Friday, March 16, 2018

अंगूर (1982) ...गुलज़ार के खट्टे मीठे अंगूरों से तैयार शेक्सिपीअर की बोतल में बंद पुरानी शराब

अंगूर (1982)
सत्तर के दशक में गुलजार निर्देशक के रूप में बेहद सक्रिय रहे लेकिन अस्सी के दशक से उनका फिल्मे बनाना कम हो गया दरअसल अस्सी के दशक के आते आते हिंदी फिल्मों का स्तर बहुत गिर गया दर्शकों की रूचि बिगड़ गई लिहाजा निर्माता लीक से हटकर बनने वाली फिल्मों पर पैसा लगाने में हिचकने लगे और परदे पर हिंसा और अश्लीलता का बोलबाला हो गया लेकिन जब निर्माता जय सिंह ने उनकी कहानी पर विश्वास कर 'अंगूर ' का निर्देशन सौंपा तो गंभीर और संजीदा फिल्मे बनाने के लिए मशहूर गुलज़ार साहेब ने अपनी अद्भुत लेखकीय, निर्देशकीय और हास्य बोध की प्रतिभा के मिश्रण की सहायता से अपने  'अंगूरों के बाग ' से शुद्ध हास्य की ऐसी तीखी शराब तैयार की इसको चखने वाले का सुरूर में आना लाजिमी था और ऐसा हुआ भी गुलज़ार ने अपनी इस फिल्म का  नाम रखा – अंगूर (1982 ) ...... गुलज़ार ने अंगूरों से बनी अपनी इस शराब की बोतल पर लेबल विश्व प्रसिद्ध लेखक ' विलियम शेक्सपियर ' का ही लगा रहने दिया क्योंकि इस फिल्म का मूल कथानक करीब सवा चार सदी पहले विश्व प्रसिद्ध लेखक विलियम शेक्सपियर की रचना 'Comedy of Errors' पर आधारित था शेक्सपीयर के मशहूर नाटक 'कॉमेडी ऑफ एरर्स ' पर भारत में कई फिल्में बनी हैं लोग कहते है की गुलजार ने शेक्सपियर के नाटक 'कॉमिडी ऑफ एरर्स' को उठाकर बखूबी हिंदुस्तानी लिबास पहना दिया है लेकिन मेरा मानना है की 1968 में बिमल रॉय के प्रोडक्शन में बनी किशोर कुमार और असित सेन की 'दो दूनी चार' में उन्होंने अपनी लेखनी का जो योगदान दिया था उसी विषय पर उनकी समझ और पकड़ अंगूर के रुप में अपनी परिणति पर पहुँचती है ' दो दूनी चार 'की कहानी भी गुलज़ार ने ही लिखी थी और अंगूर बनाते वक्त कही न कही ये कहानी उनके जेहन में जरूर रही होगी कुछ लोग इसे 1963 में आई बंगाली भाषा की कॉमेडी फिल्म 'भृंगीबाल ' की रीमेक भी कहते है जो ईश्वर चंद्र विद्यासागर के बंगाली उपन्यास पर पर आधारित है लेकिन ये भी सच्चाई है की 'भृंगीबाल '(1963 ) और दो दूनी चार (1968 ) दोनों ही फिल्मे स्वयं शेक्सपियर के नाटक 'द कॉमेडी ऑफ एरर्स ' पर ही आधारित है क्योंकि शेक्सपियर की रचना 'द कॉमेडी ऑफ एरर्स ' इन दोनों फिल्मो से पुरानी है इन 'द कॉमेडी ऑफ एरर्स ' पर बनी फिल्मो से गुलजार निर्देशित 'अंगूर ' सर्वोत्तम मानी जाती है। जिसका नशा आज भी सर चढ़कर बोलता है


