Monday, June 15, 2020

व्ही शांताराम की फिल्म 'दो आँखे बारह हाथ ' (1957) को सत्य घटना पर आधारित क्यों कहाँ जाता है ?

 'दो आँखे बारह हाथ ' (1957)
व्ही शांताराम भारतीय सिनेमा के अग्रणी सिरमौर रहे हैं उनकी फिल्मो के टाइटल भी बड़े अनोखे और कलात्मक हुआ करते थे तकनीकों और विषयों के साथ बोल्ड प्रयोग के लिए जाने जाने वाले व्ही शांताराम ने भारतीय सिनेमा को कई सामाजिक रूप से प्रासंगिक और उद्देश्यपूर्ण फिल्में दी हैं अपने 'राजकमल 'बैनर के तले उनकी सबसे प्रशंसित फिल्मों में डॉ कोटनिस की अमर कहानी- ( 1946 ) जिसमे एक भारतीय चिकित्सक की चीन यात्रा, दहेज -(1950) के विषय में दहेज के नकारात्मक प्रभाव,झनक झनक पायल बाजे-(1955) में नृत्य और संगीत के ज्ञान और खूंखार अपराधियों मे नैतिक-शक्ति जगाकर सुधार का अभिनव प्रयोग 'दो आंखें बारह हाथ' - (1957) में था ये एक कालजयी फ़िल्म है 

जब शांताराम ने 'दो आंखें बारह हाथ' बनाई, तब व्ही शांताराम की उम्र सत्‍तावन साल थी और वो बहुत ही चुस्‍त-दुरूस्‍त हुआ करते थे इस फिल्म की कहानी लिखी थी जी.डी माडगूळकर ने जो शांताराम के मित्र भी थे इस फिल्म में जेलर आदिनाथ ( व्ही शांताराम ) अपने क़ैदियों को नैतिकता की ताक़त के सहारे सुधारता है उनके भीतर की नैतिकता को जगाता है। यही नैतिकता उन्‍हें जेल से फरार नहीं होने देती। इस तरह ये फिल्म कहीं ना कहीं गांधीवादी विचारधारा का प्रातिनिधित्‍व करती है। मुंबई में ये फिल्म लगातार पैंसठ हफ्ते चली थी। कई शहरों में इसने गोल्‍डन जुबली मनाई थी। इसने 8 वें बर्लिन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में 'गोल्डन बीयर' और अमेरिका के बाहर निर्मित सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए नई श्रेणी सैमुअल गोल्डविन इंटरनेशनल फिल्म अवार्ड में गोल्डन ग्लोब अवार्ड जीता। फिल्म को लता मंगेशकर द्वारा गाए गए गीत "ऐ मल्लिक तेरे बंदे हम" के लिए भी याद किया जाता है ये गाने की धुन खुद भरत व्यास जी की ही थी वसंत देसाई जो इस फिल्म के संगीतकार थे वो कुछ और धुन बनना चाहते थे लेकिन व्ही शांताराम को ये ही धुन पसंद आयी और उन्होने ये ही धुन फिल्म 'दो आंखें बारह हाथ' मे रखी इस गाने के लिये खास तौर पर नया संगीत यंत्र 'तालवाद्य' निर्माण किया था ......सुना है की की उस समय पकिस्तानी में कट्टरपंथ वहाबी विचार धारा आने से पहले वहां के स्कूलों में भी यह गाना प्रार्थना के रूप मे शामिल किया और मुस्लिम बच्चे भी रोज ये प्रार्थना गाते थे 


