अनमोल घडी (1946) |
हर दौर का प्रतिनिधित्व करती कुछ फिल्मे और गीत होते हैं उन गीतों और
फिल्मो से उस बीते दौर को याद किया जाता हर एक दशक में बस थोड़े बदलाव आ जाते हैं
अपने समय का प्रतिनिधित्व करने वाली एक ऐसी ही फिल्म है मेहबूब खान की
"अनमोल घडी " ....1946 में देश अंग्रेज़ो से मिलने वाली आज़ादी के उगते नए सूरज का
इंतज़ार कर रहा था देश के विभाजन की आहट भी सुनी जा रही थी ये आहट लाहौर से लेकर दिल्ली तक थी फिल्म उद्योग भी इसे लेकर संशय में था इसी वर्ष
प्रदर्शित हुई डॉ.कोटनिस की अमर कहानी ,नीचा नगर ,और धरती के लाल से भारत
के हिंदी सिनेमा की पहचान विदेशो तक भी जा पहुंची ऐसे में एक साधारण कहानी
को लेकर 11 नवम्बर 1946 को अनमोल घडी रिलीज़ होती है और जो सिर्फ संगीत के दम पर भारतीय जनमानस के ह्रदय पर छाने के साथ साथ बॉक्स ऑफिस को भी मालामाल कर देती है अनमोल घड़ी ने सिनेमाघरों में तहलका मचा दिया था अनमोल घडी
महबूब की एक सफल फिल्म थी जिसने 1946 में लगभग एक करोड़ का बॉक्स ऑफिस आंकड़ा
छुआ अनिल विश्वास के संगीत से अलग महबूब की तलाश भी 1946 में 'अनमोल
घड़ी' में नौशाद के आगमन के साथ पूरी हुई अनमोल घडी के गाने उस समय खूब चले
थे और आज भी ये गीत युवा लगते है अगर ये कहें कि 1946 में प्रदर्शित
'अनमोल घड़ी' का सबसे प्रबल पक्ष इसका गीत-संगीत ही था तो अतिश्योक्ति नहीं
होगी क्योंकि बतौर कथा पक्ष इसमें वही अमीर-गरीब और ऊँच-नीच का पुराना राग
अलापा गया था निस्संदेह अपनी असफल होती फिल्मो के बीच 'अनमोल घड़ी' की
कारोबारी सफलता और आवाम के बीच बेहद लोकप्रियता ने महबूब को राहत दी हलाकि
इस फिल्म का विषय भी महबूब ने अपनी पिछली फिल्मो की तरह प्रेम त्रिकोण ही रखा था फिल्म के शुरू में
बचपन के एक सीन में नूरजहाँ एक हाथ घडी सुरेंदर को देती है बतौर अपने प्यार की
निशानी ये घडी फिल्म के अंत तक अभिनेता सुरेंदर के पास रहती है इसी घडी
के पहचाने जाने पर ही फिल्म के अंत में दोनों का मिलन होता है इसलिए फिल्म
का नाम 'अनमोल घडी ' है
फिल्म की कहानी चंदर और लता के बचपन के प्यार से शुरू होती है चंदर और
लता जहांहानाबाद में रहते है और दोनों अच्छे दोस्त है लता एक अमीर परिवार
की बेटी थीं जबकि चंदर एक गरीब, विधवा मां (लीला मिश्रा ) का बेटा है लता
के पिता डिप्टी साहेब (मुराद ) को चंदर और लता का साथ पसंद नहीं था लता का
परिवार बंबई स्थानांतरित हो जाता चन्दर का प्यार बिछुड़ जाता है जाते समय
लता चंदर को स्मृति चिन्ह के रूप में अपने पिता से मिली एक जेब घड़ी उपहार
में देती है और इसे यादगार के तौर पर हमेशा अपने पास रखने को कहती है
समय करवट लेता है दोनों जवान होते हैं चन्दर (सुरेंदर ) अपने बचपन के
प्यार लता ( नूरजहां ) को नहीं भूलता उसकी अनमोल घड़ी की टिक टिक उसके दिल
के साथ धड़कती है चन्दर अपने प्यार को खोजने के लिए बंबई आ जाता
है चंदर का एक अमीर मित्र प्रकाश (जुहूर राजा ) चंदर के लिए एक दुकान खुलवा
देता ताकि चन्द्र संगीत वाद्ययंत्रों की मरम्मत करके अपनी आजीविका कमा सके
प्रकाश की मां ( आमिर बानो ) चन्दर के लिए प्रकाश द्वारा की गई फ़िज़ूल
खर्ची को पसंद नहीं करती बावजूद इसके फिर भी दोनों एक दूसरे पर जान देते है
लता बम्बई में ही रहकर "रेणू" उर्फ "रेणुका देवी" के उपनाम के तहत
उपन्यास लिखती है जिस को पढ़ कर चन्द्र उसका दीवाना बन जाता है लेकिन उसे
पता नहीं की रेणुका देवी" ही उसकी लता है बसंती (सुरैया ) लता की
सहेली है अपने एक उपन्यास में रेणु अपने बचपन के प्यार को घटना क्रम बना एक
कहानी के रूप में लिखती है जिसे पढ़कर चन्दर चौंक जाता है और रेणु (लता) को
एक पत्र लिखता है कि वह इस कहानी को कैसे जानती है ? एक नाटकीय घटनाक्रम
में पत्रों की अदला बदली से बसंती खुद ही चंदर से एकतरफा प्यार करने लगती
है घड़ी को देखकर लता चन्दर को पहचान लेती है और चंदर भी लता को पहचान
जाता है लेकिन अपने प्यार को टूटता देख बसंती को चोट लगती है वो लता
को इसका दोषी मानती है वो समझती है की लता को सब पता था और वो अपनी
मोहब्बत का इम्तहान ले कर उसे परख रही थी बसंती रेणु से कहती है वो
की चंदर के साथ प्यार करती थी फिर भी उसे नहीं बताया कि चंदर वही आदमी हैं
जिससे खुद रेणु प्यार करती है लता बंसती को लाख समझती है कि वह स्वयं नहीं
जानती थी की चन्दर ही उसके बचपन का प्यार है
इधर चन्दर पर व्रजपात तब होता है जब उसका मित्र प्रकाश रेणु का परिचय अपनी
मंगेतर के रूप में करवाता है अब एक तरफ उसका दोस्त है जिसने उसके
ऊपर बेशुमार एहसान किये है और दूसरी तरफ उसके बचपन की मोहब्बत....
