Friday, January 24, 2025

'फिल्मइंडिया' (Filmindia) - बाबू राव की एक ऐसी फ़िल्मी मैगज़ीन जिसने कई फ़िल्मी सितारों के कॅरियर एक झटके में बनाये और बिगाड़े

'फिल्मइंडिया'  बॉम्बे से प्रकाशित होने वाली भारत की पहली अंग्रेजी फिल्म पत्रिका थी

'फिल्मइंडिया' शायद पहली और सबसे लोकप्रिय फिल्म पत्रिका थी जिसे 1935 में बाबूराव पटेल ने शुरू किया था जो फिल्म समीक्षाओं को लिखते समय अपने क्रूर शब्दों के लिए जाने जाते थे फ़िल्मइंडिया बॉम्बे से प्रकाशित होने वाली पहली अंग्रेजी फ़िल्म पत्रिका थी भारत की पहली मुख्यधारा की इस फ़िल्मी पत्रिका के संपादक और प्रकाशक 'बाबूराव पटेल ' थे जो खुद 40 के दशक में बनी कुछ फिल्मे के निर्माता और निर्देशक रहे है बाबूराव पटेल की फ़िल्मी पत्रिका 'फिल्मइंडिया' को फिल्म इंडस्ट्रीज़ में काफी प्रभावशाली माना जाता है इस पत्रिका की अपने ज़माने में बहुत मांग थी और इसमें छपने वाली पटेल की फ़िल्मी समीक्षाएँ काफ़ी महत्वपूर्ण होती थीं इसके पृष्ठ बाबूराव की टिप्पणियों की तीखी भावनाओं से गूंजते थे 'हबीब तनवीर' इस पत्रिका के पहले सहायक संपादक थे और 'मंटो' भी इसी पत्रिका के लिए लिखते थे बाबूराव बड़े अभिमान से और अति आत्मविश्वास से कहते थे ....... 

 ''मेरी 'फिल्मइन्डिया' से पहले भारत में फ़िल्मी पत्रकारिता नहीं होती थी

 मेरी फ़िल्मी मैगज़ीन ने ही भारत में फ़िल्मी पत्रकारिता को जन्म दिया है ''

बाबूराव पटेल का जन्म 4 अप्रैल 1904 को मुंबई के पास मसवान गाँव में राजनेता पांडुरंग विट्ठल पाटिल (पंडोबा पाटिल) के यहाँ 'बाबा पाटिल' के रूप में हुआ था लेकिन उन्होंने अपना नाम बदलकर बाबूराव पटेल रख लिया क्योंकि वे पेशेवर जीवन में ज़्यादातर गुजराती समुदाय से जुड़े थे हुआ था पढ़ाई में अरुचि होने के कारण उन्होंने मैट्रिक की पढ़ाई पूरी किए बिना ही स्कूल छोड़ दिया लेकिन औपचारिक शिक्षा की कमी उन्हें हमेशा परेशान करती थी वे अक्सर खुद को नॉन-मैट्रिकुलेट कहते थे पटेल एक स्वशिक्षित व्यक्ति थे जिनके पास विभिन्न विषयों पर सैकड़ों पुस्तकों वाला एक बड़ा पुस्तकालय था

1926 में बाबूराव एक नई-नई आरम्भ हुई हिंदी और उर्दू फ़िल्म पत्रिका 'सिनेमा समाचार' से जुड़ गए और पत्रकारिता का अनुभव हासिल कर 1935 में ने डीएन पार्कर के साथ हाथ मिलाया जो न्यू जैक प्रिंटिंग प्रेस के मालिक थे इस तरह अप्रैल 1935 में 'फ़िल्मइंडिया' नामक मासिक फ़िल्मी पत्रिका का जन्म हुआ जिसकी कीमत तब 4 आना (पच्चीस पैसे) रखी गई फ़िल्मइंडिया पत्रिका का पहला अंक बहुत सफल रहा था अपना स्वयं का प्रकाशन शुरू करने से पहले बाबूराव ने 1929-'35 के बीच की अवधि में पांच फिल्में 'किस्मत -(1929)', 'सती महानंदा-(1933)', 'महारानी' और 'बाला जोबन -(1935)', 'चांद का टुकड़ा' भी बनाईं थी एक पटकथा लेखक और निर्देशक के रूप में, बाबूराव ने भारतीय सिनेमा को आकार देने में योगदान दिया 1929 और 1935 के बीच निर्मित ये सभी फ़िल्में भारतीय सिनेमा की नींव रखने में महत्वपूर्ण साबित हुई थीं उनकी तीन बार शादी हुई थी उनकी तीसरी पत्नी गायिका और अभिनेता सुशीला रानी पटेल थीं जो मूल रूप से चेन्नई की थीं उन्होंने उन्हें फिल्म द्रौपदी (1944) और ग्वालन (1946) में उन्हें निर्देशित किया लेकिन दोनों फ़िल्में बॉक्स ऑफ़िस पर फ्लॉप रहीं

बाबूराव पटेल 

'फिल्मइंडिया' का सबसे लोकप्रिय स्तंभ "संपादक का मेल" था जिसका उत्तर पटेल खुद देते थे पत्रिका में फ़िल्म समाचार, संपादकीय, स्टूडियो राउंड-अप, गपशप और विभिन्न भाषा की फ़िल्मों की समीक्षाएँ शामिल थीं उनके लेखों में तकनीशियनों, एक्स्ट्रा और स्टंटमैन जैसे परदे के पीछे गुमनाम रहने वाले सिनेमा कर्मियों का पक्ष लेना शामिल था बाद में पटेल ने 1938 के आसपास चित्रकार एस.एम. पंडित से मुलाकात की और उन्हें फ़िल्मइंडिया के लिए कवर डिज़ाइन करने का अनुरोध किया पंडित के सहायकों में से एक 'रघुबीर मुलगांवकर' भी उसी पत्रिका में डिज़ाइनर थे। दोनों ने 1930 और 1940 के दशक में पटेल के साथ फिल्मइंडिया में काम किया 

इस फ़िल्मी पत्रिका में समीक्षा अनुभाग के साथ-साथ पत्रिका का संपादक का मेल अनुभाग पाँच पृष्ठों का होता था बाबूराव द्वारा अपने पाठकों के प्रश्नों के उत्तर मजाकिया अंदाज में खुद देते थे इस पत्रिका में एक पिक्चर्स इन मेकिंग अनुभाग भी था जहाँ वर्तमान में निर्माणाधीन फिल्मों का विश्लेषण प्रदान किया गया था जूडास (जिसे कई लोग पटेल ही मानते थे) के छद्म नाम से लिखा गया 'बॉम्बे कॉलिंग गॉसिप 'कॉलम भी शामिल था जो हिंदी फिल्म उद्योग के बारे में गॉसिप खबरे करता था के.आसिफ की ऐतिहासिक फिल्म 'मुगले ए आजम' जिसे हिंदी सिनेमा का महाकाव्य कहा जाता फिल्म इंडिया उसके बनने के 10 साल के सफर की साक्षी रही है वीना नर्गिस सप्रू ,चन्द्र मोहन से लेकर दलीप कुमार और मधुबाला के पोस्टर इसमें छपे थे 

किसी भी फिल्म की रिलीज़ से पहले इस पत्रिका के फ्रंट पेज पर उस फिल्म के पोस्टर का छपना निर्माता और कलाकारों के लिए गर्व की बात होती थी लेकिन बाबू राव जिस तीखे अंदाज़ में अपने पाठको के लिए लिखते थे वो हमेशा विवादस्पद रहा वो अपने संपादकीय कॉलम्स में खुलकर फिल्म निर्माताओं की आलोचना और मशहूर स्टार्स का जमकर मजाक उड़ाते थे जिसके बारे में फ़िल्मी दुनिया में आज भी अनेको कहानियाँ प्रचलित है एक बार उन्होंने दिग्गज अभिनेता पृथ्वी राजकपूर को भी नहीं बक्शा था उन्होंने कहा था .... 

'' हिंदी फिल्म इंडस्ट्रीज़ में उन असभ्य ,बलिष्ठ पठानों के लिए कोई जगह नहीं है जो सोचते है की वो यहाँ अभिनेता बन सकते है ''

जिसका अभिनेता पृथ्वी राजकपूर ने भी जवाब दिया था उन्होंने कहा था...... 