रंगमंच और सिनेमा का इतिहास इस बात का गवाह है कि कॉमेडी दो धाराओं में समांतर रूप से प्रवाहित होती रही है। कॉमेडी की पहली धारा में चुटीले संवाद और उनके बहुअर्थी होने पर दर्शक अपने अंदाज में मंद-मंद मुस्कुराता है। दूसरी धारा में कलाकार अपनी बॉडी लैंग्वेज के जरिये दर्शकों को हंसाने की कोशिश करता है। अब यह कलाकार की योग्यता पर निर्भर है कि वह फूहड़ हरकतें करता है या फिर चेहरे की अभिव्यक्ति से संवाद का तालमेल कर हास्य उत्पन्न करता है। इस बात का मूल सारांश आप को गुलज़ार की अंगूर देख कर भली भांति समझ आ जायेगा भारत की इस बेहतरीन कॉमेडी फिल्म में संजीव कुमार और देवेन वर्मा दोहरी भूमिकाओं में हैं, इस डबल  रोल का डबल मजा ‘अंगूर’ में दर्शकों ने खूब लिया। सभी पात्र निर्दोष हैं और उनका भाग्य उनको एक जगह लाने में मुख्य भूमिका निभाता हैं इसके लिए पात्र किसी भी तरह की नाटकीय घटनाओं का सहारा नहीं लेते और ,न जानबूझकर दूसरों को बेवकूफ़ बनाने के लिए झूठे वक्तव्य देते है, फिल्म में कोई खलनायक नहीं है, फिल्म में किसी भी तरह की लड़ाई या मार धाड़ के दृश्य भी नहीं हैं इसलिए 'अंगूर' को फिल्म आलोचक दिलो दिमाग पर बहुत प्रभावी असर छोड़ने वाली एक प्रभावशाली फिल्म मानते है गुलज़ार ने इस कहानी में हास्य को इस तरह से भांजा है कि फिल्म दर्शक के दिल को अंदर तक छू जाती है और हास्य प्रसंगों से भरी इस कथा में भी उन्होंने जीवन के अन्य रसों का भी भरपूर समावेश किया है और छोटे छोटे गुदगुदाने वाले प्रसंग दर्शक के साथ चुहलाबाजी करते जाते हैं गुलज़ार साब ने निर्देशक के तौर पर केवल एक ही ऐसी फिल्म बनायी है जो पूर्ण रूप से कॉमेडी फिल्म है और उनका इकलौता प्रयास हिंदी सिनेमा को एक अनूठी कल्ट हास्य फिल्म दे गया जिसे देखकर हास्य स्वतः ही दर्शक के अंदर से उमड़ने लगता है और हँसी उसकी नसों  में रक्त्त का प्रवाह बढ़ा देती है


फिल्म की शुरुआत वॉइस ओवर से होती है जो शेक्सपियर का परिचय देते हुए ईमानदारी से बताती है अंगूर की कहानी उन्ही की सोच का नतीजा है  ........सेठ राजतिलक ( उप्पल दत्त ) और उनकी धर्म पत्नी (शम्मी ) की नोक झोंक से फिल्म शुरू होती है दोनों अपने नवजात जुड़वाँ बच्चो के साथ बाहर घूमने जा रहे है लेकिन एक को पानी के जहाज़ के सफर से डर लगता है तो दूसरे को हवाई यात्रा से उनके जुड़वाँ बच्चो के नाम 'बड़ा अशोक 'और 'छोटा अशोक ' है सफर के दौरान एक सराय में उन्हें दो जुड़वाँ बच्चे और मिलते है जिन्हे उनकी माँ लावारिस छोड़ कर चली गई है सेठ राजतिलक उन्हें भी अपना लेते है पहला हास्य यही उत्त्पन होता है जब उनसे पूछा जाता है की अब इन लावारिस मिले बच्चो का नाम क्या होगा ? तो सेठ राजतिलक कहते है .....'' इन बच्चो की नेपाली आँखे कितनी सुन्दर है बच्चे आँखों से तो बड़े बहादुर लग रहे है इनका नाम 'छोटा बहादुर 'और 'बड़ा बहादुर 'होगा ......लेकिन सफर के दौरान दुर्भाग्य से उनका जहाज़ तूफान में फँस कर डूब जाता है किसी गंगाशरण के द्वारा बड़े अशोक और एक बहादुर को बचा लिया जाता जो आगे जा कर बड़े अशोक के ससुर बनते है और अपनी बेटी सुधा की शादी उनसे करवा देते है


