अलबेला - (1951) |
कुछ फिल्मे और गीत अपने समय का प्रतिनिधितत्व करते है और समय के दर्पण पर अपनी गहरी छाप छोड़ जाते है ऐसी फिल्मो की चमक कभी भी फीकी नही पड़ती भगवान दादा द्वारा निर्मित 'अलबेला (1951 )' एक ऐसी ही म्यूज़िकल ,कॉमेडी फ़िल्म है जिसे भगवान दादा ने स्वयं लिखा बनाया और उसमे अभिनय भी किया ,हिंदी सिनेमा जगत में सुपरस्टार अमिताभ बच्चन की नृत्य शैली के कई दीवाने है लेकिन खुद सुपर स्टार अमिताभ बच्चन जिनके दीवाने थे और जिनकी नृत्य शैली को अपनाया,वो हैं पचास के दशक के सुपरस्टार 'भगवान दादा।.'..... आज की पीढ़ी शायद उन्हें नहीं जानती हो लेकिन वो अपने समय में किसी 'सुपरस्टार' से कम नहीं थे फिल्म जगत में 'भगवान दादा' के नाम से मशहूर 'भगवान आभा जी पल्लव' से फिल्मों से जुड़ी कोई भी विधा अछूती नहीं रही। वह ऐसे हँसमुख इंसान थे जिनकी उपस्थिति मात्र से माहौल खुशनुमा हो उठता था। हंसते हंसाते रहने की प्रवृति को उन्होंने अपने अभिनय, निर्माण और निर्देशन में खूब बारीकी से उकेरा।
भगवान दादा शुरू से ही फिल्म बनाने का सपना देखते थे बचपन से ही उन्हें फ़िल्मों के प्रति आकर्षण था धुन के पक्के दादा ने तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद हार नहीं मानी वे कपडा मिल में एक मामूली लेबर के रूप में काम करते, लेकिन ख्वाब फिल्म बनाने के देखते .......तंगहाली में भी वे चॉल के दोस्तों से भी कुछ न कुछ इंतजाम करके फिल्में देख ही लेते थे ,भगवान मूक फ़िल्मों के दौर में ही सिनेमा की दुनिया में आ गए। उन्होंने शुरूआत में छोटी-छोटी भूमिकाएं की। बोलती फ़िल्मों का दौर शुरू होने के साथ उनके करियर में नया मोड़ आया। भगवान दादा के लिए 1940 का दशक काफ़ी अच्छा रहा। इस दशक में उन्होंने कई फ़िल्मों में यादगार भूमिकाएं की। अभिनय के साथ ही उन्हें फ़िल्मों के निर्माण निर्देशन में भी दिलचस्पी थी। एक्टिंग के बाद वे ज्यादा से ज्यादा समय सेट पर देते, ताकि फिल्म निर्माण की बारीकियां समझ पायें ,फिल्म निर्माण की बारीकियां सीख कर उन्होंने तय किया कि वह कम बजट की फिल्म बनायेंगे ,किसी तरह उन्होंने उस वक्त 65 हजार रुपये इकट्ठे किये और कम बजट की फिल्मे बनाने लगे , उन्होंने 1938 से 1949 तक लगातार लो बजट की फिल्मों का निर्माण किया उनमें ज्यादातर स्टंट व एक्शन फिल्में थीं ,वे अपनी फिल्मों को मोहल्ले की गलियों में सभी लोगों को एकत्रित करके दिखाया करते थे ,1947 में भगवान दादा ने अपनी खुद की स्टूडियों कंपनी 'जागृति स्टूडियो' की स्थापना की । भगवान दादा की किस्मत का सितारा वर्ष 1951 में प्रदर्शित फिल्म 'अलबेला ' से चमका अभिनेता राजकपूर के कहने पर भगवान दादा ने फिल्म 'अलबेला' का निर्माण और निर्देशन किया ,बेहतरीन गीत-संगीत और अभिनय से सजी इस फिल्म की कामयाबी ने भगवान दादा को 'स्टार' के रूप में स्थापित कर दिया आज भी इस फिल्म के सदाबहार गीत दर्शकों और