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आगा हश्र कश्मीरी 3 अप्रैल 1879 - 28 अप्रैल 1935 |
जब भारत में फिल्मों का चलन नहीं था तो जो कुछ था थिएटर ही था यह थिएटर सही मायने में गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक था और इसके अभिनेताओं,
निर्देशकों, लेखकों, संगीतकारों और कलाकारों में पारसी, हिंदू, मुस्लिम,
ईसाई, यहाँ तक कि यहूदी धर्म के लोग भी मिलकर काम करते थे और थिएटर की भाषा
वही थी जो सारे भारत की सांझी बोली थी अंग्रेजों की तरह ही शुरू में पारसी थियेटर ने न केवल भारतीय उपमहाद्वीप की
संस्कृति पर अमिट छाप छोड़ी बल्कि आज वह बॉलीवुड के नाम से अपने विकसित
रूप में दुनिया भर में जाना पहचाना जाता है जैसा की आप जानते है की शुरुआती
हिंदुस्तानी फ़िल्मों पर पारसी रंगमंच का गहरे असर रहा है हिंदुस्तानी
ज़ुबान में पहली बोलती फ़िल्म "आलमआरा" (1931) पारसी निर्देशक आर्देशर
ईरानी ने बनायी थी पारसी थियेटर ने यूं तो कई
मर्तबा मौलिक नाटक भी लिखवाए लेकिन जल्दी ही शेक्सपियर के नाटकों के अनुवाद
होने शुरू हो गए उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक में एक पारसी नोशेरवा जी मेहरबान जी 'आराम' ने
हैमलेट को 'खून-ए-नाहक' के नाम से उर्दू चोला पहना कर शेक्सपियर का पहला
उर्दू अनुवाद किया था इसके बाद एक के बाद एक शेक्सपियर के नाटकों के
कई अनुवाद हुए हालांकि उन नाटकों के अनुवाद में महान अंग्रेजी नाटकों
में पाई जाने वाली जटिल मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक गहराई की कमी थी उसकी बजाय इनमें फूहड़ रोमांस वाले दृश्य, नृत्य और संगीत की भरमार और फूहड़पन वाले हास्य पेश किए जाते थे इसकी वजह साफ थी कि इन नाटकों के दर्शक ज्यादातर आम लोग हुआ करते थे जो सस्ते दर्जे का मनोरंजन पाने के लिए थिएटर में जाते थे इस दौर में ड्रामा कंपनियां हर शहर में जाकर अपने नाटकों का प्रदर्शन करती थीं जिनमें गानों की भरमार हुआ करती थी यहां तक कि जब कोई गाना दर्शकों को पसंद आ जाता तो वे फरमाइश करके दोबारा गवा लेते थे ऐसे दौर में आग़ा हश्र ने थिएटर की दुनिया में कदम रखा और आते ही अपने ही एक नाटक के किरदार 'सीजर' की तरह सब पर छा गए आगा हश्र कश्मीरी का पहला नाटक 'आफताब-ए-मुहब्बत' था
उन्होंने बॉम्बे में न्यू अल्फ्रेड थिएटरियल कंपनी के नाटक लेखक के रूप में
अपना पेशेवर कैरियर शुरू किया जहाँ उन्हें केवल 15 रुपये माह का वेतन
मिलता था यूं तो और भी अच्छे-अच्छे नाटककार उस समय मौजूद थे लेकिन वो सब आगा के सामने बौने मालूम होते थे और सच तो यह है कि आग़ा से पहले नाटककारों को पूछता ही कौन था ? आगा हश्र की सबसे बड़ी विशेषता उनका भाषा ज्ञान था आगा उर्दू भाषी जरूर थे
लेकिन जब हिंदी में लिखते थे तो विशुद्ध हिंदी का समावेश होता था। दुनिया
भर के मशहूर नाटकों के अनुवाद ने आग़ा हश्र को वो शोहरत दी कि वो 'उर्दू के
