नूर मोहम्मद-'चार्ली ' - (1911 -1983 ) |
आज अगर हिंदी फिल्मो के कॉमिक स्टार की बात की जाये तो जेहन में गोप ,याकूब लाल ,राधा कृष्ण ,भगवान दादा ,जॉनी वॉकर ,महमूद आदि का नाम उभर कर सामने आता है लेकिन हिंदी फिल्मो के आरम्भिक दौर में एक ऐसा भी हास्य कलाकार था जिसे हमने लगभग भुला दिया है हम आज बात कर रहे है हिंदी सिनेमा के पहले सफल कॉमिक स्टार 'नूर मोहम्मद चार्ली 'की जिसके नाम से आज के युवा सिनेमा प्रेमी अनजान है मूक फिल्मो से लेकर सवाक फिल्मो तक अभिनय का शानदार सफर तय करने वाले नूर मोहम्मद चार्ली को भारत के पहले 'कॉमेडी किंग 'के रूप में जाना जाता हैै जिसके हास्य अभिनय की नक़ल बाद में आये सफल हास्य अभिनेताओं जॉनी वॉकर से लेकर महमूद , आई.एस जौहर , दादा कोंडके ,देवेन वर्मा तक ने की अपने ज़माने की प्रसिद्ध फ़िल्मी मैगजीन 'फिल्म इंडिया' के बाबू राव पटेल ने तो उन्हें भारत का एकमात्र हास्य अभिनेता घोषित कर दिया था हिंदी फिल्मो के निर्माण से जुड़े टाकीज़ 'रणजीत मूवीटोन स्टूडियो 'के लोकप्रिय सितारों में से नूर मोहम्मद चार्ली अग्रणी थे उस ज़माने में वो पहले ऐसे अभिनेता थे जिन्हे फिल्मो में नायक से ज्यादा मेहनताना मिलता था
ब्रिटिश भारत के रानावव गांव ( पोरबंदर, सौराष्ट ) में एक रूढ़िवादी मेमन मुस्लिम परिवार में 1जुलाई 1911 में जन्मे नूर मोहम्मद चार्ली का असली नाम नूर मोहम्मद हाजी अहमद था वो स्कूल और सार्वजानिक कार्यक्रमो में अक्सर भाग लेते थे यही से उनमे अभिनय सीखने की ललक भी पैदा हुई आंशिक पढाई करने के बाद उन्होंने अपना घर छोड़ दिया और बम्बई में आकर गुजारे के लिए छाता रिपेरिंग का काम करने लगे एक दिन वो किसी काम से अर्देशिर ईरानी की मशहूर इम्पीरियल फिल्म कंपनी गए वहाँ मूक फिल्मो की शूटिंग अक्सर चलती रहती थी बस यही से नूर मोहम्मद ने तय कर लिया की वो अब छाते ठीक नहीं करेंगे और फिल्मो में ही किस्मत आजमाएंगे ये भारत में फिल्मो के निर्माण का आरम्भिक दौर था और फिल्मो नाटकों में सभ्रान्त परिवारों के पुरुषो के काम करने को अच्छा नहीं समझा जाता था आमतौर पर ये काम 'भांड या मिरासी जाति के लोगो के जिम्मे था कलाकार आसानी से मिलते नहीं थे महिलाओं की बात तो छोड़ ही दीजिये अक्सर मूक फिल्मो में नयिका भी पुरुष या किन्नर ही बनते थे इम्पीरियल फिल्म कंपनी ने नूर को 40 रुपये की मासिक पगार पर नौकरी पर रख लिया शर्त थी की उन्हें घोड़ा दौड़ने से लेकर ,फाइटिंग,एक्शन ,तैरना ,डूबना सब तरह का काम करना था लेकिन नूर ने थोड़ी समझदारी से काम लिया और एक महीने के बाद ही घोषणा कर दी वो गाना भी गा सकते है उन्हें फिल्मो में काम मिलने लगा इम्पीरियल फिल्म कंपनी में काम करते हुए नूर मोहम्मद को कोई बड़ा रोल तो नहीं मिला लिहाज़ा उन्हें छोटे छोटे रोल करके गुज़ारा किया यहाँ उन्होंने जरीना ,प्रेमी पागल (1932 ) सहित लगभग एक दर्जन फिल्मो में छोटे छोटे रोल लिए
