Tuesday, June 4, 2024

सिनेमा के परदे के पीछे हमारे मनोंरजन की कमान संभालने वाले वो 'गुमनाम हीरो '...

अगर आपने कभी किसी सिंगल स्क्रीन थियेटर में कोई फिल्म देखी हो तो आप को आज के मल्टीफ्लेक्स और सिंगल स्क्रीन थियेटर का फर्क जरूर पता होगा पहले जब कोई नई फिल्म आती थी तो शहर में महीनो पहले से ही उसके पोस्टर लगने शरू हो जाते थे जिन्हे देख मन में फिल्म देखने की इच्छा जागती थी फिल्म देखने के लिए मन उल्लासित हो जाता था फिर तय होता था कि फलां फिल्म को देखना है लेकिन घर से बकायदा इजाजत लेकर ही फिल्म देखी जाती थी सिनेमा घरों में लंबी लंबी लाइन टिकट के लिए मारा मारी,ब्लैक में टिकेट खरीदने का जुगाड़,पुलिस का डंडा ले के भीड़ को खदेड़ना .. सिनेमा हाल मे शो केस में लगे लॉबी कार्ड पोस्टर को देखना.. थियेटर में प्रवेश पाने के बाद मन बहुत आनंदित हो जाता था कुर्सी पर बैठने के बाद फिल्म शुरू होने का इंतजार रहता था सबकी नजर पूरे थियेटर में घूमकर कर परदे पर आकर रूक जाती थी फिल्म शुरू होने से पहले स्लाइड वाले विज्ञापन जहाँ उत्पादों का प्रचार करते थे वही कुछ कुछ सामाजिक विज्ञापन हमें सजग भी करते थे यह वो दौर था जब फिल्म की टिकट नहीं मिलने पर लोग पडोसी की साइकल ले जाते थे क्योंकि साइकिल पार्किंग के टोकन पर प्राथमिकता के आधार पर फ्रंट सीट की टिकट मिलना सुलभ हो जाता था

उस वक्त भीमकाय प्रोजेक्टर मशीन के माध्यम से सिनेमा हॉल में फिल्में दिखाई जाती थी लेकिन जो मजा इस प्रोजेक्टर पर फिल्म देखने का था इसके मुकाबले मे आज के डिजीटल प्रोजेक्टर एक प्रतिशत भी नहीं है टाकीज के ऊपर बॉक्स या बालकनी के ऊपर छोटा सा कमरा होता था जिसमें ऑपरेटर द्वारा यह प्रोजेक्टर मशीन चलाई जाती आमतौर पर 500 से 1200 सीट की क्षमता वाले इन सिंगल स्क्रीन थियेटर में पूरी 3 घंटे की फिल्म को ठीक ठाक दर्शको दिखाने का पूरा दारोमदार सिर्फ 'प्रोजेक्टर मेन ' पर होता जिसका कार्य सबसे कठिन होता था मामूली से वेतन में सिनेमा का प्रोजेक्टर चलाने वाले अपना काम बेहद बुरे हालातो में भी ईमानदारी से करते थे आज हम उन गुमनाम 'प्रोजेक्टर ऑपरेटर्स' की बात कर रहे है जिन्होंने अपना पूरा जीवन सिनेमा हॉल्स के प्रोजेक्टर रूम के छोटे से रूम में खपा दिया सिनेमा के परदे पर न जाने कितने बड़े बड़े सितारों का उदय और पतन इन्होने बेहद करीब से देखा होगा फिल्मो के कलाकारों की मदद के लिए के लिए तो न जाने कितनी संस्थाए काम करती है लेकिन इन 'प्रोजेक्टर ऑपरेटर्स के हालातो की सुध किसी ने नहीं ली ऐसे प्रोजेक्टर ऑपरेटर्स को लाइसेंस प्राप्त करना होता था तभी वो नौकरी कर सकता था


किसी फिल्म को सुचारु रूम से चलाने के लिए प्रोजेक्टर रूम में प्रोजेक्टर ,स्पूल ,आर्क लैम्प ,एम्पलीफायर,बैफिल ,सिनेमा स्कोप लैंस निगेटिव और पॉजिटिव, कार्बन रॉड,रिवाइंडर आवशयक उपकरण होते थे इन्हे इस्तेमाल करने के लिए प्रोजेक्टर मेन का पूर्ण रूप से दक्ष होना जरुरी होता था एक पूरी पिक्चर में कम से कम 16 फिल्म की रील रहती थी एक रील जैसे खत्म होती थी वैसे ही दूसरी मशीन में दूसरी रील चालू कर दी जाती थी बीच में फुट चैंजर होता था जब दुसरी मशीन चालू हो जाती थी परंतु सामने परदे पर पता नहीं चलता था और आपको भी अंदाजा नहीं होता कि रील बदल गई है आपको पता है जब एक शहर में एक फिल्म तीन-चार सिनेमा घरों में लगती थी तब केवल एक या दो रीलो का सैट मंगाया जाता था और यही दो सेट हर सिनेमा घर में एक रील के अंतराल में घूमते रहते थे एक सिनेमा हॉल से दूसरे सिनेमा हॉल आधे घंटे के बाद पिक्चर चालू होती थी एक सिनेमा हॉल दूसरे सिनेमा हॉल से आपसी सामंजस्य से समय निर्धारित करता था दोनों सिनेमा घर का टाइमिंग में लगभग आधे घंटे का अंतर जरूर रहता था


इस बीच एक आदमी रील के डिब्बे को यहां से वहां पहुंचाने का काम करता था 90 के दशक तक दिल्ली के चांदनी चौंक के भागीरथी प्लेस में फिल्म वितरकों के सैकड़ो ऑफिस होते थे यहाँ आप दिहाड़ी मजदूरों को तेज़ी के साथ एक सिनेमा घर से दूसरे सिनेमा घर में रील की लकड़ी की पेटिया सर पर उठाये भागते देख सकते थे क्योंकि यहाँ कुमार ,खन्ना ,अमर , जुबली ,मैजेस्टिक ,मिनर्वा जैसे छोटे छोटे आधा दर्जन सिनेमा हॉल आस -पास थे ज़ब शुक्रवार को कोई नई फ़िल्म आती थी पैसे बचाने के चक्कर में एक सिनेमा हाल से दूसरे हॉल तक भगदड़ मची होती रहती थी इसलिए ये भागम भाग वाला दृश्य वहां आसानी से दिख जाता था आमतौर पर इन रील्स की एक पेटी का वजन 20 किलो से ज्यादा होता था ये पेटी वाले जल्दी जल्दी में मुझसे कई बार चलते चलते टकराये है आमतौर पर सिनेमा प्रोजैक्टर में दो तरह की फिल्में चलाई जाती थीं 35‌ mm और 70‌‌mm इसके लिए परदे का आकार भी अलग होता था 70 mm परदे पर पूरी फिल्म आती थी लेकिन जब 70 mm के परदे पर मजबूरी में कोई 35 mm की फिल्म चलाई जाती थी तो दोनों साइड से परदा खाली रहता था 35 mm के परदे पर 70 mm फिल्म नहीं चलती थी


बड़े सिनेमा घरो में तो दो या तीन प्रोजेक्टर होते थे जिनपर रील बदल बदल कर फिल्म दिखाई जाती थी लेकिन जहाँ छोटे सिनेमा घर होते थे वहाँ एक ही प्रोजेक्टर होता था यहाँ प्रोजेक्टर चलाने वाले को ज्यादा मेहनत करनी पड़ती थी बड़ी सजगता से एक रील के ख़त्म होने पर दूसरी रील चलानी पड़ती थी ताकि दर्शको के फिल्म देखने में कोई व्यवधान न पड़े सिंगल प्रोजेक्टर मशीन में अक्सर फिल्म जरूर रूकती थी फिल्म के बीच जब रील टूट जाती तो लोग ऑपरेटर पर नाराज होते और अपशब्द भी बोल देते थे फिल्म रुकने पर सबसे ज्यादा गालियाँ सिनेमा हाल के इसी 'प्रोजेक्टर मेन 'के हिस्से आती थी कभी कभी कार्बन आ जाने से रील के आगे अँधेरा आ जाता था या रील टूट जाती थी तो पूरे सिनेमा हाल में एक ही आवाज़ आती थी ....
फिल्म काट ली ....सा.... ने ......


हममें से कभी भी किसी ने इस 'प्रोजेक्टर मेन ' के उन हालातो को नहीं देखा जिससे ये जूझते हुए यह आप का और आपके परिवार का मनोंरजन करते थे टाकीज में बॉक्स या बालकनी के ऊपर कमरा होता था जिसे''प्रोजेक्टर रूम '' कहा जाता था यही से फिल्म चलती थी इसमें मे बहुत और उमस गर्मी होती थी उस ज़माने में ऑपरेटर द्वारा जो मशीन चलाई जाती थी उन मशीन में रोशनी से पिक्चर बनाने हेतु बल्ब नहीं होता था ये मुख्यता कार्बन वाली मशीन थी कार्बन नेगिटिव पॉजिटिव के स्पार्क से रोशनी बनाता है उसमे तो कई मशीनों में कार्बन चलाने वाला मोटर नही लगा होता है इसलिए उन्हें कई बार हाथ से भी ऑपरेटिंग करना पड़ता था उस ज़माने में Ac कम हुआ करते थे इस मशीन में फिल्म चलने से आर्क लैंप की गर्मी से बुरा हाल हो जाता था गाँव देहात के छोटे सिनेमा घरो में तो हाल और भी बुरा होता था गर्मी से बेहाल ऑपरेटर कमीज निकाल कर सिर्फ बनियान पहनकर अपने काम को अंजाम देता था मध्यांतर में जब आप आराम से पॉपकॉर्न कोल्डड्रिंक्स पीते हुए कुछ देर रिलेक्स करते है तो मात्र 10 मिनट के इंटरवेल में ढेरो कमर्शियल विज्ञापनों को एक छोटे स्लाइइड प्रोजेक्टर के माध्यम से दिखाने की जिम्मेदारी भी यह ऑपरेटर्स ही निभाते है
जब आखरी शो के बाद दर्शक अपने घरो की की और रुख करते थे तब भी प्रोजेक्टर ऑपरेटर की डूयटी चालू रहती थी आखरी शो के बाद यदि अगले दिन के पहले शो में कोई 35 mm की फिल्म की जगह सिनेमा स्कोप फिल्म रिलीज़ होनी है तो ऑपरेटर को उसी रात पहले 70 mm लेंस प्रोजेक्टर में लगा कर फिल्म को चला कर परदे पर सेट करना पड़ता था ताकि दूसरे दिन पिक्चर दिखाने में कोई दिक्कत नहीं आए अक्सर किसी फिल्म की रिलीज़ से पहले या बाद में भी सिनेमा स्टाफ ,प्रेस के लिए आखरी शो के बाद भी एक स्पेशल शो रखा जाता था यहाँ भी प्रोजेक्टर ऑपरेटर को फिल्म चलाने के लिए रुकना पड़ता था तब कही जाकर उसे घर जाने की छुट्टी मिलती थी और वो अपने परिवार से मिलता था


