दो आँखें बारह हाथ (1957)... |
ताज्जुब होता है हिन्दी फ़िल्म उद्योग जिस समय अपने विकास के शुरुआती दौर में था उसी समय एक ऐसा फ़िल्मकार वणकुद्रे शांताराम यानी व्ही शांताराम भी था जिसने कैमरे, पटकथा, अभिनय और तकनीक में तमाम प्रयोग कर सरल और सादे से कथानक पर बिना किसी लटके झटके के साथ एक कालजयी फ़िल्म'' दो आँखें बारह हाथ '' भी बनाई थी शांताराम वणकुद्रे यानी व्ही शांताराम की फिल्म 'दो आंखें बारह हाथ' सन 1957 में रिलीज़ हुई थी यानी इस वर्ष इस फिल्म की रिलीज़ को 60 साल पूरे हो रहे हैं दो आँखें बारह हाथ जिसमें गांधी जी के ‘हृदय परिवर्तन’ के दर्शन से प्रेरित होकर छह कैदियों के सुधार की कोशिश की जाती है जिस वक्त उन्होंने 'दो आंखें बारह हाथ' बनाई, तब व्ही शांताराम की उम्र सत्तावन साल थी और वो बहुत ही चुस्त-दुरूस्त हुआ करते थे इस फिल्म की कहानी लिखी थी जी डी मदगुलेकर ने जो शांताराम के मित्र थे इस फ़िल्म में जेलर आदिनाथ अपने क़ैदियों को इसी ताक़त के सहारे सुधारता है उनके भीतर की नैतिकता को जगाता है। यही नैतिकता उन्हें फरार नहीं होने देती। इसी नैतिक बल के सहारे वो कड़ी मेहनत करके शानदार फ़सल हासिल करते हैं। इस तरह ये फ़िल्म कहीं ना कहीं गांधीवादी विचारधारा का प्रातिनिधित्व करती है। मुंबई में ये फ़िल्म लगातार पैंसठ हफ्ते चली थी। कई शहरों में इसने गोल्डन जुबली मनाई थी।
दो आँखे बारह हाथ फिल्म महाराष्ट्र के
स्वतंत्र पुर में बनी कैदियों की एक खुली कॉलोनी के प्रयोग से प्रेरित थी
जहाँ कैदियों को अपने परिवार के साथ रहने की भी अनुमति प्राप्त थी और कैदी
फल और सब्ज़िया उगा कर लगभग दो किलोमीटर दूर अटपडी जा कर बेच कर आते थे और
जेल में रह कर भी अपनी आजीविका चला सकते थे आज़ादी से पहले स्वतंत्र पुर
सतारा के पास औंध की रियासत का हिस्सा था और अब वर्तमान में महाराष्ट्र के
सांगली जिले में अटपडी तहसील का हिस्सा है शायद यही कारण है की फिल्म के
शुरू में व्ही
शांताराम जी ने इसे सत्य घटना से प्रेरित बताया है अस्सी के दशक में सुभाष घई की 'कर्मा '(1983) इसी से प्रेरित हो कर
बनाई गई थी जब मदगुलेकर
ये कहानी लेकर व्ही
शांताराम जी के पास पहुंचे तो शांताराम ने कहानी को
रिजेक्ट कर दिया था हालांकि कहानी का भावनात्मक पक्ष उन्हें पसंद आया
था इसलिए उन्होंने इस कहानी को दोबारा लिखा और फिर इस पर फिल्म बनाई और व्ही शांताराम जी ने भी पूरी मेहनत से अपने आप को इस फिल्म में झोंक दिया इस फिल्म की शूटिंग के दौरान बैल से लड़ाई वाले सीन
में व्ही
शांताराम जी की आँख में चोट लग गई थी और उनकी आँख की रोशनी जाते जाते बची
दो आँखे बारह हाथ फिल्म महाराष्ट्र के स्वतंत्र पुर में बनी कैदियों की एक खुली कॉलोनी के प्रयोग से प्रेरित थी |
कहानी एक युवा प्रगतिशील और सुधारवादी विचारों वाले जेलर आदिनाथ (व्ही शांताराम ) की है, जो
क़त्ल की सज़ा भुगत रहे पांच खूंखार कै़दियों को एक पुराने जर्जर
फार्म-हाउस में ले जाकर सुधारने की अनुमति ले लेता है और तब शुरू होता है
उन्हें सुधारने की कोशिशों का आशा-निराशा भरा दौर .......इस फिल्म में
युवा जेलर आदिनाथ का किरदार खुद व्ही
शांताराम ने निभाया और उनकी नायिका बनीं
चंपा (संध्या ).....फ़िल्म में रोचकता और रस का समावेश करने के लिए संध्या को
