Monday, April 30, 2018

धुंडीराज गोविंद फाळके .....भारतीय सिनेमा के जनक और प्रथम भारतीय चलचित्र बनाने का असंभव कार्य करने वाले पहले व्यक्ति

धुंडीराज गोविंद फाळके
30 अप्रैल 1870 -16 फ़रवरी 1944
 
सिनेमा सबसे नया,युवा कला विधाओं मे से एक है अमूमन सिनेमा मनोरंजन विधा के रूप में प्रेषित होता है। मानवीय मूल्यों, सरोकारों और मूल्यवान संदेशों का इस सशक्त माध्यम से प्रसार और भी महत्वपूर्ण बन जाता है। कभी-कभी अभिनय जीवन बन जाता है। कलाकार जिंदगी के अद्भुत रंगों में डूबते-उतराते रहते हैं। कभी कोई, कभी कुछ, तो कभी आप और हम बन जाते हैं। फिल्मी पर्दे पर छाये किरदारों संग हम बह जाते हैं। अभिनेताओं-अभिनेत्रियों में अपना अक्स तलाशते हैं। दूसरों को ढूंढते हैं। इस विधा का जन्मदाता एक ऐसा जुनूनी व्यक्ति था जिसके लिए सिनेमा ही सब कुछ था इस विधा के सृजनकर्ता थे 'धुंडीराज गोविंद फाळके' जिन्हें 'दादा साहब फाळके' के नाम से जानते हैं दादा साहब एक निर्देशक, निर्माता, लेखक, कैमरामैन, मेकअप आर्टिस्ट, संपादक और कला निर्देशक का सम्मिलित नाम है कह सकते हैं संपूर्ण सर्जनात्मकता।....दादा साहब फाळके का जन्म नासिक से 30 किमी की दूरी पर 30 अप्रैल, 1870 को त्रयम्बकेश्वर में हुआ। वह एक समृद्ध परिवार से आते थे पिता संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और एलफिंस्टन कॉलेज के अध्यापक थे। लेकिन दादा साहब की रुचि कला विशेषत: पेंटिंग, थियेटर, जादू आदि में थी। पिता की तरह एक अध्यापक बनने की जगह उन्होंने बंबई के प्रसिद्ध सर जे.जे स्कूल ऑफ आर्ट में 1885 में प्रवेश लिया। 1890 में जेजे स्कूल से पास होने के बाद कला भवन, बड़ौदा से कला की विधिवत शिक्षा ली। सर जे. जे. स्कूल ऑफ आर्ट से प्रशिक्षित सृजनशील कलाकार थे मूर्तिशिल्प, वास्तुशास्त्र (आर्किटेक्चर), पेंटिंग, फोटोग्राफी, ड्रॉइंग आदि की विधिवत शिक्षा ली। दादा साहब फाळके सर्वगुण संपन्न व्यक्तित्व के मालिक थे फिल्में बनाने से पहले वह एक सधे हुए चित्रकार, फोटोग्राफर और मेकअप आर्टिस्ट थे

