तकदीर- ( 1967 ) |
राजश्री प्रोडक्शन की कुछ ऐसी पुरानी फिल्में हैं जिन्हें दर्शक आज भी याद करते हैं राजश्री प्रोडक्शन्स प्रा लि. फिल्म निर्माण कंपनी है जो आंशिक रूप से फिल्म-वितरक का काम भी करती है। देश की आज़ादी के साथ ही 15 अगस्त 1947 को ताराचंद बड़जात्या ने इस कंपनी की नींव रखी थी राजश्री प्रोडक्शंस ने फिल्म उद्योग के लिए बेहद शानदार योगदान दिया है उनकी फिल्मे साफ सुथरी और परिवार के साथ देखने लायक होती थी फिल्म बनाना तब एक कला और एक सामाजिक जिम्मेदारी थी और इस कसौटी पर राजश्री प्रोडक्शंस खरा उतरा राजश्री प्रोडक्शंस ने आज तक अपनी फिल्मो में फूहड़ता या अश्लीलता का सहारा नहीं लिया "आरती" (1962) और "दोस्ती" (1964) के बाद "तकदीर "(1967) उनकी तीसरी फिल्म थी फिल्म की कहानी समय के थपेड़े सहते एक ऐसे परिवार की है जो हालात के चलते तब बिखर जाता है जब परिवार के मुखिया की मौत की खबर उन्हें मिलती है और विधवा पत्नी को हालात से मजबूर अपने बच्चो की खातिर एक ऐसे आदमी से दुबारा शादी करनी पड़ती है जिसे वो पसंद नहीं करती इस कहानी को निर्देशक ए.सलाम ने बखूबी निर्देशित किया अपनों को खोने और पाने के फार्मूले पर उस दशक में कई फिल्मे बनी लेकिन 'तकदीर' को उन फिल्मो से जो चीज़ अलग करती है वो है लक्ष्मीकान्त,प्यारे लाल का सुरीला और कर्णप्रिय संगीत जो इस साधारण कहानी को भी बांध कर रखता है अपनी पिछली फिल्म 'दोस्ती' के संगीत के हिट होने के बाद और राजश्री की वितरित फिल्म 'पारसमणि (1963) के सुरीले संगीत से प्रभावित हो कर ताराचंद बड़जात्या ने लक्ष्मीकान्त,प्यारे लाल की जोड़ी पर विश्वास किया और 'तकदीर' का संगीत बनाने का जिम्मा सौंपा हालाँकि रोशन ने "आरती" में कुछ अविस्मरणीय गीत दिए थे ताराचंद बड़जात्या का विश्वास सही था लक्ष्मीकान्त,प्यारे लाल की जोड़ी ने याद रखने वाला अमर संगीत दिया 'तकदीर' के लगभग सारे गाने हिट हुए
'तकदीर' एक सीधी,सरल कहानी है.... गोपाल ( भारत भूषण ) और शारदा ( शालिनी ) गोवा स्थित एक गाँव में रहने वाले दंपती हैं जिनकी दो बेटियां माला और गीता और एक बेटा सुशील हैं वे बहुत अच्छी तरह से उनका पालन पोषण नहीं कर पा रहे दरअसल गोपाल एक वायलिन सिखाने वाला मास्टर है,वायलिन सिखाने की ट्यूशन से प्राप्त आय से उनके परिवार का निर्वाह मुश्किल से हो रहा है उनका घर साहूकार के पास गिरवी है बकाया रकम न देने पर साहूकार घर पर कब्ज़ा करने की धमकी देता है गोपाल का पुराना अमीर दोस्त विजय ( कमल कपूर ) इस मुश्किल हालात में गोपाल की मदद करता है लेकिन इस मदद में उसका निजी स्वार्थ छिपा है जिससे गोपाल तो अनजान है पर उसकी पत्नी शारदा , विजय की इस मदद के पीछे छिपी मक्कारी से वाकिफ है गोपाल से शादी से पहले से ही विजय की नजर शारदा पर थी शारदा के शादी इंकार करने पर विजय उसकी बदनामी गाँव में पहले कर चुका था शारदा गोपाल को समझाती है की उसे विजय से रुपये उधार नहीं लेने चाहिए थे क्योंकि विजय अच्छा आदमी नहीं है लेकिन गोपाल शारदा को आश्वासन देता है की हमने विजय से उधार लिया है और वो जल्द ही उसके रूपये उसे वापिस कर देगा परिस्थितियां गोपाल को अपने परिवार को अच्छी जिंदगी देने के लिए पानी के जहाज़ पर नौकरी करने के लिए मजबूर करती हैं अपने परिवार को अच्छी जिंदगी देने के मकसद से गोपाल जहाज़ पर नौकरी करने के लिए चला जाता है और अपने बच्चो और पत्नी से वादा करता है की वो जल्द ही वापिस आएगा