लेकिन पहले जब जी.डी माडगूळकर ये कहानी लेकर व्ही शांताराम जी के पास पहुंचे तो शांताराम ने कहानी को रिजेक्‍ट कर दिया था हालांकि कहानी का भावनात्‍मक पक्ष उन्‍हें पसंद आया था इसलिए उन्‍होंने जी.डी माडगूळकर को इस कहानी को दोबारा लिखने को कहा और ताकि इस पर फिल्म बनाई जा सके और उन्होंने कहानी में बदलाव किया भी और व्ही शांताराम जी ने भी पूरी मेहनत से अपने आप को इस फिल्म में झोंक दिया इस फिल्म की शूटिंग के दौरान बैल से लड़ाई वाले सीन में व्‍ही शांताराम जी की आँख में चोट लग गई थी और उनकी आँख की रोशनी जाते जाते बची उनकी पत्नी संध्या जी जो इस फिल्म में नयिका थी उन्होंने भी व्ही शांता राम को बुल फाइटिंग वाले इस खतरनाक दृश्य को करने से रोका था बावजूद इसके उन्होंने ये सीन स्वंय किया फिल्म शानदार बनी हालाँकि इसमें व्ही शांताराम के आलावा कोई भी अन्य मशहूर कलाकार नहीं था फिल्म का अंत प्रभावशाली है जब सारे कैदी हाथ उठा कर बाबूजी के लिए भगवान से प्रार्थना कर रहे होते है और आसमां भी उन्हें देख कर रो रहा होता है यह दृश्य व्‍ही शांताराम की सिनेमाई समझ गहराई को दर्शाता है अब आपके उस सवाल का जवाब की व्ही शांताराम ने इस फिल्म को सत्य घटना पर आधारित क्यों कहा गया है ?


दरअसल फिल्म 'दो आँखे बारह हाथ 'महाराष्ट्र के स्वातंत्र्यपुर में बनी कैदियों की एक खुली कॉलोनी या जेल के प्रयोग से प्रेरित थी ये खुली जेल भारत की अपनी तरह की पहली जेल थी जिसमें पारंपरिक जेलों की तरह किसी प्रकार के कोई प्रतिबंध नहीं थे जहाँ कैदियों को अपने परिवार के साथ रहने की भी अनुमति प्राप्त थी और कैदी फल और सब्ज़िया उगा कर लगभग दो किलोमीटर दूर आटपाडी जा कर बेच कर वापिस आते थे और जेल में रह कर अपनी आजीविका चला सकते थे कोई भी कैदी सजा पूरी होने के पहले इस जेल से नहीं भागा था जबकि वो स्वतंत्र थे लेकिन ये सुविधा सभी कैदियों के लिए नहीं थी जेलर को ये अधिकार था की वो किन कैदियों को इस खुली जेल में रहने के लिए चुने ,आमतौर पर अच्छे अचार -व्यवहार ,जेल के नियमो का पालन करने वाले कैदियों को ही चुना जाता था आज़ादी से पहले स्वातंत्र्यपुर सतारा के पास औंध की रियासत का हिस्सा था और अब वर्तमान में महाराष्ट्र के सांगली जिले में आटपाडी तहसील का हिस्सा है


1939 में महाराष्ट्र राज्य की औंध के तत्कालीन शासक भवानीराव ( बालासाहेब ) को जिन्हे 'पंत प्रतिनिधि 'भी कहा जाता था उन्होंने ब्रिटिश काल में कैदियों के लिए मानवीय दृष्टिकोण के तहत इस खुली जेल का निर्माण किया था औंध के शासक बहुत प्रगतिशील विचारो वाले थे इसका उद्देश्य पारंपरिक जेलों में बंद कठोर अपराधियों को सुधारना था ताकि अपनी रिहाई के बाद भी वो समाज में पुनर्वास कर परिवार के साथ इज़्ज़त से रह सके पंत प्रतिनिधि द्वारा बनाई इस कॉलोनी की स्थापना पोलिश मानवतावादी मौरिस फ्राइडमैन "भारतानंद से प्रेरित थी इस जेल का जिम्मा उन्होंने एक आयरिश जेलर को दिया था जो एक साइको लॉजिस्ट भी थे कैदियों को सुधारने के मनोविज्ञानं के पीछे का तथ्य था की सभी धर्मों में विशेष रूप से भगवान गौतम बुद्ध ने भी ही कहा है कि प्रत्येक व्यक्ति भगवान की बनाई एक उत्कृष्ट रचना है इसलिए उसका बनाया हुआ कोई भी प्राणी जन्म से अच्छा ही होता है लेकिन परिस्थितियों के कारण अच्छे आदमी ,बुरे अपराधी बन जाते हैं लेकिन हम देखते है की हैं कि प्रेम और सहानुभूति से वो बुरा आदमी फिर से अच्छा इंसान बन सकता है

