Friday, January 24, 2025

'फिल्मइंडिया' (Filmindia) - बाबू राव की एक ऐसी फ़िल्मी मैगज़ीन जिसने कई फ़िल्मी सितारों के कॅरियर एक झटके में बनाये और बिगाड़े

'फिल्मइंडिया'  बॉम्बे से प्रकाशित होने वाली भारत की पहली अंग्रेजी फिल्म पत्रिका थी

'फिल्मइंडिया' शायद पहली और सबसे लोकप्रिय फिल्म पत्रिका थी जिसे 1935 में बाबूराव पटेल ने शुरू किया था जो फिल्म समीक्षाओं को लिखते समय अपने क्रूर शब्दों के लिए जाने जाते थे फ़िल्मइंडिया बॉम्बे से प्रकाशित होने वाली पहली अंग्रेजी फ़िल्म पत्रिका थी भारत की पहली मुख्यधारा की इस फ़िल्मी पत्रिका के संपादक और प्रकाशक 'बाबूराव पटेल ' थे जो खुद 40 के दशक में बनी कुछ फिल्मे के निर्माता और निर्देशक रहे है बाबूराव पटेल की फ़िल्मी पत्रिका 'फिल्मइंडिया' को फिल्म इंडस्ट्रीज़ में काफी प्रभावशाली माना जाता है इस पत्रिका की अपने ज़माने में बहुत मांग थी और इसमें छपने वाली पटेल की फ़िल्मी समीक्षाएँ काफ़ी महत्वपूर्ण होती थीं इसके पृष्ठ बाबूराव की टिप्पणियों की तीखी भावनाओं से गूंजते थे 'हबीब तनवीर' इस पत्रिका के पहले सहायक संपादक थे और 'मंटो' भी इसी पत्रिका के लिए लिखते थे बाबूराव बड़े अभिमान से और अति आत्मविश्वास से कहते थे ....... 

 ''मेरी 'फिल्मइन्डिया' से पहले भारत में फ़िल्मी पत्रकारिता नहीं होती थी

 मेरी फ़िल्मी मैगज़ीन ने ही भारत में फ़िल्मी पत्रकारिता को जन्म दिया है ''

बाबूराव पटेल का जन्म 4 अप्रैल 1904 को मुंबई के पास मसवान गाँव में राजनेता पांडुरंग विट्ठल पाटिल (पंडोबा पाटिल) के यहाँ 'बाबा पाटिल' के रूप में हुआ था लेकिन उन्होंने अपना नाम बदलकर बाबूराव पटेल रख लिया क्योंकि वे पेशेवर जीवन में ज़्यादातर गुजराती समुदाय से जुड़े थे हुआ था पढ़ाई में अरुचि होने के कारण उन्होंने मैट्रिक की पढ़ाई पूरी किए बिना ही स्कूल छोड़ दिया लेकिन औपचारिक शिक्षा की कमी उन्हें हमेशा परेशान करती थी वे अक्सर खुद को नॉन-मैट्रिकुलेट कहते थे पटेल एक स्वशिक्षित व्यक्ति थे जिनके पास विभिन्न विषयों पर सैकड़ों पुस्तकों वाला एक बड़ा पुस्तकालय था