पुराने प्रोजेक्टर में इलेक्ट्रोड जलते थे जिससे तेज चमकदार रोशनी होती थी कार्बन स्टिक बुझने ना पाए ,कार्बन स्टिक को जलाए रखना अपने आप मे एक चैलेंज हुआ करता था शायद कुछ लोग होंगे जिन्हें ये पता होगा कि जो ऑपरेटर फिल्म चलाते थे है उनकी आंखे जल्दी खराब होती है मशीन से निकलने वाली यह तेज रोशनी ऑपरेटर की आंखों पर बुरा असर डालती थी प्रोजेक्टर में शक्तिशाली प्रकाश बिम्ब बनाने के लिए कार्बन की छड़ों का प्रयोग किया गया था इन छड़ों को जलाने से काफी प्रकाश और धुआं उत्पन्न होता था जो प्रोजेक्टर से जुड़ी चिमनी तक जाता था उस छोटे से कमरे में होने वाला प्रदूषण कर्मचारी के लिएअभिशाप से कम नहीं होता था परदे पर जिस रंग बिरंगी रोशनी देखकर आप रोमांचित हो जाते थे वह रोशनी तेज़ आर्क कार्बन के जलाने से पैदा होती थी जिससे कार्बन मोनो ऑक्साइड जैसी जहरीली और खतरनाक गैस निकलती थी जो कि स्वास्थ के लिए बेहद हानिकारक होती थी मशीन चलाने वाला कर्मचारी जीवन के आखरी समय सांस की बीमारियों (दमा) से त्रस्त हो जाता था इससे बचने के लिए अधिकतर ऑपरेटर तम्बाकू या बीड़ी ,सिगरेट का उपयोग करते थे लेकिन इसका कोई मेडिकली आधार नहीं है कि तम्बाकू के सेवन से ऑपरेटर्स अपने काम से होने वाली बीमारियों से बच जाते होंगे इसलिए हम इस तर्क को नहीं मानते लेकिन यह सत्य है की इन दोनों ही परिस्तिथियों में ऑपरेटर का ही जीवन दाँव पर होता था

उस वक़्त फ़िल्म का रील नार्मल होता था फिर 90 के दशक के बाद पोलिस्टर रील आने लगी था लेकिन इनके प्रोजेक्शन से जो गर्मी और धुआँ पैदा होता था वो भी बेहद खतरनाक होता था जो तपेदिक जैसी बीमारी का प्रमुख कारण बनता था और इन मशीनों को ऑपरेट करने वाले लोगो के अंतिम दिन कष्ट से भरे होते थे यह इस मनोरंजन के पीछे एक कड़वी सच्चाई है लेकिन कभी भी इनऑपरेटर्स के लिए कोई पेंशन ,सरकारी सहायता जैसी कोई निति नहीं बनी इनकी सुध किसी ने नहीं ली आज शायद ही कोई ऐसा सिनेमाघर आस्तित्व में हो जहाँ इन पुराने प्रोजेक्टर्स से फिल्म चलती हो आज के डिजिटल ज़माने में फिल्म दिखाने की टेक्निक भी डिजिटल हो गई है आज UFO-M4 जैसी सेटेलाइट आधारित ई-सिनेमा मूवी डिलीवरी करती है यह एक ऐसा डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म है जो भारत भर के फिल्म वितरकों को फिल्मों की सैटेलाइट डिलीवरी के लिए एक एंड-टू-एंड प्लेटफॉर्म प्रदान करता है जो डिजिटल सिनेमा उपकरणों का प्रयोग कर सिनेमाघरों में फिल्म प्रदर्शित करता है लेकिन वो भी क्या दौर था वो भी क्या दिन थे ,सस्ता जमाना था कुछ ही पैसो में हम अपना 3 घंटे का मनोरंजन कर आते थे ....


बॉलीवुड की यादगार फिल्में इन्ही रीलो से जुड़ी हुई है जिसे बार बार देखने को आज भी मन करता है मुगले-ए-आजम,मधुमति,जिस देश में गंगा बहती है,आराधना,कटी पतंग,आप आए बहार आई,चलती का नाम गाड़ी,चुपके चुपके,अभिमान,जंजीर,दीवार,शोले,धर्म वीर,जय संतोषी माँ ऐसी अनगिनत फिल्मे है जो हमारी यादों से जुड़ी हुई है और इन्ही पुराने प्रोजेक्टर्स ऑपरेटर्स के आर्क लैंप से निकलकर हमारी मधुर स्मृतियों के पटल पर हमेशा के लिए छा गई लेकिन उन फिल्मों के साथ सिनेमा भी वो सब खत्म हो गया है आज सब कुछ बदल गया है ,ना तो पहले जैसी फिल्में रही ,ना ही वैसे ही दर्शक ,ना एक्टर और ना हाल में पिक्चर देखने का वो पहले जैसा उत्साह..... सेल्युलाइड फिल्मों के खत्म होने से बचपन वाला वो सिनेमा अतीत बन गया है आज के मल्टीप्लेस घर जैसे एक बड़े टीवी और होम थियटर की तरह ही है इसमें वो मजा नहीं जो 70 mm के विशाल परदे पर फिल्म देखने में आता था आज का पीवीआर,INOX सिर्फ एक बड़े टेलीविजन की तरह है और जल्द ही खत्म हो जाएगा यही कारण है आज इन मल्टीप्लेस मैं कोई फिल्म नहीं देखना चाहता मेरी कोशिश रहती है कि किसी सिंगल स्क्रीन सिनेमा में ही कोई बड़ी फिल्म देंखू लेकिन अब सिंगल थिएटर बचे ही कितने है ?...

अब वो रील और प्रोजेक्टर वाला वक़्त लौट कर नही आ सकता मोबाईल का जमाना आया और सारी खुशियां और सारी रौनक ले गया एक वो रील थी और एक reel आज मोबाइल पर है जिसमे तीन घंटे चंद लम्हों मे सिमट कर रह जाते है 6 mm ,35 mm फिर 70 mm सिनेमा स्कोप ,फयूजी कलर फिर ईसटमन कलर का जमाना आया ........, मोनो साऊंड ,फिर स्टीरियो फोनिक, फिर 7. 1 साउंड ,फिर डॉल्बी,अब एटमोस का जमाना आ गया हमारा सुनहरा परदा बड़े से छोटा भी छोटा होकर 2D ,3D ,और IMAX में बदल गया लेकिन बालकनी के पीछे से आती प्रोजेक्टर की चर चर चर चर आवाज़ की आवाज सुनकर जो सुकून मिलता था आज के मल्टीफ्लेक्स में वो नहीं ......प्रोजेक्टर्स की यही आवाज़ सुनकर हम परदे की तरफ सजग हो जाया करते थे अब फिल्म चालू होने वाली है फिर पीछे मुड़ मुड़ कर झरोखे से आती हुई रंग बदलती रोशनी को देखना किसी सम्मोहन से कम नहीं होता था


प्रोजेक्टर और सिनेमा की रंग बिरंगी रील मुझे बचपन से ही बेहद आकर्षित करती रहे है ये आकर्षण मुझे हर रविवार को दिल्ली के लाल किले के पीछे लगने वाले चोर बाजार में ले जाता था जहाँ लोहे के बने हाथ से चलने वाले छोटे छोटे प्रोजेक्टर 100 -150 रुपये में बिकते थे इनके साथ कुछ मीटर रील फ्री आती थी जो अक्सर सिनेमा हाल में चलने वाले इन्ही बड़े प्रोजेक्टर की टूटी रील के टुकड़े होते थे इन रील्स स्क्रेप के ढेर में अगर कही अपनी मनपसंद फिल्म या स्टार की रील मिल जाती थी तो ऐसा लगता था मानो कोई खजाना हाथ लग गया घर आकर कमरे में सफ़ेद चादर टाँग कर घुप्प अन्धेरा कर इस छोटे प्रोजेक्टर को चलाया जाता था जिसके पीछे एक नार्मल बल्ब लगा होता था चूँकि ये प्रोजेक्टर लोहे की टीन का बना होता था तो बल्ब वाला हिस्सा बल्ब की गर्मी से जल्दी गर्म हो जाता था और अक्सर हाथ भी जल जाता था लेकिन जब सफ़ेद चादर या दादा जी की पहने जाने वाली सफ़ेद लुंगी पर इस प्रोजेक्टर की रोशनी से निकले रंगीन चित्र बिना किसी साउंड के चलते हुए दिखते थे बड़े गर्व की अनुभूति होती थी आज की ये reel बनाने वाली जेनरेशन इस की कल्पना नहीं कर सकती ये वो असीम आनंद था जो आज के 65 इंच के 4k या HD टीवी देखने पर भी नहीं आता

वो दिन बड़े अच्छे थे पता नहीं कहाँ चले गए ?...


अब विडंबना देखिये जहाँ किसी फिल्म के निर्माता निर्देशक ,वितरक ,कलाकार ,फिल्म के संगीत और सेटेलाइट राइट खरीदने वाले करोडो अरबो कमाते है वही उनकी फिल्मो को दर्शको तक सुचारु रूप से पहुंचने वाले प्रोजेक्टर्स ऑपरेटर्स अपने मूल वेतन को भी तरसते है आज ये प्रोजेक्टर्स ऑपरेटर्स बड़ी दयनीय स्थिति में है हमें सिंगल स्क्रीन सिनेमा घरो में मनोंरजन करने वाले प्रोजेक्टर्स ऑपरेटर्स के लिए आवाज़ बुलंद करनी चाहिए और सरकार से आग्रह करना चाहिए की वो इनके लिए एक निति बनाने के साथ साथ सिंगल स्क्रीन सिनेमा घरो के सरंक्षण के लिए भी आगे आये क्योंकि ये भी हमारी धरोहर ही है अगर सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों को सरकार मनोरंजन कर में छूट दे तो भी इनको फायदा जरूर पहुंचेगा
सिंगल स्क्रीन टाकीज के प्रोजेक्टर रूम में विषम परिस्तिथियों में काम करने वाले ऑपरेटर्स को 'सुहानी यादें बीते सुनहरे दौर की' और से नमन...

