दुविधा - (1973) |
भारत सरकार ने 1960 के दशक के उत्तरार्ध में फिल्म वित्त निगम ( एफ एफ सी ) को मूल रूप से स्वतंत्र फिल्म निर्माताओं की मदद के लिए स्थापित किया गया था भारतीय दर्शको में एक स्थायी वैकल्पिक सिनेमा की आशा उदयमान हुई थी जिसकी मदद से उन्होंने कम बजट वाली कई फिल्मे बनाई और जब इन बेहतरीन फिल्मों को आलोचनात्मक और व्यावसायिक दोनों तरह की सफलता मिली तो 'समानांतर सिनेमा ' का जन्म हुआ इनमे से कई बेहतरीन फिल्में केरल,तमिलनाडु, कर्नाटक और बंगाल जैसे राज्यों से आई थीं जबकि इससे पहले कमर्शियल फिल्मे ज्यादातर महानगरों की कहानी ही परदे पर कहती थी इस प्रकार जब 1970 के दशक में कमर्शियल हिंदी सिनेमा के समक्ष भारतीय कलात्मक सिनेमा का उदय हुआ था 1960 के दशक के अंत और 70 के दशक की शुरुआत में पुणे के प्रतिष्ठित FTII (फिल्म और टेलीविजन संस्थान) से फिल्म स्नातकों का जो पहला समूह निकला उसमे राजस्थान के जोधपुर में जन्मे फिल्म निर्माता 'मणि कौल 'भी थे जो बाद में समानांतर सिनेमा के एक अग्रणी निर्देशक बन कर उभरे उनकी बनाई फिल्में सादगी, सिनेमाई दृष्टि,बिंबो-रंगो के संयोजन के लिए जानी जाती है जिन्होंने अपनी शुरुआती फिल्मो में खास तौर पर समय और स्थान के साथ भारतीय सिनेमा में अब तक के सबसे रचनात्मक और मौलिक प्रयोगों को सिनेमा के परदे पर दर्शाया उनकी फिल्मो की एक खास बात यह है कि उसमे हमें स्त्रियों के माध्यम से देश-काल का सजीव चित्रण मिलता है उन्होंने बॉलीवुड के महंगे और मशहूर सितारों से सजी काल्पनिक कहानियाँ की जगह समानांतर सिनेमा को आधार बना एक कठोर सामाजिक यथार्थवाद सिनेमा का ऐसा सृजन किया जो एक वर्गवादी, जातिवादी और पीड़ित पुरुषों और महिलाओं की वास्तविक कहानियों को ईमानदारी से दर्शको के सामने रखता है इसलिए निर्माता निर्देशक मणि कौल की फ़िल्में व्यावहारिक रूप से अपरिहार्य बन जाती हैं उनकी 'दुविधा (1973)' समेत 'उसकी रोटी' (1969) ,'आषाढ़ का एक दिन' (1971) ,'सिद्देश्वरी' (1989) ,'नजर' (1991) ,'द क्लाउड डोर' (1994 ) समेत कई फिल्में ललित कला, लोक संगीत, साहित्य और मिथक का अद्भुत मिश्रण हैं
1973 हिंदी सिनेमा के लिए एक सुनहरा साल था जब राज कपूर की 'बॉबी ,प्रकाश मेहरा की 'ज़ंजीर' और नासिर हुसैन की 'यादों की बारात' जैसी ब्लॉकबस्टर फिल्मे बॉक्स ऑफिस पर सफलता के नए आयाम रच रही थी तो वही निर्माता निर्देशक मणि कौल अपनी कलात्मक फिल्म 'दुविधा ' के माध्यम से कठोर सामाजिक यथार्थवाद का सच दर्शको के सामने मजबूती से रखने में सफल रहे मणि कौल की फिल्म 'दुविधा' राजस्थानी लेखक 'विजयदान देथा' की इसी नाम की कहानी पर आधारित है 'दुविधा' एक अलौकिक कहानी है जो ग्रामीण राजस्थान की एक लोकप्रिय लोककथा पर आधारित है यह कल्पना से परे एक यथार्थवादी