आपातकाल का काला दौर - (1975-1977 ) |
आज़ाद भारत के इतिहास में 25 जून 1975 का दिन बेहद अहम है आज ही के दिन 43
साल पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी यानी 'आपातकाल
'लगा दिया था इस दौरान कई नेताओं, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को
जेल में भर दिया गया और प्रेस की आज़ादी पर भी अंकुश लगा दिया गया था तब न केवल आम आदमी परेशानियों से जूझ रहा था बल्कि फिल्म इंडस्ट्रीज़ भी
इसकी जद में आ गई कई बॉलीवुड स्टार्स भी आपातकाल का विरोध कर रहे थे
क्योंकि जो सरकार की बात नहीं मान रहा था वो खामियाज़ा भुगत रहा था इमरजेंसी
का विरोध करने वालों में वी. शांताराम, गुलजार और विनोद खन्ना, किशोर
कुमार ,देवानंद ,राज कुमार,मनोज कुमार,आई.एस जौहर, जैसे स्टार्स शामिल
थे। ..........अक्खड़ स्वभाव अभिनेता राजकुमार इमरजेंसी के सख्त विरोध में
थे सरकार ने उनसे अपने अंदाज में इमरजेंसी का बखान करने को कहा था। लेकिन
राजकुमार ने साफ़ इनकार कर दिया। इतना ही नहीं,उन्होंने खुले तौर पर कहा कि
'' मैं इसका विरोध करने वालों का साथ दूंगा। '' नतीजा राजकुमार सरकार के
गुस्से की जद में आ गए ये बात राजकुमार ने 1995 के एक इंटरव्यू में बताई थी
'दस नंबरी' (1976) |
उस समय के सूचना प्रसारण मंत्री रहे 'विद्या चरण शुक्ल 'के दोस्त होने के
कारण लोगों को लग रहा था कि मनोज कुमार इमरजेंसी का समर्थन करेंगे। लेकिन
ऐसा नहीं हुआ। मनोज कुमार ने इमरजेंसी का जमकर विरोध किया। एक सुबह उन्हें
सूचना प्रसारण मिनिस्ट्री से फोन आया और उन्हें कहा गया कि वो 'पिंजर'
जैसे उपन्यास की राइटर रहीं अमृता प्रीतम द्वारा लिखी गई प्रो-इमरजेंसी
डॉक्युमेंट्री को डायरेक्ट करे मनोज कुमार ने साफ़ इनकार कर दिया। इतना ही
नहीं,उन्होंने अमृता से सीधा फ़ोन कर कहा पूछा कि ...." क्या एक लेखक के तौर
पर क्या उन्होंने खुद को बेच दिया है। ? " बताया जाता है कि इसके बाद न
केवल अमृता ने शर्मिंदगी जाहिर करते हुए माफ़ी मांगी। बल्कि उन्होंने मनोज
कुमार से स्क्रिप्ट जला देने की गुजारिश भी की नतीजतन मनोज कुमार की फिल्म
'दस नंबरी' (1976) की रिलीज रोक दी गई। इसे लेकर मनोज कुमार ने कोर्ट में
केस किया और लाखों रुपए खर्च कर दिए। हालांकि, कोई फायदा नहीं हुआ। बाद में
जब जनता दल की सरकार सत्ता में आई तो लालकृष्ण आडवाणी ने फैसला मनोज कुमार
के पक्ष में दिया। इसके बाद मनोज कुमार इमरजेंसी के खिलाफ केस जीतने वाले
इकलौते फिल्म निर्माता बने थे।
'शोले' (1975) |
रमेश सिप्पी के डायरेक्शन में बनी
'शोले' (1975) इमरजेंसी लगने के करीब 2 महीने बाद रिलीज हुई थी। सेंसर
बोर्ड से इसे क्लियर कराने में मनोज कुमार की अहम भूमिका मानी जाती है।
मनोज कुमार तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री विद्या चरण शुक्ल के खास
दोस्त थे। इसलिए प्रोड्यूसर जी. पी. सिप्पी ने मनोज कुमार से 'शोले' के लिए
