Wednesday, December 19, 2018

ओम प्रकाश .... अपनी उगंलियों से अभिनय करने की बेजोड़ शैली विकसित करने वाला एकमात्र अभिनेता

ओम प्रकाश जी का पूरा नाम 'ओम प्रकाश बक्शी' था उनकी शिक्षा-दीक्षा लाहौर में हुई उनमें कला के प्रति रुचि शुरू से थी लगभग 12 वर्ष की आयु में उन्होंने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा लेनी शुरू कर दी थी 1937 में ओमप्रकाश ने 'ऑल इंडिया रेडियो सीलोन' में 25 रुपये वेतन में नौकरी की थी रेडियो सीलोन में खुद के लिखे प्रोग्राम पेश किया करते थे रेडियो पर उनका 'फतेहदीन' कार्यक्रम बहुत पसंद किया गया लोग उन्हें देखते तो फतेहदीन नाम से पुकारते थे। उनके असली नाम पर यह नाम हावी होने लगा ओमप्रकाश के समय में हिंदी फ़िल्मों के बडे सितारे मोतीलाल, अशोक कुमार,और पृथ्वीराज हुआ करते थे उन्होंने अपने अभिनय की एक विशिष्ट शैली विकसित की थी जिसकी नक़ल आज तक भी होती है उनका अपनी उगंलियों से अभिनय करने का अदांज ही अलग था अपने समय में लोग उन्हें ‘डायनेमो’ कहा करते थे मशहूर कॉमेडियन और निर्माता 'पाछी 'इनके भाई थे ओम प्रकाश के स्वभाव की सभी तारीफ करते थे उनकी फिल्म के सेट उपस्थिति मात्र से तनाव भरा माहौल भी खुश मिज़ाज़ हो जाता था ओमप्रकाश ने अपनी अभिनय की प्रतिभा के बल पर हर भारतीय के दिलों में राज किया। उनकी लोकप्रियता का आलम इस बात से भी लगाया जा सकता था कि लोग केवल उनका अभिनय देखने के लिये ही फिल्मों की टिकट खरीदा करते थे और जब उनका कोई सीन परदे पर आता तो आँखे और कान उनकी भाव भंगिमा पर स्थिर हो जाते 

बात उन दिनों की है जब ओम प्रकाश अविभाजित भारतके लाहौर रेडियो स्टेशनपर स्थायी कलाकार के रूप में कार्यरत थे और उनकी आवाज़ के जादू से सारा ज़माना परिचित था द्वितीय महायुद्ध के समय का दौर था ओमप्रकाश को रावलपिण्डी से लाहौर तक का सफर करना था फ़ौज़ी जवानों से ठसाठस भरी रेलगाडि़यां और उस भीड़ के बावजूद यात्रा की अनिवार्यता लेकिन ओमप्रकाश के पास तीसरे दर्जे़ का रेल टिकट था और घुसने की जगह थी मात्र पहले दर्जे़ में और वह भी तीन-चार अंग्रेज़ सैनिकों के बीच ओम जी ने मजबूरन उसी डिब्बे में घुसकर जगह बनाने की कोशिश कर की और अपने प्रयत्नों में उनको किंचित सफलता भी मिली वह डिब्बे में जगह पाने में सफल रहे बर्थ पर सैनिक अधिकारी अपने अनजाने, अनचीन्हें लहज़े में गिटपिट किये जा रहे थे ओमप्रकाश उनकी उस 'टॉमी अंग्रेजी' से सर्वथा अनभिज्ञ यह नहीं समझ पा रहे थे कि आखि़र किस तरह वह उन अंग्रेज़ लोगों की बातचीत में हिस्सा लें या उनसे बातचीत करे लेकिन अंग्रेजी भाषा वो भी ब्रिटिश एसेंट में सबसे बड़ी बाधा थी वो अंग्रेज़ अधिकारी थे की उनसे बात करने को आतुर थे तभी उनके दिमाग़ में आया क्यों न उन लोगों के सामने गूँगे का अभिनय कर डाला जाये ? ऐसा करने से इज़्ज़त तो कम से कम बच ही जायेगी और इनको क्या पता की मैं बोल भी सकता हूँ या नहीं और गाड़ी मे किस्सा-कहानी ,खानपान, सुरा सेवन आदि के बाद फ़ौज़ी अफ़सरों ने जब ओमप्रकाश से पूछा कि क्या वह जन्म से ही गूंगे हैं ? तो ओमजी ने इस खबसूरती से अपना सर हिलाया जिससे न यह मालूम हो सकता था कि वह गूंगे हैं और न यही कि वह गूंगे नहीं हैं।