कहानी है फिल्म की कहानी के केंद्र में एक सुन्दर नवविवाहित दुल्हन लच्छी और एक भूत है लच्छी विवाह के बाद अपने पति के साथ डोली में उनके पैतृक गाँव जा रही है घने जंगल में बरगद के पेड़ पर रहने वाले एक रसिक भूत उसकी सुंदरता पर मोहित हो जाता ,लच्छी भी उस भूत का ध्यान अनजाने से अपनी और आकर्षित कर लेती है ,दुल्हन लच्छी के रूप लवण्य से प्रभावित यह रसिक भूत अपनी बेकाबू इच्छा से अभिभूत हो एक विलक्षण योजना बनाता है ताकि वो लच्छी के करीब जा सके वह भूत लच्छी से उस के पति किशन का रूप धारण कर मिलता जबकि नवविवाहिता लच्छी का असली पति व्यापार के सिलसिले में विवाह के दूसरे दिन ही परदेस चला गया है ,खुद दुल्हन लच्छी भूत के इस छद्म रूप से अनजान है
लच्छी और भूत चार साल तक एक साथ आनंदपूर्वक रहते हैं फिर एक ऐसा भावुक समय भी आता है कि यह भूत अपनी अंतरात्मा की आवाज़ पर लच्छी को अपनी असली पहचान बता देता है यहाँ दर्शको को फिल्म के शीर्षक शब्द 'दुविधा' का अर्थ समझ में आता है यह दुविधा अब लच्छी के साथ साथ फिल्म देखने वाले को भी विचलित करती है कि वह इस खुशहाल झूठ के साथ अपनी जिंदगी जीना जारी रखे या इस दुखद उपेक्षित सत्य को अस्वीकार कर फिर से नया जीवन शुरू करे यहाँ लच्छी की ईमानदारी फिल्म का केंद्रीय संघर्ष बनती है जो रूढ़िवादी दर्शकों के लिए एक बड़ी समस्या पेश करती है वो यह नहीं समझ पाते हैं कि एक विवाहिता पत्नी अपने परदेस गए पति का इंतज़ार करने की बजाय अपनी स्वेच्छा से एक भूत के साथ क्यों सोएगी ? दर्शको को लगता है कि लच्छी का यह कृत्य समाज के पितृसत्तात्मक मूल्यों के विरुद्ध अपराध है और एक गलत सामाजिक सन्देश देता है लेकिन लच्छी को प्रेमी भूत के रूप में अपनी सभी इच्छाओं के प्रतिनिधित्व के बीच एक अजीब सी दुविधा का सामना करना पड़ता है जिसने उसके वास्तविक पति का छद्म रूप ले लिया है यह दुविधा कई सवाल भी उत्पन्न करती है क्या वो मौन रह कर अपनी स्वतंत्र चेतना का इस्तेमाल करती रहे ? या इसे हमेशा के लिए त्याग दे ,लच्छी अपने अंतर्मन से निर्णय लेती है अंत में वो सभी अवधारणाओं को पीछे छोड़ते हुए अपने पति किशन के इस नए कामुक, अलौकिक,सामाजिक,आत्मविश्वासी रूप को अपना लेती है परंपरागत हिंदी सिनेमा में स्त्री का यह रूप सर्वथा अलग था
बुद्धिमान गड़रिया असली किशन और भूत को जन समूह के सामने तीन बाते सिद्ध करने के लिए कहता है पहली बात उन दोनों को गर्म दहकते कोयले को अपने हाथ से उठाना है लेकिन हाथ नहीं जलना चाहिए ,दूसरा उन्हें उसकी भेड़ों को एक तय समय एक विशेष स्थान पर इकट्ठा करना है ,तीसरा उन दोनों को उसकी छांगल (जानवर की खाल से बनी पीने के पानी की थैली ) में पहले प्रवेश करना होगा फिर वापिस बाहर आकर कर दिखाना होगा जो ये तीनो कार्य समक्ष भीड़ के