फिल्म सीधा बिना किसी लाग लपेट के अगले दृश्य पर आ जाती है जुड़वा बच्चों के खोने के कई साल बाद उनके वयस्क होने के बाद रचे गये पहले ही सीन से ऐसा मजेदार लेकिन विश्वसनीय माहौल रचने में गुलज़ार सफल रहते है। इस दृश्य में अशोक ( संजीव कुमार ) अपनी पत्नी सुधा ( मौसमी चटर्जी ) और सुधा की छोटी बहन तनु ( दीप्ती नवल ) के साथ अपने घर में ताश खेलने में व्यस्त है। तीनों पात्रों का आपस में सम्बंध व वार्तालाप बहुत ही प्रभावी ढ़ंग से न केवल तीनों चरित्रों की प्रवृत्ति फिल्म की प्रकृत्ति को भी जता देते हैं।अशोक के यह कहने पर कि..... '' पिताजी मरने से पहले एक दिन जिंदा थे,'' यह बात साबित हो जाती है कि किस तरह का हास्य फिल्म दर्शकों के सामने आने वाला है एक अशोक शादीशुदा हैं और दूसरे कुंवारे हैं ......शादीशुदा अशोक कुछ संजीदा किस्म के हैं और उन्हे गुस्सा जल्दी आ जाता है .........कुंवारे अशोक को जासूसी उपन्यास पढ़ने का जबरदस्त शौक है और उन्हें हर जगह सिर्फ किसी गैंग की साजिश ही दिखती है .........शादीशुदा अशोक को नसवार सूँघने की आदत है तो कुंवारे अशोक को भौंहों को उमेठते रहने की। ..........एक जैसी शक्ल के अलावा दोनों अशोक एक और बात में समानता रखते हैं और वह है उन दोनों के ही अंदर मालिक होने के भाव होना। दोनों बहादुर बचपन से ही दोनों अशोकों के साथ ही पले बड़े हुये हैं परंतु दोनों अशोक दोनों बहादुरों को पूरी ईमानदारी से अपने नौकर ही समझते हैं और उन्हे अपने बराबर नहीं समझते सो इस बात का पता लगाया जाना थोड़ा मुश्किल है कि कौन सा अशोक किस बहादुर के साथ है। ?


फिल्म दोनों अशोक ( संजीव कुमार ) और दोनों बहादुर ( देवेन वर्मा ) की भूमिकाओं के बीच मामूली अंतर रखती है। यह अंतर न केवल दोनों भूमिकाओं के सोचने में है बल्कि उनके व्यवहार में भी दिखता है। लेकिन गुलज़ार साहेब दोनों बहादुरों के व्यवहारों में फर्क रखते हैं। एक बहादुर अपने मालिक अशोक को कभी कभी हड़का भी देता है और माँजी से शिकायत करने की धमकी दे देता है। दूसरा बहादुर भावुक किस्म का है और वह अपने मालिक अशोक से काफी डरता है। वह अशोक की पत्नी सुधा से अपनी बड़ी बहन की तरह लगाव रखता है और उसके दुःख से दुःखी  हो जाता है। सुधा भी अपने वाले बहादुर को घर के सदस्य की तरह ही मानती है। सुधा के पिता गंगाशरण ने ही अशोक और बहादुर की परवरिश की है। यह बहादुर भी शादीशुदा है और उसकी पत्नी का नाम प्रेमा ( अरुणा ईरानी ) है। फिल्म में तड़का तब लगता है कुंवारा अशोक और उसका बहादुर दूसरे शहर से उस जगह आ जाते हैं जहाँ शादीशुदा अशोक अपनी पत्नी सुधा और साली तनु के साथ पहले से रहता है। हमशक्लों के दो जोड़ों के एक ही शहर में एक ही साथ उपस्थित होने से कैसी अफरा-तफरी मचती है वही सब अंगूर की जबरदस्त विषयवस्तु है।..............शादीशुदा अशोक को हीरो जड़ा हार अपनी पत्नी सुधा को देना है और हार पँहुच जाता है कुंवारे अशोक के पास जो कि जासूसी संसार के काल्पनिक लोक में विचरण करने वाला व्यक्त्ति है वो इस शहर में अंगूरों का बाग़ ठेके पर लेने के लिए आया है और उन्हें लगता है कि शहर में कोई गैंग है जो उसके एक लाख रुपयों के पीछे पीछे पड़ा हुआ है जिसे वो अंगूरों के बाग को खरीदने के लिये अपने साथ लाये है। इस जेम्स बॉन्ड अशोक पर जासूसी किताबों का इतना असर है कि जब स्टेशन से बाहर निकलते समय टिकट चैकर उसे शादीशुदा स्थानीय अशोक समझ कर बात करता है तो कुँवारा अशोक उससे जाते जाते घूरते हुए कह जाता है ...'' बड़े चालू आदमी हो ''....