1926 में बाबूराव एक नई-नई आरम्भ हुई हिंदी और उर्दू फ़िल्म पत्रिका 'सिनेमा समाचार' से जुड़ गए और पत्रकारिता का अनुभव हासिल कर 1935 में ने डीएन पार्कर के साथ हाथ मिलाया जो न्यू जैक प्रिंटिंग प्रेस के मालिक थे इस तरह अप्रैल 1935 में 'फ़िल्मइंडिया' नामक मासिक फ़िल्मी पत्रिका का जन्म हुआ जिसकी कीमत तब 4 आना (पच्चीस पैसे) रखी गई फ़िल्मइंडिया पत्रिका का पहला अंक बहुत सफल रहा था अपना स्वयं का प्रकाशन शुरू करने से पहले बाबूराव ने 1929-'35 के बीच की अवधि में पांच फिल्में 'किस्मत -(1929)', 'सती महानंदा-(1933)', 'महारानी' और 'बाला जोबन -(1935)', 'चांद का टुकड़ा' भी बनाईं थी एक पटकथा लेखक और निर्देशक के रूप में, बाबूराव ने भारतीय सिनेमा को आकार देने में योगदान दिया 1929 और 1935 के बीच निर्मित ये सभी फ़िल्में भारतीय सिनेमा की नींव रखने में महत्वपूर्ण साबित हुई थीं उनकी तीन बार शादी हुई थी उनकी तीसरी पत्नी गायिका और अभिनेता सुशीला रानी पटेल थीं जो मूल रूप से चेन्नई की थीं उन्होंने उन्हें फिल्म द्रौपदी (1944) और ग्वालन (1946) में उन्हें निर्देशित किया लेकिन दोनों फ़िल्में बॉक्स ऑफ़िस पर फ्लॉप रहीं

बाबूराव पटेल 

'फिल्मइंडिया' का सबसे लोकप्रिय स्तंभ "संपादक का मेल" था जिसका उत्तर पटेल खुद देते थे पत्रिका में फ़िल्म समाचार, संपादकीय, स्टूडियो राउंड-अप, गपशप और विभिन्न भाषा की फ़िल्मों की समीक्षाएँ शामिल थीं उनके लेखों में तकनीशियनों, एक्स्ट्रा और स्टंटमैन जैसे परदे के पीछे गुमनाम रहने वाले सिनेमा कर्मियों का पक्ष लेना शामिल था बाद में पटेल ने 1938 के आसपास चित्रकार एस.एम. पंडित से मुलाकात की और उन्हें फ़िल्मइंडिया के लिए कवर डिज़ाइन करने का अनुरोध किया पंडित के सहायकों में से एक 'रघुबीर मुलगांवकर' भी उसी पत्रिका में डिज़ाइनर थे। दोनों ने 1930 और 1940 के दशक में पटेल के साथ फिल्मइंडिया में काम किया 

इस फ़िल्मी पत्रिका में समीक्षा अनुभाग के साथ-साथ पत्रिका का संपादक का मेल अनुभाग पाँच पृष्ठों का होता था बाबूराव द्वारा अपने पाठकों के प्रश्नों के उत्तर मजाकिया अंदाज में खुद देते थे इस पत्रिका में एक पिक्चर्स इन मेकिंग अनुभाग भी था जहाँ वर्तमान में निर्माणाधीन फिल्मों का विश्लेषण प्रदान किया गया था जूडास (जिसे कई लोग पटेल ही मानते थे) के छद्म नाम से लिखा गया 'बॉम्बे कॉलिंग गॉसिप 'कॉलम भी शामिल था जो हिंदी फिल्म उद्योग के बारे में गॉसिप खबरे करता था के.आसिफ की ऐतिहासिक फिल्म 'मुगले ए आजम' जिसे हिंदी सिनेमा का महाकाव्य कहा जाता फिल्म इंडिया उसके बनने के 10 साल के सफर की साक्षी रही है वीना नर्गिस सप्रू ,चन्द्र मोहन से लेकर दलीप कुमार और मधुबाला के पोस्टर इसमें छपे थे 

किसी भी फिल्म की रिलीज़ से पहले इस पत्रिका के फ्रंट पेज पर उस फिल्म के पोस्टर का छपना निर्माता और कलाकारों के लिए गर्व की बात होती थी लेकिन बाबू राव जिस तीखे अंदाज़ में अपने पाठको के लिए लिखते थे वो हमेशा विवादस्पद रहा वो अपने संपादकीय कॉलम्स में खुलकर फिल्म निर्माताओं की आलोचना और मशहूर स्टार्स का जमकर मजाक उड़ाते थे जिसके बारे में फ़िल्मी दुनिया में आज भी अनेको कहानियाँ प्रचलित है एक बार उन्होंने दिग्गज अभिनेता पृथ्वी राजकपूर को भी नहीं बक्शा था उन्होंने कहा था .... 