सैनिक अधिकारियों के मन में उनके प्रति सहानुभूति जगी उन्होंने ओमजी को न सिर्फ भरपूर खिलाया-पिलाया बल्कि लेटने के लिये एक पूरी बर्थ भी उनके हवाले कर दी सुबह होने पर अँग्रेजी ढंग का ब्रेकफ़ास्ट भी उनको मिला और ख़ूब मज़े के साथ उनकी वह यात्रा सम्पन्न हो गयी लेकिन लाहौर पहुंचने पर इस अभिनय का पटाक्षेप जब हुआ तो वह सैनिक अधिकारी भी हंसी से सराबोर हो उठे जिन्होंने गूंगा  समझ कर ओमप्रकाश की इतनी खातिरबाजी की थी। हुआ यह कि जो व्यक्ति ओमजी को लेने स्टेशन आया था उसने पूछ ही लिया – 'कहो बर्खुरदार,सफ़र कैसा कटा ?'  अंग्रेजी आवभगत और अंग्रेजी दारू के असर में ओम जी के मुंह से निकल पड़ा... " बहुत बढ़िया " अब हैरान सैनिक अधिकारी घूर घूर कर ओमजी की ओर देखते जा रहे थे,और ओम थे कि उनकी ज़बान ही सिमटती जा रही थी। तभी अपने आत्मविश्वास का संचय करते हुए ओमप्रकाश बोल उठे – 'माफ़ कीजिएगा, ...बिरादरान, आप लोगों की यह लंगड़ी अँग्रेजी मेरे भेजे के अन्दर नहीं घुस पा रही थी, इसीलिये मुझे गूंगे का अभिनय करना पड़ गया। वैसे यह न समझ लीजिएगा कि अँग्रेजी ज़बान मुझे नहीं आती, मैं भी लाहौर यूनिवर्सिटी में पढ़ चुका हूं''  और उनकी इस बात को सुनते ही उपस्थित लोगों के मध्य हंसी का जो दौर शुरू हुआ था उसकी समाप्ति ओमजी के स्टेशन छोड़ने के बाद ही हो पायी

हिन्दी फ़िल्म जगत में ओमप्रकाश का प्रवेश फ़िल्मी अंदाज में हुआ। वह अपने एक मित्र के यहां शादी में गए हुए थे,वहां ओमप्रकाश जी लतीफागोई बड़े चाव से सुना रहे थे । हंसी-मजाक और लतीफों का ऐसा समां बँधा की भीड़ इकट्ठा हो गई संयोगवश उस शादी में लाहौर के मशहूर फिल्म निर्माता दलसुख पंचोली आए हुए थे। लोगों का मजमा देखकर उन्होंने एक वेटर से पूछा कि...... 'वहां क्या हो रहा है, क्या कोई सेलिब्रिटी या फिल्म स्टार आया हुआ है?'...... वेटर बोला, जनाब मेरी जानकारी में ऐसा कुछ नहीं है। दलसुख पंचोली ने फिर पूछा कि ...'यह मजमा क्यों लगा हुआ है ?'...... वेटर बोला, 'जनाब यह दूल्हे का एक दोस्त है, जिसने हंसा-हंसा कर लोगों का बुरा हाल कर रखा है।' दलसुख उस माहौल को देखकर बड़े प्रभावित हुए और वेटर को एक चिट्ठी लिखकर देते हुए कहा कि इसे उस शख्स को दे देना, जो यह हंसी का माहौल बनाए हुए हैं। चिट्ठी पाकर ओमप्रकाश दलसुख पंचोली से मिलने पहुंचे तो उन्हें उनके करियर की पहली फिल्म 'दासी' (1944 ) के लिए 80 रुपए में साइन कर लिया गया था।