गुलज़ार यहाँ फिल्म को एक अशोक से दूसरे अशोक पर जम्प कट्स के द्वारा कूद फाँद कराते रहते हैं दर्शक तो हमशक्ल चरित्रों की खास आदतों को कुछ क्षणों बाद पहचान लेते हैं परंतु फिल्म के अन्य चरित्र तो जुड़वा हमशक्ल चरित्रों के अस्तित्व से अनभिज्ञ हैं इसलिए वो परेशान होते रहते हैं और गलतियाँ करते रहते हैं। अशोक की पत्नी सुधा, साली तनु, शहर के पुलिस ऑफिसर ( कर्नल कपूर ) हार बनाने वाला ज्वैलर छेदीलाल ( सी.एस दूबे ) और उसकी दुकान पर काम करने वाला कर्मचारी मंसूर ( युनूस परवेज़ ) हीरे आदि की कंटाई आदि करने वाला मुलाजिम गणेशीलाल ( टी.पी जैन ) आदि सभी हमशक्लों की जोड़ियों की अदलाबदली से परेशान हो जाते हैं। जिसे वह समझते हैं कि वह उनका परिचित है कभी वह वही होता है और कभी दूसरा वाला होता है और वो दूसरे वाला बेचारा जो कि इन सब लोगों की बातो से अंजान है परेशान होता रहता है उस शहर की पूरी व्यवस्था उलट पुलट हो जाती है।

शक्ल सूरत की एक समानता से मचे घमासान में गलतफहमियाँ उत्पन्न होनी स्वाभाविक हैं और सही पहचान की गफलतों के कारण बेचारे कुंवारे अशोक को सुधा के घर उसके पति के रुप में ले जाया जाता है और पीछे पीछे उसका बहादुर भी पहुँच जाता है यहाँ दोनों बहादुर शादीशुदा और कुंवारे अशोकों के बीच घनचक्कर बन घूमता रहता हैं क्योंकि उसे उन्हे तो पता नहीं है कि उनके अशोक कभी बदल जाते हैं और कभी मूल रुप में रहते हैं वे तो इस बात से परेशान होते रहते हैं कि उनके वाले अशोक का व्यवहार इतना बदला हुआ कैसे है ? एक बहादुर को लगता है की उनके मालिक अशोक पागल हो गए है ?.......... इन घटनाओं से घबराया कुंवारा जेम्स ब्रांड टाइप अशोक इस कदर चौकन्ना रहता है कि उसे अपने आस पास हर वक्त किसी गैंग के आदमी ही नजर आते है यहाँ तक की टैक्सी ड्राइवर ( राम मोहन ) के यह पूछने पर कि ..... " वे लोग कहाँ जायेंगे, " वह झट उल्टा उसी से प्रश्न दाग देता है......''हम क्यों बतायें तुमको” ?  बहादुर के समझाने पर कि इसे तो बताना ही पड़ेगा कि हमें जाना कहाँ हैं ? वह बात को घुमाफिरा कर कहता है..."इम्पीरियल होटल चलो पर हम वहाँ ठहरने वाले नहीं हैं वहाँ से कहीं और जायेंगे ''.. यहाँ संजीव कुमार का अभिनय दर्शको को भीतर तक गुदगुदा जाता है होटल पहुँचने के बाद कुँवारे अशोक और कुँवारे बहादुर के मध्य दर्शक को ठहाका लगाकर हँसने के लिये विवश कर देने वाले सीन गुलज़ार ने रचे हैं। कुंवारे अशोक और अंगूर के बगीचे में काम करने वाले एक व्यक्त्ति के बीच के संवाद अनूठे हैं  इस सीन के बहाने गुलज़ार, इनकम टैक्स, बैंक और सरकार सभी को हास्य के लपेटे में लेकर कटाक्ष करने से नहीं चूंके


