Friday, December 14, 2018

'तीसरी कसम'- (1966 ) .....जो ’शैलेंद्र के जीवन की पहली और अंतिम फि़ल्म साबित हुई

तीसरी कसम’ (1966 )
‘संगम’ की अद्भुत सफलता ने राजकपूर में गहन आत्मविश्वास भर दिया और उन्होंने एक साथ चार फि़ल्मों के निर्माण की घोषणा की -‘मेरा नाम जोकर’, ‘अजन्ता’, ‘मैं और मेरा दोस्त’ और ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम्’।... पर जब 1965 में राजकपूर ने ‘मेरा नाम जोकर’ का निर्माण आरंभ किया तब संभवतः उन्होंने ने भी यह कल्पना नहीं की होगी कि इस फि़ल्म का एक ही भाग बनाने में छह वर्षों का समय लग जाएगा लिहाज़ा 'अजंता' और 'मै और मेरा दोस्त ' बन ही नहीं पाई इन छह वर्षों के अंतराल में राजकपूर द्वारा अभिनीत कई फि़ल्में प्रदर्शित हुईं, जिनमें सन् 1966 में प्रदर्शित कवि शैलेंद्र की ‘तीसरी कसम’ भी शामिल है। यह वह फि़ल्म है जिसमें राजकपूर ने अपने जीवन की सर्वोत्कृष्ट भूमिका अदा की। .....यही नहीं, ....‘तीसरी कसम’ वह फि़ल्म है जिसने हिन्दी साहित्य की एक अत्यंत मार्मिक कृति को सैल्यूलाइड पर पूरी सार्थकता से उतारा। ‘तीसरी कसम’ फि़ल्म नहीं, सैल्यूलाइड पर लिखी कविता थी। 'तीसरी कसम’ लेखक फणीश्वरनाथ रेणु के मशहूर उपन्यास "मारे गए गुलफाम " पर बनी है । कहानी का रेशा-रेशा, उसकी छोटी-से-छोटी बारीकियाँ फि़ल्म में पूरी तरह उतर आईं।