1908 में उन्होंने फाळके आर्ट, प्रिंटिंग और कशीदाकारी के कार्यों की शुरुआत की 1910 में उनके एक पार्टनर ने उससे पार्टनरशिप तोड़ ली उस समय इनकी उम्र 40 वर्ष की थी कारोबार में हुई हानि से उनका स्वभाव चिड़िचड़ा हो गया था। फिल्मों की ओर रुझान इसी वजह से हुआ अपने स्टूडियो के लिए जब वह कलर प्रिंटिंग का सामान लाने जर्मनी गए तो वहां 25 दिसम्बर को क्रिसमिस के अवसर पर ‘लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ नाम की विदेशी फिल्म देखी। फिल्म देखकर वह काफी प्रभावित हुए। इस फिल्म ने उनके अंदर फिल्मों को लेकर संभावनाओं के प्रति हलचल भर दी। फाळके ने भारतीय दर्शकों के लिए भारतीय थीम पर फिल्में बनाने की ठानी उन्होंने कहा को अब भारतीय भी 'द लाइफ ऑफ क्राइस्ट 'की तरह राम, कृष्ण, गोकुल और अयोध्या पर फिल्में बनाएंगे। उन्होंने 5 पौंड में एक सस्ता सा कैमरा खरीदा और शहर के सभी सिनेमाघरों में जाकर फिल्मों का अध्ययन और विश्लेषण करने लगे फिर दिन में 20 घंटे लगकर प्रयोग किये। ऐसे उन्माद से काम करने का प्रभाव उनकी सेहत पर पड़ा। उनकी एक आंख जाती रही उस समय उनकी पत्नी सरस्वती बाई ने उनका भरपूर साथ दिया। सामाजिक निष्कासन और सामाजिक गुस्से को चुनौती देते हुए उन्होंने फिल्म के निर्माण के लिए अपने जेवर गिरवी रख दिये


कई प्रयोग असफल भी हुए उनके अपने मित्र ही उनके पहले आलोचक थे लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी अतः अपनी कार्यकुशलता को सिद्ध करने के लिए उन्होंने एक गमले में मटर बोई फिर इसके बढ़ने की प्रक्रिया को साधारण कैमरे में उतारा। इसके लिए उन्होंने टाइमैप्स फोटोग्राफी की तकनीक इस्तेमाल की परिणाम को जब उन्होंने अँधेरे कमरे में देखा तो उनमे हिम्मत आई उन्होंने फिल्म बनाने के लिए अपनी पत्नी और खुद की जीवन बीमा पॉलिसी गिरवी रखकर ऊंची ब्याज दर पर ऋण किया फिर जब वो फिल्म टेक्नोलॉजी का ज्ञान प्राप्त करने और उससे जुड़े साजो-सामान लाने के लिए लंदन गए। यहां फिल्मकार और ‘बाईस्कोप’ पत्रिका के संपादक सेसिल हेपवर्थ से मिले जो कि ब्रिटिश फिल्म इंडस्ट्री के एक प्रमुख प्रोड्यूसर और संस्थापकों में से एक थे। सेसिल ने दादा साहब की बहुत मदद की और अप्रैल 1912 में वापस मुम्बई आ गए

स्वदेश वापस आने पर इन्होंने फाळके फिल्म्स की स्थापना की और पहली भारतीय फिल्म बनानी आरम्भ कर दी शुरू में शूटिंग दादर के एक स्टूडियो में सेट बनाकर की गई। सभी शूटिंग दिन की रोशनी में की गई क्योंकि वह एक्सपोज्ड फुटेज को रात में डेवलप करते थे और प्रिंट करते थे उस समय भारत के संभ्रात परिवारो में महिलाओं का नाटको में काम करना अच्छा नहीं समझा जाता फिल्मो की बात तो दूर की कौड़ी थी ऐसे में उन्होंने तारामती के रोल के लिए पेशेवर कोठे वाली बाइयो से संपर्क किया उन्होंने भी फिल्म में काम करने को ले कर हाथ खड़े कर दिए अंत में उन्होंने अपने रसोइये अन्ना सालुंके की मूंछे मुंडवा कर इस रोल के लिए बड़ी ही मुश्किल से राजी किया रोहित की भूमिका उनके सात वर्षीय पुत्र भालचन्द्र फाळके ने निभाई। आठ महीने की कठोर साधना के बाद भारत की पहली फुल-लेंथ फीचर फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बन कर तैयार हुई यह 3700 फुट लंबी फीचर फिल्म थी। यह एक ऐसे पौराणिक राजा की कहानी थी जो सत्य के पथ पर चलता है और दुख-कष्ट सहकर भी वह सत्य की राह नहीं छोड़ता ....21 अप्रैल 1913 को ओलम्पिया सिनेमा हॉल में  ‘राजा हरिश्चंद्र’ रिलीज की गई पश्चिमी फिल्मो  के आदी हो चुके दर्शकों ने ही नहीं बल्कि प्रेस ने भी इसकी उपेक्षा की लेकिन फालके जानते थे कि वे आम जनता के लिए अपनी फिल्म बना रहे हैं अतः यह फिल्म जबरदस्त हिट रही  दादा साहब के साथ कहानी रणछोड़बाई उदयराम की थी। सिनेमेटोग्राफी त्र्यंबक बी. तेलंग की थी प्रमुख भूमिकाएं डी.डी डब्के और पी.जी सेने की थी ‘राजा हरिश्चंद्र’ को अपार सफलता मिली। साथ ही दादा साहब के पास यूरोप से कई ऑफर भी आए। लेकिन उन्होंने भारत में ही रहने का निर्णय लिया।