फिल्म का एक और सीन बड़ा मजेदार है जब बुरी तरह झुंझलाया शादीशुदा अशोक एक बहादुर को बाजार से रस्सी लाने भेजता है उस बहादुर से जब दुकानदार पूछता है कि ..... 'रस्सी क्यों चाहिये '? तो वह कहता है।..... "आत्महत्या के लिये "लेकिन बहादुर को रस्सी मंहगी लगती है और वह दुकान छोड़कर चला जाता है तो दुकानदार बड़बड़ाता है,....... ''साला कैसा कंजूस आदमी है जो मरते समय भी पचास पैसे बचाना चाहता है''। ठीक उसी समय दूसरा बहादुर चने खाते हुये वहाँ पहुँच जाता है और पहले बहादुर के मोलभाव से झुंझलाया हुआ दुकानदार उससे पूछ्ता है......'' एक बात बताओ, जो आदमी मरने जा रहा हो वह पचास पैसे बचा कर क्या करेगा ?'' इस बहादुर को तो कुछ पता है नहीं वो बड़ी शांति से हँसकर कहता है,.....” जब मर ही जायेगा तो पचास पैसे किस काम के ” दुकानदार कहता है,...... ' यही तो मैं कह रहा हूँ अच्छा चल तू कम पैसे ही दे दे और रस्सी ले जा ' बहादुर कहता है......'' मैं रस्सी खरीद कर आत्महत्या क्यों करूँगा ,पागल हो गया है ले चने खा '' अब दुकानदार सोच में पड़ जाता है कि जो आदमी अभी कुछ मिनट पहले मेरे से मोलभाव कर रहा था अब सस्ते दामों पर भी रस्सी खरीद कर नहीं गया। ऐसी बहुत सारी गलतफमियों के कारण गुलज़ार के चरित्र आपस में उलझे रहते हैं पर दर्शकों को भरपूर मनोरंजन और हास्य की डोज़ मिलती है। फिल्म ऐसा माहौल रचती है जिसमें दर्शक को ऐसा विश्वास सहज ही हो जाता है कि हाँ ऐसा हो सकता है और हो रहा है। आखिर में 'बाबू भाई मिस्त्री 'अपने चिरपरिचित टेक्निक से डबल रोल दिखा कर इस रहस्य से पर्दा उठाते है और शहर में मची अफरा तफरी के साथ-साथ अशोक और बहादुर के जुड़वाँ होने का राज़ जब खुलता है तो सभी चकरा जाते है अशोक को अपनी खोई हुई माँ भी मिल जाती है .........लेकिन ये राज़ अंत तक पता नहीं चलता की जहाज़ के डूबने के बाद छोटे अशोक और बहादुर को किसने बचाया और वो चारो अलग अलग कैसे हुए ? उनका पालन पोषण कैसे हुआ ? लेकिन चूंकि ये 'कॉमेडी ऑफ एरर्स ' है इसलिए ये एरर दर्शक नजरअंदाज कर जाते है गुलज़ार ने अपने निर्देशन में इस बात को संभव कर दिखाया है कि पूर्णतः काल्पनिक कथानक में ऐसी परिस्थितियाँ रचें और अपने अभिनेताओं से ऐसा नाटकीय लेकिन दर्शकों को वास्तविक अहसास देने वाला अभिनय करवायें जिससे कि दर्शकों का विश्वास फिल्म में घट रही घटनाओं के प्रति बना रहे। ऐसी विश्वसनीयता ही  'अंगूर' को हास्य-फिल्मों में एक उल्लेखनीय स्थान दिलवाती है।

 

गुलज़ार ने फिल्म में अपने लिखे सिर्फ तीन ही गाने ही रखे है ताकि फिल्म की गति में अवरोधक न बने तीनो ही गाने विपरीत स्वभाव के है जिसे आर.डी बर्मन ने संगीत बद्ध किया है आशा भोंसले का गाया  ''होंठो पे ऐसी बात आई है '' पूरी तरह गुलज़ार फ्लेवर का गाना है जिसमे वो चाँद को चबा जाने की बात करते है  ''रोज़ रोज़ डाली डाली '' शुद्ध शास्त्रीय संगीत पर आधारित है ,सपन चकर्वर्ती की आवाज में ''प्रीतम आन मिलो '' हास्य रस का गाना है फिल्म को गुलज़ार साहेब के संवाद बेहद खास बनाते है इसलिए उन संवादों के बिना 'अंगूर' फिल्म की समीक्षा अधूरी मानी जाएगी बीच बीच में गुलज़ार के संवाद इस फिल्म में हास्य की पैदावार बढ़ाने में किसी उर्वरक खाद सा काम करते है....जरा गौर फरमाए ....