इसमें शैलेंद्र की संवेदनशीलता पूरी शिद्दत के साथ मौजूद है। उन्होंने ऐसी फि़ल्म बनाई थी जिसे सच्चा कवि-हृदय ही बना सकता था। शैलेंद्र ने राजकपूर की भावनाओं को शब्द दिए हैं। राजकपूर ने अपने अनन्य सहयोगी की 'तीसरी कसम ' में तन्मयता के साथ बगैर किसी पारिश्रमिक की अपेक्षा किए काम किया। राजकपूर ने शंकर जयकिशन के साथ 18 फिल्में कीं, नरगिस के साथ 16 फिल्में की। कुछ ऐसा ही रिश्ता उनका शैलेंद्र के साथ रहा है। शैलेंद्र ने अपनी महत्वाकांक्षी फिल्म ‘तीसरी कसम’ बनाई तो नायक की भूमिका के लिए राजकपूर से अनुरोध किया। हालांकि उस समय राजकपूर की उम्र अधिक हो गई थी मगर उन्होंने दोस्ती निभाई। शैलेंद्र राजकपूर के पास ‘तीसरी कसम’ की कहानी सुनाने पहुँचे तो कहानी सुनकर उन्होंने बड़े उत्साहपूर्वक काम करना स्वीकार कर लिया। पर तुरंत गंभीरतापूर्वक बोले- ‘मेरा पारिश्रमिक एडवांस देना होगा।.’ शैलेंद्र को ऐसी उम्मीद नहीं थी कि राजकपूर जि़ंदगी-भर की दोस्ती का ये बदला देंगे। शैलेंद्र का मुरझाया हुआ चेहरा देखकर राजकपूर ने मुसकराते हुए कहा,... ‘निकालो एक रुपया, मेरा पारिश्रमिक! पूरा एडवांस।’ और इस तरह राजकपूर जी ने सिर्फ एक रुपये के अमाउंट पर तीसरी कसम फिल्म साइन कर ली एक सीधे-साधे प्रौढ़ प्रेमी 'हीरामन' के रुप में उन्होंने फिल्म को यादगार बना दिया। शैलेंद्र के सादगी भरे शब्दों ने राजकपूर के सीधे सादे व्याक्तित्व के साथ मिलकर दर्शकों पर अमिट छाप छोड़ी।.............. हालाँकि वहीदा रहमान शूटिंग के बीच में ही पूरे पैसे न मिलने से नाराज हो गई थीं। वह राजकपूर के कहने पर ही शूटिंग के लिए दोबारा आईं। शैलेंद्र ने राजकपूर जैसे स्टार को ‘हीरामन’ बना दिया था। हीरामन पर राजकपूर हावी नहीं हो सका। फिल्म समीक्षक राज कपूर को आँखों से बात करने वाला कलाकार मानते है। ऐसा लगता है। राज कपूर हीरामन की आत्मा में उतर गए वह खालिस देहाती जुबान बोलता है।, किसी पक्के देहाती की तरह वह हीराबाई की एक-एक अदा पर रीझता है। ,उसके उकड़ू बैठने का ढ़ंग, बातें करने का ढ़ंग, निराश होने का ढ़ंग; सब में हीरामन ही दिखता है। राज कपूर का व्यक्तित्व कहीं भी नजर नहीं आता है। तीसरी कसम’ वह फि़ल्म है जिसमें राजकपूर अभिनय नहीं करता। वह हीरामन के साथ एकाकार हो गया है। खालिस देहाती गाड़ीवान जो सिर्फ दिल की ज़ुबान समझता है, दिमाग की नहीं।   .......छींट की सस्ती साड़ी में लिपटी ‘हीराबाई’ ने भी वहीदा रहमान की प्रसिद्ध ऊँचाइयों को बहुत पीछे छोड़ दिया  ....हालांकि अपने आर .के बैनर की पहली रंगीन फिल्म, राज कपूर संगम (1964) दो साल पहले बना चुके थे लेकिन ,निर्माता शैलेंद्र और निर्देशक बासु भट्टाचार्य इस फिल्म में B & W में ही बनाना चाहते थे वे एक पारंपरिक पुराने युग महसूस कराने के लिए ऐसा करना चाहता थे । सुब्रत मित्रा का छायांकन B & W 20 वीं सदी के ग्रामीण भारत को एक अद्वितीय छवि प्रदान करता है। लोक कथाओं ,मधुर लोकगीतों और किवंदियो से भरे अंश फिल्म के आधे से अधिक भाग में है। 



प्रसिद्ध साहित्यकार फणीश्वर नाथ रेणु की चर्चित कहानी मारे गए गुलफाम पर बनी फिल्म 'तीसरी कसम ' के रिलीज हुए 55 वर्ष होने को है फिल्म की पृष्ठभूमि को देखते हुए प्रारंभ में फिल्म की शूटिंग की योजना बिहार और नेपाल के ग्रामीण इलाकों को ध्यान में रखकर बनाई गई थी, लेकिन कई कारणों से वास्तविक फिल्म इगतपुरी ( महाराष्ट्र ) में शूट की गई भोपाल के पास एक शहर बीना, ( सागर डिस्ट्रिक ,मध्य प्रदेश ) ,पवई झील और मुंबई के मोहन स्टूडियो में कुछ दृश्य फिल्माए गए थे इस फिल्म की कास्टिंग की शूटिंग रेणु जी के गांव औराही में हुई थी। यह गांव अररिया जिले में है। फिल्म की कई यादें पूर्णिया जिले से भी जुड़ी हुई हैं। जैसे गुलाब बाग मेला के दी ग्रेट भारत नौटंकी कंपनी, गढ़बनैली रेलवे स्टेशन। ......यह गांव बिहार के अररिया लोकसभा क्षेत्र में पड़ता है पहले यह पूर्णिया जिले का हिस्‍सा था 'रेणु' की जन्‍मस्‍थली होने के कारण यह गांव पूरे अररिया का सबसे प्रसिद्ध गांव है समाजवादी विचारों वाले 'रेणु' ने 1972 में इस संसदीय सीट की फारबिसगंज विधानसभा सीट से निर्दलीय प्रत्‍याशी के रूप में कांग्रेस के अपने करीबी मित्र सरजू मिश्रा के खिलाफ चुनाव लड़ा था लेकिन सफलता नहीं मिली थी वो हार गए थे   ......फिल्म 'तीसरी कसम ' के सेट पर तीन दिन.... लेख में फणीश्वर नाथ रेणु ने लिखा है कि वे मुंबई के कमाल स्टूडियो को देखकर दंग रह गए थे। जब वे फिल्म 'तीसरी कसम 'की शूटिंग देखने मुंबई गए तो हुबहू गुलाबबाग मेले का दी ग्रेट भारत नौटंकी कंपनी, गांव का माहौल आदि देखकर दंग रह गए। रेणु ने गुलाबाबाग मेले में नौटंकी देखी थी। यहां से इसकी स्टील फोटोग्राफी करवाई गई थी। कमाल स्टूडियो में हुबहू सेट देखकर वो अचंभित थे । कुछ समय के लिए उन्हें लगा कि वे अपने पूर्णिया जिले में हैं।