शेक्सपियर ' कहलाने लगे तब थिएटर की दुनिया में आग़ा हश्र की तूती बोलती थी नाटकों की दुनिया में अपना अहम स्थान बनाने वाले आगा हश्र कश्मीरी को साहित्यकारों ने 'बादशाह' करार दिया है मूक फिल्मो का दौर ख़त्म होने के बाद फिल्मो में उनके
लिखे संवादों के कारण उन्हें व्यापक ख्याति मिली


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न्यू थिएटर्स के बैनर तले 'यहूदी की लड़की' (1933 ) में अभिनेता के.एल सहगल और रतन बाई |
आगा हश्र कश्मीरी के 1913 में
लिखे नाटक 'यहूदी की लड़की' को क्लासिक रंगमंच में शुमार किया जाता है
'यहूदी की लड़की' पारसी रंगमंच का शायद सबसे जाना-माना नाटक है रंगमंच पर मिली जबर्दस्त सफलता के बाद इस नाटक ने बोलती फिल्मों के दौर में
भी अपना जलवा बरक़रार रखा इसके महज दो साल के अंदर 1933 में कलकत्ता के
मशहूर न्यू थिएटर्स के बैनर तले 'यहूदी की लड़की' नाटक पर इसी नाम से
फ़िल्म बनी फ़िल्म में मुख्य भूमिका अपने ज़माने के स्टार गायक और
अभिनेता के.एल सहगल और रतन बाई ने निभायी इसके बाद 1957 में एक बार
फिर एस.डी नारंग ने 'यहूदी की लड़की' फ़िल्म बनायी नारंग ने यहूदी की
लड़की की भूमिका में मधुबाला को लिया और उसके ग्रीक राजकुमार प्रेमी की
भूमिका में प्रदीप कुमार को लिया इस फ़िल्म का संगीत मशहूर संगीतकार हेमंत
कुमार ने दिया था आशा भोसले की आवाज़ में फ़िल्म का 'ये चांद बता तूने
कभी प्यार किया है, दिल अपना किसी चाहने वाले को दिया हैै' गीत काफ़ी
पॉपुलर हुआ था.
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एस.डी नारंग की 'यहूदी की लड़की' (1957 ) में मधुबाला और गजाननं जागीरदार |
बिमल राय ने 1958 में 'यहूदी' बना कर सब को चौका दिया यहूदी फिल्म की कहानी दो हज़ार साल पहले रोमन साम्राज्य में
यहूदियों के उत्पीड़न को दिखाती है जिसका भारतीय सामाजिक ताने बाने से कोई
सरोकार नहीं था 'यहूदी ( 1958 ) ' भी मूलत रोमन साम्राज्य में यहूदियों के
उत्पीड़न के बारे में आगा हश्र कश्मीरी के नाटक 'यहूदी की लड़की ' पर आधारित
थी ट्रैजडी क्वीन मीना कुमारी और ट्रैजडी किंग दिलीप कुमार को इसमें
मुख्य भूमिकाये मिली दलीप साहेब फिल्म की कामयाबी को लेकर कुछ आशंकित थे
हालाँकि वो बिमल राय के साथ इससे पहले देवदास (1955 ) कर चुके
थे प्रिंस मार्कस के रोल में दलीप कुमार को रोमन सम्राट का लुक देने के
लिए लिए सुनहरे बालो की विग खासतौर पर बनवाई गई लेकिन दलीप साहेब इस
सुनहरी विग पहनने से अपने आप को असहज महसूस करते थे उस समय इस
फिल्म को व्यावसायिक सफलता भी मिली लेकिन फिर भी यहूदी बिमल रॉय की कम
ज्ञात फिल्मों में से एक मानी जाती है जो उनकी समकक्ष फिल्मो से अलग दिखती
है
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बिमल राय की यहूदी (1958) में निगार सुल्ताना और दलीप कुमार |

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