दिल्लगी-(1978) |
1978 में बासु चटर्जी की एक फिल्म आई थी 'दिल्लगी' हीरो स्वर्णकमल ( धर्मेन्द्र ) और हिरोइन फूलरेणू ( हेमा मालिनी ) एक ही स्कूल में प्रोफेसर हैं स्वर्णकमल की इस कॉलेज में पोस्टिंग नई है वो संस्कृत के प्रोफ़ेसर है वह हर वक्त अभिज्ञानम शाकुंतलम के रस में भीगे रहते है और फूलरेणू में कालिदास की शकुंतला देखते है फूलरेणू केमेस्ट्री की प्रोफ़ेसर है और वह इतनी रूखी कि है छात्राएं उसे 'कॉर्बन डाइऑक्साइड 'कहती हैं और स्वर्णमल को प्यार से 'जीजाजी' ... दोनों का स्वभाव एक दूसरे के विपरीत है फिर भी प्रणय तो होता है फिल्म बिना किसी फूहड़ता और अश्लीलता के प्रेम के साथ हास्य उत्पन करती है स्वर्णकमल फूल रेणु से एक तरफ़ा प्यार करते है लेकिन स्वर्णकमल कॉलेज की छात्राओं को कालिदास की शुकन्तला जिस रोमांटिक ढंग से पढ़ाते है उस पर फूलरेणू को एतराज़ है वो स्वर्णकमल को कॉलेज में अनुशासन में रह कर पढ़ाने को कहती है..... होली की छुट्टियों में फूलरेणु का भाई रमेश (असरानी ) और मां ( उर्मिला भट्ट ) उसकी शादी का विज्ञापन अख़बार में देते है उसमे बाद जो जो घटनाएं होती हैं वह बहुत ही मजेदार हैं जिससे हास्य रस उत्त्पन होता है
बिमलकर के बंगाली उपन्यास ‘Chemistry O Kahaani’ पर बासु चटर्जी ने एक 'मिष्टी प्रेमेर गल्प 'बनाया हालाँकि इसे हृषिकेश मुखर्जी की 'चुपके चुपके '(1975) जितनी प्रसिद्धि तो नहीं मिली लेकिन अभिनय और प्रस्तुति में वह चुपके चुपके से कहीं भी कमतर नहीं बहरहाल, एक खडूस केमिस्ट्री टीचर और प्रेम रस में डूबे संस्कृत के प्रोफ़ेसर के बीच रूठने मनाने,और कुछ गलतफहमियों के बाद फिल्म के अंत में सुखद मिलन को कॉमेडी के तड़के के साथ बासु चटर्जी ने बहुत ख़ूबसूरती से प्रस्तुत किया है वैसे तो फिल्म में ज्यादा गाने नहीं है लेकिन राजेश रोशन ने उत्तम श्रेणी का संगीत दिया है इस फिल्म में एक और खासियत भी थी की धरम जी और हेमाजी एक साथ चश्मा नहीं पहनते जब एक उतरता था तब दूसरा पहनता था ......आगे की घटनाएं देखना मजेदार और रचनात्मक हैं। स्वर्णकमल इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि फूल रेनू उन्हें बार बार खारिज करती है ये बासु चटर्जी द्वारा निर्देशित सबसे अच्छी कॉमेडीज में से एक है। पिया का घर, छोटी सी बात , रजनीगंधा , बातो बातो में जैसी अन्य फिल्मों के विपरीत, दिल्लगी में हल्का और हास्यास्पद थीम है।फिल्म और इसके संगीत का ज्यादा प्रचारित न करना बॉक्स ऑफिस पर फिल्म के औसत प्रदर्शन के कारणों में से एक हो सकता है। जबकि यह अजीब बात है कि बासु चटर्जी की फिल्मों में संगीत हमेशा एक मजबूत पक्ष रहा है वी.एन मायेकर का संपादन भी कमजोर था फिल्म की रफ़्तार धीमी है लेकिन बासु चटर्जी का निर्देशन फिल्म कुछ हद तक बचा पाने में सफल रहा