सिनेमा प्रोजेक्टर्स ऑपरेटर्स के कभी भी हार न मानने वाले जज्बे को सलाम ...


'हाथी मेरे साथी - (1971)' ...........जानवर और इंसान के रिश्तों पर बनी सुपर स्टार राजेश खन्ना की सबसे कामयाब फिल्म

'हाथी मेरे साथी - (1971)'

सिने प्रेमियों ने राजेश खन्ना को रोमांटिक हीरो के रूप में बेहद पसंद किया गया ,70 दशक में उनकी आंख झपकाने और गर्दन टेढ़ी करने की अदा के लोग दीवाने हो गए थे,राजेश खन्ना द्वारा पहने गए गुरु कुर्त्ते खूब प्रसिद्ध हुए और कई लोगों ने उनके जैसे कुर्त्ते पहने,लड़कियों के बीच राजेश खन्ना बेहद लोकप्रिय थे,लड़कियों ने उन्हें खून से खत लिखे उनकी फोटो से शादी तक कर ली कुछ ने अपने हाथ या जांघ पर राजेश का नाम गुदवा लिया,उस दौर की युवा लड़कियां उनका फोटो तकिये के नीचे रखकर सोती थी स्टुडियो या किसी निर्माता के दफ्तर के बाहर राजेश खन्ना की सफेद रंग की कार रुकती थी तो लड़कियां उस कार को ही चूम लेती थी लिपिस्टिक के निशान से सफेद रंग की कार गुलाबी हो जाया करती थी उस दौर में पैदा हुए ज्यादातर लड़कों के नाम 'राजेश' रखे गए .....यह था राजेश खन्ना के स्टारडम का वो जादू जिसकी बराबरी आज भी कोई दूसरा नहीं कर पाया राजेश खन्ना जब सुपरस्टार थे तब एक कहावत बड़ी मशहूर थी 

ऊपर आका और नीचे काका। ..

1969 से 1975 के बीच राजेश ने हिंदी सिनेमा के दर्शको को कई सुपरहिट फिल्में दीं जब भी हिंदी सिनेमा की सदाबहार फिल्मों की बात की जाएगी तब राजेश खन्ना की फिल्म 'हाथी मेरे साथी 'को जरूर याद किया जाएगा 50 साल पहले 1 मई 1971 में मजदूर दिवस वाले दिन जब 'हाथी मेरे साथी 'रिलीज हुई थी तब इस ने बॉक्स ऑफिस पर तहलका मचा दिया था इसमें राजेश खन्ना और तनुजा मुख्य भूमिकाओं में थे सहायक भूमिका में डेविड ,सुजीत कुमार ,के एन सिंह ,मदनपुरी ,अभी भटाचार्य ,जूनियर महमूद और नाज थे यह फिल्म दक्षिण भारत के मशहूर फिल्म निर्माता सैंडो एमएमए चिन्नप्पा थेवर ने बनाई थी जो उनकी ही 1967 की तमिल फिल्म देइवा चेयल की रीमेक थी यह उस समय किसी दक्षिण भारतीय फिल्म निर्माता द्वारा बनाई गई सबसे सफल हिन्दी फिल्म थी जिसने दक्षिण भारतीय फिल्म निर्माताओँ के लिए हिंदी सिनेमा के दरवाजे खोले ,हाथी मेरे साथी 'न केवल 1971 की सबसे बड़ी हिट थी बल्कि यह राजेश खन्ना के करियर की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म भी थी भारत में इसकी शुद्ध आय 35 मिलियन थी और इसकी कुल घरेलू कमाई 70 मिलियन थी यह फिल्म सोवियत संघ में भी ब्लॉकबस्टर थी जहां 1974 में इसके 34.8 मिलियन सिनेमा टिकट बिके थे इस फिल्म ने सुपरस्टार राजेश खन्ना के स्टारडम को और ऊँची उड़ान दी थी ''हाथी मेरे साथी'' में ड्रामा,संगीत,अभिनय और इंसान और जानवरो की दोस्ती की शानदार कहानी थी आदमी और जानवर के बीच दिखाया गया रिश्ता पूरी तरह से सराहनीय है जो बच्चो को भी बहुत पसंद आया

फिल्म 'हाथी मेरे साथी '' की कहानी में राजू (राजेश खन्ना) अपने चार पालतू हाथियों के साथ रहता है और सड़को पर इन्ही हाथियों के करतब दिखा अपना पेट पालता है ये हाथी उसकी आजीविका का मुख्य साधन है इसी से उनकी रोजी-रोटी चलती है राजू इन्हे अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करता है क्योंकि जब वह छोटा था तो उन हाथियों ने एक रामू ने जंगली तेंदुए से उसकी जान बचाई थी उसके बाद राजू रामू और उसके तीन और दोस्तों के साथ ही रहने लगता है राजू ''प्यार की दुनिया'' नाम से एक चिड़ियाघर, शुरू करता है इसमें विभिन्न जंगली जानवर उसके हाथियों के साथ रहते हैं, इसमें वह बाघ, शेर, भालू और अपने चार हाथियों को रखता है वह सभी जानवरों को अपना दोस्त मानता है जिनमें से हाथी रामू उसके सबसे करीब है उसकी मुलाकात तनु (तनुजा) से होती है और दोनों को प्यार हो जाता हैं लेकिन तनु के अमीर पिता रतनलाल ( मदन पुरी ) उनके बेमेल प्यार का विरोध करते हैं लेकिन तनु की जिद के बाद वो उसे राजू से शादी करने की अनुमति दे देते हैं तनु जल्द ही राजू के घर में अपने को उपेक्षित महसूस करने लगती है जब वो माँ बनती तो हालात और बिगड़ जाते हैं तनु को लगता है कि राजू अपने परिवार से अधिक अपने जंगली जानवरो से प्यार करता है तनु को हमेशा यह डर लगा रहता है हाथी रामू कही उसके बच्चे को कोई नुकसान ना पहुंचा दे,उसका मानना है कि जानवर आखिर जानवर ही होता है उसका क्या भरोसा ? एक दिन तनु को गलतफहमी हो जाती है कि रामू उसके बच्चे को वास्तव में ही मारना चाहता है बस शंका का ये बीज रामू और तनु के बीच दरार पैदा कर देता है,तनु राजू को हाथी रामू और अपने परिवार में से किसी एक को चुनने को कह देती है अब राजू को अपनी पत्नी और बेटे और अपने जानवरो में से एक को छोड़ना है हाथी रामू अपने मालिक राजू और तनु को एक साथ लाने की कोशिश करता है लेकिन उसे हर बार गलत समझ लिया जाता है सरवन कुमार ( के.एन सिंह ) के कारण रामू को अपना जीवन बलिदान करना पड़ता है रामू अपनी कुर्बानी देकर दोनों को फिर से मिला देता है राजू भरे मन से अपने दोस्त रामू को अंतिम विदाई देता है


'हाथी मेरे साथी ' में लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल द्वारा संगीत और आनंद बख्शी के गीत थे एचएमवी पर इसके संगीत ने अपनी रिकॉर्डतोड़ बिक्री के लिए सिल्वर डिस्क जीता और ऐसा करने वाला वो पहला भारतीय ग्रामोफोन रिकॉर्ड बन गया ''धक धक कैसे चलती है गाड़ी धक धक", "सुनजा आ ठंडी हवा, थाम जा ए काली घटा","दिलबर जानी चली हवा मस्तानी" ,"दुनिया में रहना है तो" "चल चल मेरे साथी" "नफ़रत की दुनिया को" जैसे हिट गाने इस फिल्म में थे जिन्हे लता मंगेशकर ,किशोर कुमार ने गाया हालाँकि सभी गाने इतने रोमांटिक हैं लेकिन आखिरकार जब रामू (हाथी) मर जाता है, तो '' नफरत की दुनिया छोड़ के " गाना दिल को छू जाता है जो फिल्म में मोहम्मद रफी द्वारा गाया गया एकमात्र गीत था और ये गाना किशोर कुमार व लता मंगेशकर के गाए बाकी चारों गानों पर भारी पड़ा इस गाने के लिए गीतकार आनंद बख्शी को सोसायटी फॉर प्रिवेंशन ऑफ क्रुएल्टी टू एनिमल्स (एसपीसीए) से एक विशेष पुरस्कार भी मिला था पहले किशोर कुमार को इस गाने के लिए चुना गया था लेकिन रफ़ी साहेब ने इस गाने को बेहतरीन तरीके से गाया है जो किशोर कुमार के लिए शायद मुमकिन नहीं था 'नफरत की दुनिया को छोड़ के प्यार की दुनिया में खुश रहना मेरे यार'' ये गाना जिसने भी सुना वो सिनेमा हॉल में तो रोया ही लेकिन थिएटर के बाहर तक लोग रोते सुबकते हुए सिनेमाघरों से निकलते हुए देखे गए थे लेकिन पहले फिल्म के संगीत के लिए चिनप्पा देवर ने संगीतकार शंकर जयकिशन को साइन किया था लेकिन यह संगीतकार जोड़ी बहुत समय लेकर संगीत बनाती थे और देवर को फिल्म के गाने जल्दी चाहिए थे ताकि वे फटाफट शूटिंग पूरी कर फिल्म को रिलीज कर सकें तब उन्हें किसी ने लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का नाम सुझाया गया लेकिन यह जोड़ी तो उन दिनों शंकर जयकिशन से भी ज्यादा व्यस्त थी देवर को कही से पता चला कि लक्ष्मीकांत के बेटे का पहला जन्मदिन है वह शाम को बिना बुलाए लक्ष्मीकांत के घर पहुंच गए रास्ते में उन्होंने सुनार से सोने की कुछ गिन्नियां खरीदीं और लक्ष्मीकांत के घर पहुंचकर उस साल भर के बच्चे पर वार कर न्योछावर कर दीं और वापिस घर लौट आए कहते है इसके बाद लक्ष्मीकांत को अपनी पत्नी की जिद पर ये फिल्म करनी प़ड़ी चिनप्पा देवर ने लक्ष्मीकांत और प्यारेलाल को फिल्म के साइनिंग अमाउंट के तौर पर चांदी की प्लेट में रखकर एक एक लाख रुपये नगद दिए फिल्म के हिट होने के बाद इतनी ही रकम दोनों को और दी गई किसी हिंदी फिल्म के संगीतकार को एक फिल्म में संगीत देने के लिए मिली ये उस वक्त की सबसे बड़ी रकम बताई जाती है 