सामने पूर्ण कर के दिखा देगा वही भंवरलाल का असली बेटा और दुल्हन लच्छी का असली पति किशन लाल माना जायेगा होगा भूत अपनी अलौकिक शक्तियों का इस्तेमाल कर पहली दोनों परीक्षाएं बड़ी आसानी से पार कर लेता है जबकि असली किशन लाल को बेहद परेशानी होती है क्योंकि आखिर वो एक मनुष्य जो ठहरा अब आखिर में उन दोनों को गडरिया की छांगल के भीतर प्रवेश करना है जो किशन के लिए तो लगभग असंभव था लेकिन भूत हवा बनकर थैली में प्रवेश कर जाता है और चतुर गडरिया तुरंत अपनी छांगल का मुँह कसकर बंद कर देता है ताकि भूत वापिस बाहर न आ सके इस घटनाक्रम और नए रहस्योद्घाटन से सब दंग रह जाते है और संतोष व्यक्त करते है कि आखिर समझदार गड़रिए के न्याय से भूत उसकी कैद में है इस प्रकार सबको असली किशन का पता चल जाता है गडरिया किशन को उस छांगल को रेगिस्तान में दूर कही रेत में गाड़ने को कह भेड़ो को हांकता हुआ अपनी राह चला जाता है किशन ऐसा ही करता है गडरिये के न्याय से अभिभूत सभी लोग वापिस अपने अपने घर लौट आते हैं लच्छी प्रेमी भूत के हमेशा के लिए दूर चले जाने के गम में टूट जाती है लेकिन क्लाइमेक्स अभी बाकि है दरअसल यह बात उस भूत के आलावा और कोई जानता कि लच्छी के प्रति अपने सच्चे प्यार को साबित करने के लिए ही उसने अपनी मर्ज़ी से गडरिये की छांगल में प्रवेश किया था
''मेरी फिल्म में तुम्हारी यह अपार सुंदरता किसी काम नहीं आने वाली
मेरी फिल्म तुम्हारे सौंदर्य को परदे पर क्रश करने वाली है''
रायसा ने अपनी पहली फिल्म 'दुविधा' के बाद किसी भी फिल्म में अभिनय नहीं किया और वापस पेरिस चली गईं जहां वह आज भी अपने परिवार के साथ रहती है उनके पति लॉरेंट ब्रेगेट एक फिल्म निर्माता हैं मणि कौल अक्सर रायसा पद्मसी को अपनी सर्वश्रेष्ठ महिला अभिनेता मानते थे लेकिन रायसा जो अब एक कला इतिहासकार भी हैं फिर कभी भी किसी अन्य फिल्म में दिखाई क्यों नहीं दीं जबकि उसके परिवार के कई लोग फिल्म उद्योग से थे थिएटर हस्ती और विज्ञापन फिल्म निर्माता एलिक पद्मसी रायसा के चाचा हैं उनका विवाह गायिका और अभिनेत्री शेरोन प्रभाकर से हुआ था उनकी बेटी यानि रायसा की चचेरी बहन शाज़ान पद्मसी भी एक बॉलीवुड अभिनेत्री हैं जिसे आपने रॉकेट सिंह (2009),दिल तो बच्चा है जी (2011) और हॉउसफुल -2 (2012) में देखा होगा
फिल्म के कई ऐसे दृश्य है जहाँ लच्छी किसी विपरीत कार्य का सांकेतिक विरोध करने से भी नहीं चूकती फिल्म के आरम्भ के एक दृश्य में जब किशन अपनी दुल्हन लच्छी को विदा कर अपने गाँव ले कर आ रहा होता उसे रास्ते के किनारे लगे एक जंगली फल 'ढालू' खाने की इच्छा होती है लेकिन किशन लाल उसे बड़े अनमने ढंग से कहता है कि ''वो ऐसा जंगली फल ढालू खाकर क्या करेगी जिसे सिर्फ गरीब किसान खाते है कोई उसे ये फल खाते देखेगा तो