बंदिनी (1963 ) फ़िल्म बिमल रॉय द्वारा निर्देशित अंतिम फ़िल्म थी लेकिन
गीतकार के रूप में इसे गुलज़ार साहेब की पहली फ़िल्म माना जाता है लेकिन
वास्तव में हकीकत कुछ और ही है जिसे आज बताना जरुरी है........ गुलज़ार जी
ने कभी इस बात का खंडन नहीं किया कि बंदिनी उनकी पहली फ़िल्म थी माना जाता
है कि गुलज़ार साहेब का लिखा पहला गीत साल 1963 में बनी फ़िल्म बंदिनी का
‘मोरा गोरा अंग लई ले’ है और इस बात से गुलज़ार भी इंकार नहीं करते सवाल
ये है कि साल 1960 में बनी फ़िल्मों ‘दिलेर हसीना’, ‘चोरों की बारात’ और
‘श्रीमान सत्यवादी’ के अपने गीतों का ज़िक्र गुलज़ार साहेब क्यों नहीं करते
जो उन्होंने गुलज़ार ‘दीनवी’ के नाम से लिखे थे ?
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दरअसल गुलज़ार साहेब का असली नाम सम्पूरण सिंह कालरा है और गुलज़ार उनका
फ़िल्मी नाम है उनका जन्म पाकिस्तान के झेलम ज़िले में दीना नाम के उनके
पुश्तैनी गांव में हुआ था ”दीना” की तर्ज पर ही उन्होंने गुलज़ार के आगे
तख़ल्लुस ‘दीनवी’ जोड़ा साल 1960 में ही बनी फ़िल्म ‘दिलेर हसीना’ में भी
गुलज़ार ने 3 गीत लिखे थे उसी साल उन्होंने फ़िल्म ‘श्रीमान सत्यवादी’ में
4 गीत लिखे थे... साल 1961 में रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘काबुलीवाला’ में उन्होंने
तख़ल्लुस “दीनवी” हटाकर पहली बार सिर्फ़ ‘गुलज़ार’ के नाम से गीत लिखा था,
‘गंगा आए कहां से गंगा जाए कहां रे’...
तो फिर गुलज़ार अपने ही लिखे इन
8-9 गीतों को अपना मानने से आख़िर इंकार क्यों करते हैं? वैसे तो इस बात
का जवाब वो ही बेहतर दे सकते हैं लेकिन लगता ये है कि गुलज़ार सिर्फ इसलिए
इन गीतों को अपना कहने से बचते हैं, क्योंकि ‘चोरों की बारात’ और ‘दिलेर
हसीना’ दोनों ही बी-सी ग्रेड की स्टंट फ़िल्में थीं...हालांकि ‘श्रीमान
सत्यवादी’ के हीरो राज कपूर थे और इस फ़िल्म के गीत भी हिट थे लेकिन यहां
आड़े आ गया तख़ल्लुस ‘दीनवी’...
अगर गुलज़ार साहब गुलज़ार ‘दीनवी’ के नाम
से लिखे गए फ़िल्म ‘श्रीमान सत्यवादी’ के गीतों को अपना मान लें, तो फिर वो
सी ग्रेड फ़िल्मों ‘चोरों की बारात’ और ‘दिलेर हसीना’ से पीछा नहीं छुड़ा
सकते क्योंकि वो गीत भी उन्होंने गुलज़ार ‘दीनवी’ के नाम से लिखे हैं उधर बिमल रॉय जैसे ए-ग्रेड फ़िल्मकार की फ़िल्म से करियर शुरू करने का एक
अलग ही प्रभाव होता है शायद इसीलिए गुलज़ार साहब बिमल रॉय की फ़िल्म
‘बंदिनी’ (1963) के गीत को अपना पहला गीत कहते हैं जबकि ‘क़ाबुलीवाला’
(1961) भी बिमल रॉय की ही फ़िल्म थी उसके गीत से गुलज़ार साहेब को क्यों
परहेज़ है , ? गुलज़ार साहेब ने बिमल दा की इन फ़िल्मों में एक-एक गीत लिखा- काबुलीवाल (1961) ,प्रेमपत्र (1961) और बंदिनी (1963)
ये तमाम फ़िल्में और इनके गीत श्री हरमंदिर सिंह हमराज़ के लिखे ‘हिंदी फ़िल्म
गीत कोष’ में दर्ज हैं उधर ‘श्रीमान सत्यवादी’ के तो रेकॉर्ड और सीडीज़
भी बाज़ार में मौजूद हैं जिन पर गुलज़ार ‘दीनवी’ साहब का नाम बख़ूबी देखा जा
सकता है साल 1960 में बनी फिल्म ‘चोरों की बारात’ में उन्होंने गीत लिखा
था, ‘जाने और अनजाने आज कहीं दीवाने घूमने निकले’...इस फ़िल्म में नक़्श
लायलपुरी साहब का भी एक गीत था और नक़्श साहब एक इंटरव्यू में इस बात की
तस्दीक कर चुके हैं कि गुलज़ार साहेब ही गुलज़ार 'दीनवी 'थे......