कृष्णा फिल्म कंपनी द्वारा 1928 में बनाई गई फिल्म'AKALNA BARDAN' में नूर मोहम्मद के काम को दर्शको ने पसंद किया गया नूर मोहम्मद उस दौर के कलाकार थे जब हमारे फिल्मकार अपनी फिल्मो के लिए दन्त लोक कथाओं और धार्मिक ग्रंथो से ली गई परंपरागत कहानियों पर निर्भर थे एक ऐसा ही संस्कृत भाषा का प्राचीन ग्रंथ 'चन्द्रहासोपाख्यान' भी है जिस पर हिंदी ,तमिल ,तेलुगु में लगभग एक दर्ज़न से ज्यादा फिल्मे बनी जिसमे एक फिल्म चंद्रहास (1933 ) थी जिसमे नूर मोहम्मद चार्ली ने अभिनय किया था नूर ने चार्ली चैपलिन के बहुत बड़े प्रशंसक होने के कारण अपनी लोकप्रिय फिल्म द इंडियन चार्ली (1933) की रिलीज़ के बाद स्क्रीन नाम के रूप में "चार्ली" का जोड़ लिया 'द इंडियन चार्ली 'उनकी कॉमेडी को बेहद पसंद किया गया इस फिल्म में उन्होंने हिटलर के अंदाज़ में मुंह पर हिटलर कट मूंछे लगाई थी उस समय उनको भी नहीं पता था की ये हिटलर कट मूंछे हमेशा के लिए उनकी स्थाई पहचान बन जाएगी फिल्म की सफलता के बाद नूर मोहम्मद ने ये हिटलर कट मूंछे हमेशा के लिए अपना ली और यही मूंछे उनकी सफलता का प्रतीक बनने के साथ-साथ पहचान भी बन गई और नूर बन गए हमेशा के लिए ' नूर मोहम्मद चार्ली ' ..... नूर मोहम्मद का सिक्का फिल्मो में चल पड़ा
समय हर किसी को एक सुनहरा मौका जरूर देता है चार्ली को भी ये मौका मिला और छतरियों की मरम्मत करने वाला नूर मोहम्मद भारत का 'देसी चार्ली चैपलिन 'कहलाया इस देसी चार्ली की लोकप्रियता का आलम ये था की उसकी फिल्मे बार बार रीमेक हुई वो समय था जब फिल्मे चार्ली के नाम से चलती और बिकती थी वितरक फिल्म बनाने वालो से उनके नाम की फरमाइश करते फिल्म निर्माता मुंहमांगे पैसे देकर चार्ली को अपनी फिल्मो में लेते थे यही नहीं उनके फिल्मो में गाये गीत सारा देश गुनगुनाता था फिल्म ढिंढोरा (1941 ) में चार्ली ने एक साथ निर्देशन,अभिनय ,गायन और लेखन किया था इस फिल्म का एक गाना ''पलट तेरा ध्यान किधर है '' तो युवा वर्ग में इतना लोकप्रिय हुआ की देश में महिलाओं को चार्ली के इस गाने से छेड़ा जाने लगा जिसपर बवाल भी हुआ और इस गाने को बेहूदा कहा गया लेकिन चार्ली की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई जिस वक्त रंजीत ,सागर, इम्पीरियल जैसी मशहूर फिल्म कंपनियां हर छोटे और बड़े से बड़े कलाकार को मासिक तनख्वाह पर रखती थी उस वक्त नूर मोहम्मद चार्ली फिल्मो में मुंहमांगे पैसो और अपनी शर्तो पर काम करते थे उनकी फिल्मो में इतनी मांग थी की वितरक फिल्म निर्माताओं से कहते थे की...... '' फिल्म में हीरो भले ही किसी को भो ले लो पर फिल्म में चार्ली जरूर होना चाहिए ''1945 में आई फिल्म गजल में उन्होंने भारत की पहली 'सोप गर्ल 'कहलाने वाली लीला चिटनीस के साथ काम किया उन्होंने स्वर्णलता, मेहताब और जैसी शीर्ष अभिनेत्रियों के साथ अभिनय किया उन्होंने सुरैया और अमीरबाई कर्नाटकी जैसे कलाकारों के साथ गाया भी