फिल्म की कहानी ये है की हीरामन ( राज कपूर ) एक सुदूर गांव में अपनी भाभी ( दुलारी ) के साथ रहता है हीरामन एक कुशल बैलगाड़ी चालक है। जो अपने जीवन में घटी तीन घटनाओं और उनसे उत्त्पन कठिन परिस्थितियों के आधार पर तीन प्रतिज्ञा करता है। किसी अन्य के अवैध सामान की तस्करी करते हुए और पुलिस से बड़ी मुश्किल से बचने के बाद हीरामन शपथ ( पहली कसम ) खाता है की वो कभी भो अपनी बैलगाडी में किसी का भी गैरकानूनी सामान नहीं ले जायेगा इसके बाद, एक लकड़ी के व्यापारी के लिए बांस ले जाते समय हीरामन की गाडी की टक्कर एक अन्य गाड़ी से हो जाती है जिसमे अन्य गाड़ी में सवार लोगो को चोट लगती है और हीरामन की जम कर पिटाई भी होती है इस घटना के बाद हीरामन अपने बैल गाड़ी में कभी भी बांस नहीं ढोने की दूसरी शपथ ( दूसरी कसम ) खाता है   .........फ़िल्म की शुरुआत एक ऐसे दृश्य के साथ होती है जिसमें हीरामन अपनी बैलगाड़ी को हाँक रहा है और बहुत खुश है। उसकी गाड़ी में नौटंकी कंपनी में काम करने वाली हीराबाई ( वहीदा रहमान ) बैठी है। हीरामन को एक यात्री के रूप में नौटंकी नर्तकी हीराबाई को चालीस मील दूर एक अन्य गांव के मेले में ले कर जाना है इस बीच उसे अपने पुराने दिन याद आते हैं और हीरामन कहानियां सुनाते ,कई लोकगीत और महुआ की किंवदंती ( लोक कथा ) सुनाते हुए नौटंकी कंपनी के आयोजन स्थल तक हीराबाई को सुरक्षित पहुँचा देता है। गांव के मेले तक पहुंचने के बाद हीराबाई अपनी नौटंकी कंपनी में शामिल हो जाती है और हीरामन को एक रात अपनी नौटंकी देखने के लिए मुफ्त पास की व्यवस्था करके देती है ,जैसे ही हीरामन नौटंकी में हीराबाई को नाचते देखता है वह परेशान हो जाता है क्योंकि अन्य लोग हीराबाई को वेश्या के रूप में देखते हैं धनी जमींदार विक्रम सिंह ( इफ़्तेख़ार ) अपने पैसे और महंगे तोहफों के जरिये हीराबाई को लुभाने का कोई मौका नहीं छोड़ता ,यह सब देख हीरामन हीराबाई को इस गंदे समाज से बचाने की कोशिश करता है। और मन ही मन उसे अपनी जिम्मेदारी समझने लगता है जैसे ही दिन बीतते हैं, हीराबाई और हीरामन के बीच का बंधन मजबूत हो जाता है। जहाँ हीराबाई हीरामन की निर्दोषता और जीवन के उसके सरल दर्शन से मंत्रमुग्ध है। वही हीरामन भी उसमे एक आदर्श ,पवित्र नारी का रूप देखता है लेकिन समस्या तब खड़ी होती है जब हीरामन ,हीराबाई के लिए स्थानीय लोगों के साथ लड़ने झगड़ने लगता है हीराबाई उसे समझाने की कोशिश करती है कि वो इस नौटंकी कंपनी की नाचने वाली बाई है नौटंकी में नाच दिखाना उसके जीवन की मजबूरी है उसकी जीविका का साधन है। और यही उसके जीवन की कठोर वास्तविकता है , हीरामन हीराबाई से अपने इस गंदे पेशे को छोड़ने और सम्मानजनक जीवन जीने के लिए कहता है ,हीराबाई जहाँ चतुर, ज्ञानी और घाट-घाट घूमी हुई  औरत है वहीं हीरामन हर स्तर पर बिलकुल अनाड़ी आदमी है ,हीराबाई अपने इस खानदानी पेशे को छोड़ने से इनकार साफ इंकार कर देती है कहानी के अंत में हीराबाई, बिना कुछ बोले चली जाती है। ....हाँ जाते समय वो हीरामन को कुछ पैसे देती है हीरामन दुःख से तड़प के कहता है..... “इस्स ..हमेशा पैसो की बात”...प्यार में चोट खाया हताश हीरामन मेला छोड़ देता है और अपने गांव वापिस जाने का फैसला करता है  ...  यहाँ से विदा लेने से पहले उदास मन से वो अपने बैलों को झिड़की देते हुए आखरी शपथ ( तीसरी क़सम ) खाता है कि अपनी गाड़ी में वो कभी किसी नाचने वाली को नहीं बैठायेगा ....कहानी का अंत दुखद होता है। इसके साथ ही फ़िल्म खत्म हो जाती है।   ..........फिल्म 'तीसरी कसम’के गीत लिखे हैं शैलेंद्र और हसरत जयपुरी ने, जबकि फिल्म संगीत शंकर-जयकिशन की जोड़ी ने दिया है, आज भी सारे गीत एकदम ताज़ा महसूस होते हैं। फिल्म के गीत संगीत ने भी गाँव के माहौल को बखूबी पकड़ा है। कहा जाता है कि फ़िल्म के सारे गाने शंकर ने बनाये थे । जयकिशन के हिस्से में केवल बैक ग्राउण्ड म्यूज़िक आया था ..."सजन रे झूठ मत बोलो" "सजनवा बैरी हो गए हमार" "दुनिया बनाने वाले" "चलत मुसाफिर" पान खाए सैयां हमारो" "हाय ग़ज़ब कहीं तारा टूटा" मारे गए गुलफाम आ आ आ भी जा" " ‘लाली-लाली डोलिया में लाली रे दुलहनिया’ जैसे गाने को मुकेश,मन्नाडे ,आशा भोसले,लता मंगेशकर ने अपनी आवाज़ दी 'तीसरी क़सम ' का संगीत पक्ष अत्यन्त मनमोहक और सदाबहार था। ‘तीसरी कसम’ को ‘राष्ट्रपति स्वर्णपदक’ (1966) ,बेस्ट नेशनल फिल्म (1967) के लिए अवार्ड मिला, बंगाल फि़ल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन द्वारा सर्वश्रेष्ठ फि़ल्म और कई अन्य पुरस्कारों द्वारा सम्मानित किया गया। मास्को फि़ल्म फेस्टिवल (1967) में भी यह फि़ल्म नामांकित और पुरस्कृत हुई। इसकी कलात्मकता की लंबी-चैड़ी तारीफें हुईं।.....पर जब यह फि़ल्म रिलीज़ हुयी थी तो बॉक्स ऑफ़िस पर असफल रही थी । इसे दर्शक और वितरक दोनों नहीं मिले
   