एक तरफ दोस्ती और एक तरफ प्यार उसे दोनों में से एक को चुनना है
चन्दर अपनों दोस्ती के लिए अपना प्यार कुर्बान कर देता है और अपनी माँ के साथ जहांहानाबाद वापिस लौट जाता है अंत में चन्दर अपने दोस्त के विवाह पर अपने प्यार की निशानी वो अनमोल घडी उसकी होने वाली पत्नी रेणु को तोहफे में दे कर हमेशा के लिए चला जाता है लेकिन लता उसे कहती है ..."मेरे आधे गम तुमे भी लेने पड़ेगे " और चन्दर को बसंती को अपनाने को कहती है फिल्म का अंत होता है
एक तरफ दोस्ती और एक तरफ प्यार उसे दोनों में से एक को चुनना है
चन्दर अपनों दोस्ती के लिए अपना प्यार कुर्बान कर देता है और अपनी माँ के साथ जहांहानाबाद वापिस लौट जाता है अंत में चन्दर अपने दोस्त के विवाह पर अपने प्यार की निशानी वो अनमोल घडी उसकी होने वाली पत्नी रेणु को तोहफे में दे कर हमेशा के लिए चला जाता है लेकिन लता उसे कहती है ..."मेरे आधे गम तुमे भी लेने पड़ेगे " और चन्दर को बसंती को अपनाने को कहती है फिल्म का अंत होता है
अभिनय में भी नूरजहाँ, सुरैया और सुरेंद्र, तीनों अपनी गायकी (और
खूबसूरती!) से प्रभावित करते हैं तीनो ही कलाकारों ने अभिनय के साथ साथ इस
फिल्म में गाने भी गाये इन तीनों के गाए गीतों ने एकबारगी समूचे हिंदुस्तान
में तहलका मचा दिया। लोग आवाज के जादू की डोर से बंधे बार-बार सिनेमाघरों
में वापस लौटते दिखे ये सदाबहार गीत नूरजहाँ के करियर में मील का पत्थर
है..अनमोल घड़ी ' (1946) में नौशाद अली और नूरजहां जो करिश्मा कर गए वह अन्य
किसी गायिका के साथ पहले या बाद में नहीं हुआ. नूरजहां के गाये गाने
बार-बार सुन कर भी हर बार एक नयी ताज़गी का एहसास कराते है आजा मेरी बर्बाद मुहब्बत के सहारे-' 'जवाँ है मुहब्बत हँसी है जमाना' - 'आवाज दे
कहाँ है दुनिया मेरी जवाँ है' - 'सोचा था क्या-क्या हो गया'- 'मेरे बचपन के
साथ मुझे भूल न जाना'- "क्यूँ याद आ रहे हैं गुजरे हुए जमाने ","तेरा
खिलौना टूटा ".....एक एक गीत में लोगों की गुनगुनाहटों में शामिल होने की
जैसे होड़ लगी हो। 'आवाज़ दे कहाँ है ' गाना बॉलीवुड के शीर्ष पांच गीतों
में से एक है इस गीत को 1947 के विभाजन का सामना करने वाले लोगों के बीच
दर्द का प्रतीक माना गया था नूरजहां जब पाकिस्तान चली तो उनके दीवाने इस
गीत को सुनने के बाद कई साल रोते रहे अनमोल घडी के गाने आज भी शिद्दत के साथ लाहौर और पुरानी दिल्ली की गलियों से सुने जा सकते है इन 12 गानो में सिर्फ एक गाना 'तेरा
खिलौना टूटा बालक' ही रफ़ी साहेब की आवाज़ में है
सुरेंदर ,सुरैया ,नूरजहाँ ,जहूर राजा ,मुराद ,लीला मिश्रा के अभिनय से सजी
अनमोल घडी भारतीय सिनेमा की भी अनमोल धरोहर है तनवीर नकवी के लिखे गीत और
नौशाद का दिलकश संगीत की वजह से ही अनमोल घडी.आज तक दुनिया के सिने दर्शको
के लिए अनमोल है बाद में इस फिल्म की कहानी को केंद्र में रख कर कर तमिल
फिल्म 'थिथिकुधे (2003) ' कन्नड़ में 'मनसेला नीने (2002) 'और फिर बंगाली में
'मनेर मज़े तुमी (2003) ' आदि भी बनी लेकिन अनमोल घडी की सफलता कोई भी नहीं दोहरा पाया अच्छा होता की इस फिल्म जो डिजिटली रिस्टोर करके दुबारा कलर में रिलीज़ किया जाता
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