू हुआ और साउंड क्वालिटी को लॉस एंजिलिस के डीलक्स लेबोरेटरीज द्वारा री स्टोर किया गया 1973 में मात्र दस लाख की लागत से बनी गर्म हवा को डिजिटली रिस्टोर करने में तकरीबन डेढ़ साल का वक्त लगा और दस गुना ज्यादा खर्च हुआ 14 नवम्बर 2014 को भारत के आठ महानगरों में 70 स्क्रीनों पर पी.वी.आर फिल्म्स द्वारा 'गर्म हवा 'को फिर से रिलीज किया गया फिल्म को तकरीबन चार दशक बाद रिलीज करने के सवाल पर फिल्म के निर्देशक एम.एस सथ्यू ने कहा कि वह चाहते हैं कि आज की पीढ़ी भी इसे देखे इसलिए उन्होंने 40 साल बाद गरम हवा को डिजिटल तकनीक से नया जीवन दिया गया हैअब यह देखना होगा कि आज की पीढ़ी इस फिल्म के विषय से खुद को कनेक्ट कर पाती है या नहीं ?


गरम हवा’ बंटवारे के दौरान आम लोगों की जिंदगियों पर होने वाले इसके असर की यादों को ताजा करने वाली एक मजबूत फिल्म है जो आपको अंदर से झकझोर के रख देगी देश के नेताओं की जल्दबाजी और भूलों के परिणाम के रूप में विभाजन हमारे सामने आया विभाजन में हुई जान-ओ-माल की तबाही के आंकड़े आज भी विचलित कर देते हैं 1973 में इसकी रिलीज़ के 45 सालों के बाद भी उत्तर भारत के मुस्लिम परिवार की दास्तान को बयान करती ये फिल्म आज भी उतनी ही प्रभावशाली है और ये हमें याद दिलाती है कि हमने कितनी बड़ी गलतियां की हैं ये हमारे इतिहास की वो कहानी है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। दरअसल सैंतालीस में हुअा ज़मीन का बँटवारा वहीं रुका नहीं, बल्कि हमारे सामुदायिक संबंधों के दरम्यान यह बँटवारा आज भी लगातार ज़ारी है। इस विध्वंस की तबाही आज भी देखी जा सकती है...... जब तक हिन्दुस्तान में बँटवारे की यह घृणित राजनीति ज़िन्दा है ‘गरम हवा’ जैसी फिल्म को बार बार देखे जाने की ज़रूरत भी ज़िन्दा रहेगी सन सैंतालीस में अपनी ज़मीन से,अपनी जड़ों से,अपनी स्मृतियों की कोख़ से उजाड़े गये मिर्ज़ा परिवार की कथा हमको अाज अौर ज़्यादा प्रासंगिक बनाती है वो इसलिए की ज़िन्दगी जीने जो रवायत सलीम मिर्ज़ा के किरदार में दिखाई देती है और जो अाबोहवा यह फिल्म अपने परिवेश में बुनती है जिससे एक पूरा साँस्कृतिक परिवेश हमारी अाँखों के सामने जीवित हो उठता है जिसे हमारे फिकरा परस्त हुकुमरानों ने बँटवारे की अाग में गवाँ दिया 40 रुपए मासिक पगार से शुरू करके पृथ्वी थिएटर के सामने एक आलीशान बंगले तक की यात्रा में मुशायरों के स्टेज के साथ फ़िल्मों में कैफ़ी आज़मी की  गीतकारी ने भी बड़ी भूमिका निभाई है गीतकारी के अलावा उन्होंने फ़िल्मों के लिए पटकथाएँ भी लिखीं इसमें 'गर्म हवा' ख़ास है फिल्म के आखिर में कैफ़ी आजमी की आवाज़ में कहा गया ये शेर 'गरम हवा ' को ठंडक देता है और हिम्मत हारे सलीम मिर्ज़ा के साथ साथ हमें भी बहुत कुछ कह भी जाता ....और सीखा भी जाता है....

''जो दूर से तूफान का करते है नजारा 
उन के लिए तूफान वहां भी है यहाँ भी 
धारे में जो मिल जाओ गए तो बन जाओ धारा 
ये वक्त का ऐलान वहां भी है यहां भी ''

कैफ़ी आजमी


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