‘तीसरी कसम’ में राजकपूर ,वहीदा रहमान ,दुलारी, इफ़्तेख़ार ,असित सेन, सी एस दुबे ,कृष्ण धवन, कैस्टो मुखर्जी के साथ साथ खुद शैलेंद्र ने भी एक छोटी सी भूमिका निभाई थी रंगमंच के अभिनेता ए.के हंगल आईपीटीए थियेटर के दिनों से ही शैलेंद्र को जानते थे शैलेंद्र ने फिल्म में हीरामन के बड़े भाई की छोटी सी भूमिका निभाने के लिए उनको राजी कर लिया लेकिन अंततः फिल्म की लंबाई को कम करने के लिए अंतिम संपादन में उनकी अधिकांश भूमिका हटा दी गई थी। फ़िल्मी आलोचक आज भी महसूस करते है की राज कपूर ने जागते रहो (1956) के बाद अपने करियर के सबसे संवेदनशील भूमिका तीसरी कसम में निभाई है 
संगीत शंकर-जयकिशन का था जिनकी लोकप्रियता उन दिनों सातवें आसमान पर थी और इसके गीत भी फि़ल्म के प्रदर्शन के पूर्व ही बेहद लोकप्रिय हो चुके थे लेकिन तीसरी कसम’ शैलेंद्र का काल साबित हुई राजकपूर शैलेंद्र की इस याराना मस्ती से परिचित तो थे, लेकिन एक निर्माता के रूप में बड़े व्यावसायिक सूझबूझ वाले थे शैलेंद्र फि़ल्म-निर्माता बनने के लिए सर्वथा अयोग्य थे। राजकपूर ने एक अच्छे और सच्चे मित्र की हैसियत से शैलेंद्र को फि़ल्म की असफलता के खतरों से आगाह भी किया।  राजकपूर ने शैलेंद्र से यह फिल्म न बनाने की बात कही। फिर जब उन्होंने देखा कि वह इस फिल्म को लेकर बहुत उत्सुक हैं तो फिर राजसाहब ने उनकी मदद की। 'तीसरी कसम' फिल्म के बनाने और उसे रिलीज करवाने में भी राजकपूर की बड़ी भूमिका थी। ‘तीसरी कसम’ कितनी ही महान फि़ल्म क्यों न रही हो, लेकिन यह एक दुखद सत्य है कि इसे प्रदर्शित करने के लिए बमुश्किल वितरक मिले। इस फि़ल्म को खरीदने वाला कोई नहीं था। इसीलिए बमुश्किल जब ‘तीसरी कसम’ रिलीज़ हुई तो इसका कोई प्रचार नहीं हुआ। फि़ल्म कब आई, कब चली गई, मालूम ही नहीं पड़ा .........दरअसल इस फि़ल्म की संवेदना किसी दो से चार बनाने का गणित जानने वाले की समझ से परे थी। उसमें रची-बसी करुणा तराज़ू पर तौली जा सकने वाली चीज़ नहीं थी। अव्वल दर्जे के सृजनकारी शैलेंद्र को बाजार के चोचले नहीं आते थे। 'अनाड़ी' फिल्म के लिए लिखा गया उनका ही गीत ‘सब कुछ सीखा हमने, न सीखी होशियारी’ उनके जीवन पर भी सटीक बैठता है।  'तीसरी कसम' बनाने के दौरान ही वह ऐसे भंवर में फंसे कि खुद को निकाल नहीं पाए। प्रोडक्शन में आने को लेकर शैलेंद्र को राजकपूर ने काफी समझाया था कि बाजार अपनी शर्तों पर मजबूर कर देता है, जिसे शैलेंद्र नहीं कर सकते थे। शैलेंद्र इस साहित्यिक कृति में बहुत छेड़छाड़ नहीं करना चाहते थे। बाजार की जरूरतें दूसरी थी। इस बात को राजकूपर समझ रहे थे। हालांकि शैलेंद्र फिल्म इंडस्ट्री में काफी अरसे से थे फिर भी उन्हें यश या धन की लालसा नहीं थी। वे तो अपनी कृति से आत्मसुख प्राप्त करना चाहते थे। वे मूल रचना के साथ शत प्रतिशत न्याय करने में विश्वास रखते थे। वह अपने अंदर के कलाकार का गला घोंट कर काम करना नहीं चाहते थे। इसलिए राज कपूर के आगाह करने के बावजूद भी उन्होंने यह फिल्म बनाई। व्यावसायिक दृष्टि से शैलेंद्र अच्छे निर्माता नहीं थे। मूल रूप से वे एक कवि थे। फिल्में बनाते समय भी उनका कवि हृदय ही मुखर होता था। इसलिए वे भावप्रधान फिल्म बना सकते थे।  फिल्म बनी तो बहुत ही क्लासिकल पर वह वैसा व्यवसाय नहीं कर सकी जैसी कि शैलेंद्र उम्मीद कर रहे थे। 