बंदिनी ने ठीक ठाक व्यवसाय किया था फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों में इसे उस वर्ष
छ: पुरस्कारों से नवाज़ा गया था जिसमें सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार
भी शामिल था यह फ़िल्म एक नारी प्रधान फ़िल्म है, जो कि हिन्दी फ़िल्मों
में कम ही देखने को मिलती है .'सुजाता' (1959) के बाद बिमल रॉय की यह
दूसरी नारी प्रधान फ़िल्म थी बंदिनी की कहानी कल्यानी (नूतन) के इर्द-गिर्द
घूमती है यह शायद अकेली ऐसी फ़िल्म है जिसमें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम
में गांव की साधारण महिलाओं का योगदान दर्शाया गया था यह फ़िल्म
बिमल रॉय द्वारा निर्देशित अंतिम फ़िल्म थी लेकिन गीतकार के रूप में यह
गुलज़ार की पहली हिट फ़िल्म थी
धर्मेंदर और नूतन |
गुलज़ार साहेब के फिल्मी गीतकार बनने की कहानी बिमल दा की बंदिनी (1963) से
हुई थी .'बंदिनी' के गीत लिखने को लेकर गुलज़ार साहेब के सामने कम
मुसीबते नहीं थी क्योंकि उनको बिमल दा , सचिन देव बर्मन , आर डी बर्मन ,
तीनो को राजी करना था .गुलजार गीत लिखकर बिमल राय के पास गए बिमल दा ने
उनसे कहा कि ....."आप सचिन दा के पास जाइए."....गुलजार के लिए यह दूसरी
समस्या थी पहली टली तो अब दूसरी समस्या आ गई...
जब गुलज़ार साहेब सचिन दा के पास गए सचिन दा ने वह धुन सुनाई, जो उन्होंने
कंपोज की थी यह सचिन दा से गुलज़ार की पहली मुलाकात थी, न सिर्फ सचिन दा से,
बल्कि पंचम यानी आर डी बर्मन के साथ भी .तब आर डी बर्मन अपने पिता के
असिस्टेंट हुआ करते थे और रिकॉर्डिग स्टूडियो में ही जमे रहते थे उसी धुन पर गुलज़ार को गीत लिखने का काम दिया गया था और उन्होंने लिखा
'मोरा गोरा रंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे..' उन्हें इस गीत को पूरा
करने में एक हफ्ता लग गया वास्तव में उन्होंने यह गीत बहुत जल्दी लिख लिया
था, लेकिन इसे तराशने में एक हफ्ता लग गया जब उन्होंने सचिन दा को वह गीत
सुनाया, तो उन्हें गीत बहुत पसंद आया वे हिंदी अच्छी तरह से नहीं जानते थे,
गीत साधारण हिंदी में लिखा था, सो उन्हें इसके बोल के कारण समझने में कोई
परेशानी नहीं हुई जब उन्होंने इस गीत के लिए स्वीकृति दे दी, तब गुलज़ार ने
उत्साहित हो कर कहा कि 'अब मैं इस गीत को बिमल दा को सुना दूँ ?......' . सचिन
दा ने गुलज़ार से पूछा,. 'क्या आप गा सकते हैं ?' ......'नहीं मेरा
टैलेंट सिर्फ लिखने तक ही सीमित है गुलज़ार ने जवाब दिया तब सचिन
दा ने गुलज़ार को बिमल दा के पास जाने से यह कहकर मना कर दिया,..... 'तुम
उनको अच्छा से गाना नहीं सुनाएगा और इस वजह से हमारा अच्छा टयून रिजेक्ट हो
जाएगा।'
नूतन , फिल्म बंधनी के दृश्य में |
गुलजार सचिन दा की विनम्रता के कायल हो गए इतने बड़े संगीतकार वास्तव में
इस बात को लेकर डरे हुए हैं कि उनकी टयून रिजेक्ट हो सकती है, लेकिन ऐसा
हुआ नहीं सचिन दा की चिंता व्यर्थ साबित हुई बिमल दा ने गुलजार से
गीत सुना और उन्हें बहुत पसंद आया उन्हें खासतौर पर पंक्तियों की यह
कल्पना बहुत पसंद आई, 'बदरी हटा के चंदा, चुपके से झांके चंदा, तोहे राहू
लागे बैरी, मुसकाए जी जलाइ के..' लेकिन एक समस्या थी बिमल दा की वे फिल्म
की हीरोइन (नूतन ) को आउटडोर में गीत गवाने में सहज महसूस नहीं कर रहे थे
नूतन का रात को घर से बाहर गाना उन्हें जँच नहीं रहा था उनकी राय में
सभ्य लड़कियां रात को घर से बाहर गलियों में नहीं निकलतीं हालांकि
सचिन दा की समझ में ये सब बातें नहीं आ रही थीं वे तो बस इस बात पर अटल थे
कि गाना तो आउटडोर ही फिल्माया जाना चाहिए, क्योंकि उन्होंने उसी के
मुताबिक संगीत तैयार किया था मामला अटका रहा, ........तभी
बिमल दा के एक असिस्टेंट ने उठकर कहा, ......'बिमल दा, नायिका अपने पिता के
साथ रहती है वह उनके सामने नाच-गाना कैसे कर सकती है?'..... बस,
सचिन दा उस बच्चे की तरह खुश होकर ताली बजाने लगे, जिसे अपनी पसंद की
चॉकलेट मिल जाती है और वे चिल्ला उठे, .........'अब तो वो बाहर जाएगी ही..'