मदद मांगी।' शोले ' फिल्म का क्लाइमेक्स सरकार की आँखों में खटक रहा था
फ़िल्म शोले के आख़िरी सीन में असल में रमेश सिप्पी ने दिखाया था कि ठाकुर
कील लगे जूतों से गब्बर को रौंद देता है. लेकिन वो इमरजेंसी का दौर था और
सेंसर बोर्ड के नियम काफ़ी सख़्त थे वो नहीं चाहता था कि ऐसा कुछ भी दिखाया
जाए जिससे लगे कि कि कोई भी क़ानून अपने हाथ में ले सकता है सेंसर बोर्ड
चाहता था कि गब्बर को पुलिस के हवाले कर दिया जाए 15 अगस्त 1975 रिलीज़ की
तारीख तय थी और 20 जुलाई हो चुकी थी संजीव कुमार सोवियत संघ में थे वे
तुरंत भारत लौटे आख़िरी सीन दोबारा शूट हुआ,डबिंग और मिक्सिंग हुई सेंसर ने
रामलाल का वो सीन भी काट दिया जिसमें वो ज़ोर ज़ोर से ठाकुर के उन जूतों
में कील ठोकता है जिससे ठाकुर गब्बर को मारने वाला था क्योंकि रामलाल आँखों
में विद्रोह की झलक थी ......हारकर रमेश सिप्पी को शोले का कलाइमेक्स
बदलना पड़ा खास बात यह है कि 'शोले' तो सेंसर बोर्ड से पास हो गई। लेकिन खुद
मनोज कुमार की फिल्म 'दस नंबरी' अटक गई।
'देश परदेस' (1978) |
देव साहेब की 'नेशनल पार्टी ' के चंदे की रसीद बुक |
देव आनंद ने भी जब दूरदर्शन पर
इमरजेंसी की कैम्पेनिंग करने से इनकार कर दिया था तो उन्हें काफी दिक्कतों
का सामना करना पड़ा था। उस वक्त उनकी 'देस परदेस' जैसी फिल्मों की शूटिंग चल
रही थी। खासकर जब उन्हें 'देश परदेस' (1978) की शूटिंग के लिए लंदन जाना
था तो उन्हें परमिशन मिलने में दिक्कत हुई। इस दौरान उनके भाइयों चेतन और
विजय के साथ-साथ प्राण, ऋषिकेश मुखर्जी, शत्रुघ्न सिन्हा और डैनी
डेन्जोंगपा जैसे लोगो का भी भरपूर समर्थन मिला। देवानंद काफी परेशान
हुए देवआनंद ने तो सरकार के खिलाफ आहत हो एक नया राजनैतिक दल 'नेशनल पार्टी
' ही बना डाला उन्होंने इमरजेंसी के खिलाफ पहली स्पीच जुहू, मुंबई में
दी। और घर पर पार्टी का दफ्तर बना लिया ,शिवाजी पार्क में इसका बड़ा जलसा
भी हुआ सदस्य बनाने के लिए देव साहेब की तस्वीर छपी रसीद बुक से चंदा
इकठ्ठा भी होने लगा लेकिन बाद में जब व्यापक समर्थन नहीं मिला तो उन्होंने
'नेशनल पार्टी ' भंग कर दी।
इमरजेंसी के खिलाफ मोर्चा
खोलने का खामियाजा गायक किशोर कुमार को भी भुगतना पड़ा था। दरअसल, उस वक्त
सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने उनसे एक म्यूजिकल फंक्शन में गाना गाने को
कहा था। लेकिन किशोर कुमार ने साफ इनकार कर दिया। इसके बाद वे सरकार की
नजरों में खलनायक बन गए। बाद में संजय गांधी और विद्या चरण शुक्ल ने ऑल
इंडिया पर किशोर कुमार के गाने रेडियो और दूरदर्शन में बजाए जाने पर रोक
लगा दी। लेकिन किशोर दा ने बड़े ही साहस के साथ इस गलत फैसले का सामना किया।
बाद में मोहम्मद रफी और मन्ना डे ने संजय गांधी के खिलाफ मोर्चा खोला। रफी
ने तो संजय से यहां तक पूछ लिया कि '' इस तरह का एक्शन लेने के बाद वे किस
हक से खुद को पंडित जवाहर लाल नेहरू जैसे महान इंसान का पोता कहते हैं ?