पहले साउथ के फिल्म निर्माता हिंदी फिल्मे बनाने से कतराते थे क्योंकि साउथ में हिंदी भाषा विरोधी आंदोलनों का एक इतिहास रहा है इसलिए साउथ के मशहूर फिल्म निर्माता सैंडो एम एम ए चिनप्पा देवर ने जब कोई हिंदी फिल्म को बनाने की सोची तो अपनी ही बनाई हुई बनाई फिल्म 'देइवा चेयल 'की कहानी को चुना लेकिन यह सब संयोग से ही हुआ दरअसल चिनप्पा देवर मशहूर अभिनेता और राजनीतिज्ञ एम जी रामचंद्रन की फिल्मों के निर्माता रहे हैं लेकिन जब 1969 में एमजीआर ने राजनीति में एंट्री की तो उनकी सियासी गतिविधियां एकदम से बढ़ गईं और फिल्मों से उनकी दूरी बढ़ती गई उनके पास समय का आभाव हो गया लिहाजा देवर तब बिना एमजीआर के छोटे बजट की एक फिल्म बनाने की तैयारी करने लगे एक दिन उनके पड़ोसी निर्देशक श्रीधर ने उन्हें एक हिंदी फिल्म बनाने का आइडिया दिया तो देवर के दिमाग में तुरंत अपनी ही फिल्म 'देइवा चेयल 'की रीमेक बनाने का ख्याल आया उन्होंने असली फिल्म में थोड़ी फेरबदल की और पहुंच गए अभिनेता संजीव कुमार के पास संजीव कुमार ने उनकी कहानी 'प्यार की दुनिया ' सुनी और उनसे कहा कि यह एक रोमांटिक फिल्म है और वो खुद को फिल्म के हीरो की रोमांटिक इमेज के हिसाब से उचित नहीं मानते संजीव कुमार ने चिनप्पा देवर को राजेश खन्ना को फिल्म में लेने का सुझाव दिया वो राजेश खन्ना से फिल्म 'आराधना 'की शूटिंग के दौरान उनसे मिले राजेश खन्ना को भी कहानी कुछ समझ नहीं आई लेकिन उन्होंने फिल्म करने से इंकार नहीं किया उन्होंने चिनप्पा देवर को कुछ समय देने का अनुरोध किया चिनप्पा देवर तो चेन्नई लौट गए पर राजेश खन्ना परेशान हो गए उनको कहानी पसंद नहीं आ रही थी फिल्म 'हाथी मेरे साथी 'में यही से सलीम- जावेद की एंट्री हुई राजेश खन्ना चिनप्पा देवर की फिल्म की कहानी 'प्यार की दुनिया 'लेकर सलीम खान के पास चले गए और उनसे कहा ''यार यह कहानी मेरी कुछ समझ से परे है इसमें कुछ ऐसा कर दो कि एक हिट फिल्म बन सके एडवांस पैसा अब वह लौटा नहीं सकते क्योंकि बंगला खरीदने के लिए उन्होंने वो पैसे पेशगी के तौर पर राजेंद्र कुमार को दे दिए है इसलिए उन्हें यह फिल्म हर हाल में करनी ही होगी

दरअसल उन्हीं दिनों राजेश खन्ना जुबली कुमार अभिनेता राजेंद्र कुमार को उनका कार्टर रोड स्थित बंगला 'आशीर्वाद' बेचने के लिए मना रहे थे जितनी रकम राजेंद्र कुमार ने इस बंगले की कीमत के तौर पर राजेश खन्ना से मांगी राजेश खन्ना ने वही रकम फिल्म 'हाथी मेरे साथी 'में करने के नाम पर चिनप्पा देवर से मांग ली चिनप्पा देवर ने बड़ा दिल दिखाते हुए राजेश खन्ना ने जितनी रकम मांगी उसे स्वीकार कर उन्हें कुछ एडवांस भी दे दिया राजेश खन्ना की दुविधा अब सलीम जावेद को समझ आ चुकी थी उन्होंने राजेश खन्ना की दी गई पटकथा को फिर से काम क्या और उसे शानदार तरीके से दोबारा लिखा

कुछ समय के बाद जब 'आराधना' सुपरहिट हो चुकी थी चिनप्पा देवर फिर राजेश खन्ना से मिले ये पूछने कि वो जो हाथी और हीरो वाली कहानी उन्होंने सुनाई थी और जिसका एडवांस भी वह दे चुके हैं उस पर काम कब शुरू करना है ? इस बार उन्होंने राजेश खन्ना से कहा कि फिल्म 'आराधना' के सुपरहिट होने के बाद उन्हें कितनी रकम उनको और देनी है चिनप्पा देवर को लगा कि 'आराधना 'के हिट होने के बाद राकेश खन्ना अब उनसे और पैसे मांगेगे ? लेकिन राजेश खन्ना को उनकी यह बात चुभ गई


वह बोले कि ''अगर आराधना फ्लॉप होती तो क्या मैं अपनी मार्केट प्राइस कम करने को राजी होता ? आपकी फिल्म उसी रेट पर बनेगी जिस रेट पर तय हुई थी मैं आराधना के हिट होने के बाद भी वही रकम आपसे लूंगा जो पहले तय हुई है उन्होंने चिनप्पा देवर से कुछ दिन बाद आने को कहा ताकि शूटिंग की तारीखें तय हो सकें चिनप्पा देवर राजेश खन्ना के मुरीद बन गए देवर को कहानी दिखाने के बाद फिल्म की शूटिंग शुरू हुई फिल्म हाथी मेरे साथी के निर्देशन की जिम्मेदारी एम ए थिरुमुगम को मिली जो चिनप्पा देवर के छोटे भाई थे 1970 में वाहिनी स्टूडियो में फिल्म की शूटिंग शुरू हुई फिल्म के कुछ आउटडोर सीन ऊटी में भी फिल्माए गए है
फिल्म ब्लॉकबस्टर हुई और सलीम जावेद का नाम भी पूरी इंडस्ट्री के दिल औऱ दिमाग दोनों पर छप गया इस फिल्म को जब हिंदी में लिखा गया था तब बहुत सारी चीजों को सुधारा गया था इस फिल्म का दुखद पहलू ये रहा कि फिल्म में सलीम जावेद को लेखन का पूरा क्रेडिट दिलवाने का वादा राजेश खन्ना ने सलीम खान से पहली मुलाकात में किया था लेकिन जब फिल्म रिलीज हुई तो संवाद लेखक के रूप में फिल्म में नाम इंदर राज आनंद का गया जबकि फिल्म को दोबारा लिखे जाने के बाद इसके 90 फीसदी संवाद सलीम जावेद ने लिखे थे जब फिल्म सुपरहिट हुई तो चिनप्पा देवर ने राजेश खन्ना के कहने पर मुंबई के ट्रेड अखबारों में एक इश्तहार जरूर दिया कि ये फिल्म सलीम जावेद ने लिखी है हालांकि इसमें भी दोनों के नाम गलत छपे राजेश खन्ना ने इस पूरे प्रकरण के दौरान जिस तरह से पेश आए उससे भी सलीम जावेद का दिल टूटा हाथी मेरे साथी में सलीम जावेद का नाम ओपनिंग क्रेडिट्स में स्क्रीनप्ले लिखने वालों के तौर पर आता है हालांकि दोनों की चाहत थी कि फिल्म की क्रेडिट्स में उनका नाम ‘रिटेन बाई सलीम जावेद’ के तौर पर जाए 
  


काका के करियर की सबसे बड़ी हिट फिल्मो में एक' हाथी मेरे साथी 'की शूटिंग जब मद्रास (चेन्नई) और तमिलनाडु की कई दूसरी लोकेशन्स पर चल रही थी उन इलाकों में भी राजेश खन्ना के नाम पर भारी भीड़ जमा हो जाती थी ये हैरत की बात थी क्योंकि वहां हिंदी फिल्में आमतौर पर ज्यादा नहीं चलती थीं तमिल फिल्म इंडस्ट्री खुद काफी बड़ी थी और उसके अपने मशहूर स्टार थे लेकिन राजेश खन्ना का करिश्मा ही था जिसने भाषा की सरहदों को भी पार कर गया था ये करिश्मा उन्होंने उस दौर में कर दिखाया जब न तो टेलीविजन था, न 24 घंटे का एफएम रेडियो न बड़ी-बड़ी पीआर एजेंसियां
एक साक्षात्कार में तनुजा ने कहा,
"जब उनकी बेटी काजोल छह साल की थी तब मैंने उन्हें 'हाथी मेरे साथी ' फिल्म दिखाई थी और दो सप्ताह तक काजोल ने मुझसे बात नहीं की थी वो मुझे बार बार कहती 
"मम्मी, आपने हाथी को मार डाला!" 
तुम्हारी वजह से उसे मरना पड़ा!" 
उनकी छोटी बेटी तनीषा भी ऐसा ही मानती थी तनुजा ने बताया उन्हें पहले हाथियों के साथ काम करना पसंद नहीं आया आखिर वो जानवर थे किसी को भी नुकसान पहुंचा सकते थे लेकिन कुछ शुरुआती आशंकाओं और डर के बाद वे वास्तव में हाथी मुझे पसंद करने लगे खासकर वह हाथी जिसने रामू का किरदार निभाया था फिल्म में एक एक सीक्वेंस है जहां हाथी रामू को मुझे दरवाजे के अंदर धकेलना था और उसे एक सांप से लड़ना था जो बच्चे को काटने वाला था लेकिन हाथी रामू को मुझसे इतना प्यार हो गया था कि उसने ऐसा करने से इनकार कर दिया उसका महावत आख़िरकार जब हार गया तो कैमरा मेन को हाथी, मेरी पीठ और मेरे गिरते हुए के अलग-अलग क्लोज़-अप शूट करने पड़े जिन्हे बाद में जोड़कर यह सीन पूरा किया गया "