श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। अलबेला उस दौर की सुपरहिट फिल्म रही थी इस फिल्म ने जुबली मनाई थी और बॉक्स ऑफिस पर 1951 की तीसरी सबसे से ज्यादा कमाऊ फ़िल्म भी साबित हुई ,अपार सफलता के बाद फिल्म 'अलबेला ' के रिलीज़ के 2 बाद 1953 में इस फिल्म को तमिल में 'नल्ला पिल्लई ' के नाम से डब कर रिलीज़ किया गया 'अलबेला 'को भारत की सफल संगीतमय कॉमेडी फिल्मो में से एक माना जाता है
अलबेला की कहानी एक ऐसे युवक प्यारेलाल ( भगवान दादा ) की है जो नाटको और फिल्मो की दुनिया मे खोया रहता है और एक बड़ा कलाकार बनने के सपने देखता है ,पिता ( बद्री प्रसाद ) के लाख समझाने पर भी वह अपनी धुन मे मस्त रहता है उसकी नौकरी भी चली जाती है ,प्यारेलाल को घर से निकाल दिया जाता है प्यारे लाल प्रण करता है की वो एक दिन बड़ा आदमी बन कर ही अपने घर में वापिस आएगा लेकिन जल्द ही उसे एहसास हो जाता है की ये काम इतना भी आसान नहीं .... कई छोटी मोटी तकलीफो से गुज़र रहे प्यारेलाल की मुलाकात एक दिन आशा से होती है प्यारेलाल की लगन से प्रभावित होकर अाशा ( गीताबाली ) एक थियेटर कंपनी के मालिक (सुंदर ) से नौकरी पर रख लेने का अाग्रह करती है आशा इसी थियेटर कंपनी में अभिनय करती है ... अाशा प्यारे लाल को थियेटर कंपनी मे अभिनेता बनने मे मदद करती है , दोनों एक-दूसरे से करने लगते है ,प्यारेलाल एक बड़ा अभिनेता बन जाता है ,लेकिन प्यारेलाल जब बड़ा अादमी बन कर वापिस घर अाता है तो हालात बदले होते है ,उसकी माँ का निधन हो चुका है ,बाप और बहन का भी कुछ पता नही होता..... अब प्यारे लाल हालातो से लड़ता हुअा अपने बाप और बहन को ढूंढता है इस काम मे अाशा प्यारे लाल की मदद करती है .......भगवान, पंडित बद्रीप्रसाद, निहाल, बाबू राव पहलवान, सुंदर, मारुति राव, श्याम ,गीता बाली, प्रोतिमा देवी, बिमला, दुलारी, उषा शुक्ला अलबेला के मुख्य कलाकार है...... गीता बाली जी का असली नाम 'हरकीर्तन कौर' था वह सिख परिवार से ताल्लुक रखती थीं भगवान दादा की फ़िल्म अलबेला मे वो ग़ज़ब की खूबसूरत लगी उन्होंने 'अलबेला ' मे भगवान दादा जैसे नए कलाकार के साथ हीरोइन बनने का जोखिम लिया जबकि उस समय गीताबाली फिल्मी दुनिया मे बड़ा नाम बन चुकी थी
आज भी इस फिल्म के राजेंदर कृष्ण के लिखे सदाबहार गीत दर्शकों और श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते हैं 'अलबेला' में कुल 12 गीत है जिनमे 'शोला जो भड़के 'और' 'ये दीवाना,ये परवाना' जैसे कई वेस्टर्ननाइज्ड गाने हैं, जिनमे "बोनो ड्रम, ओबो, क्लेरिनेट्स, ट्रम्पेट्स, सैक्सोफोन इत्यादि का प्रयोग किया गया है ,आमतौर पर ऐसा कैबरे सांग्स में ज़्यादातर होता है लेकिन बेहद लोकप्रिय पश्चिमी शैली के गीतों के अलावा, फिल्म में "धीरे आना अखियों में निंदिया , "बालमा बडा नदान रे " आदि जैसे क्लासिक मेलोडी गाने भी थे ,सी.राम.