मोहम्मद रफ़ी बहुत कम बोलने वाले, ज़रूरत से ज़्यादा विनम्र और मीठे इंसान थे न तो वह शराब या सिगरेट पीते थे और न ही पान खाते थे बॉलीवुड की पार्टियों में भी जाने का उन्हें कोई खास शौक नहीं था घर पर वह सिर्फ़ धोती-कुर्ता ही पहनते थे लेकिन जब रिकॉर्डिंग पर जाते थे तो हमेशा सफ़ेद कमीज़ और पतलून पहना करते थे मोहम्मद रफ़ी के करियर का सबसे बेहतरीन वक़्त 1956 से 1965 तक का था इस बीच उन्होंने कुल छह फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीते और रेडियो सीलोन से प्रसारित होने वाले 'बिनाका गीत माला ' में दो दशकों तक छाए रहे
मोहम्मद रफ़ी साहेब खाने के बेहद शौकीन थे उनके यहाँ खाना बहुत उम्दा बना करता था लेकिन सिर्फ मेहनमानो के लिए वो खुद बेहद सादा खाना पसंद करते थे एक बार का किस्सा है वो ब्रिटेन के Coventry ( कॉवेंट्री ) में शो कर रहे थे उनकी बेगम साहिबा बिलकिस भी उनके साथ थी यहाँ का खाना उन्हें रास नहीं आ रहा था लेकिन मन मार कर वो जैसे तैसे खा रहे थे मोहम्मद रफ़ी की बहू और उन पर एक किताब लिखने वाली 'यास्मीन ख़ालिद रफ़ी ' अपने शौहर के साथ लन्दन से उनसे मिलने पहुँची तो रफ़ी साहेब बेहद मायूस और थोड़े ख़राब मूड में थे इसका कारण रफ़ी साहेब से पूछा तो वो बोले ..."मुझे वहां का इंग्लिश खाना रास नहीं आ रहा मैं यहाँ घर का बना खाना मिस कर रहा हूँ ".....फिर वो यकायक यास्मीन की तरफ़ मुड़े और पूछा ..."क्या तुम एक घंटे में मेरे लिए दाल, चावल और चटनी बना सकती हो ? "...यास्मीन ने कहा ......" हाँ क्यों नहीं".....तो रफ़ी बोले, ...." चलो लंदन तुम्हारे घर चलते हैं. '' यास्मीन ने थोड़ा हैरान परेशान हो कर घडी देखी ठीक शाम के 4 बज रहे थे और रफ़ी साहेब का शो ठीक 7 बजे शुरू होना था और कॉवेंट्री से लन्दन आने जाने में कम से कम तीन घंटे अवशय लगते अब रफ़ी साहेब को न कहने का कोई सवाल ही नहीं उठता था उन्होंने रफ़ी साहेब को 7 बजे शुरू होने वाले उनके शो की याद दिलाई तो रफ़ी साहेब बोले ..."किसी को बताने की ज़रूरत नहीं हैं हम सात बजे शो शुरू होने से पहले वापस कॉवेंट्री लौट आएंगे मुझे घर का बना दाल चावल खाना है बस "....आखिरकार रफ़ी साहेब के आगे किसी की नहीं चली रफ़ी, उनकी पत्नी बिलकिस ख़ालिद और यास्मीन बिना किसी को बताए अपने घर लंदन उलटे पैर वापिस रवाना हो गए
मोहम्मद रफ़ी साहेब खाने के बेहद शौकीन थे उनके यहाँ खाना बहुत उम्दा बना करता था लेकिन सिर्फ मेहनमानो के लिए वो खुद बेहद सादा खाना पसंद करते थे एक बार का किस्सा है वो ब्रिटेन के Coventry ( कॉवेंट्री ) में शो कर रहे थे उनकी बेगम साहिबा बिलकिस भी उनके साथ थी यहाँ का खाना उन्हें रास नहीं आ रहा था लेकिन मन मार कर वो जैसे तैसे खा रहे थे मोहम्मद रफ़ी की बहू और उन पर एक किताब लिखने वाली 'यास्मीन ख़ालिद रफ़ी ' अपने शौहर के साथ लन्दन से उनसे मिलने पहुँची तो रफ़ी साहेब बेहद मायूस और थोड़े ख़राब मूड में थे इसका कारण रफ़ी साहेब से पूछा तो वो बोले ..."मुझे वहां का इंग्लिश खाना रास नहीं आ रहा मैं यहाँ घर का बना खाना मिस कर रहा हूँ ".....फिर वो यकायक यास्मीन की तरफ़ मुड़े और पूछा ..."