हमारे धनी परिवार को उपहास का पात्र बनना पड सकता है क्योंकि हमारे घर में तो महंगे मखाने खाये जाते है '' यहाँ फिल्म देख रहे दर्शको को किशन लाल का सामंती आडम्बरयुक्त चेहरा पहली बार महसूस होता है लेकिन यहाँ लच्छी के चेहरे के भाव ,कैमरे के क्लोज़अप में शक्तिशाली बेहद अभिव्यक्तियाँ व्यक्त करते है जो यह दर्शाते है की वो अपने पति की ऊंच-नीच की सोच से सहमत नहीं है ,फिल्म में फिल्म में रायसा पद्मसी' और रवि मेनन के आलावा हरधन ,शम्भुधन ,मनोहर लालस ,काना राम ,भोला राम जैसे रंगमंच के साधारण कलाकारों ने उम्दा अभिनय किया है फिल्म में सिमित किरदारों में एक अजीब सी उदासीनता महसूस होती है जो कहानी के माहौल में व्याप्त है यह उदासीनता पात्रों को बेजान कठपुतलियों में बदल देती है कल्पना वास्तविकता में तेज़ी से गुम हो धुंधली हो जाती है पूरी फिल्म में दूल्हे और दुल्हन का नाम कभी नहीं बोला गया अधिकांश कैमरा दुल्हन के तंग क्लोज़अप पर रखा गया है एक प्रेम त्रिकोण की कथा के भीतर कोई भी आवाज नहीं उठाता या आंसू नहीं बहाता दिखता हर कोई नीरस,कठोर वाक्यों में बोलता है किरदारों के चेहरे और आंखें बेजान रहती हैं जिससे ही लम्बे पांच साल बीतने का पता दर्शको को लगता है मणि कौल की फिल्मों में ध्वनि के इस्तेमाल का काफी महत्व रहा है हालांकि इस फिल्म में अधिक संवाद नहीं है पर वॉयस ओवर का बखूबी इस्तेमाल किया गया है फ़िल्म का संगीत राजस्थान के लोक संगीतकारों रमज़ान हम्मू,लतीफ़ और साकी खान ने दिया था पारंपरिक राजस्थानी संगीत का उपयोग फिल्म को विशेष रूप से क्षेत्रीय संगीतमयता से भर देता है
अब विडंबना देखिये जिस लेखक विजयदान देथा की कहानी दुविधा को आधार बना मणि कौल ने 'दुविधा' फिल्म बनाई उसी कहानी को आधार बनाकर निर्देशक ,अभिनेता अमोल पालेकर ने भी 'पहेली (2005)' नाम से एक फिल्म निर्देशित की थी 24 जून 2005 को रिलीज़ हुई फिल्म पहेली 'दुविधा' का ही रीमेक थी जिसमें शाहरुख खान और सुनील शेट्टी ,अमिताभ बच्चन ,जूही चावला ,अनुपम खेर रानी मुखर्जी प्रमुख भूमिका में थे जहाँ मणि कौल की 'दुविधा' सिर्फ आलोचकों को पसंद आई वही शाहरुख़ खान के रेड चिल्ली बैनर के तले मधुर संगीत और भव्य सेट्स ,बड़ी स्टारकास्ट ,बड़े बजट को लेकर बनी फिल्म 'पहेली' बॉक्स ऑफिस पर हिट रही इसके प्रोडक्शन डिज़ाइन, सिनेमैटोग्राफी, वेशभूषा और विशेष प्रभावों की प्रशंसा हुई पहेली की पूरी शूटिंग भी रिकॉर्ड 45 दिनों की अवधि में राजस्थान (झुंझुनू जिले) में की गई थी फिल्म में हाड़ी रानी की बावड़ी में फिल्माए गए दृश्य आकर्षक थे जहाँ लच्छी (रानी मुखर्जी ) को भूत (शाहरुख़ खान ) की अलौकिक शक्तियों का पहली बार अनुभव होता है यह जगह बाद में पर्यटकों में मशहूर हो गई ‘पहेली’ भारत की तरफ से 79वें ऑस्कर के