'' हिंदी फिल्म इंडस्ट्रीज़ में उन असभ्य ,बलिष्ठ पठानों के लिए कोई जगह नहीं है जो सोचते है की वो यहाँ अभिनेता बन सकते है ''

जिसका अभिनेता पृथ्वी राजकपूर ने भी जवाब दिया था उन्होंने कहा था...... 

''इस पठान को मत भड़काओ बाबूराव अगर मेरे लिए यहाँ कोई जगह नहीं हो तो मैं हॉलीवुड जाकर बतौर अभिनेता अपना नाम कमाने में सक्षम हूँ ''

किसने सोचा होगा कि दिलीप कुमार जैसे दिग्गज अभिनेता को भी कभी इतनी तीखी आलोचना का सामना करना पड़ा होगा जो बाद में 'अभिनय सम्राट' कहलाये दिलीप कुमार की पहली फिल्म 'ज्वार भाटा' की समीक्षा करते हुए उन्होंने दिलीप कुमार को एक ऐसा "नया एनीमिक हीरो" बताया जिसका स्क्रीन पर दिखना और हंसी दोनों निराशा पैदा करता है उन्होंने पहली ही फिल्म में दलीप कुमार के अभिनय प्रयास को शून्य बताया 

इसी तरह नवकेतन बैनर की पहली फिल्म अफसर (1950) की समीक्षा करते हुए पटेल ने लिखा,था " कृपया स्वास्थ्य कारणों से इस अफसर बने देव आनंद की देखने से बचे ,

देव आनंद की 1956 की फिल्म 'सीआईडी '​​को भी एक बेवकूफ हरकतों से भरी अपराध कहानी के रूप में लिखते हुए कहा कि..... 

"देव आनंद एक सेकंड के लिए भी परदे पर पुलिस इंस्पेक्टर की तरह दिखने में विफल रहे "

 बाज़ी-(1951) के बारे में उन्होंने लिखा .... 

"अगर आप निर्देशक (गुरु दत्त) और उन दो नई लड़कियों (रूपा वर्मन और कल्पना कार्तिक) द्वारा किये गए घटिया अभिनय को भूल जाते हैं तो बाज़ी को इसके खूबसूरत सीन के लिए देखा जा सकता है"

देवदास (1955) में उन्होंने वैजयंतीमाला को इस भूमिका के लिए भावनात्मक रूप से खराब माना वैजयंतीमाला ने इस फिल्म में अपनी पहली नाटकीय भूमिका निभाई थी जिसमें उन्होंने चंद्रमुखी नामक तवायफ का रोल किया था 

बाद में ग्रेट शोमेन ऑफ़ इंडियन सिनेमा कहलाने वाले राजकपूर को भी उन्होंने नहीं बक्शा उनकी फिल्म श्री 420-(1955) को भ्रम की एक दयनीय कृति बता डाला जो एक खाली बर्तन की तरह सिर्फ शोर मचाती है और एक अधपका ज्ञान घृणित तरीके से फैला रहा है वो यही नहीं रुके आखिर में लिखा ...... 

"शोर और रोष से भरी हुई एक मूर्ख द्वारा कही गई कहानी जिसका कोई मतलब नहीं है " अपनी फिल्म की ऐसी समीक्षा सुन राजकपूर को जरूर गुस्सा आया होगा

इसी तरह फिल्म आवाज़ (1956) में उन्होंने राजेंद्र कुमार के बारे में कहा कि...... 