लेकिन जब भाग्य का पहिया बदलता है तो मनुष्य का भाग्य चौंकाने वाले परिवर्तनों से गुज़रता है गोपाल के साथ भी ऐसा ही होता है वो अपने परिवार के अच्छे भविष्य के लिए जिस जहाज़ में नौकरी कर रहा होता है वो एक भयंकर तूफान की चपेट में आ कर डूब जाता है गोपाल जीवित है या नहीं किसी को पता नहीं ? गोपाल की मौत से उसका परिवार बेहाल हो जाता है भुखमरी के कगार पर पहुंचे अपने परिवार के आस्तित्व को बचाने के लिए बेसहारा शारदा अमीर विजय से शादी करने का फैसला करती है उस विजय से जिससे वो नफरत करती थी विजय को भी जैसे इस क्षण का इंतज़ार था वो शारदा की मजबूरी का फायदा उठाकर उसके परिवार को अपना लेता है और बच्चो को अच्छी परवरिश देने का वादा कर शारदा से शादी कर लेता है गोपाल और शारदा की दो बेटियां माला ( काजल ) गीता (फरीदा जलाल) और बेटा सुशील ( सुशील कुमार ) विजय के घर अच्छी तालीम पाते है जहाँ उन्हें किसी चीज़ की कमी नहीं लेकिन पूरा परिवार अपने असली पिता गोपाल को भूल नहीं पाता और उनके बचपन में सिखाये गीत " जब जब बहार आई " की जरिये याद करता है जो की विजय को बिलकुल पसंद नहीं वो उन्हें सख्त चेतावनी देता है इस धुन को उनके घर में न बजाये
जब वक़्त करवट लेता हैं ना, तो बाजियां नहीं, जिंदगियाँ पलट जाती है ....भाग्य फिर पलटता है और कहानी भी....... गोपाल अभी जीवित है ,तूफान में टूटे उस जहाज़ की तबाही उसे लहरों के साथ बहा कर अफ्रीका ले जाती है लेकिन उसकी याददाश्त चली गई है वो कौन है ,कहाँ से आया है उसे कुछ याद नहीं ? वो अपने पिछले जीवन को याद करने में असमर्थ है ........क्रिसमिस के मौके पर चर्च के बाहर जब छात्र एक समारोह में गाना गा रहे रहे होते है तो उसका अपने बच्चो को सिखाया वो गीत " जब जब बहार आई " ही अफ्रीका में उनकी स्मृति को वापिस लाने में मदद करता है ......उसे याद आ जाता है की वो गोपाल है और गोवा में उसका परिवार बेसब्री से उसका रास्ता देख रहा होगा लेकिन गोपाल शायद ये भूल जाता है की इस दौरान कई साल बीत चुके है कुछ लोग गोपाल को अपने घर गोवा भेजने में उसकी मदद करते है गोवा में अपने गाँव वापिस आने पर उस पर व्रजपात तब होता है जब उसे पता चलता है की उनका परिवार अब उसके दोस्त विजय का परिवार है .........अपने परिवार को बेहद खुश देख कर गोपाल उनकी खुशहाल जिंदगी में कोई भी हस्तक्षेप नहीं करना चाहता वो अपनी बाकि की बची ज़िन्दगी गुमनामी में गुज़ारने का फैसला करता है लेकिन किस्मत अचानक फिर उसे अपनी बेटी गीता के सामने ले आती है जब वह उसे एक गुंडे ( दिनेश हिंगू ) के चंगुल से बचाता है जो विजय की कंपनी में मुलाजिम है ......ऋणी बेटी गीता असलियत जाने बिना पिता के स्नेह से खींची जाती है जल्द ही विजय को भी ये राज़ पता चल जाता है की गोपाल ज़िंदा है शारदा और अपने परिवार को फिर से खोने के डर से विजय गोपाल को हमेशा के लिए जान से मारने का फैसला करता है ताकि कोई भी दुबारा उसके और उसके अधिग्रहित परिवार के बीच नहीं आ सके .........अंत में शारदा को अपने बच्चों को बताना पड़ता है की उनके पिता गोपाल ज़िंदा है और फिर नाटकीय संघर्ष में सुरेश ( जलाल आगा ) और माला के मंगेतर ( सुभाष घई ) गोपाल को बचा लेते है और विजय मारा जाता है बिछुड़े परिवार के मिलन के साथ ही फिल्म का सुखद अंत होता है ....गोपाल अपने परिवार के साथ अपने गाँव वाले पुराने घर में वापिस लौट जाता है