फिर आखिरकार बिमल दा को उसी तरह ही सीन रखना पड़ा जिन लोगों ने फिल्म देखी
होगी, उन्हें वह सीन और गीत याद होगा और उन्हें ये भी याद होगा की कैसे
नायिका को घर से बाहर जाने की सिचुएशन रखी गई
सचिन देव बर्मन अपने पुत्र राहुल देव बर्मन के साथ |
गुलजार कहते हैं कि ..."ठीक इसी तरह का मजेदार दृश्य था वह भी, जब
दो समझदार लोग छोटी-सी बात पर बच्चों की तरह इतनी बहस कर रहे थे और
एक-दूसरे को चिढ़ा भी रहे थे, कि हीरोइन नूतन घर से बाहर जाएगी या नहीं ?..
इस लड़ाई में बच्चों की सी मासूमियत थी, जो फिल्म की बेहतरी के लिए थी
मैंने अपनी जिंदगी में इतने सारे लोगों के साथ काम किया है, लेकिन उस तरह
की बहसबाजी कभी नहीं देखी, जो मैंने इन दोनों के बीच देखी।'
ये गीत
फिल्म बंदिनी में शामिल होना गुलजार जैसे न्यूकमर के लिए यह बहुत बड़ा मौका था
दुर्भाग्यवश, यह पहला और आखिरी मौका था जब उन्होंने सचिन दा के साथ काम
किया इसके बाद जल्द ही सचिन दा और शैलेंद्र के बीच सुलह भी हो गई और फिर
उन्होंने गुलजार जैसे नए गीतकार के साथ काम करने से इनकार कर दिया सचिन दा ने कहा कि अन्य गाने शैलेंद्र लिख देंगे इससे बिमल दा
व शैलेंद्र को जरूर बहुत ज्यादा शर्मिंदगी हुई और बाद में इसके लिए
उन्होंने माफी भी मांगी, लेकिन इन सब बातों को लेकर गुलजार के मन में कोई
मैल नहीं था गुजलार ने शैलेंद्र जी से कहा, ........"ये आपकी कुर्सी है,
मैंने आपके लिए संभाली थी, अब आप आ गए हैं तो आप ही इसे संभालिए.."
इतनी बात होने के बाद भी इन तीनों में से किसी को भी अपने काम को लेकर किसी तरह की कोई असुरक्षा की भावना नहीं थी, बल्कि सभी एक-दूसरे के काम की बहुत सराहना करते थे बिमल दा को गुलजार के बारे में सोचकर बहुत खराब लगा था उन्होंने एक पिता की तरह उनके बारे में सोचा और कहा,..... 'यह गैरेज तुम्हारे लायक जगह नहीं है। तुम्हें अब हमारी यूनिट में शामिल हो जाना चाहिए।' ....लगभग उन्ही दिनों वे बलराज साहनी को लेकर फिल्म 'काबुलीवाला' की शूटिंग भी कर रहे थे गुलजार ने उनकी बात को समझा और फिर उनके असिस्टेंट बन गए काबुलीवाला का एक गाना "गंगा आये कहाँ से " लिखने का अवसर भी गुलज़ार को मिला लेकिन गीतकार के रूप में उनका नाम प्रचारित नहीं हुआ क्योंकि काबुलीवाला बॉक्स ऑफिस पर कामयाब नहीं रही बाद में गुलज़ार साहेब के मशहूर होने के बाद इस गाने के साथ गुलज़ार का नाम लिया जाने लगा इस प्रकार गुलजार नाम से उनकी जिंदगी का नया अध्याय शुरू हुआ और इस शुरुआत की वजह बनी फिल्म बंदिनी का एक गीत 'मोरा गोरा रंग लई ले..'जिसे अभिनेत्री नूतन पर फिल्माया गया ............
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विशेष साभार - श्री कृष्ण शिशिर शर्मा जी
फ़िल्मी इतिहासकार और ब्लॉगर - 'बीते हुए दिन'
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