लता मंगेशकर ,किशोर कुमार ,सुमन कल्याणपुर ,नितिन मुकेश के मधुर स्वर में ' बादल तो आये' ,'मैं कौन का गीत सुनाऊ' ,'कर गई मुझे दीवाना' ,'रंगरेजवा रंग दे ,'प्रेम है मन की मधुर भावना' आज भी सुने जाते है 'रंगरेजवा रंग दे चुनरी हमार ' होली का संग्रहणीय गीत है धर्मेंद्र प्रशंसक होने के नाते मुझे लगता है कि यह उनकी सर्वश्रेष्ठ फिल्मो में से एक है उन्होंने अपनी HE MAN छवि के विपरीत जा कर दिल्लगी में अभिनय करने का जोखिम उठाया धर्मेन्द्र के दोस्त एडवोकेट शेखर की संक्षिप्त भूमिका में शत्रुध्न सिन्हा चौंकाते है असरानी ,देवेन वर्मा ,प्रीति गांगुली ,केश्टो मुखर्जी ,गूफी पेंटल फिल्म में हास्य का रस बरक़रार रखते है हालाँकि ये काम अकेले स्वर्णकमल भी बखूबी करते है बासु चटर्जी ऐसी रचनात्मक घटनाओं के बारे में सोचने के मामले में एक अद्भुत निर्देशक हैं बासु दा ने इस कहानी को एक बहुत ही मजेदार और प्रफुल्लित तरीके से बताया है यही कारण है की इस फिल्म को बार-बार देखने पर भी बोरियत नहीं होती फिल्म दिल्लगी अच्छा मनोरंजन करती है आजकल ऐसी फिल्मो का अभाव खलता है आजकल तो बस फिल्मो में हास्य के नाम पर अश्लील फूहड़ कॉमिडी परोसी जाती है जिसको देख कर हँसने की बजाय रोना आता है ऐसे में बासु दा की 'दिल्लगी' एक ठन्डे हवा के झोंके की तरह है दुर्भाग्य से यह फिल्म धर्मेन्द्र हेमा मालिनी की अन्य फिल्मों की तुलना में ज्यादा लोकप्रिय नहीं हुई क्योंकि न तो इसमें हेमा मालिनी की ड्रीम गर्ल वाली छवि थी और न ही धर्मेन्द्र की HE MAN वाली..... इसलिए शायद फिल्म ने साधारण व्यवसाय किया था लेकिन धर्मेन्द्र को साधारण सफ़ेद कुर्ते पाजामे में उच्च स्तरीय संस्कृत बोलते हुए दर्शक आश्चर्यचकित होते है वही टूटे हुए चश्मे के साथ उनकी लड़ाई उन्हें हँसने पर मजबूर कर देती है यदि आप सरल ,आनन्ददायक पारिवारिक फिल्म की तलाश कर रहे हैं जिसको आप अपने मित्रों और माता-पिता के साथ देख सकते हो तो यह फिल्म बेहिचक 'दिल्लगी ' हो सकती है जब आप फिल्म देखते हैं तो ये बात आप समझ भी जाएंगे
बिमलकर के बंगाली उपन्यास ‘Chemistry O Kahaani’ पर बासु चटर्जी ने एक 'मिष्टी प्रेमेर गल्प 'बनाया हालाँकि इसे हृषिकेश मुखर्जी की 'चुपके चुपके '(1975) जितनी प्रसिद्धि तो नहीं मिली लेकिन अभिनय और प्रस्तुति में वह चुपके चुपके से कहीं भी कमतर नहीं बहरहाल, एक खडूस केमिस्ट्री टीचर और प्रेम रस में डूबे संस्कृत के प्रोफ़ेसर के बीच रूठने मनाने,और कुछ गलतफहमियों के बाद फिल्म के अंत में सुखद मिलन को कॉमेडी के तड़के के साथ बासु चटर्जी ने बहुत ख़ूबसूरती से प्रस्तुत किया है वैसे तो फिल्म में ज्यादा गाने नहीं है लेकिन राजेश रोशन ने उत्तम श्रेणी का संगीत दिया है इस फिल्म में एक और खासियत भी थी की धरम जी और हेमाजी एक साथ चश्मा नहीं पहनते जब एक उतरता था तब दूसरा पहनता था ......