1917 में हिंदुस्तान फिल्म कंपनी की स्थापना की और फिर फिल्मों के प्रोडक्शन का दौर शुरू किया। फाळके एक मेधावी फिल्म टेक्नीशियन थे। जिन्होंने फिल्मों में स्पेशल इफेक्ट्स के साथ कई प्रयोग किए। बेआवाज फिल्मों के जमाने की प्रमुखतः धार्मिक फिल्मों का प्रचल रहा उस जमाने की कुछ प्रमुख फिल्में हैं – भस्मासुर मोहनी, सत्यवान-सावित्री, लंका दहन, कृष्ण जन्म, कालिया मर्दन, बालि-सुग्रीव, नल-दमयंती, परशुराम, दक्ष प्रजापति, सत्यभामा विवाह, द्रौपदी वस्त्रहरण, जरासंध वध, शिशुपाल वध, लव-कुश, सती महानंदा, सेतुबंधन,वत्सला हरण, गज गौरी, कृष्णावतार, सती पद्मिनी,सावित्री, मुरलीवाला,गोपालकृष्ण। कुल दो दशकों में उन्होंने कुल 95 फिल्में और 26 लघु फि़ल्में बनाई। 1917 तक वह 23 फि़ल्में बना चुके थे। उन्होंने सिनेमा की शुरुआत कर भारत में क्रांति का सूत्रपात का किया। उनकी रची छवियां दर्शकों के मानस पर गहरे रूपों में अंकित हो गई। तब जबकि स्त्रियों के लिए ऐक्टिंग करना किसी अभिशाप से कम नहीं था। उस समय दादा साहब मोहिनी भस्मासुर में लीड रोल में किसी नारी चरित्र को लेकर आये फिल्म ‘कालिया मर्दन’ में उनकी बेटी ने अभिनय किया था फाळके की फिल्मो की धार्मिक थीम और ट्रिक फोटोग्राफी ने दर्शकों का मन मोह लिया। लंका दहन’ (1917) की सफलता के बाद ‘कालिया मर्दन’ (1919) में विशेष  ट्रिक प्रभावों के जरिए बाल कृष्ण और कालिया का संघर्ष प्रभावी बना। भारतीय जनता ने इसे धार्मिक के साथ राष्ट्रवादी भावनाओं के साथ देखा सराहा। कालिया को शोषक साम्राज्यवादी ब्रिटिश सत्ता का प्रतीक माना गया।‘लंका दहन’ ने ही बॉक्स ऑफिस का असली खेल शुरू किया था पहली बार इस फिल्म की कमाई ने सभी को चौंकाया था इस फ़िल्म से पहले दादा साहब फाळके के पास ओपन एयर स्टूडियो था लेकिन इस फ़िल्म ने इतनी कमाई कर डाली थी कि दादा साहेब ने एक शानदार स्टूडियो बना लिया कह सकते हैं कि इस फ़िल्म की कमाई ने ही भविष्य में आने वाली भारतीय फ़िल्मों के लिए ' बॉक्स ऑफिस ' की नींव रखी ‘भस्मासुर मोहिनी’ में पहली बार महिलाओं, दुर्गा गोखले और कमला गोखले ने स्त्री किरदार निभाया। नहीं तो पुरुष ही महिला किरदार निभाते थे उनकी अंतिम मूक फि़ल्म ‘सेतुबंधन’ थी जिसे बाद में डब करके आवाज़ दी गई। दादा साहब ने जो एकमात्र बोलती फि़ल्म बनाई  गंगावतरण (1937) उनकी आखिरी फिल्म थी। इसके बाद इन्होंने फिल्में बनाना छोड़ दिया।
 