संगीतकार सी.रामचंद्र से ओमप्रकाश की अच्छी दोस्ती थी। इन दोनों ने मिलकर ‘दुनिया गोल है’ ( 1955 ), आदि फ़िल्मों का निर्माण किया। उसके बाद ओमप्रकाश ने खुद की फ़िल्म कंपनी 'लाइट एन्ड शेड' बनाई और ’,‘गेट वे ऑफ इंडिया’ (1957),‘चाचा ज़िदांबाद’, (1959) ‘संजोग’ (1961) ,जहाँआरा (1964 ) आदि फ़िल्मों का निर्माण इस कम्पनी के अंतर्गत किया। बहुत कम लोग जानते हैं कि ओमप्रकाश ने अपने भाई पाछी के साथ मिलकर ‘कन्हैया’( 1959) फ़िल्म का निर्माण भी किया था, जिसमें राज कपूर और नूतन की मुख्य भूमिका थी क्लासिक फ़िल्म 'प्यार किये जा' (1966) का वह दृश्य लें जब महमूद और ओम प्रकाश के बीच एक हॉरर फ़िल्म की कहानी सुनाई जाती है। उनके शानदार प्रदर्शन से ही महमूद का कहानी सुनाना जीवंत हो पाता है। ओम प्रकाश की भूमिका यहाँ ( बिना किसी संवादों के ) एकदम निष्क्रिय सी है लेकिन उनकी प्रतिक्रियाओं की बदौलत ही दृश्य उस चरम तक पहुँच पाता है इसी सिलसिले में यह भी प्रचलित है कि जब महमूद को इस फ़िल्म में उनके प्रदर्शन के लिए पुरस्कार दिया गया, तब न सिर्फ़ उन्होंने ओम प्रकाश को इसका पूरा श्रेय दिया बल्कि मंच से दर्शकों के बीच जाकर उनके पैर भी छुए।


जिस खुले दिल से ओमप्रकाश ने दुनियादारी निभाई थीं इसके ठीक विपरित उनके अंतिम दिन गुजरे। उन्होंने एक बार एक इंटरव्यू में कहा था की " मैंने कई फ़ाकापरस्ती के दिन भी देखे हैं, ऐसी भी हालत आई जब मैं तीन दिन तक भूखा रहा। मुझे याद है इसी हालात में दादर खुदादाद पर खडा था। भूख के मारे मुझे चक्कर से आने लगे ऐसा लगा कि अभी मैं गिर ही पडूंगा। क़रीब की एक होटल में दाखिल हुआ। बढिया खाना खाकर और लस्सी पीकर बाहर जाने लगा तो मुझे पकड लिया गया। मैनेजर को अपनी मजबूरी बता दी और 16 रुपयों का बिल फिर कभी देने का वादा किया। मैनेजर को तरस आ गया वह मान गया। एक दिन 'जयंत देसाई' ने मुझे काम पर रख लिया और 5,000 रुपये दिए। मैंने इतनी बडी रकम पहली बार देखी थीं। सबसे पहले होटल वाले का बिल चुकाया था और 100 पैकेट सिगरेट के ख़रीद लिए।’ "ओमप्रकाश ने लगभग 350 फ़िल्मों में काम किया उनकी प्रमुख फ़िल्मों में 'पड़ोसन', 'जूली', 'दस लाख', 'चुपके-चुपके', 'बैराग', 'शराबी', 'नमक हलाल', 'प्यार किए जा', 'खानदान', 'चौकीदार', 'लावारिस', 'आंधी', 'लोफर', 'ज़ंजीर' आदि शामिल हैं। उनकी अंतिम फ़िल्म 'नौकर बीवी का' थी।.... 'दिल अपना व प्रीत पराई' का कैंसर पेशंट .....'आंधी 'में 'गुर्दे की दवा का सेवन करता हुआ भष्ट नेता ,.....'अमर प्रेम 'का 'गोलगप्पे में शराब डालकर पीता शराबी 'और 'शराबी 'के बेबस मुंशी जी ..... 'चुपके चुपके ' के' जीजा जी ' बुड्डा मिल गया' का 'आयो कहा से धनश्याम' गाता रहस्मयी कातिल जैसे ओमप्रकाश जी के कुछ अविस्मरणीय किरदार सिनेमा प्रेमी कभी भूल नहीं पाएगे ओम प्रकाश जी वास्तव में हिंदी सिनेमा के " प्रकाश स्तम्भ " कहलाने के लायक है 

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