क्या तुम एक घंटे में मेरे लिए दाल, चावल और चटनी बना सकती हो ? "...यास्मीन ने कहा ......" हाँ क्यों नहीं".....तो रफ़ी बोले, ...." चलो लंदन तुम्हारे घर चलते हैं. '' यास्मीन ने थोड़ा हैरान परेशान हो कर घडी देखी ठीक शाम के 4 बज रहे थे और रफ़ी साहेब का शो ठीक 7 बजे शुरू होना था और कॉवेंट्री से लन्दन आने जाने में कम से कम तीन घंटे अवशय लगते अब रफ़ी साहेब को न कहने का कोई सवाल ही नहीं उठता था उन्होंने रफ़ी साहेब को 7 बजे शुरू होने वाले उनके शो की याद दिलाई तो रफ़ी साहेब बोले ..."किसी को बताने की ज़रूरत नहीं हैं हम सात बजे शो शुरू होने से पहले वापस कॉवेंट्री लौट आएंगे मुझे घर का बना दाल चावल खाना है बस "....आखिरकार रफ़ी साहेब के आगे किसी की नहीं चली रफ़ी, उनकी पत्नी बिलकिस ख़ालिद और यास्मीन बिना किसी को बताए अपने घर लंदन उलटे पैर वापिस रवाना हो गए
अपनी बेगम बिलकिस के साथ रफ़ी साहेब |
लन्दन में अपने घर पहुंच कर यास्मीन ने उनके लिए झटपट दाल, चावल और चटनी और प्याज़-टमाटर का सलाद बनाया और उनके शौहर खालिद ने यास्मीन की मदद खाना खाना बनाने में की और रफ़ी साहेब को खाना परोसा और उन्होंने जमकर भोजन का लुत्फ़ उठाया रफ़ी साहेब ने घर का बना खाना लन्दन में खाकर यास्मीन को बहुत दुआएं दी और ऐसा लगा जैसे किसी बच्चे को उसकी पसंद का खिलौना मिल गया हो और रफ़ी साहेब ठीक सात बजे शो करने के लिए कावेंट्री भी वापिस आ गए ........जब उन्होंने कावेंट्री लौट कर आयोजकों को बताया कि वह सिर्फ़ खाना खाने लंदन गए थे तो वे आश्चर्यचकित रह गए की रफ़ी जी ने केवल दाल, चावल खाने के लिए कॉवेंट्री से लन्दन गए अब तो सेलिब्रिटी के निजी खानसामे भी विदेशी टूर पर साथ ही जाते है पर पहले ऐसा प्रचलन नहीं था
प्रेम भाव को छोड़ भी दीजिए तब भी मानवीय भावनाओं के जितने भी पहलू हो सकते हैं... दुख, ख़ुशी, आस्था या देशभक्ति या फिर गायकी का कोई भी रूप हो भजन, क़व्वाली, लोकगीत, शास्त्रीय संगीत या ग़ज़ल, मोहम्मद रफ़ी के तरकश में सभी तीर मौजूद थे ऐसे थे हमारे सबके दिल अज़ीज़ मोहम्मद रफ़ी जिनके सीने में एक बच्चे का दल धड़कता था
प्रेम भाव को छोड़ भी दीजिए तब भी मानवीय भावनाओं के जितने भी पहलू हो सकते हैं... दुख, ख़ुशी, आस्था या देशभक्ति या फिर गायकी का कोई भी रूप हो भजन, क़व्वाली, लोकगीत, शास्त्रीय संगीत या ग़ज़ल, मोहम्मद रफ़ी के तरकश में सभी तीर मौजूद थे ऐसे थे हमारे सबके दिल अज़ीज़ मोहम्मद रफ़ी जिनके सीने में एक बच्चे का दल धड़कता था
Great Talent hand-in-glove with Simplicity of character'n conduct that was रफ़ी-ji ! A fertile गला/कंठ on one hand,and a frugality of means to keep company with, on the other ! Rafi-ji kept his personal needs to cost just a farthing, but gave his richest to every vocal performance of his ! ख़ुदाबक्ष रफ़ी-ji was ever sacrificial and therefore venerated by all his dearers, nearers 'n fartherers ! and has left behind him a Khajana of Unforgettable Nagamein, for all survivors to relish on and yet feel, Never Done With !!
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