|
'शहनाज़
|
हमारे देश के सिनेमा प्रेमियों के पास कालजयी फिल्म मुग़ले-ए-आज़म-(1960) को लेकर सुनने और सुनाने के लिए कभी ख़त्म न होने वाले हजारो किस्से और कहानियां है...... मुग़ले-ए-आज़म की जान था के.आसिफ़ का 'अंटेशन टू डिटेल' यानी छोटी-छोटी चीज़ को ध्यान से देखने की कला.....आसिफ़ में कमाल का 'विज़न' और 'पैशन' था इसलिए सिर्फ़ दो फिल्मे बनाने के बावजूद भी आसिफ़ को हिंदी सिनेमा के चोटी के निर्देशकों की क़तार में रखा जाता है ,हमेशा चुटकी से सिगरेट या सिगार की राख झाड़ने वाले करीमउद्दीन आसिफ़ गुजरे ज़माने के अभिनेता रहे नज़ीर के भतीजे थे आसिफ़ ने अपने जीवन में सिर्फ़ दो फ़िल्मों का निर्देशन किया 1944 में आई 'फूल' और फिर 1960 में आई 'मुग़ल-ए-आज़म.' का ....... लेकिन इसके बावजूद उनका नाम भारतीय फ़िल्म इतिहास में हमेशा स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा निर्देशक के.आसिफ़ की फ़िल्म "मुगल-ए-आज़म" के मशहूर गाने 'जब प्यार किया तो डरना क्या 'में अनारकली बनी मधुबाला की खूबसूरती को शानदार और भव्य तरीके से फिल्माने के लिए लिए शीशमहल का खास सेट लगाया गया था शीश महल के सेट बनने में ही पूरे दो साल लग गए 150 फीट लंबे और 80 फीट चौड़े इस शीश महल को बनाने में बाकी फ़िल्म के बजट से ज़्यादा पैसा लगा,शीश महल के लिए खास बेल्जियम से मंगाए गए कांच का इस्तेमाल किया गया,मुगल-ए-आज़म एक ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्म थी लेकिन इस गीत को टेक्नीकलर में फ़िल्माया गया फ़िल्म विशेषज्ञों के मुताबिक़ आज के दौर में इस गीत को फ़िल्माया जाता तो क़रीब 2.5 करोड़ रुपए लगते दिलचस्प बात ये है आसिफ जब तक संतुष्ट नहीं हो गए उन्होंने लगातार ये सेट कई बार तुड़वाया और फिर नए सिरे से बनवाया 'मुग़ल-ए-आज़म' अपने ज़माने की सबसे मंहगी और सफल फ़िल्म थी लेकिन विडंबना देखिये इसके निर्देशक के.आसिफ़ ताउम्र एक किराए के मकान में रहे और रोजाना टैक्सी पर सफर करते थे और उन्हें इस बात का कोई अफ़सोस या शर्म कभी नहीं रही मुग़ल-ए-आज़म' को बनाने के लिए जिस पागलपन, कल्पनाशीलता और जीवट की ज़रूरत थी वो के.आसिफ़ में ही कूट-कूट कर भरी हुई थी 'मुग़ल-ए-आज़म' को आसिफ जैसा कोई जूनूनी शख्स ही बना सकता था आज जब फिल्म निर्माण एक कला नहीं बिजनेस बन चुका है तो आसिफ जैसे जूनून की कल्पना करना बेमानी होगा
|
के.आसिफ की मुग़ले-ए-आज़म- (1960) का पोस्टर |
जब फिल्म 'मुग़ल-ए-आज़म' के निर्माता और फाइनेंसर शाहपुरजी आसिफ की मनमर्जियो से बहुत तंग आ गए तो उनसे एक बार संगीतकार नौशाद ने पूछा ....''अगर आप को आसिफ़ से इतनी शिकायत है तो आपने उनके साथ ये फ़िल्म बनाने का फ़ैसला क्यों किया ? ''शाहपुरजी ने एक ठंडी सांस लेकर कहा ....'' नौशाद साहब एक बात बताऊँ ....ये आदमी ईमानदार है इसने इस फ़िल्म में डेढ़ करोड़ रुपए ख़र्च कर दिए हैं लेकिन अपनी जेब में एक फूटी कौड़ी भी नहीं डाली है बल्कि मदद मांगने पर अपने खुद के मेहनताने के पैसे भी स्टाफ को दे देता है .....बाक़ी सभी कलाकारों ने अपना कॉन्ट्रैक्ट कई बार बदलवाया क्योंकि वक़्त गुज़रता जा रहा था लेकिन इस शख़्स ने पुराने कॉन्ट्रैक्ट पर काम किया और कोई धोखाधड़ी नहीं की कोई पैसे का ग़बन नहीं किया....... ये आदमी आज भी चटाई पर सोता है ......टैक्सी पर छह आना मील का किराया देकर सफ़र करता है और सिगरेट भी दूसरों से मांग कर पीता है ....ये आदमी बीस घंटे खड़े हो कर लगातार काम करता है और हम लोग हैरान रह जाते हैं.....''