दादा साहब फाळके अवार्ड
दादा साहेब फाळके ने सिनेमा की शुरुआत कर भारत में एक क्रांति की थी और शुरु में उन्होंने बहुत समृद्धि का दौर देखा कहते हैं कि उनके कपड़े पेरिस से आते थे और पैसे से लदी बैलगाड़ियाँ उनके घर आया करती थीं दादा साहेब एक कलाकार थे और पैसे की तरफ़ उनका ध्यान कभी था ही नहीं लेकिन अंतिम दिनों में वो ख़ाली हाथ थे अंतिम दिनों में दादा साहब की आर्थिक स्थिति काफी दुर्बल हो गई थी। फ़िल्मों में ध्वनि आने के साथ ही दादा साहेब की दिक्क़तें बढ़ती चली गईं क्षुब्ध हो कर वो बनारस चले गए फिर वापिस आए भी थे लेकिन वो मूक फिल्मो की सफलता नहीं दोहरा पाए 1938 में दादासाहब ने अपनी पहली और अंतिम बोलती फिल्म "गंगावतरण" बनाई अंतिम बरसों में दादा साहेब अल्ज़ाइमर से जूझ रहे थे उनके बेटे प्रभाकर ने उनसे कहा कि........" चलिए नई तकनीक से कोई नई फ़िल्म बनाते हैं " उस समय ब्रिटिश राज था और फ़िल्म निर्माण के लिए लाइसेंस लेना अनिवार्य कर दिया गया था फिल्म निर्माण में काम आने वाले रॉ मेटीरियल पर भारी टैक्स  लगा दिया गया ताकि भारतीय फिल्म निर्माता फिल्मे बनाने के लिए हतोत्साहित हो जनवरी 1944 में दादा साहेब ने लाइसेंस के लिए चिट्ठी लिखी 14 फ़रवरी 1944 को जवाब आया कि आपको फ़िल्म बनाने की इजाज़त अब नहीं मिल सकती उस दिन उन्हें ऐसा सदमा लगा कि दो दिन के भीतर ही वो चल बसे दादा साहब नासिक के पास जहां रहते थे उसका नाम दिया गया था हिन्द सिने जनक आश्रण .....16 फरवरी 1944 में दादा साहब इस संसार से विदा हो गए वी.शान्ताराम जैसे कुछ हितैषियों ने पहल कर उनके लिए अंतिम समय से पहले मकान भी भी बनवाया था आज जिस सिनेमा की इतनी धमक है उसके जन्मदाता की जब मौत हुई तो अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिए भी चंद लोग ही थे और अख़बारों में भी ख़बर चंद लाइनों में सिमटी थी उनके जाने के बाद परिवार ने काफ़ी प्रयास किया कि दादा साहेब को भारत रत्न दिया जाए पर हुआ कुछ नहीं अंतिम दिनों में एक रिपोर्टर ने फाळके पर कुछ रिपोर्ट करने के लिए संपर्क किया तो उन्होने इनकार करते हुए कहा कि ..."जब फ़िल्म उद्योग ने उन्हें भुला दिया तो इस सबकी क्या ज़रूरत है."...? भारत सरकार ने 1969 में इनके नाम पर दादा साहब फाळके पुरस्कार देना शुरू किया जो आज भारतीय सिनेमा में किसी कलाकार को दिया जाने वाला सबसे बड़ा पुरस्कार है और हर कलाकार का सपना इस पुरस्कार को पाना है। इस सम्मान के तहत सम्मानित होने वाले व्यक्ति को एक स्वर्ण कमल मेडल और 10 लाख रुपये दिए जाते हैं सबसे पहला दादा साहेब फाळके सम्मान देविका रानी को दिया गया था