 ''वो परदे पर बेवकूफ़ दिखते हैं और बेवकूफ़ी से पेश आते हैं कारण ? वह बेवकूफ़ दिखते हैं क्योंकि वह दिलीप कुमार की तरह दिखने की कोशिश करते हैं और दिलीप कुमार की तरह पेश आने की कोशिश करते हैं''

गुरुदत्त फिल्म्स की 'कागज के फूल -(1959)' जो आज एक कल्ट फिल्म मानी जाती है उसके बारे में लिखा

''यह एक निराशाजनक, असंगत, अंतिम संस्कार वाली फिल्म है,जिसके बारे में शायद ही कोई और उल्लेखनीय बात हो सिवाय इसके कि यह सिनेमास्कोप में बनाई गई पहली भारतीय फिल्म है''

सबसे ज्यादा अभद्र कमेंट्स उन्होंने व्ही शांताराम की फिल्म के लिए किया था उन्होंने नवरंग-(1959) को एक रंगहीन फिल्म बताते हुए लिखा कि''यह एक ऐसी कहानी कहती है जिसका कोई विषय नहीं है अपनी समीक्षा के समापन में उन्होंने 'नवरंग' को " एक वृद्ध आत्मा का मानसिक हस्तमैथुन!" तक बता दिया जाहिर है हिंदी और मराठी फिल्मो के नट सम्राट कहे जाने वाले व्ही शांताराम के ऐसे शर्मनाक शब्दों का प्रयोग अनुचित था बाबूराव इससे बच सकते थे 

ऐसा नहीं की फिल्मइण्डिया मैगज़ीन के बाबूराव के निशाने पर सिर्फ हीरो या निर्माता थे फिल्म इंडिया में अभिनेत्रियों के शरीर को लेकर भी बारीकी से कमेंट्स किये जाते थे जिसे आज 'बॉडी शेम 'कहा जाता है

उन्होंने नूरजहाँ के बारे में लिखा कि उनका चेहरा किसी वृद्ध महिला की तरह दिखता है क्योंकि उन्होंने दो विश्व युद्ध देखे थे ,सुरैया को हिंदी स्क्रीन की बदसूरत बत्तख कहा जिसकी नाक घिनौनी है ,कल्पना कार्तिक को बड़े शर्मनाक तरीके से कबूतर-छाती वाली नायिका लिखा और माला सिन्हा को तो  'आलू चेहरा' बता दिया लेकिन ऐसा भी नहीं था वो सभी एक्ट्रेस की आलोचना करते थे मधुबाला को "भारतीय स्क्रीन की वीनस" के रूप में संदर्भित करने वाले पहले व्यक्ति बाबूराव ही थे 

लेकिन तमाम तरह के विवादों के बावजूद इस पत्रिका फिल्मइण्डिया को "कुलीन पाठक वर्ग" बेहद पसंद करता था जिसमें कॉलेज जाने वाले युवा भी शामिल थे सेंट स्टीफंस या एलफिंस्टन के कॉलेज जाने वाले बच्चों के लिए 'फिल्मइंडिया' रखना फैशन था वे इसे गर्व से सार्वजनिक रूप से कॉलेज की किताबो के साथ लेकर चलते थे फिल्मइण्डिया पत्रिका को अपने हाथ में लेकर चलना एक स्टेटस सिंबल हुआ करता था देव आनंद ने एक बार पत्रिका के बारे में कहा था कि..... 

लाहौर में कॉलेज के दिनों में, "कैंपस में लड़के अपनी पाठ्यपुस्तकों के साथ फिल्मइंडिया की प्रतियां भी रखते थे यह उनकी बाइबिल की तरह थी "