नूर मोहम्मद चार्ली से पहले फिल्मो में हास्य अभिनेता को गंभीरता से नहीं लिया जाता था नूर मोहम्मद चार्ली ने हास्य कलाकार का दर्जा बढ़ाया एक समय था जैसे बड़े बड़े नायक भी किसी समय महमूद के साथ काम करने में कतराने लगे थे वही हालत उससे पहले के जमाने में चार्ली का था अपने सहज अभिनय से वो फिल्म में हीरो को मात दे देते थे अपनी फिल्मो में हास्य पैदा करने के लिए वो कभी ना तो पटकथा लेखक पर निर्भर करते ना संवाद लेखक पर चार्ली खुद अपने संवाद जोड़कर हास्य में चार चांद लगा देते थे उनका प्लस पॉइंट था की हास्य गीत भी खुद ही गा लेते थे उन्होंने फिल्म संजोग (1943 ) के लिए नौशाद और मनोरमा (1944 ) के लिए सी.रामचंद्र के संगीत निर्देशन में गीत गाए हैं वो पहले हास्य अभिनेता थे जिन पर गानों का फिल्मांकन किया गया नौशाद के संगीत निर्देशन में और अरशद गुजराती के गीतों के साथ उनका "पलट तेरा ध्यान किधर है"और"जिंदगी है फरेब " बेहद लोकप्रिय हुआ था फिल्मो में चार्ली का कोई मुहावरा,कोई वाक्य ,किसी पात्र के बोलने के खास अंदाज की वजह से लोकप्रिय हो जाता और वो वाह वाही लूट ले जाता अपने समय में चार्ली 30000 रुपये मेहनताना लिया करते थे पृथ्वीराज ,अरुण ,सुरेंद्र आदि उस समय के लोकप्रिय नायक भी इतने रुपए नहीं लेते थे रणजीत और कारदार की फिल्मों का दौर चार्ली का स्वर्ण काल था
1925 से 1946 तक विभाजन से पूर्व तक भारत में चार्ली का करियर चरम पर था था भारत पाक विभाजन के बाद नूरजहां, शेख मुख्य्तार जैसे कई मुस्लिम कलाकार पाकिस्तान चले गए थे मगर वहां पहुंचकर पछताए भी कुछ तो वापस आ गए मगर जो पाकिस्तान में रह गए उन्हें फिर वो भारत जैसी सफलता और इज़्ज़त हाथ नहीं लगी 1947 में जब चार्ली शोहरत की बुलंदिया छू रहे थे तब भारत को आज़ादी के सकून के साथ साथ साथ विभाजन भी दर्द भी मिला नूर मोहम्मद ने भी अचानक भारत छोड़कर पाकिस्तान जाने का फैसला कर लिया बस यही निर्णय उनके जीवन में टर्निंग पॉइंट साबित हुआ कुछ फ़िल्मी इतिहासकारो का कहना है की है चार्ली विभाजन के बाद पाकिस्तान जाना नहीं चाहते थे मगर हिंदू मुस्लिम के बीच बढ़ती खाई और भीषण दंगो के उस दौर में उनके पास और कोई चारा भी नहीं था भारत में अपनी अपार लोकप्रियता से मुंह मोड़ कर पाकिस्तान जाना उन्हें अच्छा तो नहीं लग रहा था मगर हिन्दू मुस्लिम दंगों के दौरान लोगों ने उन्हें इतना डरा दिया की जान और माल का खतरा मोल लेने से चार्ली ने बेहतर समझा की भारत को छोड़ वो जिन्ना के इस्लामिक मुल्ख पाकिस्तान चले जाये उनका ये निर्णय घातक साबित हुआ बस यही से उनकी लोकप्रियता में ग्रहण लगना शुरू हो गया और उनके कॅरियर का ग्राफ ढलान पर आ गया
भारत में बड़े शौक से अपना शानदार फ़िल्मी कॅरियर छोड़कर चार्ली पाकिस्तान चले गए पाकिस्तान में उनकी पहली पंजाबी फिल्म दाउद चंद निर्देशित मुंदरी (1949) थी फिर उन्होंने नज़ीर अजमेरी की बेकरार (1950) में काम किया चार्ली ने वहाँ सात-आठ पंजाबी, सिंधी,उर्दू की फिल्मो में अभिनय किया लेकिन उन्हें भारत जैसी सफलता और लोकप्रियता पाकिस्तान में कभी नसीब नहीं हुई पाकिस्तान में उनके हुनर की कोई कद्र नहीं हुई वो जब तक पाकिस्तान रहे शायद खुद उन्हें खुद भी संतोष नहीं मिला होगा और वो अपने निर्णय पर पछताए भी होंगे कुछ सालो बाद आखिरकार 1960 में हताश चार्ली फिर भारत लौटे अब यही बस जाने का उनका इरादा था मगर अफ़सोस उन्हें भारत की नागरिकता नहीं मिल पाई और तब तक बम्बई और हिंदी फिल्म इंडस्ट्रीज़ का मंजर भी बदल चुका था समय सूखी रेत की तरह हाथ से फिसल चुका था स्टूडियो और टाकीज़ के दिन लद चुके थे चार्ली के दौर का सारा सिस्टम ढह गया था मासिक तनख्वाह पर अभिनेता अभिनेत्रियों को काम पर रखने का चलन बंद हो चुका था पृथ्वीराज राज कपूर और दुर्गा खोटे जैसे पढ़े लिखे अच्छे सभ्रांत परिवारों से आये कलाकार अब अपनी शर्तो पर फिल्म इंडस्ट्रीज़ में फ्री लांस काम कर रहे थे