चंद्र के संगीत निर्देशन में भगवान दादा पर फिल्माये गीत 'शोला जो भड़के दिल मेरा धड़के' मेरे दिल की घड़ी करे टिक-3 ओ बजे रात के बारह उन दिनों युवाओं के बीच क्रेज बन गये थे । इसके अलावा 'भोली सूरत दिल के खोटे नाम बड़े और दर्शन छोटे', ' शाम ढ़ले खिड़की तले तुम सीटी बजाना छोड़ दो' भी श्रोतोओं के बीच लोकप्रिय हुये थे ,आज भी डांसिंग पार्टियों में युवा 'अलबेला 'के गीतों पर थिरकना जरूर पसंद करते हैं इस फिल्म के एक गीत "धीरे आना अखियों में निंदिया " को आज भी हिंदी फिल्मो में लोरी गीतों में उत्तम माना जाता है सभी गीत लता जी और सी.राम.चंद्र की अवाज़ मे है सिर्फ गीत एक ' दीवाना आएगा " में रफ़ी साहेब का स्वर है .........चूंकि दादा खुद विपरीत परिस्थितियों को झेल चुके थे इसलिए उन्होंने कई चुनौतियां व जिंदगी की कठिन परिस्थितियों में पहचान पाई ,भगवान दादा हर तरह की मुश्किलों से उबरने का हुनर जानते थे इस फिल्म की शूटिंग के दौरान एक बड़ा मजेदार वाक्या उनके सामने आया पैसे को लेकर उनकी डांस आर्टिस्टों से ठन गई पेशेवर डांसरो के ज्यादा पैसे मांगने पर भगवान दादा ने उन्हें दरकिनार कर स्टंट फाइटरों से ही 'अलबेला 'के हिट गाने 'शोला जो भड़के ' में डांस करवा डाला इस फिल्म से भगवान दादा ने अपनी खुद की एक ऐसी गज़ब नृत्य शैली विकसित की जो बाद में उनका अमिट 'सिग्नेचर 'बन गई जिसे 'भगवान दादा डांस ' कहा गया इस नृत्य शैली को बाद में कई मशहूर अभिनेताओं ने आज़माया और परदे पर वाह वाही लूटी
भगवान दादा सफल होने के बाद भी अपनी जमीन या जड़ को नहीं भूल सके , ऐसे में उन्होंने ऐसी कई फिल्मों का निर्माण किया जिसमें कामकाजी वर्ग व मील मजदूरों को फोकस किया गया भगवान दादा ने कभी भी मिल के मजदूरों के साथ अपने सरोकार नहीं बदले ,उन्होंने मिलो के कई होनहार व प्रतिभावान लोगों को यथासंभव अपने फिल्म निर्माण में रोजगार के अवसर भी दिलाये........स्टार बनने के बाद भी जब भी वे चॉल आते तो यहां के लोगों के साथ महफ़िल जमाते व जम कर मस्ती किया करते थे ,दादा अपने दोस्तों में "दादा शोला " के नाम से ही लोकप्रिय हो गये थे दोस्तों की मंडली ने ही उन्हें "शोला " की उपाधि दी थी स्टारडम को उन्होंने कभी खुद पर हावी नहीं होने दिया था शायद यही वजह थी कि वे अच्छे और बुरे वक्त में भी चॉल व अपनी पुरानी गलियों में आते-जाते रहे अपने संघर्ष के दिनों के साथी मिल मजदूरों को वो कभी नहीं भूले
नाटे गठीले कद के भगवान दादा जानते थे की उनका चेहरा हीरो के लायक नही है इसलिए उन्होंने अपनी फिल्मो मे हास्य और शांत नृत्य की एकदम अलग शैली विकसित की जिसकी दुनिया अाज तक दीवानी है भगवान दादा को "ला "शब्द से रहा विशेष लगाव रहा उनकी सारी फिल्मो के नाम ऐसे ही होते थे ....जैसे' झमेला , रंगीला (1953), भला आदमी, (1956) , ( हल्ला-गुल्ला-(1954) ,शोला जो भड़के और 'लाबेला, (1966) इत्यादि ....