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‘मल्लिका ए तरन्नुम’ नूरजहाँ |
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‘गुल-ए-बकवाली’ - (1939)
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एशिया की महानतम गायिकाओं में शुमार की जाने वाली
‘मल्लिका ए तरन्नुम’ नूरजहाँ को लोकप्रिय संगीत में क्रांति लाने और पंजाबी लोक गीतों को नया आयाम देने का श्रेय जाता है उनकी गायकी में वो जादू था कि वो हर उदीयमान गायक की प्रेरणास्रोत था स्वर साम्राज्ञी '
लता मंगेशकर 'ने भी जब अपने करियर का आगाज किया तो उन पर नूरजहाँ की गायकी का प्रभाव था और इस बात को वो सहर्ष स्वीकार भी करती है नूरजहां जैसा बनने की ख्वाहिश में उन्होंने गाना शुरू किया था पूरा जमाना लता मंगेशकर को सुनना चाहता है लेकिन लता मंगेशकर के लिए नूरजहां को सुनना सबसे अहम रहा है आप नूरजहां की लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से लगा सकते है की दुनिया के किसी भी कोने में
‘मैडम’ शब्द का जो भी अर्थ लगाया जाता हो, पर पाकिस्तान में यह शब्द सिर्फ़ मल्लिका-ए-तरन्नुम नूरजहाँ के लिए इस्तेमाल किया जाता है कसूर (अविभाजित पंजाब ) में मुस्लिम परिवार इमदाद अली और फ़तेह बीबी के घर जन्मी नूरजहाँ का असली नाम
‘अल्ला रखी वसई’ था
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फिल्म - जुगनू (1947) में दलीप साहेब के साथ नूरजहाँ |
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'खानदान ' में अभिनेता प्राण के साथ नूरजहाँ |
नूरजहाँ के बारे में एक कहानी मशहूर है तीस के दशक में एक बार लाहौर में एक स्थानीय पीर के भक्तों ने उनके सम्मान में सूफी संगीत की एक ख़ास शाम का आयोजन किया महफ़िल जब शबाब पर पहुंची तो वहां खड़ी एक छोटी लड़की भी कुछ गाने की जिद करने लगी लोगो ने उसे वहाँ पर कुछ "नात " सुनाने को कहा जो आम तौर पर पीर फकीरो की शान में गाये जाते है उस लड़की ने " नात '' सुनाए और समां लूट लिया उसकी आवाज़ सुनकर पीर ने उस लड़की से कहा,...
" बेटी कुछ पंजाबी में भी हमको सुनाओ." उस लड़की ने तुरंत पंजाबी में तान ली जिसका मतलब कुछ इस तरह का था..
.''इस पाँच नदियों की धरती की पतंग आसमान तक पहुँचे! '' इसको सुन उस मुग्ध पीर ने उस लड़की को कहा ......