सबसे बड़ी बात तो ये थी की हिंदी फिल्मो में जॉनी वाकर और महमूद जैसे कलाकार अपने पैर मजबूती से जमा चुके थे ऐसे में चार्ली को ज़माने के तारे (1960 ) जमाना बदल गया (1961 ) और अकेली मत जाइयो (1963 ) जैसी कुछ फिल्मे मिली लेकिन जमाना वाकई अब चार्ली के लिए बदल गया था भारत की नागरिकता नहीं मिलने से निराश होकर चार्ली पाकिस्तान वापिस लौट गए जहाँ उन्होंने अनमने ढंग से पिलपिली साहिब ,काफिर,प्यार की जीत जैसी उर्दू भाषा की पाकिस्तानी फिल्मो में अभिनय किया मगर बात नहीं बनी फिर वो अपने बच्चो के पास इंग्लैंड चले गए लेकिन पकिस्तान में जब चार्ली की पत्नी का इंतकाल हुआ तो वो फिर से पाकिस्तान लौटे इसके बाद भारत में चार्ली के बारे में कोई खबर नहीं मिली अचानक एक दिन उनकी मौत मौत की खबर आई कहा गया की पत्नी के निधन के कुछ समय बाद ही गुमनामी के अँधेरे में 30 जून 1983 को कराची के सिंध में चार्ली का भी इंतकाल हो गया अब दुर्भाग्य देखिये जिस मामूली से छतरी रिपेयर करने वाले नूर मोहम्मद को 'चार्ली 'बना कर भारत की जनता ने अपने सर आँखों पर बिठाया, जिस शोहरत को ठोकर मारकर चार्ली अपने वतन भारत को छोड़ पाकिस्तान गए थे उस पाकिस्तानी फिल्म इंडस्ट्रीज़ का एक भी कलाकार नूर मोहम्मद के जनाजे को कन्धा देने तक नहीं आया भारत में चंदूलाल शाह ,महबूब खान ,जयंत देसाई ,ए.आर कारदार ,जिया सरहदी ,मणि भाई व्यास ,डी.एन मधोक ,विजय भट्ट ,पी सी बरुआ ,जैसे हिंदी सिनेमा के मशहूर फिल्म निर्माताओं के साथ काम कर चुके नूर मोहम्मद का ये ऐसा अंत वाकई दुःखदाई था भारत के चोटी के हास्य अभिनेताओं के प्रेरणा स्रोत्र रहे नूर मोहम्मद चार्ली अगर भारत में ही रहते तो शायद उन्हें पाकिस्तान से न केवल बेहतर मान सम्मान मिलता बल्कि इस बात की भी संभावना थी की वो हिंदी फिल्मो के माध्यम से अभिनय के आकाश में ज्यादा देर तक चमकते और उच्च श्रेणी के हास्य कलाकारों में उनका नाम अव्वल होता उन्हें हिंदी फिल्म इतिहास में भी सम्मान जनक दर्ज़ा प्राप्त होता
जॉनी वाकर,महमूद से लेकर असरानी ,देवेन वर्मा तक कई हास्य कलाकार देर सवेर फिल्मो में नायक के दर्जे तक पहुंचे मगर हिंदी फिल्म व्यवसाय के हास्य कलाकार को नायक के दर्जे तक पहुंचाने वाले पहले कलाकार नूर मोहम्मद चार्ली ही थे दर्शक उनके हास्य अभिनय के दीवाने थे नूर मोहम्मद चार्ली ने अपनी फिल्मो में खुद की कॉमेडी की एक अनोखी शैली विकसित की जिसने बाद में जॉनी वॉकर और महमूद जैसे महान कॉमेडियन को प्रभावित किया महमूद ने भी कई फिल्मो में चार्ली को बखूबी कॉपी किया नूर मोहम्मद चार्ली से हास्य प्रेरणा लेने वालों में अभिनेता जॉनी वाकर भी थे जॉनी वॉकर तो उनके कट्टर प्रशंसक थे जिन्होंने चार्ली की फिल्म ' ठोकर ' देख कर माई बाप '(1957) नाम से उसका पुनर्निर्माण किया और चार्ली वाली भूमिका खुद निभाई