लेकिन 'अलबेला' को छोड़ कर सारी ही फ़िल्में नाकाम रहीं वर्ष 1966 में प्रदर्शित फिल्म "लाबेला" बतौर निर्देशक भगवान दादा के सिने करियर की अंतिम फिल्म साबित हुयी। दुर्भाग्य से इस फिल्म को दर्शको ने बुरी तरह नकार दिया फिल्म 'लाबेला की असफलता के बाद बतौर निर्देशक भगवान दादा को फिल्मों में बतौर अभिनेता भी काम मिलना बंद हो गया और उनके बुरे दिन शुरू हो गए और फिर धीरे-धीरे हिंदी सिनेमा जगत के डांसिंग सुपर स्टार की थिरकन धीरे -धीरे थमती गयी हालत यह हो गयी कि उन्हें फिर से अपनी पुरानी जिंदगी में लौटना पड़ा ,इस मुश्किल समय में केवल अभिनेता ओम प्रकाश ,संगीतकार सी रामचन्द्र और गीतकार राजेंदर कृष्ण जैसे उनके कुछ पुराने दोस्तों ने उनकी यथासंभव मदद की थी ......कभी भगवान दादा चेम्बूर में जागृति स्टूडियो ,जुहू में समुन्दर के किनारे आलीशान बंगले और अमीरो की शान रही इम्पाला सहित बीस कारों के मालिक थे लेकिन ये दुःखद बात है की उनके पास अपने अंतिम समय में इलाज़ के लिए भी पैसे नहीं थे भगवान दादा ने करीब 48 फिल्मों का निर्माण किया था लेकिन अफसोस की बात कि बॉम्बे लैबोरेट्रीज में लगी आग के कारण 'अलबेला 'और' भागमभाग' छोड़ कर सभी फिल्मों का निगेटिव जल गए और नयी पीढ़ी उनकी बेहतरीन कृतियों से वंचित रह गयीं....... भगवान दादा जी ने उसी चॉल में आखरी साँस ली थी जिसे आप महेश मांजेकर की फिल्म "सिटी ऑफ़ गोल्ड " (2010) में देख चुके है हिन्दी फ़िल्मों में नृत्य की एक विशेष शैली की शुरूआत करने वाले भगवान दादा ऐसे 'अलबेले ' सितारे थे, जिनसे महानायक अमिताभ बच्चन सहित आज की पीढ़ी तक के कई कलाकार प्रभावित और प्रेरित हुए।
भगवान दादा की अलबेला की लोकप्रियता का क्रेज़ अाज भी है अभी 2016 में मराठी फ़िल्म 'एक अलबेला' रिलीज हुई थी 'एक अलबेला' शेखर सर्तेंदल द्वारा निर्देशित महान एक्टर भगवान दादा के जीवन पर आधारित है। जिसमें भगवान दादा की जिंदगी परदे पर उतारी गई है जिसमे गीता बाली की भूमिका विद्या बालन ने निभाई है और दादा का रोल मंगेश देसाई ने निभाया है ,'एक अलबेला' में इंटरवल के बाद भगवान दादा के उस स्ट्रगल और जद्दोजेहद और संघर्ष को दिखाया गया है जो वह पुरानी 'अलबेला' के दोनों गानों को शूट करने के दौरान कर रहे थे। इसीलिए इस 'एक अलबेला' में इन दोनों गानों को बिल्कुल वैसा ही डाला गया है इस फिल्म को भगवान दादा की बायोपिक तो नहीं कहेगे पर मराठी फिल्म फ़िल्म 'एक अलबेला' के जरिये 65 वर्ष बाद भगवान दादा को सच्ची श्रधांजलि देने की कोशिश की गई जो एक अच्छा प्रयास कहा जायेगा
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आज भी इस फिल्म के राजेंदर कृष्ण के लिखे सदाबहार गीत दर्शकों और श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते हैं 'अलबेला' में कुल 12 गीत है जिनमे 'शोला जो भड़के 'और' 'ये दीवाना,ये परवाना' जैसे कई वेस्टर्ननाइज्ड गाने हैं, जिनमे "बोनो ड्रम, ओबो, क्लेरिनेट्स, ट्रम्पेट्स, सैक्सोफोन इत्यादि का प्रयोग किया गया है ,आमतौर पर ऐसा कैबरे सांग्स में ज़्यादातर होता है लेकिन बेहद लोकप्रिय पश्चिमी शैली के गीतों के अलावा, फिल्म में "धीरे आना अखियों में निंदिया , "बालमा बडा नदान रे " आदि जैसे क्लासिक मेलोडी गाने भी थे ,सी.