संत तुकाराम (1936) |
भारतीय सिनेमा का इतिहास विश्व सिनेमा के इतिहास के लगभग समकक्ष ही है भारत में मूक फिल्मे 1896 में बनने लगी तो आलम आरा (1931) के निर्माण के साथ भारत ने सवाक सिनेमा की दुनिया में कदम रख दिया लेकिन अगर हम हिंदी सिनेमा की जड़े खोजते खोजते मराठी सिनेमा तक जा पहुंचे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए संत तुकाराम (1936) मराठी सिनेमा की अमूल्य धरोहर है जिसे हिंदी सिनेमा भी आसानी से नजर अंदाज नहीं कर सकता यह फिल्म 17 वीं सदी में महाराष्ट्र में जन्मे संत तुकाराम के जीवन पर आधारित है,जो महाराष्ट्र के सबसे प्रतिष्ठित संतों में से एक माने जाते है और भगवान विठोबा (वारकरी के संरक्षक) के भक्त थे फिल्म उनके जीवनकाल में घटित विभिन्न चमत्कारों को दर्शाती है तुकाराम ने हिन्दू वर्ग, पंथ और लिंग का अंतर मिटाने के लिए प्रचार किया था संत तुकाराम केवल वारकरी संप्रदाय के शिखर ही नहीं वरन दुनिया भर के साहित्य में भी उनकी जगह असाधारण है उनका काव्य और साहित्य रत्नों का अमर खजाना है यही वजह है कि आज सैकड़ों वर्षों बाद भी वे आम आदमी के मन में सीधे उतरते हैं संत तुका राम के दोहे भी संत कबीर की भांति महाराष्ट्र में लोकप्रिय है उन्होंने मराठी में धार्मिक कविताये लिखी,जो महाराष्ट्र की मातृ भाषा है संत तुकाराम ने अपने भक्ति गीतों के माध्यम से लोगों को एक संदेश दिया है
1936 में उनके जीवन पर फिल्म बनाना कोई आसान काम नहीं था लेकिन व्ही शान्तराम जैसे व्यक्ति के लिए ये इतना मुश्किल भी नहीं था मराठी फिल्म संत तुकाराम" को डायरेक्ट करने की जिम्मेदारी उन्होंने विष्णुपंत गोविंद दाम्ले और शेख फ़त्ते लाल को सौंपी और महान आध्यात्मिक कवि संत तुकाराम की भूमिका के लिए 'विष्णुकांत पाग्निस 'जी को चुना गया प्रभात फ़िल्म कम्पनी के सारे पार्ट्नर से राय लेने के बाद ही व्ही शान्ताराम ने विष्णुकांत पाग्निस जी को फाइनल किया था
मगर इस रोल के के लिए चुने जाने के कुछ दिनो के बाद ही फ़िल्म निर्देशक गोविंद दाम्ले ओर शेख को लगने लगा की विष्णुकांत इस रोल के लिये उपयुक्त नही हैं उन्होने व्ही शान्तराम से विष्णुकांत को संत तुकाराम का रोल न देने की मांग रख दी इसका कारण ये था की विष्णुकांत उन दिनों स्टेज पर फिमेल कैरेक्टेर (महिला पात्र ) का अभिनय ज्यादा करते थे उन दिनों महिलाओं का फिल्मो में काम करना अच्छा नहीं माना जाता था इसलिए विष्णुकांत अक्सर महिलाओं के पात्र भी खुद ही निभा लेते है जिसकी वजह से उनके हाव भाव मे स्त्रियों का अभिनय झलकता था लेकिन समय बदलने के साथ साथ बाद के वर्षो में महिलाये फिल्मो में काम करने लगी स्क्रीन टेस्ट मे तो विष्णुकांत निर्देशक को ठीक लगे मगर 15 दिनो की रिहर्सल मे ही उन्हे अपने फ़ैसले पर पछ्तावा होने लगा क्योंकि लाख कोशिशों के बाद भी वो स्त्रियों के हाव भाव ,इशारे छोड़ नही पा रहे थे दामले और शेख ने विष्णुकांत पाग्निस को फ़िल्म से निकालने का फ़ैसला कर लिया अब व्ही शान्ताराम ने खुद रिहर्सल देखने का निर्णय लिया और रिहर्सल देख कर उन्हे लगा की डाइरेक्टर दामले और शेख बिल्कुल सही कह रहे हैं