चार्ली की फिल्मों से और उनके हास्य से स्वर्गीय गुरुदत्त भी कम प्रभावित नहीं थे इसीलिए चार्ली की फिल्म "ढिंढोरा'' (1941) का पुनर्निर्माण करने की योजना गुरुदत्त ने बनाई और उसमें चार्ली वाली भूमिका महमूद को सौंपी दुर्भाग्यवश यह फिल्म पूरी नहीं हो सकी कुंदन कुमार की ' दुनिया का मेला '(1974) में महमूद ने जो हास्य भूमिका निभाई थी यह फिल्म महबूब खान की फिल्म तकदीर (1942) का रीमेक थी तकदीर में जो भूमिका चार्ली ने की थी यही आगे चलकर महमूद ने फिल्म 'दुनिया का मेला में की थी अपना गेटअप भी बिल्कुल चार्ली जैसा रखा था और हिटलर कट मूछें भी रखी थी 1944 में जयंत देसाई ने फिल्म 'मनोरमा' बनाई थी चार्ली की भूमिका की वजह से यह फिल्म खूब चली थी 1953 में जयंत देसाई ने इसी फिल्म का "मनचला" नाम से का रीमेक बनाया जिसमे चार्ली वाली भूमिका आगा ने निभाई यह सिलसिला यहीं खत्म नहीं हुआ 1960 में जब चार्ली भारत आए तो फिर उन्हीं को लेकर जयंत देसाई ने फिल्म 'जमाना बदल गया ' बनाई शीघ्र ही हिंदी फिल्म व्यवसाय में आ रहे मराठी के निर्माता निर्देशक अभिनेता दादा कोंडके भी चार्ली की फिल्म 'चांद तारा '(1945) की कॉमेडी से प्रभावित होकर इसी कहानी पर फिर से फिल्म बनाने की दिशा में सोच रहे थे दादा कोंडके ने अपनी कई फिल्मो में चार्ली के गेटअप को खूब कॉपी किया
विश्व विख्यात हास्य अभिनेता चार्ली चैपलिन की कॉमेडी की ही तरह नूर मोहम्मद चार्ली का हास्य सदाबहार था बदलते समय के साथ वह कभी पुराना नहीं हो सकता परिवार में नूर मोहम्मद चार्ली के छह बेटे और छह बेटियां थीं उनका एक बेटा लतीफ चार्ली पाकिस्तान में एक प्रसिद्ध फिल्म और टीवी अभिनेता रह चुका है जिसका 75 वर्ष की आयु में 19 जुलाई 2011 को निधन हो गया नूर मोहम्मद का पोता ( लतीफ चार्ली का बेटा ) यवर चार्ली है वो भी एक अभिनेता था एक और पोता आरजे डिनो अली है एक दूसरा पोता भी (नूरारश चार्ली का बेटा ) तेहरान में एक डिजाइनर और थिएटर आर्टिस्ट हैं। ........ मोहब्बत की कसौटी,तूफ़ान मेल, सितमगर, नादिरा (1934 ) कीमती आंसू ,रात की रानी ,बेरिस्टर वाइफ (1935) रंगीला राजा, चालक चोर ,ज्वाला मुखी, मतलबी दुनिया, दिल का डाकू (1936) शमा परवाना,जम्बो सक्रेटरी (1937) बाजीगर,रिक्शा वाला, घुंघट वाली (1938) नदी किनारे,ठोकर (1939) आज का हिन्दुस्तान,अछूत (1940) ढंढोरा,पागल (1941) संजोग (1943) रौनक (1944) मनोरमा (1944) चाँद तारा,गजल (1945) और दूल्हा (1946 ) नूर मोहम्मद चार्ली की उल्लेखनीय फिल्मे है पुराने सिनेमा प्रेमी आज भी उस दौर को याद करते है जब फिल्मे सिर्फ नूर मोहम्मद चार्ली के नाम पर बिकती और चलती थी
30,000 payment ek film ke shayed sahi nahi hai.. kyonki tab ye bahut badi baat thi..ek movie 1 lakh mein ban jaati hogi..ek artist ko itna kaise diya ja sakta tha? actor ki payment, shooting ka kharch technicians ka kharch sab kuchh utne mein hi karna hota hoga... ye 60s ki baat hoti to baat alag thi.. 30s aur 40s mein possible nahi tha..
ReplyDeleteबहुत अच्छी जानकारी
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