बाबूराव पटेल की राजनीति में भी रुचि थी उन्होंने बॉम्बे क्रॉनिकल के ख्वाजा अहमद अब्बास के साथ मिलकर 1938 में “भारत विरोधी” फिल्मों के खिलाफ एक राष्ट्रव्यापी अभियान चलाया जिसमें द ड्रम (1938) और गंगादीन (1939) जैसी “साम्राज्यवादी फिल्में” शामिल थीं जिसने “नस्लीय रूप से हीन” और “कमजोर” उपनिवेशित विषयों की साम्राज्यवादी रूढ़ियों को मजबूत किया बाबूराव फिल्मो के साथ साथ अब राजनीति पर भी लिखने लगे और 'फिल्मइंडिया' धीरे-धीरे अपना लक्ष्य भूल एक राजनीतिक प्रकाशन बन गई जुलाई 1960 में बाबूराव ने घोषणा की कि ''चूंकि उनकी पत्रिका अब केवल फिल्म-संबंधी सामग्री से संबंधित नहीं रह गई है इसलिए इसका नाम बदलने की आवश्यकता होगी'' राष्ट्रवाद और राजनीति में पटेल की रुचि ने उन्हें एक "राष्ट्रीय पत्रिका" शुरू करने के लिए प्रेरित किया इसके ठीक दो महीने बाद 'मदरइंडिया' पत्रिका का जन्म हुआ 

लेकिन पटेल के लिए एक साथ दो पत्रिकाओं को चलाना मुश्किल लगा तो उन्होंने पुरानी फ़िल्मइंडिया को बंद करने और नई नई मदरइंडिया पर ध्यान केंद्रित करने का निर्णय लिया उसके बाद समय बदला टाइम्स ग्रुप जैसे बड़े मीडिया घरानों ने फिल्म पत्रकारिता के बाज़ार पर कब्ज़ा करना शुरू किया एक अन्य फ़िल्मी मैगज़ीन 'फिल्मफेयर' के प्रसार और प्रभाव में वृद्धि देखी जबकि फिल्मइंडिया में निरंतर गिरावट आई बाबूराव पटेल की 'फिल्मइंडिया 'धीरे-धीरे अप्रासंगिक हो गई और अंततः बंद हो गई फिल्मइण्डिया पत्रिका 1961 तक प्रकाशित होती रही इसके बाद फ़िल्मइंडिया का प्रकाशन बंद हो गया लेकिन बाबूराव पटेल की राजनैतिक महत्वकांक्षा हिलोरे मारती रही उन्होंने चुनाव लड़े,हारे और जीते और अंततः संसद के सदस्य बन गए समय बीतने के साथ उनकी राजनीतिक निष्ठाएं बदलती रहीं वो राजनीति के मोह में अपनी पार्टियाँ बदलते रहे लेकिन किसी भी चीज ने उनके विचारों को प्रसारित करने के शौक को कम नहीं किया चाहे वह कितना भी पक्षपातपूर्ण क्यों न हो बाबूराव पटेल 1957 का लोकसभा चुनाव हार गए लेकिन दस साल बाद 1967 में मध्य प्रदेश के शाजापुर से जनसंघ के उम्मीदवार के रूप में लोकसभा के लिए चुने गए थे और सांसद (कार्यकाल 1967-1971) बन गए हालांकि 1975 में लगने वाले अघोषित आपातकाल ने उनकी चमक को कम कर दिया और 1982 में उनकी मृत्यु हो गई 1982 में बाबूराव की मृत्यु के बाद भी उनकी पत्नी सुशीला ने 1985 में इसकी 50वीं वर्षगांठ तक 'मदरइंडिया का प्रकाशन जारी रखा था 

फिल्मइंडिया पत्रिका के.आसिफ की ऐतिहासिक फिल्म 'मुगले ए आजम' के बनने के 10 साल के सफर की साक्षी रही है