औंध रियासत एक प्रिंसली स्टेट था इस स्टेट मे औंध के तत्कालीन शासक का पूर्ण अधिकार था वो अपनी रियासत की भलाई के लिए कोई भी निर्णय लेने के लिए आजाद थे इस 'खुली जेल 'वाले प्रयोग के लिए उन्हे ब्रिटिश सरकार से इजाजत लेने की आवश्यकता भी नही थी इसलिए जब ये प्रयोग औंध के शासक ने अपने ही खुद के रियासत में किया तो ब्रिटिश सरकार ने विरोध करने की बजाय उसकी बहुत प्रशंसा की ब्रिटिश सरकार ने इसमें कोई भी हस्तक्षेप नहीं किया इसलिए इस खुली जेल वाले विचार का सारा श्रेय केवल औंध रियासत के राजा भवानीराव को जाता है स्वातंत्र्यपुर आटपाडी झील और भिंगेवाड़ी के बीच स्थित है 16 वीं शताब्दी में आटपाडी बीजापुर के आदिलशाही राज्य का हिस्सा था। बाद में यह औंध की रियासत के साथ-साथ एक महल में बसे शहर का हिस्सा था इसलिए इसे 'आटपाडी महल ' कहा जाता था। भारतीय स्वतंत्रता और औंध के भारत गणराज्य में विलय के बाद, आटपाडी सतारा जिले में खानपुर तालुका में था जब तक नया जिला नबना तब तक सांगली का गठन भी नहीं हुआ नए जिले के गठन के बाद,आटपाडी को खानपुर तालुका से अलग कर दिया गया और खुद तालुका एक जगह बन गया जी.डी. मडगुलकर, बी.डी. मदगुलकर, शंकरराव खरात जैसे प्रमुख मराठी लेखक इसी स्थान से आते है शांताराम ने महाराष्ट्र के स्वातंत्र्यपुर में बनी कैदियों की इसी खुली जेल को ही आधार बना कर माडगूळकर से दोबारा कहानी लिखवाई यही कारण है की फिल्म के शुरू में व्‍ही शांताराम जी ने इसे सत्य घटना से प्रेरित बताया है

जी.डी. मडगुलकर
जी.डी माडगूळकर मराठी साहित्य के एक बड़े कवि और कहानीकार और अभिनेता थे महाराष्ट्र में वे अपने नाम के आद्यक्षरों 'गदिमा' से ही अधिक जाने जाते हैं। मराठी संस्कृति के लिए उनका योगदान मात्रा और गुणवत्ता दोनो दृष्टियों से बहुत अधिक है। उनहोंने लगभग 150 से भी ज्यादा मराठी और हिंदी फिल्मो की कहनियाँ ,संवाद ,स्क्रिप्ट लिखी उनकी लिखी सैकड़ो पुस्तके और कहानियाँ आज भी बड़े चाव से पढ़ी जाती है की 'फिल्म दो आँखे बारह हाथ 'की कहने लिखने वाले लेखक जी.डी माडगूळकर के पिता पहले औंध रियासत के महल में ही नौकरी करते थे इस लिए रियासत से माडगूळकर की बहुत ही खूबसूरत यादें जुडी है उन्होंने औंध रियासत में इस खुली जेल वाले प्रयोग को सबसे करीब से देखा था उन्होंने एक पुस्तक 'मंतरलेले दिवस 'में इसका जिक्र भी किया है ... जी.डी माडगूळकर बहुत प्रतिभाशाली थे उनके बारे में कहा जाता है की गुरु दत्त को जब 'प्यासा' फिल्म की कहानी सुनाई तो गुरुदत्त ने उन्हे खुश होकर 10000 रुपये का चेक दिया था लेकिन बाद मे इस कहानी मे कुछ बदलाव लाने के लिये गुरु दत्त ने अपने कुछ सुझाव उन्हें दिए लेकिन नाराज जी.डी माडगूळकर ने गुरु दत्त को चेक वापस दे दिया और उनके सुझाव को नकार दिया ........बाद में गुरुदत्त ने इसी कहानी पर फिल्म 'प्यासा '(1951) बनाई और उन्होंने जी.डी माडगूळकर को न तो पैसे दिए और नहीं उनका फिल्म में कोइ जिक्र भी किया ...फिल्म 'प्यासा 'का मूल कथानक जी.डी माडगूळकर की कहानी पर ही था जिसे गुरु दत्त और अबरार अल्वी ने विस्तार दिया 