''इस पठान को मत भड़काओ बाबूराव अगर मेरे लिए यहाँ कोई जगह नहीं हो तो मैं हॉलीवुड जाकर बतौर अभिनेता अपना नाम कमाने में सक्षम हूँ ''

किसने सोचा होगा कि दिलीप कुमार जैसे दिग्गज अभिनेता को भी कभी इतनी तीखी आलोचना का सामना करना पड़ा होगा जो बाद में 'अभिनय सम्राट' कहलाये दिलीप कुमार की पहली फिल्म 'ज्वार भाटा' की समीक्षा करते हुए उन्होंने दिलीप कुमार को एक ऐसा "नया एनीमिक हीरो" बताया जिसका स्क्रीन पर दिखना और हंसी दोनों निराशा पैदा करता है उन्होंने पहली ही फिल्म में दलीप कुमार के अभिनय प्रयास को शून्य बताया 

इसी तरह नवकेतन बैनर की पहली फिल्म अफसर (1950) की समीक्षा करते हुए पटेल ने लिखा,था " कृपया स्वास्थ्य कारणों से इस अफसर बने देव आनंद की देखने से बचे ,

देव आनंद की 1956 की फिल्म 'सीआईडी '​​को भी एक बेवकूफ हरकतों से भरी अपराध कहानी के रूप में लिखते हुए कहा कि..... 

"देव आनंद एक सेकंड के लिए भी परदे पर पुलिस इंस्पेक्टर की तरह दिखने में विफल रहे "

 बाज़ी-(1951) के बारे में उन्होंने लिखा .... 

"अगर आप निर्देशक (गुरु दत्त) और उन दो नई लड़कियों (रूपा वर्मन और कल्पना कार्तिक) द्वारा किये गए घटिया अभिनय को भूल जाते हैं तो बाज़ी को इसके खूबसूरत सीन के लिए देखा जा सकता है"

देवदास (1955) में उन्होंने वैजयंतीमाला को इस भूमिका के लिए भावनात्मक रूप से खराब माना वैजयंतीमाला ने इस फिल्म में अपनी पहली नाटकीय भूमिका निभाई थी जिसमें उन्होंने चंद्रमुखी नामक तवायफ का रोल किया था 

बाद में ग्रेट शोमेन ऑफ़ इंडियन सिनेमा कहलाने वाले राजकपूर को भी उन्होंने नहीं बक्शा उनकी फिल्म श्री 420-(1955) को भ्रम की एक दयनीय कृति बता डाला जो एक खाली बर्तन की तरह सिर्फ शोर मचाती है और एक अधपका ज्ञान घृणित तरीके से फैला रहा है वो यही नहीं रुके आखिर में लिखा ...... 

"शोर और रोष से भरी हुई एक मूर्ख द्वारा कही गई कहानी जिसका कोई मतलब नहीं है " अपनी फिल्म की ऐसी समीक्षा सुन राजकपूर को जरूर गुस्सा आया होगा

इसी तरह फिल्म आवाज़ (1956) में उन्होंने राजेंद्र कुमार के बारे में कहा कि...... 

 ''वो परदे पर बेवकूफ़ दिखते हैं और बेवकूफ़ी से पेश आते हैं कारण ? वह बेवकूफ़ दिखते हैं क्योंकि वह दिलीप कुमार की तरह दिखने की कोशिश करते हैं और दिलीप कुमार की तरह पेश आने की कोशिश करते हैं''

गुरुदत्त फिल्म्स की 'कागज के फूल -(1959)' जो आज एक कल्ट फिल्म मानी जाती है उसके बारे में लिखा

''यह एक निराशाजनक, असंगत, अंतिम संस्कार वाली फिल्म है,जिसके बारे में शायद ही कोई और उल्लेखनीय बात हो सिवाय इसके कि यह सिनेमास्कोप में बनाई गई पहली भारतीय फिल्म है''

सबसे ज्यादा अभद्र कमेंट्स उन्होंने व्ही शांताराम की फिल्म के लिए किया था उन्होंने नवरंग-(1959) को एक रंगहीन फिल्म बताते हुए लिखा कि''यह एक ऐसी कहानी कहती है जिसका कोई विषय नहीं है अपनी समीक्षा के समापन में उन्होंने 'नवरंग' को " एक वृद्ध आत्मा का मानसिक हस्तमैथुन!" तक बता दिया जाहिर है हिंदी और मराठी फिल्मो के नट सम्राट कहे जाने वाले व्ही शांताराम के ऐसे शर्मनाक शब्दों का प्रयोग अनुचित था बाबूराव इससे बच सकते थे 

ऐसा नहीं की फिल्मइण्डिया मैगज़ीन के बाबूराव के निशाने पर सिर्फ हीरो या निर्माता थे फिल्म इंडिया में अभिनेत्रियों के शरीर को लेकर भी बारीकी से कमेंट्स किये जाते थे जिसे आज 'बॉडी शेम 'कहा जाता है

उन्होंने नूरजहाँ के बारे में लिखा कि उनका चेहरा किसी वृद्ध महिला की तरह दिखता है क्योंकि उन्होंने दो विश्व युद्ध देखे थे ,सुरैया को हिंदी स्क्रीन की बदसूरत बत्तख कहा जिसकी नाक घिनौनी है ,कल्पना कार्तिक को बड़े शर्मनाक तरीके से कबूतर-छाती वाली नायिका लिखा और माला सिन्हा को तो  'आलू चेहरा' बता दिया लेकिन ऐसा भी नहीं था वो सभी एक्ट्रेस की आलोचना करते थे मधुबाला को "भारतीय स्क्रीन की वीनस" के रूप में संदर्भित करने वाले पहले व्यक्ति बाबूराव ही थे 

लेकिन तमाम तरह के विवादों के बावजूद इस पत्रिका फिल्मइण्डिया को "कुलीन पाठक वर्ग" बेहद पसंद करता था जिसमें कॉलेज जाने वाले युवा भी शामिल थे सेंट स्टीफंस या एलफिंस्टन के कॉलेज जाने वाले बच्चों के लिए 'फिल्मइंडिया' रखना फैशन था वे इसे गर्व से सार्वजनिक रूप से कॉलेज की किताबो के साथ लेकर चलते थे फिल्मइण्डिया पत्रिका को अपने हाथ में लेकर चलना एक स्टेटस सिंबल हुआ करता था देव आनंद ने एक बार पत्रिका के बारे में कहा था कि..... 

लाहौर में कॉलेज के दिनों में, "कैंपस में लड़के अपनी पाठ्यपुस्तकों के साथ फिल्मइंडिया की प्रतियां भी रखते थे यह उनकी बाइबिल की तरह थी "

बाबूराव पटेल की राजनीति में भी रुचि थी उन्होंने बॉम्बे क्रॉनिकल के ख्वाजा अहमद अब्बास के साथ मिलकर 1938 में “भारत विरोधी” फिल्मों के खिलाफ एक राष्ट्रव्यापी अभियान चलाया जिसमें द ड्रम (1938) और गंगादीन (1939) जैसी “साम्राज्यवादी फिल्में” शामिल थीं जिसने “नस्लीय रूप से हीन” और “कमजोर” उपनिवेशित विषयों की साम्राज्यवादी रूढ़ियों को मजबूत किया बाबूराव फिल्मो के साथ साथ अब राजनीति पर भी लिखने लगे और 'फिल्मइंडिया' धीरे-धीरे अपना लक्ष्य भूल एक राजनीतिक प्रकाशन बन गई जुलाई 1960 में बाबूराव ने घोषणा की कि ''चूंकि उनकी पत्रिका अब केवल फिल्म-संबंधी सामग्री से संबंधित नहीं रह गई है इसलिए इसका नाम बदलने की आवश्यकता होगी'' राष्ट्रवाद और राजनीति में पटेल की रुचि ने उन्हें एक "राष्ट्रीय पत्रिका" शुरू करने के लिए प्रेरित किया इसके ठीक दो महीने बाद 'मदरइंडिया' पत्रिका का जन्म हुआ 

लेकिन पटेल के लिए एक साथ दो पत्रिकाओं को चलाना मुश्किल लगा तो उन्होंने पुरानी फ़िल्मइंडिया को बंद करने और नई नई मदरइंडिया पर ध्यान केंद्रित करने का निर्णय लिया उसके बाद समय बदला टाइम्स ग्रुप जैसे बड़े मीडिया घरानों ने फिल्म पत्रकारिता के बाज़ार पर कब्ज़ा करना शुरू किया एक अन्य फ़िल्मी मैगज़ीन 'फिल्मफेयर' के प्रसार और प्रभाव में वृद्धि देखी जबकि फिल्मइंडिया में निरंतर गिरावट आई बाबूराव पटेल की 'फिल्मइंडिया 'धीरे-धीरे अप्रासंगिक हो गई और अंततः बंद हो गई फिल्मइण्डिया पत्रिका 1961 तक प्रकाशित होती रही इसके बाद फ़िल्मइंडिया का प्रकाशन बंद हो गया लेकिन बाबूराव पटेल की राजनैतिक महत्वकांक्षा हिलोरे मारती रही उन्होंने चुनाव लड़े,हारे और जीते और अंततः संसद के सदस्य बन गए समय बीतने के साथ उनकी राजनीतिक निष्ठाएं बदलती रहीं वो राजनीति के मोह में अपनी पार्टियाँ बदलते रहे लेकिन किसी भी चीज ने उनके विचारों को प्रसारित करने के शौक को कम नहीं किया चाहे वह कितना भी पक्षपातपूर्ण क्यों न हो बाबूराव पटेल 1957 का लोकसभा चुनाव हार गए लेकिन दस साल बाद 1967 में मध्य प्रदेश के शाजापुर से जनसंघ के उम्मीदवार के रूप में लोकसभा के लिए चुने गए थे और सांसद (कार्यकाल 1967-1971) बन गए हालांकि 1975 में लगने वाले अघोषित आपातकाल ने उनकी चमक को कम कर दिया और 1982 में उनकी मृत्यु हो गई 1982 में बाबूराव की मृत्यु के बाद भी उनकी पत्नी सुशीला ने 1985 में इसकी 50वीं वर्षगांठ तक 'मदरइंडिया का प्रकाशन जारी रखा था 