" तेरी पतंग भी एक दिन आसमान छुएगी "
एक बार किसी पत्रकार ने उनसे पूछने की जुर्रत की कि ....."आप कब से गा रही हैं " ?.... नूरजहाँ का जवाब था, " मैं शायद पैदा होते समय भी गा ही रही थी." उनकी यह बात बिलकुल सही है जब नूरजहाँ पैदा हुई थी तो उनके रोने की आवाज़ सुनकर उनकी बुआ ने उनके पिता से पंजाबी में कहा था ...'' ऐ कुड़ी ते रोंदी वी सुर विच है '' ( यह लड़की तो रोती भी सुर में है ) नूरजहां ने पांच साल की उम्र से गाना शुरू कर दिया था और पारंपरिक लोक में उनकी गहरी दिलचस्पी थी उसकी गाने की क्षमता को महसूस करते हुए उसकी माँ ने उसे हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के पटियाला घराने के उस्ताद बडे गुलाम अली खान के पास शास्त्रीय गायन का प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए भेजा। उस्ताद बडे गुलाम अली खान ने उन्हें ठुमरी, ध्रुपद और ख्याल के शास्त्रीय रूपों की बारीकियां सिखाई
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अनमोल घड़ी - ( 1946 ) |
नूरजहाँ की गायकी से प्रभावित होकर संगीतकार गुलाम हैदर ने उन्हें के.डी मेहरा की पहली पंजाबी फिल्म ‘ शीला ’ उर्फ
‘ पिंड दी कुड़ी’- (1935 ) में उन्हें बाल कलाकार की संक्षिप्त भूमिका दिलाई यह फिल्म पूरे पंजाब में हिट रही इसने पंजाबी फिल्म उद्योग की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया फिल्म के गीत काफी हिट रहे उसके बाद
‘गुल-ए-बकवाली’ -(1939) ,यमला जट- (1940), ‘चौधरी’ (1941 ) प्रदर्शित हुई 1942 में नूरजहाँ ने अपने नाम से बेबी शब्द हटा दिया इसी साल उनकी फिल्म
‘खानदान’ आई ये उस वर्ष की दूसरी सबसे कामयाब फिल्म बनी इसमें उनके नायक अभिनेता प्राण थे ‘खानदान’ में पहली बार उन्होंने लोगों का ध्यान आकर्षित किया इसी फिल्म के निर्देशक शौकत हुसैन रिजवी के साथ उन्होंने शादी की नूरजहाँ ने
नौकर, जुगनू (1947) जैसी फिल्मों में अभिनय किया 'जुगनू 'मे उनके नायक दलीप कुमार साहेब थे दलीप कुमार साहेब की '' जुगनू 'पहली हिट फिल्म थी जिसे मलिका ए तरन्नुम नूरजहां के शौहर शौकत हुसैन रिज़वी ने बनाया था '
अनमोल घड़ी (1946 ) ' का संगीत नौशाद ने दिया था महबूब खान अनमोल घड़ी के गाने दिल्ली और लाहौर की पुरानी गलियों में आज भी बजते है उसके गीत
‘आवाज दे कहाँ है’, ‘जवाँ है मोहब्बत’ और
‘मेरे बचपन के साथी’ जैसे गीत आज भी लोगों की जुबाँ पर हैं उनकी फिल्मो
खानदान ,नौकर, दोस्त, जीनत, विलेज गर्ल, बड़ी मां, अनमोल घड़ी और
जुगनू ने उन्हें एक बड़ा स्टार बना दिया था फिल्म'
जीनत (1945) ' में जोहराबाई अंबालेवाली और अमीरबाई कर्नाटकी के साथ नूरजहाँ की गाई कव्वाली
''आहें न भरीं, शिकवे न किए.. '' में दक्षिण एशिया में पहली बार किसी कव्वाली में महिला की आवाज का इस्तेमाल हुआ 'जीनत '1945 की सबसे कामयाब फिल्म थी जब नूरजहां का कॅरियर शबाब पर था तो नूरजहाँ ने विभाजन के बाद बंबई छोड़कर लाहौर जाने का फैसला कर लिया दलीप कुमार साहेब ने उन्हें रोकने की कोशिश भी की लेकिन नूरजहां ने कहा......