फिल्म हाथी मेरे साथी को राजेश खन्ना ने पहले दिल्ली और आसपास के शहरों में 1 मई को रिलीज कराया फिल्म को शुरू के तीन दिनों में अच्छा रेस्पॉन्स नहीं मिला तो चिनप्पा देवर थोड़ा उदास थे इस पर राजेश खन्ना ने कहा कि आप दिल्ली आ जाओ यहां बैठकर बात करते हैं चिनप्पा देवर चेन्नई से ट्रेन से दिल्ली के लिए निकल पड़े और इधर सोमवार से फिल्म निकल पड़ी फिल्म की इतवार के बाद इतनी माउथ पब्लिसिटी हुई कि सोमवार के बाद से सारे थिएटरों में सारे शोज हाउसफुल होने लगे। फिल्म निर्माता निर्देशक शक्ति सामंत के साथ मिलकर इसके बाद राजेश खन्ना ने फिल्म वितरण कंपनी शक्ति राज ने बनाई और इसी कंपनी ने बंबई में 14 मई को इस फिल्म को शानदार तरीके से रिलीज किया फिल्म इतनी बड़ी सुपरहिट हुई कि एम जी रामचंद्रन ने चिनप्पा देवर को बुलाकर इस फिल्म को फिर से तमिल में बनाने को कहा इस फिल्म की सफलता के बाद थेवर ने 1972 में इसे फिर से तमिल में 'नल्ला नेरम' के नाम से बनाया ये फिल्म तमिल में भी ब्लॉकबस्टर रही देवर फिल्म्स की हिंदी में उनकी सबसे बड़ी हिट फिल्म रही इसके बाद उन्होंने तमाम और फिल्में बनाई



बेजुबान जानवरों को रुपहले परदे पर इतने शानदार तरीके से दिखाने का प्रयोग हिंदी सिनेमा में इससे पहले नहीं हुआ। 14 मई 1971 की गर्मियों में रिलीज़ हुई 'हाथी मेरे साथी ' को 53 वर्ष पूरे हो गए है आज भी इस सुपरहिट फिल्म में रामू का किरदार निभाने वाला हाथी हिंदी सिनेमा के दर्शको को याद है हाथी मेरे साथी 'को 1969 से 1971 के बीच राजेश खन्ना की लगातार 17 हिट फिल्मों में से एक गिना जाता है,बेजुबान जानवरों को रुपहले परदे पर इतने शानदार तरीके से दिखाने का प्रयोग हिंदी सिनेमा में इससे पहले नहीं हुआ वाहिनी स्टूडियो में 1970 में फिल्म की शूटिंग शुरू हुई फिल्म के सारे आउटडोर सीन ऊटी में फिल्माए गए राजेश खन्ना की मेहमान भूमिका वाली फिल्म 'अंदाज ' ने एक ऐसी फिल्म का रिकॉर्ड भी बनाया जिसने देश के हर फिल्म वितरण क्षेत्र में 50 लाख रुपये कमाए लेकिन फिल्म 'अंदाज' का ये रिकॉर्ड तोड़ा राजेश खन्ना की ही फिल्म 'हाथी मेरे साथी' ने तोडा दिया जिसने देश के हर वितरण क्षेत्र में एक करोड़ रुपये की कमाई करने वाली पहली फिल्म का रिकॉर्ड बनाया
बच्चों के बीच फिल्म हाथी मेरे साथी का क्रेज इतना था कि स्कूलों की बुकिंग तक हफ्ते हफ्ते भर पहले एडवांस में करानी होती थी कुछ वर्ष पहले मशहूर अख़बार टाइम्स ऑफ इंडिया ने लिखा था 40 साल बाद भी 'हाथी मेरे साथी 'अपने जादू में बेजोड़ है और हिंदी सिनेमा में अभी तक इसकी प्रतिष्ठा और सफलता के बराबर कोई अन्य बाल फीचर फिल्म नहीं बनी है
 
 
'हाथी मेरे साथी' की रिकॉर्डतोड़ सफलता के बाद जानवर और इंसान के रिश्तों पर बनी माँ (1976),जानवर और इंसान (1972),सफ़ेद हाथी (1977) जैसी फिल्मो की बाढ़ सी आ आई हर कोई हाथी मेरे साथी की सफलता को भुनाना चाहता था लेकिन इनमे कोई भी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर खरी नहीं उतर पाई थी जबकि इन फिल्मो में धर्मेंदर ,शशि कपूर ,शत्रुघ्न सिन्हा जैसे बड़े स्टार थे 'हाथी मेरे साथी' के बाद राजेश खन्ना और तनूजा की जोड़ी एक बार फिर मेरे जीवन साथी फिल्म में एक साथ परदे आई लेकिन यह फिल्म फ्लॉप साबित हुई थी 'हाथी मेरे साथी ' की यह हिट जोड़ी खुद दोबारा वही सफलता नहीं दोहरा पाई 

 राजेश खन्ना का बंगला 'आशीर्वाद'

राजेश खन्ना ने 'हाथी मेरे साथी' बनाने वाले चिनप्पा देवर से पारिश्रमिक के एवज में दी गई रकम से चर्चित 'आशीर्वाद 'बंगला राजेंद्र कुमार से ख़रीदा था उससे पहले इस बंगले के मालिक भारत भूषण थे राजेश खन्ना ने बम्बई के कार्टर रोड पर बने राजेंद्र कुमार के बंगले को 31 लाख में खरीदा इससे पहले राजेंद्र कुमार ने इस बंगले का नाम अपनी बेटी के नाम पर डिंपल रखा था और चूँकि डिम्पल राजेश खन्ना की पत्नी का नाम भी था इसलिए राजेश खन्ना ने बंगले का नाम बदलकर 'आशीर्वाद 'रखा... वो जिंदगी भर यही रहे इसी बंगले में उन्होंने अंतिम साँस ली राजेश खन्ना की अंतिम इच्छा थी कि उनके इस दुनिया से जाने के बाद आशीर्वाद बंगले को एक संग्रहालय बना दिया जाये जहाँ उनके चाहने वाले इनकी यादो से रूबरू हो सके लेकिन ऐसा हुआ नहीं राजेश खन्ना के निधन के दो साल बाद ही राजेश खन्ना के ऐतिहासिक स्टारडम का गवाह रहे इस बंगले को उनकी बेटी ट्विंकल और रिंकी ने बेच दिया 



Monday, May 27, 2024

'दुविधा (1973)' - एक रहस्मय भूत की अजब और अनोखी लोकगाथा पर बनी बेहतरीन प्रेम कहानी

दुविधा - (1973)

भारत सरकार ने 1960 के दशक के उत्तरार्ध में फिल्म वित्त निगम ( एफ एफ सी ) को मूल रूप से स्वतंत्र फिल्म निर्माताओं की मदद के लिए स्थापित किया गया था भारतीय दर्शको में एक स्थायी वैकल्पिक सिनेमा की आशा  उदयमान हुई थी जिसकी मदद से उन्होंने कम बजट वाली कई फिल्मे बनाई और जब इन बेहतरीन फिल्मों को आलोचनात्मक और व्यावसायिक दोनों तरह की सफलता मिली तो 'समानांतर सिनेमा ' का जन्म हुआ इनमे से कई बेहतरीन फिल्में केरल,तमिलनाडु, कर्नाटक और बंगाल जैसे राज्यों से आई थीं जबकि इससे पहले कमर्शियल फिल्मे ज्यादातर महानगरों की कहानी ही परदे पर कहती थी इस प्रकार जब 1970 के दशक में कमर्शियल हिंदी सिनेमा के समक्ष भारतीय कलात्मक सिनेमा का उदय हुआ था 1960 के दशक के अंत और 70 के दशक की शुरुआत में पुणे के प्रतिष्ठित FTII (फिल्म और टेलीविजन संस्थान) से फिल्म स्नातकों का जो पहला समूह निकला उसमे राजस्थान के जोधपुर में जन्मे फिल्म निर्माता 'मणि कौल 'भी थे जो बाद में समानांतर सिनेमा के एक अग्रणी निर्देशक बन कर उभरे उनकी बनाई फिल्में सादगी, सिनेमाई दृष्टि,बिंबो-रंगो के संयोजन के लिए जानी जाती है जिन्होंने अपनी शुरुआती फिल्मो में खास तौर पर समय और स्थान के साथ भारतीय सिनेमा में अब तक के सबसे रचनात्मक और मौलिक प्रयोगों को सिनेमा के परदे पर दर्शाया उनकी फिल्मो की एक खास बात यह है कि उसमे हमें स्त्रियों के माध्यम से देश-काल का सजीव चित्रण मिलता है उन्होंने बॉलीवुड के महंगे और मशहूर सितारों से सजी काल्पनिक कहानियाँ की जगह समानांतर सिनेमा को आधार बना एक कठोर सामाजिक यथार्थवाद सिनेमा का ऐसा सृजन किया जो एक वर्गवादी, जातिवादी और पीड़ित पुरुषों और महिलाओं की वास्तविक कहानियों को ईमानदारी से दर्शको के सामने रखता है इसलिए निर्माता निर्देशक मणि कौल की फ़िल्में व्यावहारिक रूप से अपरिहार्य बन जाती हैं उनकी 'दुविधा (1973)' समेत 'उसकी रोटी' (1969) ,'आषाढ़ का एक दिन' (1971) ,'सिद्देश्वरी' (1989) ,'नजर' (1991) ,'द क्लाउड डोर' (1994 ) समेत कई फिल्में ललित कला, लोक संगीत, साहित्य और मिथक का अद्भुत मिश्रण हैं  