फिल्मइंडिया पत्रिका के.आसिफ की ऐतिहासिक फिल्म 'मुगले ए आजम' के बनने के 10 साल के सफर की साक्षी रही है

फिल्मइंडिया उन दिनों एकमात्र पत्रिका थी जिसकी बिक्री की गिनती होती थी बॉम्बे के आलावा इसके कलकत्ता और लंदन में भी इसके कार्यालय थे फ़िल्म इंडिया पत्रिका पश्चिमी देशों में भी बिकती थी बाबूराव पटेल की लेखनी के खौफ का तो आलम ही मत पूछो मशहूर फिल्म वितरक बाबूराव की समीक्षा पढ़ने के बाद प्रिंट की डिलीवरी नहीं लेते थे लेकिन इसका दर्शकों पर कभी कोई असर नहीं पड़ा देव आनंद ने एक बार कहा था  "जब मैं पहली बार फिल्मों में ब्रेक की तलाश में बॉम्बे आया था, तो मेरे भीतर कहीं न कहीं उस आदमी से मिलने और इस जादूगर को देखने की इच्छा छिपी थी, जो मेरे लिए भारतीय फिल्म उद्योग का मतलब था बाबूराव पटेल ने कई सितारों को बनाया और बिगाड़ा उस समय उनके पास इतनी शक्ति थी कि उन्होंने अपनी कलम के जादू से एक झटके में किसी फिल्म को स्थापित या नष्ट कर दिया "


आज भी उस दौर के पाठको और सिनेमा प्रेमियों ने बाबूराव पटेल की 'फिल्मइण्डिया' और 'मदरइण्डिया' की प्रतियो को एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ की तरह सँभाल कर रखा हुआ है और बड़े गर्व से सोशल मिडिया पर उसकी तस्वीरें शेयर करते है आज पैसे के लिए खबरों को बेचने वाले दौर में आपकों बाबूराव जैसे कठोर ह्रदय फिल्म समीक्षक नहीं मिल सकते जो किसी भी स्टार के रुतबे और स्टेट्स की एक किनारे रख सिर्फ अपने पाठको के लिए बेबाकी से निडर हो लिखते थे 
फिल्मों और राजनीति से जुड़े बाबू राव पटेल भारत की पहली फिल्म पत्रिका 'फिल्मइंडिया' के संपादक और प्रकाशक होने के साथ साथ अच्छे लेखक भी थे उन्होंने द रोज़री एंड द लैंप (1966), गिरनार प्रकाशन ,बर्निंग वर्ड्स: 1947 से 1956 तक नेहरू के शासन के नौ वर्षों का आलोचनात्मक इतिहास (1956), सुमति प्रकाशन ,ग्रे डस्ट (1949) सुमति प्रकाशन ,ए ब्लूप्रिंट ऑफ़ अवर डिफेंस (1962), सुमति प्रकाशन जैसी  किताबे भी लिखी थी  

फिल्मइण्डिया अपने समय की सबसे लोकप्रिय फिल्म पत्रिका थी, जिसे वर्तमान मुद्दों पर अपने साहसिक रुख और लेखन की शानदार शैली के लिए व्यापक रूप से सराहा जाता था ऐसा कहा जाता था कि बाबूराव के लिखे कॉलम ने कइयों के करियर बनाए और बिगाड़े भी उनकी "तीखी समीक्षाएँ" निर्माता और निर्देशकों को बुरे सपने की तरह डराती थीं  फिल्मइण्डिया 1935 से 1961 तक प्रकाशित रही उसके बाद में मदरइण्डिया 1961 से 1985 तक छपती रही इन दोनों मैगज़ीन्स के माध्यम से लगभग पचास सालो तक देश राजनीति और फिल्म इंडस्ट्रीज़ में बाबूराव पटेल का दबदबा रहा और वो देश की संसद तक जा पहुंचे लेकिन फिर समय बदला इसके बाद फ़िल्म फ़ेयर भारत की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका बन गई है और इसके द्वारा प्रायोजित फिल्म फेयर अवॉर्ड्स आज भी अपना विशेष महत्त्व रखते है लेकिन फिर भी भारत का आरंभिक फ़िल्मी इतिहास जानने के इच्छुक लोगो के लिए बाबूराव पटेल की फ़िल्मी पत्रिका 'फिल्म इंडिया' आज भी एक महत्वपूर्ण स्रोत्र है आजके डिजिटल युग में भी फिल्मइंडिया की प्रसांगिकता हुई बनी है और शायद हमेशा रहेगी 


Tuesday, June 4, 2024

सिनेमा के परदे के पीछे हमारे मनोंरजन की कमान संभालने वाले वो 'गुमनाम हीरो '...

अगर आपने कभी किसी सिंगल स्क्रीन थियेटर में कोई फिल्म देखी हो तो आप को आज के मल्टीफ्लेक्स और सिंगल स्क्रीन थियेटर का फर्क जरूर पता होगा पहले जब कोई नई फिल्म आती थी तो शहर में महीनो पहले से ही उसके पोस्टर लगने शरू हो जाते थे जिन्हे देख मन में फिल्म देखने की इच्छा जागती थी फिल्म देखने के लिए मन उल्लासित हो जाता था फिर तय होता था कि फलां फिल्म को देखना है लेकिन घर से बकायदा इजाजत लेकर ही फिल्म देखी जाती थी सिनेमा घरों में लंबी लंबी लाइन टिकट के लिए मारा मारी,ब्लैक में टिकेट खरीदने का जुगाड़,पुलिस का डंडा ले के भीड़ को खदेड़ना .. सिनेमा हाल मे शो केस में लगे लॉबी कार्ड पोस्टर को देखना.. थियेटर में प्रवेश पाने के बाद मन बहुत आनंदित हो जाता था कुर्सी पर बैठने के बाद फिल्म शुरू होने का इंतजार रहता था सबकी नजर पूरे थियेटर में घूमकर कर परदे पर आकर रूक जाती थी फिल्म शुरू होने से पहले स्लाइड वाले विज्ञापन जहाँ उत्पादों का प्रचार करते थे वही कुछ कुछ सामाजिक विज्ञापन हमें सजग भी करते थे यह वो दौर था जब फिल्म की टिकट नहीं मिलने पर लोग पडोसी की साइकल ले जाते थे क्योंकि साइकिल पार्किंग के टोकन पर प्राथमिकता के आधार पर फ्रंट सीट की टिकट मिलना सुलभ हो जाता था

उस वक्त भीमकाय प्रोजेक्टर मशीन के माध्यम से सिनेमा हॉल में फिल्में दिखाई जाती थी लेकिन जो मजा इस प्रोजेक्टर पर फिल्म देखने का था इसके मुकाबले मे आज के डिजीटल प्रोजेक्टर एक प्रतिशत भी नहीं है टाकीज के ऊपर बॉक्स या बालकनी के ऊपर छोटा सा कमरा होता था जिसमें ऑपरेटर द्वारा यह प्रोजेक्टर मशीन चलाई जाती आमतौर पर 500 से 1200 सीट की क्षमता वाले इन सिंगल स्क्रीन थियेटर में पूरी 3 घंटे की फिल्म को ठीक ठाक दर्शको दिखाने का पूरा दारोमदार सिर्फ 'प्रोजेक्टर मेन ' पर होता जिसका कार्य सबसे कठिन होता था मामूली से वेतन में सिनेमा का प्रोजेक्टर चलाने वाले अपना काम बेहद बुरे हालातो में भी ईमानदारी से करते थे आज हम उन गुमनाम 'प्रोजेक्टर ऑपरेटर्स' की बात कर रहे है जिन्होंने अपना पूरा जीवन सिनेमा हॉल्स के प्रोजेक्टर रूम के छोटे से रूम में खपा दिया सिनेमा के परदे पर न जाने कितने बड़े बड़े सितारों का उदय और पतन इन्होने बेहद करीब से देखा होगा फिल्मो के कलाकारों की मदद के लिए के लिए तो न जाने कितनी संस्थाए काम करती है लेकिन इन 'प्रोजेक्टर ऑपरेटर्स के हालातो की सुध किसी ने नहीं ली ऐसे प्रोजेक्टर ऑपरेटर्स को लाइसेंस प्राप्त करना होता था तभी वो नौकरी कर सकता था


