Thursday, March 22, 2018

जब राजेन्द्र कुमार चाह कर भी महबूब खान की मदद न कर सके

ये बात 26 मई 1964 की है ..... हिंदी सिनेमा में जुबली कुमार के नाम से मशहूर राजेंद्र कुमार जी कारदार स्टूडियो मे रामानंद सागर की फ़िल्म 'आरज़ू ' की शूटिंग कर रहे थे तभी उन्हें वहाँ मशहूर प्रोड्यूसर डायरेक्टर महबूब खान साहब का फोन आया राजेन्द्र कुमार महबूब खान की बड़ी इज़्ज़त करते थे क्योंकि उनकी फिल्म ' मदर इंडिया '( 1957 ) से वो आज इस मुकाम पर थे उन्होंने फ़ोन पर पूछा ....." कैसे है सब खैरियत तो है खान साब ? "...उधर से जवाब आया...." ठीक हूँ बेटा क्या तुम कल समय निकाल कर मेरे से मिल सकते हो एक जरुरी काम है तुमसे ? " राजेंद्र कुमार कुमार ने कहा .... '' कल मेरी कोई शूटिंग नही है तो खान साहेब कल आपके घर हाजिर होता हूँ . .......अब कल यानि 27 मई 1964 को कुमार जी अपनी पत्नी के साथ सुबह महबूब खान के घर पहुँच गये मेहमाननवाजी की औपचारिकता के बाद जुबली कुमार ने महबूब खान से पूछा ..."कहिये खान साब मुझे कैसे याद किया ? " महबूब खान ने अपनी हालत बयान करनी शुरू की ये वो दौर था जब महबूब खान अपनी महत्वकांशी फिल्म 'सन ओफ इन्डिया (1962 ) ' की नाकामी से उबरने की कोशिश कर रहे थे 

महबूब खान ने कहा .........." राजेन्द्र बेटा जैसा की तुम जानते है 'सन ओफ इन्डिया ' की असफलता के बाद में ज़बरदस्त आर्थिक संकट मे फँस गया हूँ , काफी कर्ज चढ गया है खासतौर से एक बहुत बडे फाइनान्सर के 4 लाख रुपये बाकी है और वो पैसे के लिये मुझे बहुत परेशान कर रहा है अगर तुम मुझे 4 लाख रुपये दे दें तो मैं उस फाइनान्सर का कर्ज अदा कर दूँ ओर बदले में जब तक मैं ये रुपया नहीं चुका पाता तब तक मेरा महबूब स्टूडियो तुम अपने पास गिरवी रख लो '' उस समय राजेन्द्र कुमार के लिये ये रकम मामूली थी क्योंकि उनके पास उस समय काफी फिल्मे थी और उनका सितारा बुलंदी पर था उन्होने महबूब खान से कहा .."आपको अपना महबूब स्टूडियो मेरे पास गिरवी रखने की ज़रूरत नही है मैं आपके लिये इतना तो कर ही सकता हूँ मेरे लिये तो आपकी जुबान ही काफ़ी है "

 इस पर खान साब बोले ........"बेटा मैं दिल का मरीज़ हूँ मुझे कभी भी कुछ भी हो सकता है मैं चाहता हूँ मेरे बाद मेरे बेटे अपनी ज़िम्मेदारी उठाना सीखें इसलिए तुम महबूब स्टूडियो के कागज़ अपने पास गिरवी रख लो ताकि मेरे बाद तुम्हारे पैसे आसानी से मिल जाये " राजेंद्र कुमार ने उन्हे तसल्ली दी और 4 लाख रुपये अगले दिन सुबह 11 बजे उनके घर आकर बिना कुछ गिरवी रखे देने का वादा महबूब खान से कर दिया 