1973 हिंदी सिनेमा के लिए एक सुनहरा साल था जब राज कपूर की 'बॉबी ,प्रकाश मेहरा की 'ज़ंजीर' और नासिर हुसैन की 'यादों की बारात' जैसी ब्लॉकबस्टर फिल्मे बॉक्स ऑफिस पर सफलता के नए आयाम रच रही थी तो वही निर्माता निर्देशक मणि कौल अपनी कलात्मक फिल्म 'दुविधा ' के माध्यम से कठोर सामाजिक यथार्थवाद का सच दर्शको के सामने मजबूती से रखने में सफल रहे मणि कौल की फिल्म 'दुविधा' राजस्थानी लेखक 'विजयदान देथा' की इसी नाम की कहानी पर आधारित है 'दुविधा' एक अलौकिक कहानी है जो ग्रामीण राजस्थान की एक लोकप्रिय लोककथा पर आधारित है यह कल्पना से परे एक यथार्थवादी कहानी है फिल्म की कहानी के केंद्र में एक सुन्दर नवविवाहित दुल्हन लच्छी और एक भूत है लच्छी विवाह के बाद अपने पति के साथ डोली में उनके पैतृक गाँव जा रही है घने जंगल में बरगद के पेड़ पर रहने वाले एक रसिक भूत उसकी सुंदरता पर मोहित हो जाता ,लच्छी भी उस भूत का ध्यान अनजाने से अपनी और आकर्षित कर लेती है ,दुल्हन लच्छी के रूप लवण्य से प्रभावित यह रसिक भूत अपनी बेकाबू इच्छा से अभिभूत हो एक विलक्षण योजना बनाता है ताकि वो लच्छी के करीब जा सके वह भूत लच्छी से उस के पति किशन का रूप धारण कर मिलता जबकि नवविवाहिता लच्छी का असली पति व्यापार के सिलसिले में विवाह के दूसरे दिन ही परदेस चला गया है ,खुद दुल्हन लच्छी भूत के इस छद्म रूप से अनजान है 


फिल्म की कहानी के अनुसार एक धनी व्यापारी भंवरलाल का बेटा किशनलाल (रवि मेनन) अपनी नवविवाहिता पत्नी लच्छी (रईसा पदमसी) को अपने माता-पिता के पास छोड़ शादी के दूसरे दिन ही ‘दिसावर’ यानि व्यापार के लिए के लिए पाँच साल की लंबी व्यावसायिक यात्रा पर निकल जाता है लच्छी के रूप सौंदर्य पर बुरी तरह आसक्त  भूत इसे अपने लिए एक सुनहरा अवसर समझता है और लच्छी को हासिल करने के लिए लिए एक कुटिल योजना बनाता है वह लच्छी के पति किशनलाल का छद्म रूप धारण कर उसके घर में प्रवेश पहुँच है सभी घर वाले किशन लाल को इतनी जल्दी वापिस आया देख दंग रह जाते है लच्छी को भी लगता है कि उसका पति किशन लाल उसके प्यार में वशीभूत हो यात्रा छोड़ बीच रास्ते अपने गाँव वापस आ गया है और उसके साथ समय बिताना चाहता है लेकिन उसे एक फर्क महसूस होता है जिस पति किशनलाल ने लच्छी के अपरूप सौंदर्य को कभी एक नजर जी भर कभी देखा नहीं था और धन की चाह में सारा दिन अपने हिसाब-किताब में ही उलझा रहता था वही किशन का रूप धरा प्रेमी भूत लच्छी पर पूर्णयता मोहित है वह उससे बेहद प्रेम करता है उसका ख्याल रखता है असमंजस में लच्छी भी भूत को ही अपना असली पति मान लेती है भूत भी लच्छी के विश्वास का भरपूर फायदा उठा लच्छी के संग खुशी खुशी उस के घर में रहने लगता है भूत की योजना पूर्णयता सफल रहती है और किसी को उस पर शक नहीं होता वो अपनी अलौकिक शक्तियों का प्रयोग कर लालच ,लोभ के जाल में फंसा घर के सदस्यों का दिल जीत लेता है और परिवार और गाँव की कई समस्याओं का समाधान भी करता है इसलिए घर वालो के साथ साथ अब गाँव के लोग भी उससे बेहद खुश है  


लच्छी और भूत चार साल तक एक साथ आनंदपूर्वक रहते हैं फिर एक ऐसा भावुक समय भी आता है कि यह भूत अपनी अंतरात्मा की आवाज़ पर लच्छी को अपनी असली पहचान बता देता है यहाँ दर्शको को फिल्म के शीर्षक शब्द 'दुविधा' का अर्थ समझ में आता है यह दुविधा अब लच्छी के साथ साथ फिल्म देखने वाले को भी विचलित करती है कि वह इस खुशहाल झूठ के साथ अपनी जिंदगी जीना जारी रखे या इस दुखद उपेक्षित सत्य को अस्वीकार कर फिर से नया जीवन शुरू करे यहाँ लच्छी की ईमानदारी फिल्म का केंद्रीय संघर्ष बनती है जो रूढ़िवादी दर्शकों के लिए एक बड़ी समस्या पेश करती है वो यह नहीं समझ पाते हैं कि एक विवाहिता पत्नी अपने परदेस गए पति का इंतज़ार करने की बजाय अपनी स्वेच्छा से एक भूत के साथ क्यों सोएगी ? दर्शको को लगता है कि लच्छी का यह कृत्य समाज के पितृसत्तात्मक मूल्यों के विरुद्ध अपराध है और एक गलत सामाजिक सन्देश देता है लेकिन लच्छी को प्रेमी भूत के रूप में अपनी सभी इच्छाओं के प्रतिनिधित्व के बीच एक अजीब सी दुविधा का सामना करना पड़ता है जिसने उसके वास्तविक पति का छद्म रूप ले लिया है यह दुविधा कई सवाल भी उत्पन्न करती है क्या वो मौन रह कर अपनी स्वतंत्र चेतना का इस्तेमाल करती रहे ? या इसे हमेशा के लिए त्याग दे ,लच्छी अपने अंतर्मन से निर्णय लेती है अंत में वो सभी अवधारणाओं को पीछे छोड़ते हुए अपने पति किशन के इस नए कामुक, अलौकिक,सामाजिक,आत्मविश्वासी रूप को अपना लेती है परंपरागत हिंदी सिनेमा में स्त्री का यह रूप सर्वथा अलग था 


जब लच्छी अपने प्रेमी भूत से गर्भवती हो जाती है तो दूर परदेस में यह खबर उसके पति किशन लाल को भी लग जाती है और किशन यह देखने के लिए घर लौटता है कि क्या उसकी पत्नी की गर्भावस्था के बारे में उड़ने वाली अफवाहें सच हैं ? कुछ समय बाद लच्छी एक बच्चे को जन्म भी देती है पति किशन लाल भी परदेस से वापस घर लौट आता है और सबको सच बताता है अब 'दुविद्या 'यही से शुरू होती है जब किशन लाल व्यापार के दिसावर गया था और लम्बे समय के अंतराल के बाद घर वापिस आया है तो जो व्यक्ति लच्छी के साथ रहता था वो कौन है ? और वो बच्चा किसका है जिसे लच्छी ने जन्म दिया ? सारा गाँव असमंजस में है कोई भी यह निर्धारित करने में असमर्थ है कि कौन असली किशन लाल है और कौन सा नकली है ? किशन गाँव वालो के सामने दुहाई देता है की उसकी अनुपस्थिति में एक कपटी भूत ने उनकी भोली भाली पत्नी का फायदा उठाया है लेकिन लच्छी अपने पति किशन के सामने यह स्वीकार करती है कि भूत ने छल से उसका फायदा नहीं उठाया है बल्कि उससे सच बोला है लेकिन किशन अपनी पत्नी  को भूत के वश में मानता है सभी ग्रामीण कहते है कि अब बात उनके बस की नहीं रही अब तो राजा ही न्याय कर सकता है कौन सा किशन असली है ? और सभी ग्रामीण राजमहल की और चल देते है लेकिन रास्ते में भेड़े चराने वाला एक अनपढ़ गडरिया अपनी कुशाग्र बुद्धि से इस विषम समस्या को हल कर देता है जिसे कोई भी समझ भी नहीं पा रहा था 


बुद्धिमान गड़रिया असली किशन और भूत को जन समूह के सामने तीन बाते सिद्ध करने के लिए कहता है पहली बात उन दोनों को गर्म दहकते कोयले को अपने हाथ से उठाना है लेकिन हाथ नहीं जलना चाहिए ,दूसरा उन्हें उसकी भेड़ों को एक तय समय एक विशेष स्थान पर इकट्ठा करना है ,तीसरा उन दोनों को उसकी छांगल (जानवर की खाल से बनी पीने के पानी की थैली ) में पहले प्रवेश करना होगा फिर वापिस बाहर आकर कर दिखाना होगा जो ये तीनो कार्य समक्ष भीड़ के सामने पूर्ण कर के दिखा देगा वही भंवरलाल का असली बेटा और दुल्हन लच्छी का असली पति किशन लाल माना जायेगा होगा भूत अपनी अलौकिक शक्तियों का इस्तेमाल कर पहली दोनों परीक्षाएं बड़ी आसानी से पार कर लेता है जबकि असली किशन लाल को बेहद परेशानी होती है क्योंकि आखिर वो एक मनुष्य जो ठहरा अब आखिर में उन दोनों को गडरिया की छांगल के भीतर प्रवेश करना है जो किशन के लिए तो लगभग असंभव था लेकिन भूत हवा बनकर थैली में प्रवेश कर जाता है और चतुर गडरिया तुरंत अपनी छांगल का मुँह कसकर बंद कर देता है ताकि भूत वापिस बाहर न आ सके इस घटनाक्रम और नए रहस्योद्घाटन से सब दंग रह जाते है और संतोष व्यक्त करते है कि आखिर समझदार गड़रिए के न्याय से भूत उसकी कैद में है इस प्रकार सबको असली किशन का पता चल जाता है गडरिया किशन को उस छांगल को रेगिस्तान में दूर कही रेत में गाड़ने को कह भेड़ो को हांकता हुआ अपनी राह चला जाता है किशन ऐसा ही करता है गडरिये के न्याय से अभिभूत सभी लोग वापिस अपने अपने घर लौट आते हैं लच्छी प्रेमी भूत के हमेशा के लिए दूर चले जाने के गम में टूट जाती है लेकिन क्लाइमेक्स अभी बाकि है दरअसल यह बात उस भूत के आलावा और कोई जानता कि लच्छी के प्रति अपने सच्चे प्यार को साबित करने के लिए ही उसने अपनी मर्ज़ी से गडरिये की छांगल में प्रवेश किया था 