कहा जाता है कि मोहम्मद रफी और मन्ना डे के दखल के कुछ समय बाद किशोर कुमार
लगाया गया बैन वापस ले लिया गया
'धर्मवीर ' (1977) |
इसी तरह मनमोहन देसाई की फिल्म 'धर्मवीर
' (1977) सिर्फ इसलिए पांच महीने लेट कर दी गई क्योंकि इसमें 'जनता ' शब्द
के प्रयोग पर सरकार को आपत्ति थी उन्हें जनता की जगह 'प्रजा ' शब्द का
प्रयोग करने के लिए कहा गया, .........फिल्म मेकर सत्यजीत रे ने हमेशा ही इमरजेंसी
को क्रिटीसाइज किया है। इंदिरा गांधी ने उन्हें जवाहरलाल नेहरु पर
डॉक्युमेंट्री डायरेक्ट करने को कहा था। लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया।
लेकिन सत्यजीत का कद बॉलीवुड में इतना बड़ा था कि सरकार उन्हें छूने की
हिम्मत नहीं कर सकती थी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सी.पी.आई) इमरजेंसी के
सपोर्ट में थी। लेकिन इसके मेंबर होने के बावजूद फिल्ममेकर इमरजेंसी का
विरोध करते रहे। इसी तरह अपने जमाने की फेमस एक्ट्रेस और अब तृणमूल
कांग्रेस पार्टी की लीडर संध्या रॉय भी इमरजेंसी का विरोध कर रही थीं।
'आंधी '(1975) |
गुलज़ार साहेब की फिल्म 'आंधी '(1975) पर प्रतिबन्ध लगा दिया उन्हें कारण
बताया गया की फिल्म की कहानी उन्होंने 'इंदिरा गाँधी 'पर लिखी है श्रीमती गांधी जब तक सत्ता में रही तब तक फिल्म को पूरी तरह से रिलीज की अनुमति नहीं मिली रिलीज के 26 सप्ताह बाद फिल्म को 1975 की राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान प्रतिबंधित कर दिया गया लेकिन इस प्रतिबंध ने फिल्म को चर्चित बना दिया और ये राष्ट्रीय चर्चा का विषय बन गई 1977 के राष्ट्रीय चुनावों में इंदिरा गाँधी की करारी हार के बाद सत्तारूढ़ जनता पार्टी ने इसे न केवल मंजूरी दे दी और बल्कि 'आंधी 'का कई राज्यों में सरकारी टेलीविजन चैनल दूरदर्शन पर प्रीमियर कर टेलीकास्ट भी किया 23वें फिल्मफेयर अवॉर्ड्स में आंधी को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया, जबकि संजीव कुमार ने सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए फिल्मफेयर अवॉर्ड जीता। फिल्म ने सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए फिल्मफेयर क्रिटिक्स अवॉर्ड भी जीता.... प्रतिबन्ध के बाद 'आंधी ' सबसे बड़ी हिट बन कर उभरी
शबाना आज़मी फिल्म 'किस्सा कुर्सी का' (1978 ) के एक दृश्य में |
लेकिन ऐसा नहीं था की फिल्म इंडस्ट्रीज़ आपातकाल से डर कर चुपचाप सिमट कर
बैठ गई कई साहसी लोगो ने अपना संघर्ष जारी रखा फ़िल्म 'किस्सा कुर्सी का'
जनता पार्टी सांसद अमृत नाहटा ने बनाई थी फ़िल्म में संजय गांधी और उनके कई
करीबियों को दिखाया था शबाना आज़मी गूँगी जनता का प्रतीक थी, उत्पल दत्त
गॉडमैन के रोल में थे और मनोहर सिंह एक राजनेता के रोल में थे जो एक जादुई
दवा पीने के बाद अजब ग़ज़ब फ़ैसले लेने लगते हैं संजय गाँधी ने अपने
कार्यकर्ताओं को फिल्म का विरोध करने को कहा सिनेमा हालो पर तोड़ फोड़ की गई फिल्म के ओरिजनल नेगेटिव ज़ब्त
कर लिए गए थे और बाद में कथित तौर पर उन्हें जला दिए गए इमरजेंसी के बाद
बने शाह कमीशन ने संजय गांधी को इस मामले में दोषी भी पाया था और कोर्ट ने
उन्हें जेल भेज दिया हालांकि बाद में फ़ैसला पलट दिया गया 1978 में इस
फिल्म 'किस्सा कुर्सी का' को फिर दोबारा बनाया गया