राम.चंद्र के संगीत निर्देशन में भगवान दादा पर फिल्माये गीत 'शोला जो भड़के दिल मेरा धड़के' मेरे दिल की घड़ी करे टिक-3 ओ बजे रात के बारह उन दिनों युवाओं के बीच क्रेज बन गये थे । इसके अलावा 'भोली सूरत दिल के खोटे नाम बड़े और दर्शन छोटे', ' शाम ढ़ले खिड़की तले तुम सीटी बजाना छोड़ दो' भी श्रोतोओं के बीच लोकप्रिय हुये थे ,आज भी डांसिंग पार्टियों में युवा 'अलबेला 'के गीतों पर थिरकना जरूर पसंद करते हैं इस फिल्म के एक गीत "धीरे आना अखियों में निंदिया " को आज भी हिंदी फिल्मो में लोरी गीतों में उत्तम माना जाता है सभी गीत लता जी और सी.राम.चंद्र की अवाज़ मे है सिर्फ गीत एक ' दीवाना आएगा " में रफ़ी साहेब का स्वर है .........चूंकि दादा खुद विपरीत परिस्थितियों को झेल चुके थे इसलिए उन्होंने कई चुनौतियां व जिंदगी की कठिन परिस्थितियों में पहचान पाई ,भगवान दादा हर तरह की मुश्किलों से उबरने का हुनर जानते थे इस फिल्म की शूटिंग के दौरान एक बड़ा मजेदार वाक्या उनके सामने आया पैसे को लेकर उनकी डांस आर्टिस्टों से ठन गई पेशेवर डांसरो के ज्यादा पैसे मांगने पर भगवान दादा ने उन्हें दरकिनार कर स्टंट फाइटरों से ही 'अलबेला 'के हिट गाने 'शोला जो भड़के ' में डांस करवा डाला इस फिल्म से भगवान दादा ने अपनी खुद की एक ऐसी गज़ब नृत्य शैली विकसित की जो बाद में उनका अमिट 'सिग्नेचर 'बन गई जिसे 'भगवान दादा डांस ' कहा गया इस नृत्य शैली को बाद में कई मशहूर अभिनेताओं ने आज़माया और परदे पर वाह वाही लूटी
गीता बाली और भगवान दादा |
भगवान दादा सफल होने के बाद भी अपनी जमीन या जड़ को नहीं भूल सके , ऐसे में उन्होंने ऐसी कई फिल्मों का निर्माण किया जिसमें कामकाजी वर्ग व मील मजदूरों को फोकस किया गया भगवान दादा ने कभी भी मिल के मजदूरों के साथ अपने सरोकार नहीं बदले ,उन्होंने मिलो के कई होनहार व प्रतिभावान लोगों को यथासंभव अपने फिल्म निर्माण में रोजगार के अवसर भी दिलाये........स्टार बनने के बाद भी जब भी वे चॉल आते तो यहां के लोगों के साथ महफ़िल जमाते व जम कर मस्ती किया करते थे ,दादा अपने दोस्तों में "दादा शोला " के नाम से ही लोकप्रिय हो गये थे दोस्तों की मंडली ने ही उन्हें "शोला " की उपाधि दी थी स्टारडम को उन्होंने कभी खुद पर हावी नहीं होने दिया था शायद यही वजह थी कि वे अच्छे और बुरे वक्त में भी चॉल व अपनी पुरानी गलियों में आते-जाते रहे अपने संघर्ष के दिनों के साथी मिल मजदूरों को वो कभी नहीं भूले