फिल्म के अंत में दर्शको को यह पता चलता है कि चतुर भूत को किशन ने रेत में जहाँ दफनाया था वो छांगल खोल कर वहाँ से निकल भागा है और अपनी प्रेमिका लच्छी के साथ हमेशा रहने के लिए उसने अब उसके पति किशन के ही शरीर पर कब्ज़ा कर लिया है लेकिन यहाँ लच्छी के सामने फिर से एक नई दुविधा खड़ी है कि वो अपने प्रेमी भूत जो अब उसके पति किशन के शरीर में है उसे कैसे पहचाने ? भूत लच्छी की मनोदशा भांप जाता है भूत लच्छी को उस नाम की याद दिलाकर अपनी पहचान उजागर करता है जो नाम वो और लच्छी जन्म से पहले अपने बच्चे  को देने जा रहे थे लच्छी का संदेह मिट जाता इस प्रकार लच्छी अपने असली पति किशन और उसके शरीर में घुस चुके अपने प्रेमी भूत दोनों के साथ खुशी से रहना स्वीकार कर लेती है 



फिल्म 'दुविधा' देखने पर पर नए सवाल और नए अर्थ उद्धाटित होते हैं पूरी कहानी में आखिर कोई लच्छी से उसकी मर्ज़ी  क्यों नहीं पूछता ? किशन लाल ने दुल्हन लच्छी को पांच साल के लिए अपना घर छोड़ने के बारे में पहली बार तब बताता है जब उसे एक पूर्व निर्धारित शुभ तिथि पर नया व्यवसाय शुरू करने के लिए दूर परदेस जाना है ऐसा वो अपने पिता की पिता की इच्छा के लिए कर रहा है लेकिन लच्छी फिर भी अपना पति धर्म निभाते हुए उसके इस कठोर निर्णय का विरोध नहीं करती और पति को राजी खुशी घर से विदा करती है लेकिन किशन लाल का "घर के सम्मान को बनाए रखने" और ''प्रलोभन में न आने '' का उपदेश देकर सिर्फ धन की लालसा में अपनी नई नवेली दुल्हन को छोड़ कर चले जाना क्या न्याय संगत था ? किशन ने अपने पिता की इच्छा तो मान ली लेकिन अपनी पत्नी की इच्छा के बारे में उससे क्यों नहीं पूछा ? दूसरी और भले ही किशन के रूप में होने के बावजूद प्रेमी भूत एक रात खुद लच्छी को अपनी असली पहचान बता देता है लेकिन ये भी तो सत्य है कि उसका प्रेमी भूत भी तो उसके अनुपम सौंदर्य से प्रभावित हो उसके करीब आया है और अपनी कामवासना की पूर्ति के लिए ही उसने किशन का छद्म रूप धरा था उसने भी लच्छी से उसकी अपनी पसंद या इच्छा क्यो नही पूछी ?

इसलिए यहाँ लच्छी का अपना निजी पक्ष अपेक्षित हो जाता है क्या एक स्त्री को केवल विवाह बंधन के कारण किसी पुरुष के साथ जीवन भर रहना चाहिए या अपने प्रेम के कारण ? आखिर लच्छी को ऐसे पति का इंतज़ार करना चाहिए जो उसे धन की लालसा में सुहाग की सेज़ पर विरह की अग्नि में जलता छोड़ चला गया या उसे उस भूत के साथ जीना है जिसने उसे विवाहित जीवन का सुख और सच्चा प्यार दिया है यह जानते हुए भी कि उसके पति का रूप धरने वाला कोई मनुष्य नहीं एक भूत है और वह उसका वो पति नहीं जिसके साथ उसने विवाह कर साथ जीने मरने की कस्मे खाई थी ,सारी सच्चाई जानते हुए भी लच्छी कोई प्रतिरोध नहीं करती और अपने पति के रूप में उस भूत को सहर्ष स्वीकार करती है वो उस भूत से शारीरिक संबंध बनाने से पहले दोबारा पूर्ण विधि विधान से "विवाह" संपन्न करती है और उसके बच्चे को जन्म भी देती है जिस दृश्य में नवविवाहिता दुल्हन लच्छी कामातुर हो अपने प्रेमी भूत को प्यार से गले से लगाती है यह दृश्य दुल्हन लच्छी की अपनी स्वंय की यौन स्वतंत्रता के चयन को दर्शाता है यहाँ इस दृश्य में लच्छी पुरुष रचित समाज के पितृसत्तात्मक मूल्यों और उनके बनाये निर्धारित नियमो पर भयंकर चोट करती दिखती है प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक सत्यजीत रे ने ‘फोर एंड ए क्वार्टर (1974) शीर्षक लेख में इस फिल्म की आलोचना की थी क्या उसका कारण यह दृश्य तो नहीं था ?


इस फिल्म में जिस तरह से लच्छी के रूप में एक नई अभिनेत्री रायसा पद्मसी को मणि कौल ने परदे पर उकेरा है वह भारत की रॉयल मिनिएचर पेंटिंग से प्रभावित दिखते है क्योंकि मणि कौल की फिल्मों में विभिन्न कला रूपों-पेंटिंग, स्थापत्य और संगीत की आवाजाही सहजता से होती है फिल्म में लच्छी का किरदार निभाने वाली लड़की 'रायसा पद्मसी' एक भारतीय-फ्रांसीसी चित्रकार अकबर पद्मसी और सोलेंज गौनेले की इकलौती बेटी हैं जिसका नामकरण प्रसिद्ध पेंटर एम. एफ. हुसैन ने अपनी खुद की बेटी रायसा के नाम पर किया था जब रायसा ने इस फिल्म में अभिनय किया तब वो मात्र सोलह वर्ष की थी और उसे हिंदी का एक शब्द भी नहीं आता था वह केवल फ्रेंच लेंग्वेज बोलती थीं शायद इसलिए आपको फिल्म में उसके कोई ज्यादा संवाद नहीं मिलते जब मणि कौल ने उन्हें अपनी फिल्म के लिए चुना था तो खूबसूरत राईसा पद्मसी को उन्होंने मजाक-मजाक में कहा था

 ''मेरी फिल्म में तुम्हारी यह अपार सुंदरता किसी काम नहीं आने वाली 

मेरी फिल्म तुम्हारे सौंदर्य को परदे पर क्रश करने वाली है''

रायसा ने अपनी पहली फिल्म 'दुविधा' के बाद किसी भी फिल्म में अभिनय नहीं किया और वापस पेरिस चली गईं जहां वह आज भी अपने परिवार के साथ रहती है उनके पति लॉरेंट ब्रेगेट एक फिल्म निर्माता हैं मणि कौल अक्सर रायसा पद्मसी को अपनी सर्वश्रेष्ठ महिला अभिनेता मानते थे लेकिन रायसा जो अब एक कला इतिहासकार भी हैं फिर कभी भी किसी अन्य फिल्म में दिखाई क्यों नहीं दीं जबकि उसके परिवार के कई लोग फिल्म उद्योग से थे थिएटर हस्ती और विज्ञापन फिल्म निर्माता एलिक पद्मसी रायसा के चाचा हैं उनका विवाह गायिका और अभिनेत्री शेरोन प्रभाकर से हुआ था उनकी बेटी यानि रायसा की चचेरी बहन शाज़ान पद्मसी भी एक बॉलीवुड अभिनेत्री हैं जिसे आपने रॉकेट सिंह (2009),दिल तो बच्चा है जी (2011) और हॉउसफुल -2 (2012) में देखा होगा 


मणि कौल ने बेहद सूक्ष्मता से किरदारों की भाव-भंगिमा को ब्यौरे के साथ से इस फिल्म में जिस तरह दिखाया गया है वह सिनेमा और रंगमंच के फर्क को हमारे सामने लाता है एक सिन में डोली में हिचकोले खाती लच्छी की ‘एक फांक आंख, एक फांक नाक’ के सौंदर्य को मणि कौल ने जिस संयम से दिखाया है वह उन जैसे कला प्रेमी के बूते ही संभव है ,फिल्म के एक दृश्य का उल्लेख यहाँ जरूरी है जब लच्छी का पति दिसावर जाने को होता है ,किवाड़ की ओट में टिमटिमाती लौ, किवाड़ खोल कर काजल भरी आंखों से लच्छी जिस तरह से घर-आंगन को देखती है क्लोज-अप में रईसा पद्मसी का निराश चेहरा उसकी अंतर्मन की पीड़ा ( विरह ) साफ दर्शाता है ,एक अन्य दृश्य में जब लच्छी एक सफ़ेद दीवार के सामने लाल घूंघट ओढ़े बैठी है उसकी आँखों में काजल की मोटी रेखाएँ हैं और माथे पर एक बड़ी लाल बिंदी लगी है वह एक ऐसी स्त्री की तरह दिखती है जो अमृता शेरगिल की किसी मशहूर पेंटिंग से सीधे निकलकर आई हो



मणि कौल की फिल्में वित्तीय संसाधनों से भी प्रभावित रही है उन्हें हमेशा वित्तीय संकट से जूझना पड़ा उनकी कम बजट की इन फिल्मों को फिल्म वित्त निगम ( एफएफसी ) से सहायता मिली है तभी वो पूरी हो सकी उनकी फिल्मो को देखते हुए आप इस बात को गंभीरता से महसूस कर सकते है उनका बजट बेहद सिमित होता था पैसे के आभाव में उन्हें कई चीजों से समझौता करना पड़ता था इसके बावजूद उनका काम शानदार रहा ‘दुविधा’ की शूटिंग जोधपुर जिले की बिलाड़ा तहसील के बोरुंदा गांव में हुई जो इस कहानी के मूल लेखक विजय दान दे था बिज्जी का गांव भी था शायद इसलिए उनकी कहानी की पृष्ठभूमि भी राजस्थान ही थी इस रेत के मरुस्थलों से    मणि कौल पहले से ही भलीभांति परिचित थे क्योंकि राजस्थान ( जालौर ) में मणि कौल का बचपन बीता और ग्रेजुएशन की शिक्षा भी उन्होंने जयपुर विश्वविद्यालय से ली थी उसके बाद ही वो पुणे फिल्म संस्थान ( एफटीआईआई ) गए ,मणि कौल की फिल्म 'दुविधा' रोटी, सारा आकाश और आषाढ़ का एक दिन के बाद उनकी पहली रंगीन फिल्म भी थी इस फिल्म की सिनेमाटोग्राफी की चर्चा अलग से होनी चाहिए जिसे नवरोज़ कॉन्ट्रैक्टर ने अंजाम दिया उनके कैमरे की कठोर फ़्रेमिंग देहाती राजस्थानी स्थानों को एक भयावह सुंदरता के साथ चित्रित  करती है साथ ही बड़ी कुशलता से रूढ़िवादी आडम्बर में लिपटे ग्रामीण भारत के उस नग्न सत्य से भी परिचित करवाती है जिसमे विवाह ही स्त्री के जीवन का अंतिम खूँटा माना जाता है जिससे न चाहते हुए भी उसे जीवन भर बंधना है लेकिन यहाँ निर्देशक मणिकौल की लच्छी इस कड़वे सत्य का अपवाद बन जाती है वो अपने मन की बात  मानकर शादीशुदा होते हुए भी अपनी इच्छा के लिए ना केवल अपने भूत प्रेमी के सामने खुद को समर्पित कर देती है बल्कि उसके बच्चे को भी जन्म देती है 