किसी फिल्म को सुचारु रूम से चलाने के लिए प्रोजेक्टर रूम में प्रोजेक्टर ,स्पूल ,आर्क लैम्प ,एम्पलीफायर,बैफिल ,सिनेमा स्कोप लैंस निगेटिव और पॉजिटिव, कार्बन रॉड,रिवाइंडर आवशयक उपकरण होते थे इन्हे इस्तेमाल करने के लिए प्रोजेक्टर मेन का पूर्ण रूप से दक्ष होना जरुरी होता था एक पूरी पिक्चर में कम से कम 16 फिल्म की रील रहती थी एक रील जैसे खत्म होती थी वैसे ही दूसरी मशीन में दूसरी रील चालू कर दी जाती थी बीच में फुट चैंजर होता था जब दुसरी मशीन चालू हो जाती थी परंतु सामने परदे पर पता नहीं चलता था और आपको भी अंदाजा नहीं होता कि रील बदल गई है आपको पता है जब एक शहर में एक फिल्म तीन-चार सिनेमा घरों में लगती थी तब केवल एक या दो रीलो का सैट मंगाया जाता था और यही दो सेट हर सिनेमा घर में एक रील के अंतराल में घूमते रहते थे एक सिनेमा हॉल से दूसरे सिनेमा हॉल आधे घंटे के बाद पिक्चर चालू होती थी एक सिनेमा हॉल दूसरे सिनेमा हॉल से आपसी सामंजस्य से समय निर्धारित करता था दोनों सिनेमा घर का टाइमिंग में लगभग आधे घंटे का अंतर जरूर रहता था


इस बीच एक आदमी रील के डिब्बे को यहां से वहां पहुंचाने का काम करता था 90 के दशक तक दिल्ली के चांदनी चौंक के भागीरथी प्लेस में फिल्म वितरकों के सैकड़ो ऑफिस होते थे यहाँ आप दिहाड़ी मजदूरों को तेज़ी के साथ एक सिनेमा घर से दूसरे सिनेमा घर में रील की लकड़ी की पेटिया सर पर उठाये भागते देख सकते थे क्योंकि यहाँ कुमार ,खन्ना ,अमर , जुबली ,मैजेस्टिक ,मिनर्वा जैसे छोटे छोटे आधा दर्जन सिनेमा हॉल आस -पास थे ज़ब शुक्रवार को कोई नई फ़िल्म आती थी पैसे बचाने के चक्कर में एक सिनेमा हाल से दूसरे हॉल तक भगदड़ मची होती रहती थी इसलिए ये भागम भाग वाला दृश्य वहां आसानी से दिख जाता था आमतौर पर इन रील्स की एक पेटी का वजन 20 किलो से ज्यादा होता था ये पेटी वाले जल्दी जल्दी में मुझसे कई बार चलते चलते टकराये है आमतौर पर सिनेमा प्रोजैक्टर में दो तरह की फिल्में चलाई जाती थीं 35‌ mm और 70‌‌mm इसके लिए परदे का आकार भी अलग होता था 70 mm परदे पर पूरी फिल्म आती थी लेकिन जब 70 mm के परदे पर मजबूरी में कोई 35 mm की फिल्म चलाई जाती थी तो दोनों साइड से परदा खाली रहता था 35 mm के परदे पर 70 mm फिल्म नहीं चलती थी


बड़े सिनेमा घरो में तो दो या तीन प्रोजेक्टर होते थे जिनपर रील बदल बदल कर फिल्म दिखाई जाती थी लेकिन जहाँ छोटे सिनेमा घर होते थे वहाँ एक ही प्रोजेक्टर होता था यहाँ प्रोजेक्टर चलाने वाले को ज्यादा मेहनत करनी पड़ती थी बड़ी सजगता से एक रील के ख़त्म होने पर दूसरी रील चलानी पड़ती थी ताकि दर्शको के फिल्म देखने में कोई व्यवधान न पड़े सिंगल प्रोजेक्टर मशीन में अक्सर फिल्म जरूर रूकती थी फिल्म के बीच जब रील टूट जाती तो लोग ऑपरेटर पर नाराज होते और अपशब्द भी बोल देते थे फिल्म रुकने पर सबसे ज्यादा गालियाँ सिनेमा हाल के इसी 'प्रोजेक्टर मेन 'के हिस्से आती थी कभी कभी कार्बन आ जाने से रील के आगे अँधेरा आ जाता था या रील टूट जाती थी तो पूरे सिनेमा हाल में एक ही आवाज़ आती थी ....
फिल्म काट ली ....सा.... ने ......


हममें से कभी भी किसी ने इस 'प्रोजेक्टर मेन ' के उन हालातो को नहीं देखा जिससे ये जूझते हुए यह आप का और आपके परिवार का मनोंरजन करते थे टाकीज में बॉक्स या बालकनी के ऊपर कमरा होता था जिसे''प्रोजेक्टर रूम '' कहा जाता था यही से फिल्म चलती थी इसमें मे बहुत और उमस गर्मी होती थी उस ज़माने में ऑपरेटर द्वारा जो मशीन चलाई जाती थी उन मशीन में रोशनी से पिक्चर बनाने हेतु बल्ब नहीं होता था ये मुख्यता कार्बन वाली मशीन थी कार्बन नेगिटिव पॉजिटिव के स्पार्क से रोशनी बनाता है उसमे तो कई मशीनों में कार्बन चलाने वाला मोटर नही लगा होता है इसलिए उन्हें कई बार हाथ से भी ऑपरेटिंग करना पड़ता था उस ज़माने में Ac कम हुआ करते थे इस मशीन में फिल्म चलने से आर्क लैंप की गर्मी से बुरा हाल हो जाता था गाँव देहात के छोटे सिनेमा घरो में तो हाल और भी बुरा होता था गर्मी से बेहाल ऑपरेटर कमीज निकाल कर सिर्फ बनियान पहनकर अपने काम को अंजाम देता था मध्यांतर में जब आप आराम से पॉपकॉर्न कोल्डड्रिंक्स पीते हुए कुछ देर रिलेक्स करते है तो मात्र 10 मिनट के इंटरवेल में ढेरो कमर्शियल विज्ञापनों को एक छोटे स्लाइइड प्रोजेक्टर के माध्यम से दिखाने की जिम्मेदारी भी यह ऑपरेटर्स ही निभाते है
जब आखरी शो के बाद दर्शक अपने घरो की की और रुख करते थे तब भी प्रोजेक्टर ऑपरेटर की डूयटी चालू रहती थी आखरी शो के बाद यदि अगले दिन के पहले शो में कोई 35 mm की फिल्म की जगह सिनेमा स्कोप फिल्म रिलीज़ होनी है तो ऑपरेटर को उसी रात पहले 70 mm लेंस प्रोजेक्टर में लगा कर फिल्म को चला कर परदे पर सेट करना पड़ता था ताकि दूसरे दिन पिक्चर दिखाने में कोई दिक्कत नहीं आए अक्सर किसी फिल्म की रिलीज़ से पहले या बाद में भी सिनेमा स्टाफ ,प्रेस के लिए आखरी शो के बाद भी एक स्पेशल शो रखा जाता था यहाँ भी प्रोजेक्टर ऑपरेटर को फिल्म चलाने के लिए रुकना पड़ता था तब कही जाकर उसे घर जाने की छुट्टी मिलती थी और वो अपने परिवार से मिलता था


पुराने प्रोजेक्टर में इलेक्ट्रोड जलते थे जिससे तेज चमकदार रोशनी होती थी कार्बन स्टिक बुझने ना पाए ,कार्बन स्टिक को जलाए रखना अपने आप मे एक चैलेंज हुआ करता था शायद कुछ लोग होंगे जिन्हें ये पता होगा कि जो ऑपरेटर फिल्म चलाते थे है उनकी आंखे जल्दी खराब होती है मशीन से निकलने वाली यह तेज रोशनी ऑपरेटर की आंखों पर बुरा असर डालती थी प्रोजेक्टर में शक्तिशाली प्रकाश बिम्ब बनाने के लिए कार्बन की छड़ों का प्रयोग किया गया था इन छड़ों को जलाने से काफी प्रकाश और धुआं उत्पन्न होता था जो प्रोजेक्टर से जुड़ी चिमनी तक जाता था उस छोटे से कमरे में होने वाला प्रदूषण कर्मचारी के लिएअभिशाप से कम नहीं होता था परदे पर जिस रंग बिरंगी रोशनी देखकर आप रोमांचित हो जाते थे वह रोशनी तेज़ आर्क कार्बन के जलाने से पैदा होती थी जिससे कार्बन मोनो ऑक्साइड जैसी जहरीली और खतरनाक गैस निकलती थी जो कि स्वास्थ के लिए बेहद हानिकारक होती थी मशीन चलाने वाला कर्मचारी जीवन के आखरी समय सांस की बीमारियों (दमा) से त्रस्त हो जाता था इससे बचने के लिए अधिकतर ऑपरेटर तम्बाकू या बीड़ी ,सिगरेट का उपयोग करते थे लेकिन इसका कोई मेडिकली आधार नहीं है कि तम्बाकू के सेवन से ऑपरेटर्स अपने काम से होने वाली बीमारियों से बच जाते होंगे इसलिए हम इस तर्क को नहीं मानते लेकिन यह सत्य है की इन दोनों ही परिस्तिथियों में ऑपरेटर का ही जीवन दाँव पर होता था