फिल्मइंडिया उन दिनों एकमात्र पत्रिका थी जिसकी बिक्री की गिनती होती थी बॉम्बे के आलावा इसके कलकत्ता और लंदन में भी इसके कार्यालय थे फ़िल्म इंडिया पत्रिका पश्चिमी देशों में भी बिकती थी बाबूराव पटेल की लेखनी के खौफ का तो आलम ही मत पूछो मशहूर फिल्म वितरक बाबूराव की समीक्षा पढ़ने के बाद प्रिंट की डिलीवरी नहीं लेते थे लेकिन इसका दर्शकों पर कभी कोई असर नहीं पड़ा देव आनंद ने एक बार कहा था  "जब मैं पहली बार फिल्मों में ब्रेक की तलाश में बॉम्बे आया था, तो मेरे भीतर कहीं न कहीं उस आदमी से मिलने और इस जादूगर को देखने की इच्छा छिपी थी, जो मेरे लिए भारतीय फिल्म उद्योग का मतलब था बाबूराव पटेल ने कई सितारों को बनाया और बिगाड़ा उस समय उनके पास इतनी शक्ति थी कि उन्होंने अपनी कलम के जादू से एक झटके में किसी फिल्म को स्थापित या नष्ट कर दिया "


आज भी उस दौर के पाठको और सिनेमा प्रेमियों ने बाबूराव पटेल की 'फिल्मइण्डिया' और 'मदरइण्डिया' की प्रतियो को एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ की तरह सँभाल कर रखा हुआ है और बड़े गर्व से सोशल मिडिया पर उसकी तस्वीरें शेयर करते है आज पैसे के लिए खबरों को बेचने वाले दौर में आपकों बाबूराव जैसे कठोर ह्रदय फिल्म समीक्षक नहीं मिल सकते जो किसी भी स्टार के रुतबे और स्टेट्स की एक किनारे रख सिर्फ अपने पाठको के लिए बेबाकी से निडर हो लिखते थे 
फिल्मों और राजनीति से जुड़े बाबू राव पटेल भारत की पहली फिल्म पत्रिका 'फिल्मइंडिया' के संपादक और प्रकाशक होने के साथ साथ अच्छे लेखक भी थे उन्होंने द रोज़री एंड द लैंप (1966), गिरनार प्रकाशन ,बर्निंग वर्ड्स: 1947 से 1956 तक नेहरू के शासन के नौ वर्षों का आलोचनात्मक इतिहास (1956), सुमति प्रकाशन ,ग्रे डस्ट (1949) सुमति प्रकाशन ,ए ब्लूप्रिंट ऑफ़ अवर डिफेंस (1962), सुमति प्रकाशन जैसी  किताबे भी लिखी थी  

फिल्मइण्डिया अपने समय की सबसे लोकप्रिय फिल्म पत्रिका थी, जिसे वर्तमान मुद्दों पर अपने साहसिक रुख और लेखन की शानदार शैली के लिए व्यापक रूप से सराहा जाता था ऐसा कहा जाता था कि बाबूराव के लिखे कॉलम ने कइयों के करियर बनाए और बिगाड़े भी उनकी "तीखी समीक्षाएँ" निर्माता और निर्देशकों को बुरे सपने की तरह डराती थीं  फिल्मइण्डिया 1935 से 1961 तक प्रकाशित रही उसके बाद में मदरइण्डिया 1961 से 1985 तक छपती रही इन दोनों मैगज़ीन्स के माध्यम से लगभग पचास सालो तक देश राजनीति और फिल्म इंडस्ट्रीज़ में बाबूराव पटेल का दबदबा रहा और वो देश की संसद तक जा पहुंचे लेकिन फिर समय बदला इसके बाद फ़िल्म फ़ेयर भारत की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका बन गई है और इसके द्वारा प्रायोजित फिल्म फेयर अवॉर्ड्स आज भी अपना विशेष महत्त्व रखते है लेकिन फिर भी भारत का आरंभिक फ़िल्मी इतिहास जानने के इच्छुक लोगो के लिए बाबूराव पटेल की फ़िल्मी पत्रिका 'फिल्म इंडिया' आज भी एक महत्वपूर्ण स्रोत्र है आजके डिजिटल युग में भी फिल्मइंडिया की प्रसांगिकता हुई बनी है और शायद हमेशा रहेगी 


No comments:

Post a Comment