फिल्म के कई ऐसे दृश्य है जहाँ  लच्छी किसी विपरीत कार्य का सांकेतिक विरोध करने से भी नहीं चूकती फिल्म के आरम्भ के एक दृश्य में जब किशन अपनी दुल्हन लच्छी को विदा कर अपने गाँव ले कर आ रहा होता उसे रास्ते के किनारे लगे एक जंगली फल 'ढालू' खाने की इच्छा होती है लेकिन किशन लाल उसे बड़े अनमने ढंग से कहता है कि ''वो ऐसा जंगली फल ढालू खाकर क्या करेगी जिसे सिर्फ गरीब किसान खाते है कोई उसे ये फल खाते देखेगा तो हमारे धनी परिवार को उपहास का पात्र बनना पड सकता है क्योंकि हमारे घर में तो महंगे मखाने खाये जाते है '' यहाँ फिल्म देख रहे दर्शको को किशन लाल का सामंती आडम्बरयुक्त चेहरा पहली बार महसूस होता है लेकिन यहाँ लच्छी के चेहरे के भाव ,कैमरे के क्लोज़अप में शक्तिशाली बेहद अभिव्यक्तियाँ व्यक्त करते है जो यह दर्शाते है की वो अपने पति की ऊंच-नीच की सोच से सहमत नहीं है ,फिल्म में फिल्म में रायसा पद्मसी' और रवि मेनन के आलावा हरधन ,शम्भुधन ,मनोहर लालस ,काना राम ,भोला राम जैसे रंगमंच के साधारण कलाकारों ने उम्दा अभिनय किया है फिल्म में सिमित किरदारों में एक अजीब सी उदासीनता महसूस होती है जो कहानी के माहौल में व्याप्त है यह उदासीनता पात्रों को बेजान कठपुतलियों में बदल देती है कल्पना वास्तविकता में तेज़ी से गुम हो धुंधली हो जाती है पूरी फिल्म में दूल्हे और दुल्हन का नाम कभी नहीं बोला गया अधिकांश कैमरा दुल्हन के तंग क्लोज़अप पर रखा गया है एक प्रेम त्रिकोण की कथा के भीतर कोई भी आवाज नहीं उठाता या आंसू नहीं बहाता दिखता हर कोई नीरस,कठोर वाक्यों में बोलता है किरदारों के चेहरे और आंखें बेजान रहती हैं जिससे ही लम्बे पांच साल बीतने का पता दर्शको को लगता है मणि कौल की फिल्मों में ध्वनि के इस्तेमाल का काफी महत्व रहा है हालांकि इस फिल्म में अधिक संवाद नहीं है पर वॉयस ओवर का बखूबी इस्तेमाल किया गया है फ़िल्म का संगीत राजस्थान के लोक संगीतकारों रमज़ान हम्मू,लतीफ़ और साकी खान ने दिया था पारंपरिक राजस्थानी संगीत का उपयोग फिल्म को विशेष रूप से क्षेत्रीय संगीतमयता से भर देता है 


अब विडंबना देखिये जिस लेखक विजयदान देथा की कहानी दुविधा को आधार बना मणि कौल ने 'दुविधा' फिल्म बनाई उसी कहानी को आधार बनाकर निर्देशक ,अभिनेता अमोल पालेकर ने भी 'पहेली (2005)' नाम से एक फिल्म निर्देशित की थी 24 जून 2005 को रिलीज़ हुई फिल्म पहेली  'दुविधा' का ही रीमेक थी जिसमें शाहरुख खान और सुनील शेट्टी ,अमिताभ बच्चन ,जूही चावला ,अनुपम खेर रानी मुखर्जी  प्रमुख भूमिका में थे जहाँ मणि कौल की 'दुविधा' सिर्फ आलोचकों को पसंद आई वही शाहरुख़ खान के रेड चिल्ली बैनर के तले मधुर संगीत और भव्य सेट्स ,बड़ी स्टारकास्ट ,बड़े बजट को लेकर बनी फिल्म 'पहेली' बॉक्स ऑफिस पर हिट रही इसके प्रोडक्शन डिज़ाइन, सिनेमैटोग्राफी, वेशभूषा और विशेष प्रभावों की प्रशंसा हुई पहेली की पूरी शूटिंग भी रिकॉर्ड 45 दिनों की अवधि में राजस्थान (झुंझुनू जिले) में की गई थी फिल्म में हाड़ी रानी की बावड़ी में फिल्माए गए दृश्य आकर्षक थे जहाँ लच्छी (रानी मुखर्जी ) को भूत (शाहरुख़ खान ) की अलौकिक शक्तियों का पहली बार अनुभव होता है यह जगह बाद में पर्यटकों में मशहूर हो गई ‘पहेली’ भारत की तरफ से 79वें ऑस्कर के लिए आधिकारिक एंट्री बनी थी प्रेमी भूत की अलौकिक शक्तियों की दिखने के लिए पहेली में उस समय नई नई वीएफएक्स तकनीक का प्रयोग भी किया गया था जिसे दर्शको खासकर बच्चो ने बेहद पसंद किया था जहाँ 'दुविधा' में किरदारों की आवाज़ वॉयस ओवर की माध्यम से व्यक्त होती है वही 'पहेली' में दो कठपुतलियों द्वारा कहानी सुनाई जाती है जिन्हें नसीरुद्दीन शाह और रत्ना पाठक शाह ने आवाज दी है 51वें फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों में, पहेली को 2 नामांकन प्राप्त हुए - सर्वश्रेष्ठ गीतकार ("धीरे जलना" के लिए गुलज़ार) और सर्वश्रेष्ठ पुरुष पार्श्व गायक ("धीरे जलना" के लिए सोनू निगम)। 53वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में, फिल्म ने सर्वश्रेष्ठ महिला पार्श्व गायिका का पुरस्कार जीता (श्रेया घोषाल "धीरे जलना" के लिए)

पहेली का उद्घाटन हरारे के लिबर्टी सिनेमा कॉम्प्लेक्स में 9वें जिम्बाब्वे अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में हुआ इसे सनडांस फ़िल्म फ़ेस्टिवल और पाम स्प्रिंग्स इंटरनेशनल फ़िल्म फ़ेस्टिवल दोनों में भी प्रदर्शित किया गया था फिल्म का कार्यकारी शीर्षक' फ्रेंड ऑफ ए घोस्ट  'था पहेली बॉक्स ऑफिस पर सफल साबित हुई जिसने दुनिया भर में ₹32 करोड़ की कमाई की लेकिन रिलीज़ होने पर इसे फ़िल्मी आलोचकों से मिली-जुली सकारात्मक समीक्षा मिली  


भारतीय कला फिल्मो के अग्रणी निर्माता निर्देशक 'मणि कौल '

भारतीय निर्देशक मणि कौल द्वारा बनाई गई 'दुविधा 'एक खूबसूरत फिल्म है जो समय और स्थान की परंपराओं से मुक्त होकर फिल्म निर्माण की एक नवीन शैली का प्रदर्शन करती है यह मसाला फिल्मो से अलग अपने आप में एक असाधारण सिनेमाई अनुभव हमें प्रदान करती है फिल्म ने कोई बड़ी व्यावासिक सलफलता तो अर्जित नहीं करी लेकिन मणि कौल की सबसे रहस्यमयी कृति "दुविधा" ने उन्हें सर्वश्रेष्ठ निर्देशन के लिए अत्यधिक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पुरस्कार जरूर दिलाया था ,बाद में 1997 में कन्नड़ फिल्म 'नागमंडला ' भी इसी कहानी से प्रेरित होकर बनी है जो गिरीश कर्नाड के इसी नाम के नाटक पर आधारित थी ,अभिनेता गिरीश कर्नाड के नाटक 'नागमंडला ' की तुलना भी कहानीकार विजयदान देथा की 1970 के दशक की राजस्थानी लोककथा आधारित फिल्म 'दुविधा 'से की जाती है क्योंकि दोनों का कथानक समान है 'नागमंडला 'मे प्रकाश राज और और विजयलक्ष्मी मुख्य भूमिका में हैं फिल्म में एक महिला और उसके लापरवाह पति के भेष में एक सांप के बीच प्रेम कहानी दिखाई गई थी इस कन्नड़  फिल्म को भी 1997 में भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में भारतीय पैनोरमा के लिए चुना गया था


जब दूरदर्शन का सुनहरी दौर था तब भारत के एकमात्र सार्वजनिक टेलीविजन चैनल पर लोकप्रिय कला फिल्मों के लिए एक आरक्षित स्लॉट तय था जहाँ मणि कौल,गोविन्द निहलानी,श्याम बेनेगल ,जैसे फिल्मकारों की कला फिल्मो को दिखाया जाता था मैंने भी यह फिल्म 'दुविधा 'दूरदर्शन पर ही देखी थी अब तो समान्तर सिनेमा की ऐसी फिल्मो को देखना असम्भव सा हो गया है अपनी फिल्मो में भारतीय कला और संस्कृति की स्वदेशी परंपराओं का निर्वाहन करने वाले समांतर सिनेमा के पुरोधा मणि कौल की फिल्म ‘दुविधा (1973)’ के इसी वर्ष पचास साल पूरे हो रहे हैं