एक खिलौने बेचने वाली का किरदार दिया गया, जो जब भी खेत वाले बाड़े से
गुजरती है तो कडि़यल और खूंखार क़ैदियों में उसे प्रभावित करने की होड़ लग
जाती है इसके अलावा कोई ज्यादा मशहूर कलाकार इस फिल्म में नहीं था उल्हास हमेशा की तरह व्ही शांता राम की सभी फिल्म की तरह इस फिल्म में भी है
भरत व्यास ने फिल्म के गीत लिखे और संगीत वसंत देसाई ने दिया दो
आंखें बारह हाथ का संगीत व्ही
शांताराम जी की अन्य फिल्मों की तरह
उत्कृष्ट था और आज भी रेडियो स्टेशनों पर इसकी खूब फरमाईश की जाती है
"ऐ मालिक तेरे बन्दे हम", भरत व्यास लिखित गीत आज भी लोगों को याद है और आज
भी अनेक पाठशालाओं में प्रार्थना बनकर सत्य की राह पर चलने का जज़्बा और
प्रेरणा देता है व्ही
शांताराम जी ने दो आँखें बारह हाथ में परिश्रम के
प्रतिफल का उल्लास दर्शाने के लिए बारिश के गीत का उपयोग किया है
सुधारवादी जेलर और उसके कैदियों ने बंजर ज़मीन पर खेती का प्रयास किया है
और जब बादल उनकी मेहनत पर अपना आशीष बरसाने आते हैं तो सभी ‘उमड़-घुमड़कर
के आई रे घटा’ गाते हुए नाच उठते हैं इस गाने में संध्या ने लाजवाब और अविस्मरणीय नृत्य किया है ''मैं गाऊं तू चुप हो जा, मैं जागू तू
सो जा.'' को लता मंगेशकर ने अपनी आवाज़ देकर मर्मस्पर्शी बना दिया
"सैयां झूंठो का बड़ा सरताज़ निकला" गाने में संध्या का अल्हड़पन खुल कर
सामने आया फिल्म दो आँखे बारह हाथ में लता मंगेशकर द्वारा गाया गया गाना
"ऐ मालिक तेरे बन्दे हम" को तब पाकिस्तानं के स्कूल में स्कूल गान के रूप
में गया जाने लगा था|
फ़िल्म दो आँखें
बारह हाथ साबित करती है कि चाहे 'क़ैदी हो या जल्लाद' हैं तो सब इंसान ही
ना... तमाम बातों के बावजूद हम सबके भीतर एक कोमल-हृदय है ...हमारे भीतर
जज़्बात की नर्मी है ...हमारे भीतर आंसू हैं, मुस्कानें हैं..... हमारे
भीतर अपराध बोध है ...प्यार की चाहत है... मशहूर पुलिस अधिकारी किरण बेदी
ने 'दो आंखें बारह हाथ' से ही प्रेरित होकर दिल्ली की तिहाड़ जेल में
क़ैदियों के रिफॉर्म का कार्यक्रम शुरू किया था और सफलता हासिल की थी व्ही
शांताराम जी की फिल्म् दो आंखें बारह हाथ को 1957 में बर्लिन
फिल्म समारोह में सिल्वर बेयर मिला था इसी साल इस फिल्म ने राष्ट्रपति
का स्वर्ण पदक जीता और 1958 में दुनिया के बेहतरीन हास्य अभिनेता चार्ली
चैपलिन के नेतृत्व वाली जूरी ने इसे 'बेस्ट फिल्म आफ द ईयर' का खिताब
दिया था मुंबई में ये फिल्म लगातार पैंसठ हफ्ते चली थी कई शहरों में
इसने गोल्डन जुबली मनाई थी बहरहाल 'दो आंखें बारह हाथ' कई मायनों
में एक कल्ट फिल्म है एक कालजयी फिल्म है राजकमल कला मंदिर के बैनर
तले निर्मित और व्ही
शांताराम जी निर्देशित फ़िल्म दो आँखें बारह हाथ को कोई
इतनी आसानी से नहीं भूल सकता है फिल्म का अंत प्रभावशाली है जब सारे कैदी
हाथ उठा कर बाबूजी के लिए भगवान से प्रार्थना कर रहे होते है और आसमां भी
उन्हें देख कर रो रहा होता है यह दृश्य व्ही
शांताराम की सिनेमाई समझ गहराई को
दर्शाता है
Very nice information
ReplyDeleteव्ही० शांताराम की एक यादगार फ़िल्म ! कहानी, अभिनय और गीत-संगीत की दृष्टि से एक बेमिसाल फ़िल्म !
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