नाटे गठीले कद के भगवान दादा जानते थे की उनका चेहरा हीरो के लायक नही है इसलिए उन्होंने अपनी फिल्मो मे हास्य और शांत नृत्य की एकदम अलग शैली विकसित की जिसकी दुनिया अाज तक दीवानी है भगवान दादा को "ला "शब्द से रहा विशेष लगाव रहा उनकी सारी फिल्मो के नाम ऐसे ही होते थे ....जैसे' झमेला , रंगीला (1953), भला आदमी, (1956) , ( हल्ला-गुल्ला-(1954) ,शोला जो भड़के और 'लाबेला, (1966) इत्यादि ....लेकिन 'अलबेला' को छोड़ कर सारी ही फ़िल्में नाकाम रहीं वर्ष 1966 में प्रदर्शित फिल्म "लाबेला" बतौर निर्देशक भगवान दादा के सिने करियर की अंतिम फिल्म साबित हुयी। दुर्भाग्य से इस फिल्म को दर्शको ने बुरी तरह नकार दिया फिल्म 'लाबेला की असफलता के बाद बतौर निर्देशक भगवान दादा को फिल्मों में बतौर अभिनेता भी काम मिलना बंद हो गया और उनके बुरे दिन शुरू हो गए और फिर धीरे-धीरे हिंदी सिनेमा जगत के डांसिंग सुपर स्टार की थिरकन धीरे -धीरे थमती गयी हालत यह हो गयी कि उन्हें फिर से अपनी पुरानी जिंदगी में लौटना पड़ा ,इस मुश्किल समय में केवल अभिनेता ओम प्रकाश ,संगीतकार सी रामचन्द्र और गीतकार राजेंदर कृष्ण जैसे उनके कुछ पुराने दोस्तों ने उनकी यथासंभव मदद की थी ......कभी भगवान दादा चेम्बूर में जागृति स्टूडियो ,जुहू में समुन्दर के किनारे आलीशान बंगले और अमीरो की शान रही इम्पाला सहित बीस कारों के मालिक थे लेकिन ये दुःखद बात है की उनके पास अपने अंतिम समय में इलाज़ के लिए भी पैसे नहीं थे भगवान दादा ने करीब 48 फिल्मों का निर्माण किया था लेकिन अफसोस की बात कि बॉम्बे लैबोरेट्रीज में लगी आग के कारण 'अलबेला 'और' भागमभाग' छोड़ कर सभी फिल्मों का निगेटिव जल गए और नयी पीढ़ी उनकी बेहतरीन कृतियों से वंचित रह गयीं....... भगवान दादा जी ने उसी चॉल में आखरी साँस ली थी जिसे आप महेश मांजेकर की फिल्म "सिटी ऑफ़ गोल्ड " (2010) में देख चुके है हिन्दी फ़िल्मों में नृत्य की एक विशेष शैली की शुरूआत करने वाले भगवान दादा ऐसे 'अलबेले ' सितारे थे, जिनसे महानायक अमिताभ बच्चन सहित आज की पीढ़ी तक के कई कलाकार प्रभावित और प्रेरित हुए।
मराठी फ़िल्म 'एक अलबेला'- 2016 |
मंगेश देसाई और विद्या बालन एक 'अलबेला (2016 )' में |
भगवान दादा की अलबेला की लोकप्रियता का क्रेज़ अाज भी है अभी 2016 में मराठी फ़िल्म 'एक अलबेला' रिलीज हुई थी 'एक अलबेला' शेखर सर्तेंदल द्वारा निर्देशित महान एक्टर भगवान दादा के जीवन पर आधारित है। जिसमें भगवान दादा की जिंदगी परदे पर उतारी गई है जिसमे गीता बाली की भूमिका विद्या बालन ने निभाई है और दादा का रोल मंगेश देसाई ने निभाया है ,'एक अलबेला' में इंटरवल के बाद भगवान दादा के उस स्ट्रगल और जद्दोजेहद और संघर्ष को दिखाया गया है जो वह पुरानी 'अलबेला' के दोनों गानों को शूट करने के दौरान कर रहे थे। इसीलिए इस 'एक अलबेला' में इन दोनों गानों को बिल्कुल वैसा ही डाला गया है इस फिल्म को भगवान दादा की बायोपिक तो नहीं कहेगे पर मराठी फिल्म फ़िल्म 'एक अलबेला' के जरिये 65 वर्ष बाद भगवान दादा को सच्ची श्रधांजलि देने की कोशिश की गई जो एक अच्छा प्रयास कहा जायेगा
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