इस फिल्म की अनापेक्षित असफलता ही शैलेंद्र की मृत्यु की वजह बनी शैलेंद्र ने इस फ़िल्म के निर्माण की क़ीमत अपनी जान दे कर चुकाई । क़र्ज़ ले कर बन रही यह फ़िल्म लम्बे समय तक निर्माणाधीन रही और सूद का बोझ दिनों दिन बढ़ता रहा ।...... कुछ लोग ये भी कहते है की शैलेन्द्र अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के व्यवहार से भी टूट गये । उनके अभिन्न मित्र राजकपूर ने फिल्म में काम तो किया था लेकिन उनका सारा ध्यान अपनी होम प्रोडक्शन की फ़िल्म ‘ संगम ‘ पर था । ‘ संगम ‘ उनकी पहली रंगीन फ़िल्म थी और वे उसकी रिलीज़ से पहले अपनी कोई ब्लैक एण्ड व्हाइट ,छोटी फ़िल्म प्रदर्शित नहीं करना चाह रहे थे । इसलिए उन्होंने 'तीसरी कसम 'को लेट किया और फिर फिल्म के निर्देशक बासु भट्टाचार्य ,बिमल रॉय की इच्छा के विरुद्ध उनकी पुत्री से विवाह कर लम्बे अरसे के लिये कलकत्ता चले गये थे । विभिन्न कारणों से ‘ तीसरी क़सम ‘ रुकी पड़ी रही  लेकिन असफल होने के बाद भी तीसरी कसम भारत की सौ कलात्मक फिल्मो की श्रेणी में आती है आज यह  एक क्लासिक फ़िल्म मानी जाती है ।