उस वक़्त फ़िल्म का रील नार्मल होता था फिर 90 के दशक के बाद पोलिस्टर रील आने लगी था लेकिन इनके प्रोजेक्शन से जो गर्मी और धुआँ पैदा होता था वो भी बेहद खतरनाक होता था जो तपेदिक जैसी बीमारी का प्रमुख कारण बनता था और इन मशीनों को ऑपरेट करने वाले लोगो के अंतिम दिन कष्ट से भरे होते थे यह इस मनोरंजन के पीछे एक कड़वी सच्चाई है लेकिन कभी भी इनऑपरेटर्स के लिए कोई पेंशन ,सरकारी सहायता जैसी कोई निति नहीं बनी इनकी सुध किसी ने नहीं ली आज शायद ही कोई ऐसा सिनेमाघर आस्तित्व में हो जहाँ इन पुराने प्रोजेक्टर्स से फिल्म चलती हो आज के डिजिटल ज़माने में फिल्म दिखाने की टेक्निक भी डिजिटल हो गई है आज UFO-M4 जैसी सेटेलाइट आधारित ई-सिनेमा मूवी डिलीवरी करती है यह एक ऐसा डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म है जो भारत भर के फिल्म वितरकों को फिल्मों की सैटेलाइट डिलीवरी के लिए एक एंड-टू-एंड प्लेटफॉर्म प्रदान करता है जो डिजिटल सिनेमा उपकरणों का प्रयोग कर सिनेमाघरों में फिल्म प्रदर्शित करता है लेकिन वो भी क्या दौर था वो भी क्या दिन थे ,सस्ता जमाना था कुछ ही पैसो में हम अपना 3 घंटे का मनोरंजन कर आते थे ....


बॉलीवुड की यादगार फिल्में इन्ही रीलो से जुड़ी हुई है जिसे बार बार देखने को आज भी मन करता है मुगले-ए-आजम,मधुमति,जिस देश में गंगा बहती है,आराधना,कटी पतंग,आप आए बहार आई,चलती का नाम गाड़ी,चुपके चुपके,अभिमान,जंजीर,दीवार,शोले,धर्म वीर,जय संतोषी माँ ऐसी अनगिनत फिल्मे है जो हमारी यादों से जुड़ी हुई है और इन्ही पुराने प्रोजेक्टर्स ऑपरेटर्स के आर्क लैंप से निकलकर हमारी मधुर स्मृतियों के पटल पर हमेशा के लिए छा गई लेकिन उन फिल्मों के साथ सिनेमा भी वो सब खत्म हो गया है आज सब कुछ बदल गया है ,ना तो पहले जैसी फिल्में रही ,ना ही वैसे ही दर्शक ,ना एक्टर और ना हाल में पिक्चर देखने का वो पहले जैसा उत्साह..... सेल्युलाइड फिल्मों के खत्म होने से बचपन वाला वो सिनेमा अतीत बन गया है आज के मल्टीप्लेस घर जैसे एक बड़े टीवी और होम थियटर की तरह ही है इसमें वो मजा नहीं जो 70 mm के विशाल परदे पर फिल्म देखने में आता था आज का पीवीआर,INOX सिर्फ एक बड़े टेलीविजन की तरह है और जल्द ही खत्म हो जाएगा यही कारण है आज इन मल्टीप्लेस मैं कोई फिल्म नहीं देखना चाहता मेरी कोशिश रहती है कि किसी सिंगल स्क्रीन सिनेमा में ही कोई बड़ी फिल्म देंखू लेकिन अब सिंगल थिएटर बचे ही कितने है ?...

अब वो रील और प्रोजेक्टर वाला वक़्त लौट कर नही आ सकता मोबाईल का जमाना आया और सारी खुशियां और सारी रौनक ले गया एक वो रील थी और एक reel आज मोबाइल पर है जिसमे तीन घंटे चंद लम्हों मे सिमट कर रह जाते है 6 mm ,35 mm फिर 70 mm सिनेमा स्कोप ,फयूजी कलर फिर ईसटमन कलर का जमाना आया ........, मोनो साऊंड ,फिर स्टीरियो फोनिक, फिर 7. 1 साउंड ,फिर डॉल्बी,अब एटमोस का जमाना आ गया हमारा सुनहरा परदा बड़े से छोटा भी छोटा होकर 2D ,3D ,और IMAX में बदल गया लेकिन बालकनी के पीछे से आती प्रोजेक्टर की चर चर चर चर आवाज़ की आवाज सुनकर जो सुकून मिलता था आज के मल्टीफ्लेक्स में वो नहीं ......प्रोजेक्टर्स की यही आवाज़ सुनकर हम परदे की तरफ सजग हो जाया करते थे अब फिल्म चालू होने वाली है फिर पीछे मुड़ मुड़ कर झरोखे से आती हुई रंग बदलती रोशनी को देखना किसी सम्मोहन से कम नहीं होता था


प्रोजेक्टर और सिनेमा की रंग बिरंगी रील मुझे बचपन से ही बेहद आकर्षित करती रहे है ये आकर्षण मुझे हर रविवार को दिल्ली के लाल किले के पीछे लगने वाले चोर बाजार में ले जाता था जहाँ लोहे के बने हाथ से चलने वाले छोटे छोटे प्रोजेक्टर 100 -150 रुपये में बिकते थे इनके साथ कुछ मीटर रील फ्री आती थी जो अक्सर सिनेमा हाल में चलने वाले इन्ही बड़े प्रोजेक्टर की टूटी रील के टुकड़े होते थे इन रील्स स्क्रेप के ढेर में अगर कही अपनी मनपसंद फिल्म या स्टार की रील मिल जाती थी तो ऐसा लगता था मानो कोई खजाना हाथ लग गया घर आकर कमरे में सफ़ेद चादर टाँग कर घुप्प अन्धेरा कर इस छोटे प्रोजेक्टर को चलाया जाता था जिसके पीछे एक नार्मल बल्ब लगा होता था चूँकि ये प्रोजेक्टर लोहे की टीन का बना होता था तो बल्ब वाला हिस्सा बल्ब की गर्मी से जल्दी गर्म हो जाता था और अक्सर हाथ भी जल जाता था लेकिन जब सफ़ेद चादर या दादा जी की पहने जाने वाली सफ़ेद लुंगी पर इस प्रोजेक्टर की रोशनी से निकले रंगीन चित्र बिना किसी साउंड के चलते हुए दिखते थे बड़े गर्व की अनुभूति होती थी आज की ये reel बनाने वाली जेनरेशन इस की कल्पना नहीं कर सकती ये वो असीम आनंद था जो आज के 65 इंच के 4k या HD टीवी देखने पर भी नहीं आता

वो दिन बड़े अच्छे थे पता नहीं कहाँ चले गए ?...


अब विडंबना देखिये जहाँ किसी फिल्म के निर्माता निर्देशक ,वितरक ,कलाकार ,फिल्म के संगीत और सेटेलाइट राइट खरीदने वाले करोडो अरबो कमाते है वही उनकी फिल्मो को दर्शको तक सुचारु रूप से पहुंचने वाले प्रोजेक्टर्स ऑपरेटर्स अपने मूल वेतन को भी तरसते है आज ये प्रोजेक्टर्स ऑपरेटर्स बड़ी दयनीय स्थिति में है हमें सिंगल स्क्रीन सिनेमा घरो में मनोंरजन करने वाले प्रोजेक्टर्स ऑपरेटर्स के लिए आवाज़ बुलंद करनी चाहिए और सरकार से आग्रह करना चाहिए की वो इनके लिए एक निति बनाने के साथ साथ सिंगल स्क्रीन सिनेमा घरो के सरंक्षण के लिए भी आगे आये क्योंकि ये भी हमारी धरोहर ही है अगर सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों को सरकार मनोरंजन कर में छूट दे तो भी इनको फायदा जरूर पहुंचेगा
सिंगल स्क्रीन टाकीज के प्रोजेक्टर रूम में विषम परिस्तिथियों में काम करने वाले ऑपरेटर्स को 'सुहानी यादें बीते सुनहरे दौर की' और से नमन...

सिनेमा प्रोजेक्टर्स ऑपरेटर्स के कभी भी हार न मानने वाले जज्बे को सलाम ...