आंनद बक्शी के दिल से लिखे गानो के लिए उस समय के दिग्गज कलाकारों ने स्वर दे कर 'तकदीर 'के संगीत को ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया " जब जब बहार आई और फूल मुस्कुराये " ये इस फिल्म का ऐसा इकलौता गीत है जिसमे मोहम्मद रफ़ी, लता मंगेशकर, महिंदर कपूर ,और उषा मंगेशकर ने स्वर दिया है ये गाना फिल्म में विभिन्न अंतराल पर आता है और कहानी को आगे बढ़ने में मदद करता है भारत भूषण के लिए इस गाने में मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ का इस्तेमाल किया गया जबकि सुशील कुमार के लिए महेन्दर कपूर की आवाज़ इस गाने में थी ,फरीदा जलाल के लिए लता मंगेशकर और अन्य के लिए उषा मंगेशकर की आवाज़ थी ये 'तकदीर ' का थीम सांग्स था ......." सात समंदर पार से गुडियो के बाजार से " एक आकर्षक चाइल्ड सांग है जिसे सुलक्षणा पंडित,मीना पाटकी, इला देसाई ने अपनी सुलभ आवाज़ से अमर कर दिया है जिसमे बच्चो को अपने पिता का इंतज़ार करते दिखाया गया है ......." रफ़ी का गाया '' मुझ भूल जाना अगर हो सके " एक विरह गीत है ......लता की आवाज़ में '' आइये बहार को हम बाँट ले '' गाना युवा उत्साह और उमंग के साथ ताज़गी का एहसास करवाता है ......लेकिन रफ़ी की आवाज़ में ''ओ दिलवालो अपनी शादी करवा लो '' एक कॉमेडी सांग्स के रूप में कोई खास प्रभाव पैदा नहीं करता ''अकाश पे बैठा हुआ लिखता है वो तकदीर '' दार्शनिक स्वभाव का एक ऐसा गाना है जो फिल्म के लिए जरुरी भी था और फिल्म की कहानी से मेल खाता है
"तकदीर " एक संगीत शिक्षक भारत भूषण की किस्मत के साथ लड़ाई की कहानी है आनंद बक्शी के लिखे गीतों और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के इतने अच्छे संगीत में बाद भी तकदीर बॉक्स ऑफिस पर कोई खास कमाल नहीं दिखा पाई राजश्री फिल्म्स द्वारा फिल्म का ज्यादा प्रचार न करना और सिमित प्रिंट्स के साथ इसे रिलीज़ करना फिल्म के न चलने का प्रमुख कारण माना जाता है फिल्म का क्लाइमेक्स कुछ हद फिल्म के अनुरूप नहीं था....अंत में कमल कपूर का मारा जाना कुछ जमता नहीं जबकि भारत भूषण की गैरमौजूदगी में वही बच्चो की परवरिश और देखभाल करते है कमल कपूर का अपने परिवार के साथ मोह स्भाविक था , कमल कपूर को एक दम से मार कर परिवार का भारत भूषण के साथ चले जाना अटपटा लगता है ......इसके आलावा जॉनी वॉकर की शक्ल का एक कॉमेडियन जब जब भी परदे पर आता है फिल्म की रफ़्तार कम कर देता है रफ़ी साहेब की आवाज़ में उसका गाया एक गाना भी उसकी बेहूदी कॉमेडी से दर्शको को बचा पाता ........लेकिन इन कमियों के बावजूद भी 'तकदीर' एक अच्छी,साफ-सुथरी और संगीत प्रधान फिल्मो की श्रेणी में आती है और 'राजश्री फिल्म्स' की परम्परा को बखूबी आगे बढाती है इंसान को किस्मत की बेबसी के हाथो मजबूर करने वाले फिल्म के कई दृश्य आपकी आँखे नम कर देते है
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