मशहूर उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु रचित कहानी ' मारे गए गुलफ़ाम ' पर आधारित फ़िल्म ' तीसरी क़सम ' के कथा-सूत्र बिहार से जुड़े हुए हैं बिहार में फिल्म 'तीसरी कसम' को लेकर 2013 में एक विवाद भी हो गया था बिहार सरकार ने अपने प्रचार कार्यक्रमों के सिलसिले के अंतर्गत 60 के दशक की फ़िल्म 'तीसरी क़सम' का प्रदर्शन किया गया था राज्य सरकार द्वारा ग्राम पंचायतों में इस फ़िल्म को दिखाया जा रहा है 'तीसरी क़सम ' के प्रोड्यूसर और गीतकार शैलेन्द्र के छोटे पुत्र दिनेश शंकर शैलेन्द्र ने इस पर कड़ी आपत्ति जताई उनका कहना है कि सम्बंधित फ़िल्म निर्माता से अनुमति लिए बिना राज्य सरकार द्वारा ग्राम पंचायतों में इस फ़िल्म को दिखाया जा रहा है, जो 'कॉपी राइट एक्ट' के ख़िलाफ़ है उनके पिता ( स्वर्गीय शैलेन्द्र ) बिहार के ही भोजपुर इलाक़े के मूल निवासी थे इसलिए उस माटी से जुड़े व्यक्ति के साथ अन्याय दुखद है और राज्य सरकार को चाहिए कि सम्बंधित फिल्म-प्रदर्शन के लिए 15 करोड़ का हर्जाना उन्हें दे जबकि बिहार सरकार का कहना था की अन्याय या मुआवजे का सवाल इसलिए नहीं उठता है क्योंकि लगभग चालीस वर्षों से राज्य का जनसंपर्क विभाग कुछ अन्य फ़िल्मों के साथ-साथ इस फ़िल्म को भी गाँव-गाँव में दिखाता आ रहा है उस ने 1979 में ही इस फ़िल्म की 16 एमएम प्रिंट ख़रीद कर उसे दिखाने का अधिकार हासिल कर लिया था इन्हें दिखाने का विधिसम्मत अधिकार राज्य सरकार को प्राप्त है लेकिन फ़िल्म के प्रोड्यूसर की तरफ़ से सम्बंधित आपत्ति-पत्र मिलने के बाद कुछ दिनों के लिए बिहार सरकार द्वारा इसका प्रदर्शन रोक दिया गया    
हीरामन और हीराबाई की इस प्रेम कथा ने प्रेम का एक अद्भुत महाकाव्यात्मक पर दुखांत कसक से भरा आख्यान सा रचा जो आज भी पाठकों और दर्शकों को लुभाता है। इस सहज और बिल्कुल अलग तरह से फिल्माई गई इस फिल्म को आज भी देखकर उस वक्त के ग्रामीण परिवेश और लोगों की जीवन शैली का पता चलता है। निसंदेह ‘तीसरी कसम’ अपने दोनों माध्यमों में ऊंचे दरजे का सृजन है। इससे साहित्य और सिनेमा दोनों में निकटता आई है। आजादी के बाद भारत के ग्रामीण समाज को समझने के लिए ‘तीसरी कसम’ मील का पत्थर साबित हुई।तीसरी कसम’ यदि एकमात्र नहीं तो चंद उन फि़ल्मों में से है जिन्होंने साहित्य-रचना के साथ शत-प्रतिशत न्याय किया हो। आज जबकि भारतीय फिल्म जगत से अच्छी साहित्यिक कृतियों का नाता लगभग टूट चुका है। फिल्म उद्योग की जटिलतायें इतनी बढ चुकी हैं कि कोई निर्माता पचासों करोड खर्च करके किसी साहित्यिक रचना पर फिल्म बनाने का खतरा चाहकर भी मोल नहीं ले सकता,ऐसे मे तीसरी कसम जैसी 60 के दशक में बनी फिल्मों का याद आना स्वाभाविक है। शिक्षा निदेशालय ने '' तीसरी कसम के शिल्पकर 'शैलेंद्र' '' नामक एक अध्याय को अभी हाल में ही सीबीएसई ने कक्षा 10 के हिंदी पाठ्यक्रम-बी शामिल कर एक तरह से 'शैलेन्द्र 'को सम्मान दिया है दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपई फिल्म' तीसरी कसम ' की सादगी से बड़े प्रभावित थे ये उनकी पसंदीदा फिल्म थी सभी सिने दर्शको को भी ये फिल्म जरूर देखनी चाहिए