'नसबंदी' (1978) |
इसी तरह 1978
में आईएस जौहर की फ़िल्म 'नसबंदी' (1978) भी संजय गांधी के नसबंदी
कार्यक्रम पर व्यंग थी जिसमें उस दौर के बड़े सितारों के डुप्लिकेटों ने
काम किया था फ़िल्म में दिखाया गया कि किस तरह से नसंबदी के लिए ज़्यादा से
ज़्यादा लोगों को पकड़ा गया नसबंदी फ़िल्म का एक और गाना था- 'क्या मिल
गया सरकार इमरजेंसी लगा के' जिसे मन्ना डे और महेंद्र कपूर ने गाया था
मशहूर हुआ था इस फिल्म का हर किरदार नसबंदी करवाने के लिए के लिए किसी न किसी को खोजता रहता है इंदिरा गांधी सरकार के चित्रण और आपातकालीन अवधि के दौरान अनिवार्य नसबंदी
कार्यक्रर्म की नीति के कारण इसकी रिलीज के बाद फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिया
गया था। लेकिन उस समेत भारत में वीसीआर का प्रचलन आ जाने की वजह से होम
वीडियो के माध्यम फिल्म ने लोकप्रियता हासिल की इस फिल्म में किशोर कुमार
का गाया एक गाना ' बापू तेरे देश में ये कैसा अत्याचार ' को विपक्षी राजनैतिक पार्टियों ने 'आपातकाल 'का प्रतीक बना कर चुनावी रैलियों और जलसो में खूब भुनाया
' इंदु सरकार' (2017) |
दुनिया के कई देशों में राजनीतिक हस्तियों और घटनाओं
पर फ़िल्में बनना आम बात है लेकिन भारत में आज भी सियासतदानों और सिनेमा के
बीच असहज सा रिश्ता आज भी बना हुआ है इमरजेंसी के 42 साल बाद भी एक
राजनीतिक फ़िल्म ' इंदु सरकार' (2017) में गांधी, जयप्रकाश और किशोर कुमार
जैसे नामों को लेकर कांग्रेस पार्टी ने जबरदस्त विरोध किया और निर्माता मधु
भंडारकर को निशाने पर ले लिया उनके साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान मारपीट की गई कांग्रेस की सरकार में कैबिनेट मिनिस्टर रहे एक नेता फिल्म को रुकवाने कोर्ट चले गए लेकिन' इंदु सरकार' रिलीज़ हो गई आज
आपातकाल को बीते हुए 43 साल हो गए है इमरजेंसी ने जनता को काफी कुछ सिखाया
इमरजेंसी की ये बहुत बड़ी देन है कि उसने जनता को जागरुक किया कि जो शासक
जनता पर अधिक ज़्यादती करे तो उसे जनता ही उखाड़ कर फेंक सकती है .......हैरानी की बात तो यह है की जो राजनैतिक पार्टी कांग्रेस आपातकाल के वक्त सत्ता में थी और जिसने कई हिंदी फिल्मो को प्रतिबंधित कर दिया वो आज 42 वर्ष बाद भी इसी विषय पर बनी फिल्म का विरोध क्यों कर रही है? जबकि अब समय बदल चूका है वैसे तो अब
तो संभव नहीं की इस तरह की इमरजेंसी दोबारा लग सके वो इसलिए कि आज जनता
बहुत जागरुक है 43 साल के बाद आज आम आदमी को उसके अधिकारों का पता है दूसरा
ये कि आज के वक्त में मीडिया, सोशल मीडिया और इंटरनेट इतना आगे बढ़ गया है
कि आज 1975 के जैसी इमरजेंसी दुबारा नहीं लग सकती आज के दौर में ज़रूरत से
अधिक आज़ादी है और उसकी ज़िम्मेदारी भी तय नहीं है अगर आज आपकी बात कोई
नहीं सुन रहा तो आप उसे इंटरनेट पर डाल सकते है आपातकाल में तो न्यूज़
पेपर्स ,लेटर ,टेलीग्राम तक सेंसर होते थे ,पत्रकारों को वही लिखने को कहा
जाता था जो सरकार चाहती थी लेकिन आज ऐसा होना संभव नहीं है वो 21 महीने आज़ाद भारत के वास्तव में काले दिन थे जिसका व्यापक प्रभाव हिंदी फिल्म इंडस्ट्रीज़ पर भी पड़ा आज आपातकाल से देश को मिले सबक से सीखने के लिए कई बातें हैं जिसकी जानकारी आज की पीढ़ी को अवशय होनी चाहिए
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