'' जब मेरे पिताजी मरने से पहले एक दिन जिंदा थे,''  ...( संजीव कुमार )

'' जो कभी नहीं डाँटते वो बहुत सख्त डाँटते है ''....( देवेन वर्मा )

'' फूल ख़ूबसूरत है तो ख़ूबसूरत है ...क्यों ख़ूबसूरत है अबे हटाओ न छोड़ो न ....ख़ूबसूरत तो है '' ....( संजीव कुमार )

'' छेदी लाल जी आप सिर्फ चाबुक दिखा रहे है घोड़ा कहाँ है  ? '' ......( संजीव कुमार )

'' जिन्दगी में एक दफा दस रूपये दिए थे सात साल हो गए हिसाब मांगते मांगते ''.........( देवेन वर्मा )

''अबे मेरी जब शादी ही नहीं हुई तो ये साली ,बीबी कहाँ से आ गई ? ''......( संजीव कुमार )

''बहादुर ये मैं क्या सुन रहा हूँ तू बाप बनने वाला है ? ''........( संजीव कुमार )

''जवानी की अठखेलियाँ , बुढ़ापे के चोंचले ''......( युनूस परवेज़ )

'' जो आदमी घुटनो को जाँघे कह सकता है वो अशोक कुमार को किशोर कुमार भी कह सकता है ''......( संजीव कुमार )

'' अब भला जिन्दा आदमी क्या हिले भी नहीं  ? ''....( टी.पी जैन )

'' बाबू भगवान के लिए यहाँ से चले चलो.... टिकिट में ले आया हूँ,  दो बजे की गाड़ी है पता नहीं यहाँ इस शहर में कौन से भूत प्रेत राज करते है ''......( देवेन वर्मा )

'' इस घर में दो दो अशोक है, दो दो बहादुर है , आगे जा कर देखना दो दो माँए जी न निकल आये  ''....( मौसमी चटर्जी )

अंगूर में संजीव कुमार और देवेन वर्मा ने जुड़वा भाइयों के दो जोड़ों की भूमिकाओं में पूरी शिद्दत के साथ डबल रोल निभाकर बाकी सभी अभिनेताओं के लिये यह काम बहुत मुश्किल बना दिया है। फिल्म में गुलज़ार के मनपसंद हीरो संजीव ही है अंगूर देखने के बाद आप को लगेगा की अशोक के इस डबल रोल को उनके आलावा कोई दूसरा कर ही नहीं सकता था उनका आवाज़ बदल कर '' लाख रूपये ' और 'प्रीतम आन मिलो' और '' गैंग '' कहने का लहज़ा बढ़िया है संजीव कुमार ने वॉयस मॉडयूलेशन की इतना ज्यादा प्रयोग शायद ही किसी और फिल्म में किया होगा इस रोल के लिए उन्हें बेस्ट एक्टर के लिए नॉमिनेट किया गया था ...........देवेन वर्मा ने कई फिल्मों में यादगार भूमिकाएं निभाईं और दर्शकों को तनाव मुक्त किया। उन्होंने कॉमेडी करने के लिए अश्लीलता का कभी सहारा नहीं लिया और हमेशा अपने संवाद बोलने के अंदाज और बॉडी लैंग्वेज के जरिये दर्शकों को हंसाया। उनके परदे पर आते ही दर्शक हंसने के लिए तैयार हो जाते थे। उनका '' साहेब पागल हो गए '' कहना ही दर्शको को गुदगुदा देता है देवेन वर्मा की ख़ास बात ये है की उन्होंने ने अपने पूर्ववर्ती कॉमेडियन में से किसी की कभी भी नकल करने की कोशिश नहीं की वह अपनी अभिनय मौलिकता के लिए जाने जाते थे जो बड़े आराम से शांत रहकर बिना उछल कूद मचाये अपने चहरे के भावो द्वारा कॉमेडी करते थे इस फिल्म के लिए देवेन वर्मा को सर्वश्रेष्ठ कॉमिक अभिनेता का फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिला। ...........सहायक भूमिकाओं में दीप्ती नवल, सी.एस दूबे, टी.पी जैन, पदमा चवन ,युनूस परवेज़, कर्नल कपूर, राम मोहन, अरुणा ईरानी, शम्मी और उत्पल दत्त ( विशेष भूमिका में ) है और अपनी तरफ से फिल्म को गुणवत्ता प्रदान करते हैं। संजीव कुमार और देवेन वर्मा ने तो गजब की अदाकारी प्रस्तुत की ही है मौसमी चटर्जी भी इस फिल्म में विश्वसनीय तरीके से हास्य रचने में अपना योगदान करती हैं। हैं जिसे पति के घर छोड़ कर जाने के साथ साथ अपने नेकलेस की भी चिंता है