''में जिथे जमी हा ओथे मरागी वी " ( जहाँ पैदा हुई हूँ वही मरूंगी
)... यह वो दौर था जब नूरजहां की शोहरत की पतंग अब आसमान छूने लगी थी
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अभिनेता मनोज कुमार के साथ मैडम नूरजहां |
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प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के साथ नूरजहां |
नूरजहां भारत में अच्छा खासा नाम कमा चुकी थीं और लाखो दिल उनके लिए धड़कते थे नूरजहाँ ने दलीप साहेब से भी पाकिस्तान चलने के लिए पर कहा पर उन्होंने इंकार कर दिया इतिहास गवाह है की नूरजहां को पाकिस्तान में भारत जैसी शोहरत कभी नहीं मिली और दलीप कुमार साहेब हिंदुस्तान के दिल बनकर आज भी धड़क रहे है
पाकिस्तान में भी वो फिल्मों से जुड़ीं उनकी उर्दू और पंजाबी में फिल्मे आई लेकिन इस बीच पति से अलगाव हुआ। इसकी एक वजह यह थी कि उनके नाम के साथ तमाम अफेयर्स के किस्से जुड़ते चले जा रहे थे पहली शादी से उनके तीन बच्चे थे, जिनमें गायिका 'जिल-ए हुमा 'शामिल हैं. 1959 में उन्होंने खुद से नौ साल छोटे अदाकार एजाज दुर्रानी से शादी की. इस शादी से भी उनके तीन बच्चे हुए 1963 में उन्होंने फिल्मों से रिटायर होने का फैसला किया उनकी दूसरी शादी भी नहीं चली 1979 में उनका तलाक हो गया फिल्मों में अदाकारी बंद करने के बाद नूरजहां ने प्लेबैक सिंगिंग और ग़ज़ल गायकी दोनों पर ज्यादा ध्यान देना शुरू किया। वो तमाम महफिलों का भी हिस्सा भी बनीं उस दौर में पाकिस्तान में ज्यादातर गायकों को एक गाने के महज़ साढ़े तीन सौ रुपये मिलते थे लोग नूरजहां को अपनी महफ़िलो में गाना गवाने के लिए पांच हजार रुपये देने को तैयार रहते थे उन्होंने एक भजन भी गाया -''
मन मंदिर के देवता'' जिसे रेडियो पाकिस्तान ने बैन कर दिया 1965 में भारत और पाकिस्तान के बीच जंग के समय उन्होंने पाकिस्तान के लिए देशभक्ति गीत गाए और इससे उन्हें खासी लोकप्रियता हासिल हुई लेकिन 1965 की जंग के दौरान भारतीय सेना के बारे में दिए एक विवादस्पद बयान के बाद हिंदुस्तान के लोगो के दिल में उनकी पहले जैसी जगह और इज़्ज़त दोनों नहीं रही
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लता जी के साथ नूरजहाँ |
नूरजहाँ ने महान बनने के लिए बहुत मेहनत की थी और अपनी शर्तों पर ज़िंदगी को जिया पता नहीं बेबाक, बिंदास, किसी बंदिश को नहीं मानने वाली.नूरजहाँ के दिल के कितने दावेदार थे और पता नहीं कितनी बार वह दिल धड़का था उन लोगों के लिए उन्होंने जिन पर मुस्कराने की इनायत की थी ,उनकी ज़िंदगी में अच्छे मोड़ भी आए और बुरे भी उन्होंने शादियाँ कीं, तलाक़ दिए, प्रेम संबंध बनाए, नाम कमाया और अपनी ज़िदगी के अंतिम क्षणों में बेइंतहा तकलीफ़ भी झेली.............एक बार पाकिस्तान की एक नामी शख़्सियत राजा तजम्मुल हुसैन ने उनसे हिम्मत कर पूछा कि ....
.'आपके कितने आशिक रहे हैं अब तक आधे ही बता दीजिए’ ? .......नूरजहाँ कुछ ज़्यादा ही दरियादिल मूड में थीं. उन्होंने गिनाना शुरू किया कुछ मिनटों बाद उन्होंने तजम्मुल से पूछा, ’....