भारतीय सिनेमा दादा साहब के सृजन सरोकार के बल पर हमेशा-हमेशा चमकता रहेगा।..., फिल्मों में... यादों में... जीवन में.......दादा साहब ने जो शुरू किया, जो हमें दिया वह आज डिजिटल कैमरे, सेलफोन, कंप्यूटर आदि के अत्याधुनिक दौर में इन उपकरणों की बदौलत सब तक पहुंच गया ......न जाने कितनी शॉर्ट फिल्में हैं जो मोबाइल और डिजिटल कैमरे आदि से बनकर सृजन सार्थक में तब्दील हो गई है हर किसी के पास कुछ फिल्म बनाने और कुछ नया रचने के अवसर हैं। बीते सालों में फिल्म निर्देशक परेश मोकाशी ने दादा साहब फाळके पर मराठी फिल्म ‘हरिश्चंदाजी फैक्टरी’ (2009) बनाई जो ऑस्कर पुरस्कार सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फिल्म की श्रेणी में नामांकन के लिए भारत की ओर से औपचारिक रूप से भेजी गई। ......आज समय के साथ सिनेमा पूरी तरह बदल गया है। लोगों की पसंद और सिनेमा का स्तर दोनों बदल गया है।आज सिनेमा बाजार, प्रभाव, प्रसार, तकनीक की दृष्टि से शिखर पर है सिनेमा के नायक-नायिकाएं आसमान छूते सितारे बन चुके हैं सिनेमा की भाषा, तकनीक और विषय बदल गए हैं। मूक से सवाक और अत्याधुनिक तकनीकी फिल्म संसार के सुहाने सफर में दादा साहब की प्रासंगिकता और जरूरत बनी रहेगी।कोई भी रचना शुरुआती समय में कितने संकटो और प्रयासों से परवान चढ़ती है इसे देखना हो तो दादा साहब फाळके के संघर्ष को देखना जरुरी हो जाता है राजा हरिश्चन्द्र (1913), मोहिनी भष्मासुर (1913), सावित्री सत्यवान (1914), श्रीकृष्ण जन्म (1918), कालिया मर्दन (1919), सेतु बंधन (1932) , गंगावतरण (1937) के सर्जक सिनेमा संस्कृति में युगों युगों तक बने रहेंगे।


1 comment:

  1. Old is Gold - 9

    भारतीय सिनेमा के पितृपुरुष ढुंडीराज गोविंद फाल्के अर्थात दादा साहेब फाल्के (1870-1944)

    आज एक ऐसे व्यक्तित्व की मैं आप सबसे चर्चा करने जा रहा हूँ जिसकी धुन और बड़ी सोच के कारण हमारे देश मे फिल्मों का बीजारोपण हुआ और जिसने आज एक विशाल वटवृक्ष का रूप ले लिया है। सनद रहे कि भारत मे सबसे अधिक फिल्मों का निर्माण किया जाता है। इस महान व्यक्तित्व का नाम है - स्वर्गीय ढुंडीराज गोविंद फाल्के, जिन्हें हम दादा साहेब फाल्के के नाम से जानते है। वास्तव में ये ही भारतीय सिनेमा के भीष्मपितामह हैं।

    दादा साहेब फाल्के ने पहले फोटोग्राफी और प्रिंटिंग प्रेस का व्यवसाय किया था। सन 1902 में वे अपने परिवार के साथ जानवरों पर आधारित एक सिनेमा देखने गए पर उस दिन ईस्टर होने से सिनेमाघर में The Life of Christ नामक फ़िल्म दिखाई गई। जब दादा साहेब ने यह फ़िल्म देखी तो उन्होंने उसमें जीसस क्राइस्ट की जगह श्री राम को देखा, श्री कृष्ण को देखा.... उनके मन मे विचार आया कि हम हमारे भगवान और पौराणिक कथाओं पर फ़िल्म क्यों नहीं बना सकते। बस इसी विचार ने उनको उनके जीवन का एक महान लक्ष्य दे दिया।