'हाथी मेरे साथी - (1971)' ...........जानवर और इंसान के रिश्तों पर बनी सुपर स्टार राजेश खन्ना की सबसे कामयाब फिल्म

'हाथी मेरे साथी - (1971)'

सिने प्रेमियों ने राजेश खन्ना को रोमांटिक हीरो के रूप में बेहद पसंद किया गया ,70 दशक में उनकी आंख झपकाने और गर्दन टेढ़ी करने की अदा के लोग दीवाने हो गए थे,राजेश खन्ना द्वारा पहने गए गुरु कुर्त्ते खूब प्रसिद्ध हुए और कई लोगों ने उनके जैसे कुर्त्ते पहने,लड़कियों के बीच राजेश खन्ना बेहद लोकप्रिय थे,लड़कियों ने उन्हें खून से खत लिखे उनकी फोटो से शादी तक कर ली कुछ ने अपने हाथ या जांघ पर राजेश का नाम गुदवा लिया,उस दौर की युवा लड़कियां उनका फोटो तकिये के नीचे रखकर सोती थी स्टुडियो या किसी निर्माता के दफ्तर के बाहर राजेश खन्ना की सफेद रंग की कार रुकती थी तो लड़कियां उस कार को ही चूम लेती थी लिपिस्टिक के निशान से सफेद रंग की कार गुलाबी हो जाया करती थी उस दौर में पैदा हुए ज्यादातर लड़कों के नाम 'राजेश' रखे गए .....यह था राजेश खन्ना के स्टारडम का वो जादू जिसकी बराबरी आज भी कोई दूसरा नहीं कर पाया राजेश खन्ना जब सुपरस्टार थे तब एक कहावत बड़ी मशहूर थी 

ऊपर आका और नीचे काका। ..

1969 से 1975 के बीच राजेश ने हिंदी सिनेमा के दर्शको को कई सुपरहिट फिल्में दीं जब भी हिंदी सिनेमा की सदाबहार फिल्मों की बात की जाएगी तब राजेश खन्ना की फिल्म 'हाथी मेरे साथी 'को जरूर याद किया जाएगा 50 साल पहले 1 मई 1971 में मजदूर दिवस वाले दिन जब 'हाथी मेरे साथी 'रिलीज हुई थी तब इस ने बॉक्स ऑफिस पर तहलका मचा दिया था इसमें राजेश खन्ना और तनुजा मुख्य भूमिकाओं में थे सहायक भूमिका में डेविड ,सुजीत कुमार ,के एन सिंह ,मदनपुरी ,अभी भटाचार्य ,जूनियर महमूद और नाज थे यह फिल्म दक्षिण भारत के मशहूर फिल्म निर्माता सैंडो एमएमए चिन्नप्पा थेवर ने बनाई थी जो उनकी ही 1967 की तमिल फिल्म देइवा चेयल की रीमेक थी यह उस समय किसी दक्षिण भारतीय फिल्म निर्माता द्वारा बनाई गई सबसे सफल हिन्दी फिल्म थी जिसने दक्षिण भारतीय फिल्म निर्माताओँ के लिए हिंदी सिनेमा के दरवाजे खोले ,हाथी मेरे साथी 'न केवल 1971 की सबसे बड़ी हिट थी बल्कि यह राजेश खन्ना के करियर की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म भी थी भारत में इसकी शुद्ध आय 35 मिलियन थी और इसकी कुल घरेलू कमाई 70 मिलियन थी यह फिल्म सोवियत संघ में भी ब्लॉकबस्टर थी जहां 1974 में इसके 34.8 मिलियन सिनेमा टिकट बिके थे इस फिल्म ने सुपरस्टार राजेश खन्ना के स्टारडम को और ऊँची उड़ान दी थी ''हाथी मेरे साथी'' में ड्रामा,संगीत,अभिनय और इंसान और जानवरो की दोस्ती की शानदार कहानी थी आदमी और जानवर के बीच दिखाया गया रिश्ता पूरी तरह से सराहनीय है जो बच्चो को भी बहुत पसंद आया

फिल्म 'हाथी मेरे साथी '' की कहानी में राजू (राजेश खन्ना) अपने चार पालतू हाथियों के साथ रहता है और सड़को पर इन्ही हाथियों के करतब दिखा अपना पेट पालता है ये हाथी उसकी आजीविका का मुख्य साधन है इसी से उनकी रोजी-रोटी चलती है राजू इन्हे अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करता है क्योंकि जब वह छोटा था तो उन हाथियों ने एक रामू ने जंगली तेंदुए से उसकी जान बचाई थी उसके बाद राजू रामू और उसके तीन और दोस्तों के साथ ही रहने लगता है राजू ''प्यार की दुनिया'' नाम से एक चिड़ियाघर, शुरू करता है इसमें विभिन्न जंगली जानवर उसके हाथियों के साथ रहते हैं, इसमें वह बाघ, शेर, भालू और अपने चार हाथियों को रखता है वह सभी जानवरों को अपना दोस्त मानता है जिनमें से हाथी रामू उसके सबसे करीब है उसकी मुलाकात तनु (तनुजा) से होती है और दोनों को प्यार हो जाता हैं लेकिन तनु के अमीर पिता रतनलाल ( मदन पुरी ) उनके बेमेल प्यार का विरोध करते हैं लेकिन तनु की जिद के बाद वो उसे राजू से शादी करने की अनुमति दे देते हैं तनु जल्द ही राजू के घर में अपने को उपेक्षित महसूस करने लगती है जब वो माँ बनती तो हालात और बिगड़ जाते हैं तनु को लगता है कि राजू अपने परिवार से अधिक अपने जंगली जानवरो से प्यार करता है तनु को हमेशा यह डर लगा रहता है हाथी रामू कही उसके बच्चे को कोई नुकसान ना पहुंचा दे,उसका मानना है कि जानवर आखिर जानवर ही होता है उसका क्या भरोसा ? एक दिन तनु को गलतफहमी हो जाती है कि रामू उसके बच्चे को वास्तव में ही मारना चाहता है बस शंका का ये बीज रामू और तनु के बीच दरार पैदा कर देता है,तनु राजू को हाथी रामू और अपने परिवार में से किसी एक को चुनने को कह देती है अब राजू को अपनी पत्नी और बेटे और अपने जानवरो में से एक को छोड़ना है हाथी रामू अपने मालिक राजू और तनु को एक साथ लाने की कोशिश करता है लेकिन उसे हर बार गलत समझ लिया जाता है सरवन कुमार ( के.एन सिंह ) के कारण रामू को अपना जीवन बलिदान करना पड़ता है रामू अपनी कुर्बानी देकर दोनों को फिर से मिला देता है राजू भरे मन से अपने दोस्त रामू को अंतिम विदाई देता है


'हाथी मेरे साथी ' में लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल द्वारा संगीत और आनंद बख्शी के गीत थे एचएमवी पर इसके संगीत ने अपनी रिकॉर्डतोड़ बिक्री के लिए सिल्वर डिस्क जीता और ऐसा करने वाला वो पहला भारतीय ग्रामोफोन रिकॉर्ड बन गया ''धक धक कैसे चलती है गाड़ी धक धक", "सुनजा आ ठंडी हवा, थाम जा ए काली घटा","दिलबर जानी चली हवा मस्तानी" ,"दुनिया में रहना है तो" "चल चल मेरे साथी" "नफ़रत की दुनिया को" जैसे हिट गाने इस फिल्म में थे जिन्हे लता मंगेशकर ,किशोर कुमार ने गाया हालाँकि सभी गाने इतने रोमांटिक हैं लेकिन आखिरकार जब रामू (हाथी) मर जाता है, तो '' नफरत की दुनिया छोड़ के " गाना दिल को छू जाता है जो फिल्म में मोहम्मद रफी द्वारा गाया गया एकमात्र गीत था और ये गाना किशोर कुमार व लता मंगेशकर के गाए बाकी चारों गानों पर भारी पड़ा इस गाने के लिए गीतकार आनंद बख्शी को सोसायटी फॉर प्रिवेंशन ऑफ क्रुएल्टी टू एनिमल्स (एसपीसीए) से एक विशेष पुरस्कार भी मिला था पहले किशोर कुमार को इस गाने के लिए चुना गया था लेकिन रफ़ी साहेब ने इस गाने को बेहतरीन तरीके से गाया है जो किशोर कुमार के लिए शायद मुमकिन नहीं था 'नफरत की दुनिया को छोड़ के प्यार की दुनिया में खुश रहना मेरे यार'' ये गाना जिसने भी सुना वो सिनेमा हॉल में तो रोया ही लेकिन थिएटर के बाहर तक लोग रोते सुबकते हुए सिनेमाघरों से निकलते हुए देखे गए थे लेकिन पहले फिल्म के संगीत के लिए चिनप्पा देवर ने संगीतकार शंकर जयकिशन को साइन किया था लेकिन यह संगीतकार जोड़ी बहुत समय लेकर संगीत बनाती थे और देवर को फिल्म के गाने जल्दी चाहिए थे ताकि वे फटाफट शूटिंग पूरी कर फिल्म को रिलीज कर सकें तब उन्हें किसी ने लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का नाम सुझाया गया लेकिन यह जोड़ी तो उन दिनों शंकर जयकिशन से भी ज्यादा व्यस्त थी देवर को कही से पता चला कि लक्ष्मीकांत के बेटे का पहला जन्मदिन है वह शाम को बिना बुलाए लक्ष्मीकांत के घर पहुंच गए रास्ते में उन्होंने सुनार से सोने की कुछ गिन्नियां खरीदीं और लक्ष्मीकांत के घर पहुंचकर उस साल भर के बच्चे पर वार कर न्योछावर कर दीं और वापिस घर लौट आए कहते है इसके बाद लक्ष्मीकांत को अपनी पत्नी की जिद पर ये फिल्म करनी प़ड़ी चिनप्पा देवर ने लक्ष्मीकांत और प्यारेलाल को फिल्म के साइनिंग अमाउंट के तौर पर चांदी की प्लेट में रखकर एक एक लाख रुपये नगद दिए फिल्म के हिट होने के बाद इतनी ही रकम दोनों को और दी गई किसी हिंदी फिल्म के संगीतकार को एक फिल्म में संगीत देने के लिए मिली ये उस वक्त की सबसे बड़ी रकम बताई जाती है 