आगे की घटनाएं देखना मजेदार और रचनात्मक हैं। स्वर्णकमल इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि फूल रेनू उन्हें बार बार खारिज करती है ये बासु चटर्जी द्वारा निर्देशित सबसे अच्छी कॉमेडीज में से एक है। पिया का घर, छोटी सी बात , रजनीगंधा , बातो बातो में जैसी अन्य फिल्मों के विपरीत, दिल्लगी में हल्का और हास्यास्पद थीम है।फिल्म और इसके संगीत का ज्यादा प्रचारित न करना बॉक्स ऑफिस पर फिल्म के औसत प्रदर्शन के कारणों में से एक हो सकता है। जबकि यह अजीब बात है कि बासु चटर्जी की फिल्मों में संगीत हमेशा एक मजबूत पक्ष रहा है वी.एन मायेकर का संपादन भी कमजोर था फिल्म की रफ़्तार धीमी है लेकिन बासु चटर्जी का निर्देशन फिल्म कुछ हद तक बचा पाने में सफल रहा
लता मंगेशकर ,किशोर कुमार ,सुमन कल्याणपुर ,नितिन मुकेश के मधुर स्वर में ' बादल तो आये' ,'मैं कौन का गीत सुनाऊ' ,'कर गई मुझे दीवाना' ,'रंगरेजवा रंग दे ,'प्रेम है मन की मधुर भावना' आज भी सुने जाते है 'रंगरेजवा रंग दे चुनरी हमार ' होली का संग्रहणीय गीत है धर्मेंद्र प्रशंसक होने के नाते मुझे लगता है कि यह उनकी सर्वश्रेष्ठ फिल्मो में से एक है उन्होंने अपनी HE MAN छवि के विपरीत जा कर दिल्लगी में अभिनय करने का जोखिम उठाया धर्मेन्द्र के दोस्त एडवोकेट शेखर की संक्षिप्त भूमिका में शत्रुध्न सिन्हा चौंकाते है असरानी ,देवेन वर्मा ,प्रीति गांगुली ,केश्टो मुखर्जी ,गूफी पेंटल फिल्म में हास्य का रस बरक़रार रखते है हालाँकि ये काम अकेले स्वर्णकमल भी बखूबी करते है बासु चटर्जी ऐसी रचनात्मक घटनाओं के बारे में सोचने के मामले में एक अद्भुत निर्देशक हैं बासु दा ने इस कहानी को एक बहुत ही मजेदार और प्रफुल्लित तरीके से बताया है यही कारण है की इस फिल्म को बार-बार देखने पर भी बोरियत नहीं होती फिल्म दिल्लगी अच्छा मनोरंजन करती है आजकल ऐसी फिल्मो का अभाव खलता है आजकल तो बस फिल्मो में हास्य के नाम पर अश्लील फूहड़ कॉमिडी परोसी जाती है जिसको देख कर हँसने की बजाय रोना आता है ऐसे में बासु दा की 'दिल्लगी' एक ठन्डे हवा के झोंके की तरह है दुर्भाग्य से यह फिल्म धर्मेन्द्र हेमा मालिनी की अन्य फिल्मों की तुलना में ज्यादा लोकप्रिय नहीं हुई क्योंकि न तो इसमें हेमा मालिनी की ड्रीम गर्ल वाली छवि थी और न ही धर्मेन्द्र की HE MAN वाली..... इसलिए शायद फिल्म ने साधारण व्यवसाय किया था लेकिन धर्मेन्द्र को साधारण सफ़ेद कुर्ते पाजामे में उच्च स्तरीय संस्कृत बोलते हुए दर्शक आश्चर्यचकित होते है वही टूटे हुए चश्मे के साथ उनकी लड़ाई उन्हें हँसने पर मजबूर कर देती है यदि आप सरल ,आनन्ददायक पारिवारिक फिल्म की तलाश कर रहे हैं जिसको आप अपने मित्रों और माता-पिता के साथ देख सकते हो तो यह फिल्म बेहिचक 'दिल्लगी ' हो सकती है जब आप फिल्म देखते हैं तो ये बात आप समझ भी जाएंगे
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