    फ़िल्म बनाने के विचार आने के बाद उन्होंने फिल्मों के ऊपर कई पत्रिकाओं और किताबों का देर रात रात तक अध्ययन किया। कई फिल्मों को बार बार देखा जिससे कुछ समय के लिए उनकी आँखों की रोशनी चली गईं थी। बाद में वे अपनी प्रिंटिंग प्रेस को बेच कर दो महीने के लिए लंदन चले गए जहाँ उन्होंने न केवल फ़िल्म बनाने का प्रशिक्षण लिया बल्कि फ़िल्म की शूटिंग के लिए लगने वाले कैमरे और रील्स भी खरीदे।

    वापिस आकर उन्होंने राजा हरिश्चंद्र पर फ़िल्म बनाने का निर्णय लिया। उस फिल्म के स्क्रिप्ट राइटर, डायरेक्टर, कैमरामैन आदि सभी वे ही थे। फ़िल्म बनाने के लिए दादा साहेब ने अपना घर बेच दिया था और पत्नी के गहने गिरवी रख दिये थे।

    इस फ़िल्म में कार्य करने के लिए कोई भी महिला, महिलाओं के रोल के लिए तैयार नहीं हुई थी। इसके लिए वे रेड लाइट एरिया में भी गए थे। जहाँ एक बुजुर्ग महिला अपनी बेटी के लिए फ़िल्म में कार्य करने की अनुमति एक शर्त पर देने के तैयार हो गई थी कि दादा साहेब को उसकी बेटी से शादी करना पड़ेगी। अंत में इस फ़िल्म में किसी महिला ने कार्य नही किया। महिलाओं के समस्त किरदारों का अभिनय पुरुषों ने ही किया। फ़िल्म में राजा हरिश्चंद्र का बेटा मर जाता है इसलिए किसी ने भी अपने बेटे को फ़िल्म में अभिनय करने की अनुमति नही दी। क्योंकि कोई भी पर्दे पर अपने बेटे को मरा हुआ नहीं देखना चाहता था। अंत मे दादा साहेब ने अपने बेटे से ही वह रोल करवाया। शूटिंग के दौरान एक दिन उनका बेटा खेलते खेलते गिर गया और बेहोश हो गया। दादा साहेब उसे डॉक्टर के पास बाद में ले गए, पहले उसकी बेहोशी की अवस्था की शूटिंग की जिसे बाद में फ़िल्म में राजा हरिश्चंद्र के बेटे की मृत अवस्था के रूप में दिखाया गया।
    बहुत कठिनाइयों के बाद भी दादा साहेब और उनके परिवार ने हिम्मत नही हारी। अंततः 3 मई 1913 को बॉम्बे के कोरोनेशन थिएटर में यह फ़िल्म रिलीज हुई जो सुपर डुपर हिट हुई। बाद में दादा साहेब ने मोहिनी भस्मासुर, श्री कृष्ण, सत्यवान सावित्री, कालिया मर्दन, लंका दहन आदि फिल्मों का निर्माण किया जो कि सब उनके 1902 में The life of Christ को देखते हुए सपने की पूर्णता को प्रकट करती है। भारत रत्न स्वर्गीय श्री ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने बिल्कुल सही कहा था :-
    "सपने वे नहीं होते है जो हम रात को देखते हैं, सपने वे होते हैं जो हमें रात को सोने नही देते।'

    हमारा देश दादा साहेब फाल्के के प्रति हमेशा कृतज्ञ रहेगा। मैं भी अपनी इस छोटी सी कृति के माध्यम से इस महान कलाकर्मी और स्वपनदर्शी को अपनी कृतज्ञता अर्पित करता ।
    आपका आभार मित्र ।

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