पहले साउथ के फिल्म निर्माता हिंदी फिल्मे बनाने से कतराते थे क्योंकि साउथ में हिंदी भाषा विरोधी आंदोलनों का एक इतिहास रहा है इसलिए साउथ के मशहूर फिल्म निर्माता सैंडो एम एम ए चिनप्पा देवर ने जब कोई हिंदी फिल्म को बनाने की सोची तो अपनी ही बनाई हुई बनाई फिल्म 'देइवा चेयल 'की कहानी को चुना लेकिन यह सब संयोग से ही हुआ दरअसल चिनप्पा देवर मशहूर अभिनेता और राजनीतिज्ञ एम जी रामचंद्रन की फिल्मों के निर्माता रहे हैं लेकिन जब 1969 में एमजीआर ने राजनीति में एंट्री की तो उनकी सियासी गतिविधियां एकदम से बढ़ गईं और फिल्मों से उनकी दूरी बढ़ती गई उनके पास समय का आभाव हो गया लिहाजा देवर तब बिना एमजीआर के छोटे बजट की एक फिल्म बनाने की तैयारी करने लगे एक दिन उनके पड़ोसी निर्देशक श्रीधर ने उन्हें एक हिंदी फिल्म बनाने का आइडिया दिया तो देवर के दिमाग में तुरंत अपनी ही फिल्म 'देइवा चेयल 'की रीमेक बनाने का ख्याल आया उन्होंने असली फिल्म में थोड़ी फेरबदल की और पहुंच गए अभिनेता संजीव कुमार के पास संजीव कुमार ने उनकी कहानी 'प्यार की दुनिया ' सुनी और उनसे कहा कि यह एक रोमांटिक फिल्म है और वो खुद को फिल्म के हीरो की रोमांटिक इमेज के हिसाब से उचित नहीं मानते संजीव कुमार ने चिनप्पा देवर को राजेश खन्ना को फिल्म में लेने का सुझाव दिया वो राजेश खन्ना से फिल्म 'आराधना 'की शूटिंग के दौरान उनसे मिले राजेश खन्ना को भी कहानी कुछ समझ नहीं आई लेकिन उन्होंने फिल्म करने से इंकार नहीं किया उन्होंने चिनप्पा देवर को कुछ समय देने का अनुरोध किया चिनप्पा देवर तो चेन्नई लौट गए पर राजेश खन्ना परेशान हो गए उनको कहानी पसंद नहीं आ रही थी फिल्म 'हाथी मेरे साथी 'में यही से सलीम- जावेद की एंट्री हुई राजेश खन्ना चिनप्पा देवर की फिल्म की कहानी 'प्यार की दुनिया 'लेकर सलीम खान के पास चले गए और उनसे कहा ''यार यह कहानी मेरी कुछ समझ से परे है इसमें कुछ ऐसा कर दो कि एक हिट फिल्म बन सके एडवांस पैसा अब वह लौटा नहीं सकते क्योंकि बंगला खरीदने के लिए उन्होंने वो पैसे पेशगी के तौर पर राजेंद्र कुमार को दे दिए है इसलिए उन्हें यह फिल्म हर हाल में करनी ही होगी

दरअसल उन्हीं दिनों राजेश खन्ना जुबली कुमार अभिनेता राजेंद्र कुमार को उनका कार्टर रोड स्थित बंगला 'आशीर्वाद' बेचने के लिए मना रहे थे जितनी रकम राजेंद्र कुमार ने इस बंगले की कीमत के तौर पर राजेश खन्ना से मांगी राजेश खन्ना ने वही रकम फिल्म 'हाथी मेरे साथी 'में करने के नाम पर चिनप्पा देवर से मांग ली चिनप्पा देवर ने बड़ा दिल दिखाते हुए राजेश खन्ना ने जितनी रकम मांगी उसे स्वीकार कर उन्हें कुछ एडवांस भी दे दिया राजेश खन्ना की दुविधा अब सलीम जावेद को समझ आ चुकी थी उन्होंने राजेश खन्ना की दी गई पटकथा को फिर से काम क्या और उसे शानदार तरीके से दोबारा लिखा

कुछ समय के बाद जब 'आराधना' सुपरहिट हो चुकी थी चिनप्पा देवर फिर राजेश खन्ना से मिले ये पूछने कि वो जो हाथी और हीरो वाली कहानी उन्होंने सुनाई थी और जिसका एडवांस भी वह दे चुके हैं उस पर काम कब शुरू करना है ? इस बार उन्होंने राजेश खन्ना से कहा कि फिल्म 'आराधना' के सुपरहिट होने के बाद उन्हें कितनी रकम उनको और देनी है चिनप्पा देवर को लगा कि 'आराधना 'के हिट होने के बाद राकेश खन्ना अब उनसे और पैसे मांगेगे ? लेकिन राजेश खन्ना को उनकी यह बात चुभ गई


वह बोले कि ''अगर आराधना फ्लॉप होती तो क्या मैं अपनी मार्केट प्राइस कम करने को राजी होता ? आपकी फिल्म उसी रेट पर बनेगी जिस रेट पर तय हुई थी मैं आराधना के हिट होने के बाद भी वही रकम आपसे लूंगा जो पहले तय हुई है उन्होंने चिनप्पा देवर से कुछ दिन बाद आने को कहा ताकि शूटिंग की तारीखें तय हो सकें चिनप्पा देवर राजेश खन्ना के मुरीद बन गए देवर को कहानी दिखाने के बाद फिल्म की शूटिंग शुरू हुई फिल्म हाथी मेरे साथी के निर्देशन की जिम्मेदारी एम ए थिरुमुगम को मिली जो चिनप्पा देवर के छोटे भाई थे 1970 में वाहिनी स्टूडियो में फिल्म की शूटिंग शुरू हुई फिल्म के कुछ आउटडोर सीन ऊटी में भी फिल्माए गए है
फिल्म ब्लॉकबस्टर हुई और सलीम जावेद का नाम भी पूरी इंडस्ट्री के दिल औऱ दिमाग दोनों पर छप गया इस फिल्म को जब हिंदी में लिखा गया था तब बहुत सारी चीजों को सुधारा गया था इस फिल्म का दुखद पहलू ये रहा कि फिल्म में सलीम जावेद को लेखन का पूरा क्रेडिट दिलवाने का वादा राजेश खन्ना ने सलीम खान से पहली मुलाकात में किया था लेकिन जब फिल्म रिलीज हुई तो संवाद लेखक के रूप में फिल्म में नाम इंदर राज आनंद का गया जबकि फिल्म को दोबारा लिखे जाने के बाद इसके 90 फीसदी संवाद सलीम जावेद ने लिखे थे जब फिल्म सुपरहिट हुई तो चिनप्पा देवर ने राजेश खन्ना के कहने पर मुंबई के ट्रेड अखबारों में एक इश्तहार जरूर दिया कि ये फिल्म सलीम जावेद ने लिखी है हालांकि इसमें भी दोनों के नाम गलत छपे राजेश खन्ना ने इस पूरे प्रकरण के दौरान जिस तरह से पेश आए उससे भी सलीम जावेद का दिल टूटा हाथी मेरे साथी में सलीम जावेद का नाम ओपनिंग क्रेडिट्स में स्क्रीनप्ले लिखने वालों के तौर पर आता है हालांकि दोनों की चाहत थी कि फिल्म की क्रेडिट्स में उनका नाम ‘रिटेन बाई सलीम जावेद’ के तौर पर जाए 
  