लिए आधिकारिक एंट्री बनी थी प्रेमी भूत की अलौकिक शक्तियों की दिखने के लिए पहेली में उस समय नई नई वीएफएक्स तकनीक का प्रयोग भी किया गया था जिसे दर्शको खासकर बच्चो ने बेहद पसंद किया था जहाँ 'दुविधा' में किरदारों की आवाज़ वॉयस ओवर की माध्यम से व्यक्त होती है वही 'पहेली' में दो कठपुतलियों द्वारा कहानी सुनाई जाती है जिन्हें नसीरुद्दीन शाह और रत्ना पाठक शाह ने आवाज दी है 51वें फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों में, पहेली को 2 नामांकन प्राप्त हुए - सर्वश्रेष्ठ गीतकार ("धीरे जलना" के लिए गुलज़ार) और सर्वश्रेष्ठ पुरुष पार्श्व गायक ("धीरे जलना" के लिए सोनू निगम)। 53वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में, फिल्म ने सर्वश्रेष्ठ महिला पार्श्व गायिका का पुरस्कार जीता (श्रेया घोषाल "धीरे जलना" के लिए)
पहेली का उद्घाटन हरारे के लिबर्टी सिनेमा कॉम्प्लेक्स में 9वें जिम्बाब्वे अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में हुआ इसे सनडांस फ़िल्म फ़ेस्टिवल और पाम स्प्रिंग्स इंटरनेशनल फ़िल्म फ़ेस्टिवल दोनों में भी प्रदर्शित किया गया था फिल्म का कार्यकारी शीर्षक' फ्रेंड ऑफ ए घोस्ट 'था पहेली बॉक्स ऑफिस पर सफल साबित हुई जिसने दुनिया भर में ₹32 करोड़ की कमाई की लेकिन रिलीज़ होने पर इसे फ़िल्मी आलोचकों से मिली-जुली सकारात्मक समीक्षा मिली
भारतीय कला फिल्मो के अग्रणी निर्माता निर्देशक 'मणि कौल ' |
भारतीय निर्देशक मणि कौल द्वारा बनाई गई 'दुविधा 'एक खूबसूरत फिल्म है जो समय और स्थान की परंपराओं से मुक्त होकर फिल्म निर्माण की एक नवीन शैली का प्रदर्शन करती है यह मसाला फिल्मो से अलग अपने आप में एक असाधारण सिनेमाई अनुभव हमें प्रदान करती है फिल्म ने कोई बड़ी व्यावासिक सलफलता तो अर्जित नहीं करी लेकिन मणि कौल की सबसे रहस्यमयी कृति "दुविधा" ने उन्हें सर्वश्रेष्ठ निर्देशन के लिए अत्यधिक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पुरस्कार जरूर दिलाया था ,बाद में 1997 में कन्नड़ फिल्म 'नागमंडला ' भी इसी कहानी से प्रेरित होकर बनी है जो गिरीश कर्नाड के इसी नाम के नाटक पर आधारित थी ,अभिनेता गिरीश कर्नाड के नाटक 'नागमंडला ' की तुलना भी कहानीकार विजयदान देथा की 1970 के दशक की राजस्थानी लोककथा आधारित फिल्म 'दुविधा 'से की जाती है क्योंकि दोनों का कथानक समान है 'नागमंडला 'मे प्रकाश राज और और विजयलक्ष्मी मुख्य भूमिका में हैं फिल्म में एक महिला और उसके लापरवाह पति के भेष में एक सांप के बीच प्रेम कहानी दिखाई गई थी इस कन्नड़ फिल्म को भी 1997 में भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में भारतीय पैनोरमा के लिए चुना गया था
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