अभी राजेन्द्र कुमार महबूब खान के घर पर ही थे की तभी किसी ने अचानक खबर दी गई की की प्रधानमंत्री पंडित नेहरू जी को हार्ट अटैक आ गया है ओर हालत गंभीर है महबूब खान पंडित नेहरु जी के मुरीद थे ओर नेहरू जी भी उनसे स्नेह रखते थे अक्सर दोनों का मिलना जुलना सामान्य रूप से होता रहता था अब इस दुखदाई खबर से महबूब खान बुरी तरह विचलित हो गये रोने लगे कुरान-ए-पाक उठाया सीने से लगा नेहरु जी की सलामती की दुआ करने लगे .......कुमार ओर उनकी पत्नी ने समझाया की सब ठीक हो जायेगा नेहरू जी को कुछ नहीं होगा आप धीरज रखे  ओर राजेन्द्र कुमार महबूब खान साहेब से वादा करके चले आये की कल 11 बजे रुपये लेकर आपसे मिलता  हूँ  ......कल याने 28 मई 1964 को ...... महबूब खान को ढांढस बंधा कर 12 बजे के करीब राजेन्द्र कुमार महबूब खान साहेब के घर से चले आये नेहरू जी को हदयाघात की खबर से वो भी बेचैन थे लेकिन नियति का अज़ब खेल ...27 मई 1964 की दोपहर 2 बजे सारा देश शोक मे डूब गया लाख कोशिशों के बाद भी नेहरू जी को बचाया नही जा सका और उनका निधन हो गया

अब राजेन्द्र कुमार भी पंडित नेहरू जी को याद करते करते भारी मन से 27 मई की रात बहुत देर से सोये अगले दिन सवेरे-सवेरे 6 बजे बजे फोन की घंटी ने उन्हे जगा दिया वो फोन था महबूब खान साब के बडे बेटे अयूब खान का उसने जो शब्द कहे वो पिघले लोहे की तरह कुमार के कानो में उतर गए उसने बताया  ........" कुमार साहेब नानावती अस्पताल मे आज तड़के सुबह 2 बजे मेरे अब्बा का इन्तेक़ाल हो गया है जनाज़ा सवेरे 11 बजे निकलेगा " .....28 मई 1964 सुबह 11 बजे .... ऐन वही वक्त जब कुमार को महबूब खान साब से मिलना था ताकि उन्हें रूपये दे सके और खान साब अपना कर्ज उतार सकें लेकिन महबूब खान साब तो  फ़िल्म जगत को कर्जदार बनाकर इस दुनिया से दूर जा चुके थे जब तक राजेन्द्र कुमार साहेब जीवित रहे वो अक्सर अपने नजदीकी दोस्तों को कहते रहे की मैं खान साहेब के आखरी वक्त में भी उनके काम न सका और इस बात का मलाल उन्हें जीवन भर रहा ........महबूब खान अपने जीवन के अंतिम दिनों में 16 वीं शताब्दी की कवयित्री हब्बा खातून की जिंदगी पर एक फिल्म बनाना चाहते थे लेकिन उनका यह ख्वाब भी अधूरा ही रह गया 'सन ऑफ इंडिया' की असफलता ने उन्हें अंदर तक तोड़ दिया और ऊपर से नेहरू जी की मौत का सदमा उन्हें सहन नहीं हुआ 

जिस तरह जवाहरलाल नेहरू चीन के धोखे को सहन नहीं कर सके और उन्हें 27 मई 1964 को दिल का दौरा पडा उनकी मौत भी इसी कारण हुई ठीक उसी तरह महबूब खान भी 1962 में 'सन ऑफ़ इंडिया' की नाकामी से आहत तो थे ही लेकिन उनके आदर्श रहे जवाहरलाल नेहरू की मौत का सदमा उनसे बरदाश्त नहीं हो सका उन्हें भी दिल का दौरा पडा और उनका इंतकाल हुआ .......1964 का वो मनहूस साल हमसे दोनों को छीन ले गया अपनी फिल्मों से दर्शकों के बीच खास पहचान बनाने वाला यह महान फिल्मकार 28 मई 1964 को इस दुनिया से रुखसत हो गया ...........तारीख गवाह है  'महबूब खान ' उस शख्स नाम था जिसने स्कूल की चौखट पर पाँव तक नहीं रखा लेकिन उसने खुद को हिंदी सिनेमा का एक स्कूल बनकर दुनिया को दिखा दिया

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