काका के करियर की सबसे बड़ी हिट फिल्मो में एक' हाथी मेरे साथी 'की शूटिंग जब मद्रास (चेन्नई) और तमिलनाडु की कई दूसरी लोकेशन्स पर चल रही थी उन इलाकों में भी राजेश खन्ना के नाम पर भारी भीड़ जमा हो जाती थी ये हैरत की बात थी क्योंकि वहां हिंदी फिल्में आमतौर पर ज्यादा नहीं चलती थीं तमिल फिल्म इंडस्ट्री खुद काफी बड़ी थी और उसके अपने मशहूर स्टार थे लेकिन राजेश खन्ना का करिश्मा ही था जिसने भाषा की सरहदों को भी पार कर गया था ये करिश्मा उन्होंने उस दौर में कर दिखाया जब न तो टेलीविजन था, न 24 घंटे का एफएम रेडियो न बड़ी-बड़ी पीआर एजेंसियां
एक साक्षात्कार में तनुजा ने कहा,
"जब उनकी बेटी काजोल छह साल की थी तब मैंने उन्हें 'हाथी मेरे साथी ' फिल्म दिखाई थी और दो सप्ताह तक काजोल ने मुझसे बात नहीं की थी वो मुझे बार बार कहती 
"मम्मी, आपने हाथी को मार डाला!" 
तुम्हारी वजह से उसे मरना पड़ा!" 
उनकी छोटी बेटी तनीषा भी ऐसा ही मानती थी तनुजा ने बताया उन्हें पहले हाथियों के साथ काम करना पसंद नहीं आया आखिर वो जानवर थे किसी को भी नुकसान पहुंचा सकते थे लेकिन कुछ शुरुआती आशंकाओं और डर के बाद वे वास्तव में हाथी मुझे पसंद करने लगे खासकर वह हाथी जिसने रामू का किरदार निभाया था फिल्म में एक एक सीक्वेंस है जहां हाथी रामू को मुझे दरवाजे के अंदर धकेलना था और उसे एक सांप से लड़ना था जो बच्चे को काटने वाला था लेकिन हाथी रामू को मुझसे इतना प्यार हो गया था कि उसने ऐसा करने से इनकार कर दिया उसका महावत आख़िरकार जब हार गया तो कैमरा मेन को हाथी, मेरी पीठ और मेरे गिरते हुए के अलग-अलग क्लोज़-अप शूट करने पड़े जिन्हे बाद में जोड़कर यह सीन पूरा किया गया "

फिल्म हाथी मेरे साथी को राजेश खन्ना ने पहले दिल्ली और आसपास के शहरों में 1 मई को रिलीज कराया फिल्म को शुरू के तीन दिनों में अच्छा रेस्पॉन्स नहीं मिला तो चिनप्पा देवर थोड़ा उदास थे इस पर राजेश खन्ना ने कहा कि आप दिल्ली आ जाओ यहां बैठकर बात करते हैं चिनप्पा देवर चेन्नई से ट्रेन से दिल्ली के लिए निकल पड़े और इधर सोमवार से फिल्म निकल पड़ी फिल्म की इतवार के बाद इतनी माउथ पब्लिसिटी हुई कि सोमवार के बाद से सारे थिएटरों में सारे शोज हाउसफुल होने लगे। फिल्म निर्माता निर्देशक शक्ति सामंत के साथ मिलकर इसके बाद राजेश खन्ना ने फिल्म वितरण कंपनी शक्ति राज ने बनाई और इसी कंपनी ने बंबई में 14 मई को इस फिल्म को शानदार तरीके से रिलीज किया फिल्म इतनी बड़ी सुपरहिट हुई कि एम जी रामचंद्रन ने चिनप्पा देवर को बुलाकर इस फिल्म को फिर से तमिल में बनाने को कहा इस फिल्म की सफलता के बाद थेवर ने 1972 में इसे फिर से तमिल में 'नल्ला नेरम' के नाम से बनाया ये फिल्म तमिल में भी ब्लॉकबस्टर रही देवर फिल्म्स की हिंदी में उनकी सबसे बड़ी हिट फिल्म रही इसके बाद उन्होंने तमाम और फिल्में बनाई



बेजुबान जानवरों को रुपहले परदे पर इतने शानदार तरीके से दिखाने का प्रयोग हिंदी सिनेमा में इससे पहले नहीं हुआ। 14 मई 1971 की गर्मियों में रिलीज़ हुई 'हाथी मेरे साथी ' को 53 वर्ष पूरे हो गए है आज भी इस सुपरहिट फिल्म में रामू का किरदार निभाने वाला हाथी हिंदी सिनेमा के दर्शको को याद है हाथी मेरे साथी 'को 1969 से 1971 के बीच राजेश खन्ना की लगातार 17 हिट फिल्मों में से एक गिना जाता है,बेजुबान जानवरों को रुपहले परदे पर इतने शानदार तरीके से दिखाने का प्रयोग हिंदी सिनेमा में इससे पहले नहीं हुआ वाहिनी स्टूडियो में 1970 में फिल्म की शूटिंग शुरू हुई फिल्म के सारे आउटडोर सीन ऊटी में फिल्माए गए राजेश खन्ना की मेहमान भूमिका वाली फिल्म 'अंदाज ' ने एक ऐसी फिल्म का रिकॉर्ड भी बनाया जिसने देश के हर फिल्म वितरण क्षेत्र में 50 लाख रुपये कमाए लेकिन फिल्म 'अंदाज' का ये रिकॉर्ड तोड़ा राजेश खन्ना की ही फिल्म 'हाथी मेरे साथी' ने तोडा दिया जिसने देश के हर वितरण क्षेत्र में एक करोड़ रुपये की कमाई करने वाली पहली फिल्म का रिकॉर्ड बनाया
बच्चों के बीच फिल्म हाथी मेरे साथी का क्रेज इतना था कि स्कूलों की बुकिंग तक हफ्ते हफ्ते भर पहले एडवांस में करानी होती थी कुछ वर्ष पहले मशहूर अख़बार टाइम्स ऑफ इंडिया ने लिखा था 40 साल बाद भी 'हाथी मेरे साथी 'अपने जादू में बेजोड़ है और हिंदी सिनेमा में अभी तक इसकी प्रतिष्ठा और सफलता के बराबर कोई अन्य बाल फीचर फिल्म नहीं बनी है
 
 
'हाथी मेरे साथी' की रिकॉर्डतोड़ सफलता के बाद जानवर और इंसान के रिश्तों पर बनी माँ (1976),जानवर और इंसान (1972),सफ़ेद हाथी (1977) जैसी फिल्मो की बाढ़ सी आ आई हर कोई हाथी मेरे साथी की सफलता को भुनाना चाहता था लेकिन इनमे कोई भी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर खरी नहीं उतर पाई थी जबकि इन फिल्मो में धर्मेंदर ,शशि कपूर ,शत्रुघ्न सिन्हा जैसे बड़े स्टार थे 'हाथी मेरे साथी' के बाद राजेश खन्ना और तनूजा की जोड़ी एक बार फिर मेरे जीवन साथी फिल्म में एक साथ परदे आई लेकिन यह फिल्म फ्लॉप साबित हुई थी 'हाथी मेरे साथी ' की यह हिट जोड़ी खुद दोबारा वही सफलता नहीं दोहरा पाई 

 राजेश खन्ना का बंगला 'आशीर्वाद'

राजेश खन्ना ने 'हाथी मेरे साथी' बनाने वाले चिनप्पा देवर से पारिश्रमिक के एवज में दी गई रकम से चर्चित 'आशीर्वाद 'बंगला राजेंद्र कुमार से ख़रीदा था उससे पहले इस बंगले के मालिक भारत भूषण थे राजेश खन्ना ने बम्बई के कार्टर रोड पर बने राजेंद्र कुमार के बंगले को 31 लाख में खरीदा इससे पहले राजेंद्र कुमार ने इस बंगले का नाम अपनी बेटी के नाम पर डिंपल रखा था और चूँकि डिम्पल राजेश खन्ना की पत्नी का नाम भी था इसलिए राजेश खन्ना ने बंगले का नाम बदलकर 'आशीर्वाद 'रखा... वो जिंदगी भर यही रहे इसी बंगले में उन्होंने अंतिम साँस ली राजेश खन्ना की अंतिम इच्छा थी कि उनके इस दुनिया से जाने के बाद आशीर्वाद बंगले को एक संग्रहालय बना दिया जाये जहाँ उनके चाहने वाले इनकी यादो से रूबरू हो सके लेकिन ऐसा हुआ नहीं राजेश खन्ना के निधन के दो साल बाद ही राजेश खन्ना के ऐतिहासिक स्टारडम का गवाह रहे इस बंगले को उनकी बेटी ट्विंकल और रिंकी ने बेच दिया