राजकपूर और कवि गीतकार 'शैलेन्द्र

9 comments:

  1. Very good critical appreciation of the film TEESARI KASAM. Feel very sorry for the talented poet SHAILENDRA.

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  2. बहुत ही उम्दा विश्लेषण .... !

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  3. बहुत ही सटीक विश्लेषण । फिल्म के एक एक पहलू पर प्रकाश प्रक्षेप करने का सफल प्रयास वाकई दिल को अभिभूत करने में सक्षम है । रचनाकार गागर में सागर भरने की अपनी मंशा में शत-प्रतिशत कामयाब रहे बधाई ।

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  4. यह अर्धसत्य है कि "तीसरी क़सम के सारे गीत शंकर ने बनाए थे और जयकिशन के हिस्से सिर्फ़ बैकग्राउंड म्यूज़िक ही आया था"..... जयकिशन ने दो गीत कम्पोज़ किये थे - "दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई", और "मारे गए गुलफ़ाम अजी हाँ मारे गए गुलफ़ाम" - ये दोनों गीत हसरत जयपुरी के लिखे हुए थे। शैलेन्द्र के सभी गीतों को शंकर ने कम्पोज़ किया था। वैसे, तीसरी कसम के गीत-संगीत पर पूर्वी उत्तर प्रदेश के भोजपुरी लोकसंगीत की छाप सुस्पष्ट है। यह सही है कि फ़िल्म का पूरा बैकग्राउंड म्यूज़िक जयकिशन का था क्योंकि SJ की आपसी अंडरस्टैंडिंग के मुताबिक SJ की लगभग सभी फिल्मों में बैकग्राउंड म्यूज़िक जयकिशन का ही हुआ करता था।

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  5. पढ़ते पढ़ते फिल्म की एक एक छबि सामने से पसर हो गई , बहोत ही अच्छा विवरण हे

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    1. Jitendrasinh JadejaThursday, December 16, 2021

      बहोत ही सुन्दर विश्लेषण

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