.' कितने हुए अब तक' ? तजम्मुल ने बिना पलक झपकाए जवाब दिया-
' अब तक सोलह ! ' .....नूरजहाँ ने पंजाबी में क्लासिक टिप्पणी की- "
हाय अल्लाह ! ......ना ना करदियाँ वी सोलह हो गए "..... नूरजहां,के बारे में बीबीसी के पाकिस्तानी पत्रकार खालिद हसन के शब्दों के मुताबिक 1998 में नूरजहां को दिल का दौरा पड़ा तब खालिद हसन ने लिखा था कि
'' दिल का दौरा तो उन्हें पड़ना ही था ,पता नहीं कितने दावेदार थे उसके और पता नहीं, कितनी बार धड़का था उन लोगों के लिए, जिन पर मुस्कुराने की इनायत की थी '' उन्होंने यह सच है न जाने कितने मर्दों पर नूरजहां का दिल आया और न जाने कितने मर्दों का दिल नूरजहां पर इसे लेकर नूरजहां हमेशा फख्र करती रहीं उन्होंने इसे कभी छिपाने की कोशिश नहीं कीअपने पैदा होने से केवल कुछ वर्षो बाद ही गायकी से जुड़ने वाली नूरजहां ऐसी शख्सीयत है जिसने अपनी जिद पर अपनी मर्जी से जिंदगी जी और उसका भरपूर लुफ्त लिया
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बड़े गुलाम अली खान ,नूरजहां ,मुनव्वर अली खान
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मिर्जा साहिबाँ - (1947) |
गाना रिकॉर्ड करते समय नूरजहाँ उसमें अपना दिल, आत्मा और दिमाग़ सब कुछ झोंक देती थीं पर नूरजहाँ को दावतों के बाद या कहें लोगों की फ़रमाइश पर गाना सख़्त नापसंद था 1982 में वो भारत आईं। उन्होंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भी मुलाकात की स्टेज पर तीन गाने गाए. इनमें से एक था –
'मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग ' फैज की नज्म है यह. लेकिन नूरजहां ने इसे इतना मकबूल कर दिया कि फैज हमेशा कहा करते थे कि '
यह नज्म मेरी नहीं रही, यह तो नूरजहां की हो गई है ' 1982 के उस भारत दौरे पर हुए स्टेज शो में दिलीप कुमार ने उन्हें स्टेज पर आमंत्रित किया था. नौशाद का संगीतबद्ध गाना भी उन्होंने गाया -
'आवाज दे कहां है.' कहते है की फिल्म 'अनमोल घडी ' का ये गाना उस वक्त विभाजन की मार झेल रहे हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के लोगो के लिए दर्द का प्रतीक बन गया था
एक शिकायत उन्हें भारत से मिलने गए अपने दोस्तों से अक्सर रहती थी की पाकिस्तान में ढ़ंग का हारमोनियम नहीं मिलता सिर्फ़ कलकत्ता में अच्छा हारमोनियम मिलता है यहाँ से भी सभी लोग भारत जाते हैं, बाजे लाते हैं और मुझे उनके बारे में बताते भी हैं पर ...
"टूटपैने मेरे लई कोई हारमोनियम नहीं लयाँदे " .उनका यह वादा शायद कभी भी कोई दोस्त या चाहने वाला पूरा नहीं कर पाया नूरजहां के लिए अंतिम वक्त बहुत अच्छा नहीं रहा 1986 में वो अमेरिका गई थीं वहां सीने में दर्द हुआ उन्हें पेसमेकर लगाना पड़ा 23 दिसंबर 2000 को उन्हें दिल का दौरा पड़ा वो शनिवार का दिन था नूरजहां का निधन हो गया भारत और पाकिस्तान दोनों जगह के पुरानी पीढ़ी के लोग उनकी क्लासिक फिल्मों
‘लाल हवेली’ (1944,), ‘जीनत’ ‘बड़ी माँ’, गाँव की गोरी (1945) और
मिर्जा साहिबाँ (1947) आज भी दीवाने हैं। उन्होंने अपने आधी शताब्दी से अधिक के फिल्मी करियर में उर्दू, पंजाबी और सिंधी आदि भाषाओं में कई गाने गाए। उन्हें मनोरंजन के क्षेत्र में पाकिस्तान के सर्वोच्च सम्मान ‘
तमगा-ए-इम्तियाज’ से सम्मानित किया जिस नूरजहां ने 1947 में यह कहकर हिंदुस्तान छोड़ दिया था कि 'जहां पैदा हुई हूं, वहीं रहूंगी और मरूंगी ' बावजूद इसके हिंदुस्तान में उसी नूरजहां का गाया गाना–
'आवाज़ दे कहां है... कहीं बजता है' तो अब भी वैसी ही मीठी लज्जत और ख़ुशी देता है जैसा सकून नूरजहाँ के ज़माने में देता था
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21 सितम्बर 1926 - 23 दिसम्बर 2000 |
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