ये कड़वी सच्चाई है की व्यंग्य हमारे हिंदी सिनेमा का मूल स्वर कभी नहीं रहा है इसीलिए हजारों लाखो फिल्मों के लंबे इस सिनेमाई सफर में बेहतरीन कही जा सकने लायक कॉमेडी फिल्मे कम ही दिखाई देती हैं फिर भी हिंदी सिनेमा ने समय-समय पर कई अच्छी कॉमिडी दी लेकिन उनकी संख्या सिमित है कॉमिडी फिल्म की कामयाबी यही होती है है कि उसे हम अपनी जिंदगी और उसकी उलझनों के कितना करीब पाते हैं। और जो फिल्म ऐसा कर पाती है, वह हमारा दिल जीत लेती है और क्लासिक का दर्जा पाती है। 'अंगूर' फिल्म का हास्य फूहड़ अश्लील मार्का कॉमिडी की तरह लाउड नहीं है। यहां गुलज़ार का सूक्ष्म हास्य है। जिसमे संजीव कुमार और देवेन वर्मा जैसे मंझे हुए ऐक्टर अद्भुत तालमेल के साथ जैसे एक-दूसरे के पूरक बन जाते हैं। फिल्म में श्रेष्ठ हास्य उत्पन्न करने वाले दृष्यों को छाँटा जाये तो वे बहुत ज्यादा हैं। लगभग हर दस मिनट में हंसी के फव्वारे छुटवाने वाले दृष्य परदे पर आते हैं। 'अंगूर ' ऐसी शराब है जो बड़ी नफासत से लोगों को हास्य के नशे में डूबो कर प्रसन्नता का जीवन में महत्व समझा देती है। और जो हँसने खुश रहने रहने का मंत्र दे जाती है फिल्म 'अंगूर ' को कई शहरो के लाफिंग क्लब अपने सदस्यों को समय समय पर दिखाते रहते है और आप को जानकर ख़ुशी होगी की लगभग 36 साल पहले 05 मार्च 1982 को रिलीज़ हुई फिल्म 'अंगूर 'की डीवीडी की आज भी बाजार में अच्छी मांग है

आजकल रीमेक बनाने का चलन पूरे उफान पर है पुरानी फिल्मों के रीमके बना-बना कर फिल्म वाले पैसा कमा रहे हैं अब सुनने में आया है कि 'गोलमाल' सीरिज की हिट फिल्में देने के बाद रोहित शेट्टी 36 सालो बाद गुलजार की फिल्म 'अंगूर' का रीमेक बनाने जा रहे हैं  इस फिल्म में रोहित शेट्टी शाहरुख खान को संजीव कुमार की भूमिका में लेना चाहते हैं और तुषार कपूर को देवेन वर्मा की भूमिका में। करीना कपूर को मौसमी चैटर्जी के रोल के लिए अप्रोच किया गया है। अब ये सम्भावना तो भविष्य के गर्त में छिपी है कि गुलजार के निर्देशन में बनी और संजीव कुमार, मौसमी चैटर्जी और देवेन वर्मा जैसे शानदार अभिनेताओं से सजी 'अंगूर' को रोहित शेट्टी और उनकी टीम टक्कर दे पाएगी या नहीं  ? फ़िलहाल तो जुड़वा भाइयों के दो जोड़ों के जीवन पर बनी गुलज़ार की अंगूर हास्य के क्षेत्र में एक उच्च कोटि की अविस्मरणीय फिल्म मानी जाती है जो कभी भी पुरानी नहीं होगी और पुरानी शराब की तरह इसका मूल्य हमेशा बढ़ता रहेगा .....पुराने होने पर भी ये 'अंगूर' कभी भी खट्टे नहीं होंगे निसंदेह इसके लिए ''गुलज़ार साहेब '' बधाई के पात्र है

गुलज़ार

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