  पंत प्रतिनिधि 'द्वारा बनाई गई खुली प्रयोगवादी जेल का वर्तमान का चित्र 
1939 में औंध के तत्कालीन शासक भवानीराव 'पंत प्रतिनिधि 'द्वारा बनाई गई ये खुली प्रयोगवादी जेल अब जर्जर हालत में है अच्छी खबर ये है की अब इस खुली जेल में पहले जैसे कैदियों को सुधारने के प्रयोग की अनुमति महाराष्ट्र की सरकार ने दी है स्वातंत्र्यपुर के कैदियों को अपने परिवारों के साथ उनकी सजा का एक हिस्सा यहाँ बिताने की अनुमति मिल सकती है अनुकरणीय आचरण वाले कैदियों को मजबूत मापदंडों का उपयोग करते हुए खुली जेलों से चुना जायेगा और जिसके लिए इन खुली जेलों में सुविधा का विस्तार किया जा रहा है चूँकि ज्यादातर पुराने कमरे ब्रिटिश काल के थे और निर्जन थे इसलिए उन्हें नया रंगरूप दिया जा रहा है अधिक वेंटिलेशन के साथ आवासों का आकार लगभग 180 वर्ग फुट से 225 वर्ग फुट तक बढ़ाया जाएगा

28 कैदियों की अपनी क्षमता के बावजूद, स्वातंत्र्यपुर में रहने योग्य क्वार्टरों की कमी के कारण अभी सिर्फ तीन कैदियों और उनके परिवारों को वहां रखा गया है। अधिकारियों कहना है की कि उनके पास लगभग 70 एकड़  खेतों पर काम करने के लिए पर्याप्त हाथों की कमी है। और अधिक कैदियों के चयन के लिए राज्य सरकार को प्रस्ताव भेजा गया है हालांकि अप्रैल में 2018 में 2.17 करोड़ रुपये का निर्माण पूरा होने के बाद कॉलोनी नए कैदियों को घर देने में सक्षम होगी। जिनका निर्माण हाल ही में शुरू हुआ है और जल्द पूरा हो जायेगा इसमें जेल स्टाफ सहित 29 आवास शामिल होंगे, हालाँकि पुराने कमरों में से लगभग 15 का उपयोग किया जा सकेंगे क्योंकि बाकी कमरे अब जीर्ण-शीर्ण हालत में है  इस प्रकार सरकार के सहयोग से आज लगभग 60 वर्षो के बाद 'दो आँखे बारह हाथ ' के जेलर आदिनाथ का अच्छे अचार व्यवहार वाले कैदियों को सुधारने का सपना फिर से साकार होने जा रहा है अस्सी के दशक में फिल्म निर्माता सुभाष घई की 'कर्मा '(1983) इसी 'दो आँखे बारह हाथ ' वाली सत्य घटना से से प्रेरित हो कर बनाई गई थी उसमे व्ही शांता राम की जगह दलीप कुमार कैदियों ( अनिल -जैकी  ) को एक खास मिशन के लिए चुनते है

'सुहानी यादे बीते सुनहरे दौर की ' जागरूक सिने पाठको ने मुझसे पूछा है की व्ही शांताराम की फिल्म 'दो आँखे बारह हाथ ' (1957) की नामावली में इसे सत्य घटना पर आधारित क्यों बताया है ? और ये घटना कहाँ की है ? इस पोस्ट के माध्यम से मैंने उनकी जिज्ञासा शांत करने का प्रयास किया है आशा करता हूँ की मैंने आपके मन में उमड़ रहे प्रश्नों को शांत करने का प्रयास किया होगा और आपको अपने सवालो के जवाब मिल गए होंगे इस लेख में नवीन जानकारी देने के लिए मैं अपने वरिष्ठ मित्रो श्री कमलकांत चिटनीस जी ,श्री भारतेन्दु कुमार दास जी, श्री श्याम खारकर जी ,श्री रत्नाकर मेल्वंकी जी का भी आभार व्यक्त करता हूँ जो सम्भवता महाराष्ट्र के इसी क्षेत्र के ही रहने वाले है
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महान चित्रपति व्ही शांता राम 

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