12 दिसंबर 1936 को मुंबई में सेंट्रल सिनेमा हॉल में 'संत तुकाराम ' रिलीज हुई थी इस फिल्म को कई अन्य अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में भी प्रदर्शित किया गया मैसूर के तत्कालीन महाराजा और विक्टर होप की पत्नी लेडी लिनलिथगो भारत के तत्कालीन वायसराय लिनलिथगो मारक्वेस द्वितीय ने भी इसे देखा था मुंबई में विदेशी वाणिज्य दूतावासों के लिए एक विशेष स्क्रीनिंग की भी व्यवस्था की गई थी इस फिल्म को अकेले महाराष्ट्र में 60 लाख लोगों ने देखा संत तुकाराम को सबसे बड़ी भारतीय फिल्मों में से एक माना जाता है यह प्रभात फिल्मस की "सबसे प्रसिद्ध और प्रशंसित" फिल्म बन गई फिल्म के मुख्य कलाकार विष्णुकांत पाग्निस ,गौरी ,श्री भगवत ,बी.नांदेडकर ,शंकर कुलकर्णी ,शांता मजूमदार ,मास्टर छोटू ,पंडित दामले ,थे ये सभी मराठी रंगमंच के मंझे हुए कलाकार थे एक रोचक जानकारी है गौरी जिन्होंने संत तुकाराम की दूसरी पत्नी अवलाबाई की भूमिका की थी वो कोई एक पेशेवर अभिनेत्री नहीं थी उन्होंने प्रभात फिल्म्स में एक सफाई कर्मचारी के रूप में अपनी शुरुआत की थी और आगे चल कर उनकी फिल्मो में अभिनेत्री बन भूमिकाये भी निभाई विष्णुकांत पाग्निससंत तुकाराम की भूमिका में अमर बन गए तुकाराम के चित्रों और कैलेंडरों में उनका चेहरा और पोशाक का उपयोग होने लगा और वो घर घर पूजे जाने लगे वो जब तक जीवित रहे संत तुकाराम के चरित्र से बाहर नहीं निकल पाये संत तुकाराम फिल्म की भाषा मराठी होने के बावजूद भी हिंदी भाषी लोगो में भी लोकप्रिय हुई शायद उसके बाद कोई भी मराठी फिल्म ऐसी नहीं बनी जो जनता और गंभीर सिनेमा के कला प्रेमियों में बराबर लोकप्रिय हुई हो शायद इस का कारण था निर्देशक विष्णुपंत गोविंद दाम्ले अभिनेता 'विष्णुकांत पाग्निस और निर्माता व्ही शांताराम का महाराष्ट्रियन संस्कृति और समाज से बेहतर तरीके से परिचित होना था ये सब मराठा मिट्टी में जन्मे और रचे बसे थे उन्होंने विदेशो में जाकर फिल्मे बनाने का कोई विधिवत प्रशिक्षण नहीं लिया था इन लोगो ने सिर्फ जिंदगी को करीब से देखा और उसे महसूस किया स्टूडियो और रंगमंच की भट्टी में पक कर सिनेमा की तकनीक सीखी ये इन महान लोगो की मेहनत ही थी की संत तुका राम अंतराष्ट्रीय चर्चा और सम्मान पर सकी और इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज़ हो गई
पवन मेहरा
(सुहानी यादे ...बीते सुनहरे दौर की ...)
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