|
'मुग़ले-ए-आज़म 'की अनारकली मधुबाला के साथ निर्माता के.आसिफ
|
अब बात करते है मुग़ले-ए-आज़म की अनारकली की ... दरअसल, 'मुग़ल-ए-आज़म' बनाने का ख़्वाब के.आसिफ़ को तब आया जब 1944 में उन्होंने निगार इम्तियाज़ अली ताज का नाटक 'अनारकली 'पढ़ा जिसे पढ़ते ही आसिफ पर इस नाटक को बड़े पर्दे में क़ैद करने का जुनून सवार हो गया ..... 5 अगस्त 1960 को रिलीज़ हुई 'मुग़ल-ए-आज़म' में अनारकली का रोल मधुबाला ने बेशक किया पर इस रोल के लिए दरअसल के. आसिफ़ को कई अनारकलियों से होकर गुज़रना पड़ा.ये बात बहुत ही कम लोगो को पता है नर्गिस, नूतन ,मधुबाला से भी पहले के.आसिफ़ ने अनारकली के किरदार के लिए' शहनाज़ 'नाम की एक लड़की को चुना था अगर किस्मत साथ देती तो 'मुगल़-ए-आज़म' में मधुबाला नहीं अनारकली के रोल में 'शहनाज़' होतीं भोपाल के एक नवाबी खानदान में जन्मी 'शहनाज़ 'का निकाह बेहद कम उम्र में रसूख़दार राजनीतिक परिवार में हुआ और शादी के बाद वो वो भोपाल से बॉम्बे आ गई शहनाज़ एक खूबसूरत महिला थी जो अपने समय से काफी आगे की सोच रखती थी वो बॉम्बे में एक ग्लैमरस जीवन व्यतीत कर रही थी बॉम्बे में शोहर के पास पैसा और रुआब दोनों थे लेकिन यहाँ उसकी जिंदगी डबल ट्रेक पर दौड़ रही थी एक तरफ शौहर का रसूख ,हाई सोसायटी ,ग्लैमर और फ़िल्मी राजनैतिक हस्तियों से रौशन चकाचौंध करने वाली शानदार पार्टियां थी जिसमें प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर अभिनेता दलीप कुमार जैसे शख्स शिरकत करते थे, दूसरी और उसी शौहर के हाथो जिल्लत ,शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना से भरा जहन्नुम लगने वाला आलीशान घर था जिसमे शहनाज की हालत सोने के पिंजरे में बंद घायल परिंदे की तरह थी जिसमे सब कुछ था बस वो दर्द सहने के बाद भी उड़ नहीं सकती थी ....... इसी गम, रंज, रुसवाई के दौर से उबरने के लिए शहनाज़ ने कुछ समय के लिए शौकिया तौर पर थिएटर में काम किया था और एक नाटक में 'अनारकली 'का रोल अदा किया था संजोग से उस नाटक को देखने उस दिन फिल्म निर्देशक के. आसिफ़ भी आये हुए थे उन्होंने शहनाज को देखा तो एक पल में तय कर लिया की 'मुग़ले ए आज़म' की अनारकली वही बनेगी नाटक में अनारकली के शहनाज़ के चित्रण ने आसिफ को कैसे आकर्षित किया ? आखिर आसिफ़ की मुलाकात शहनाज से कैसे हुई ? इसका कुछ अंश प्रस्तुत है। .....
|
शहनाज़ एक खूबसूरत महिला थी जो अपने समय से काफी आगे की सोच रखती थी |
उन दिनों नाटककार एहसान रिज़वी अपने नाटक में अनारकली की भूमिका निभाने के लिए एक महिला की तलाश में थे एहसान रिज़वी वही शख्स है जिनको बाद में आसिफ ने मुगल-ए-आज़म में बतौर लेखक काम पर रखा था,गीतकार संवाद पटकथा लेखक एहसान रिजवी ने बाद में कई दशक तक हिंदी फिल्मो में काम किया मुग़ले-ए-आज़म के आलावा आज़ाद,नास्तिक,जाल,आँचल उनकी प्रमुख फिल्मे है...... एक दिन एहसान रिज़वी कथक वादक बिरजू महाराज के पास आए थे और अपनी दुर्दशा साझा की थी उस समय शहनाज बिरजू महाराज की छात्रा थीं और उनसे नृत्य सीख रही थी उन्होंने एहसान रिजवी को शहनाज से मिलने भेजा एहसान रिजवी ने उन्हें अपने नाटक में अनारकली का रोल ऑफर किया रोल सुनकर शहनाज़ भी इस मुगलिया दरबार की बेबाक दरबारी नर्तकी अनारकली की कहानी से मोहित हो गईं शहनाज ये नाटक तो करना चाहती थी पर उसे अच्छी तरह से पता था की उनके शौहर उन्हें इज़ाज़त नहीं देंगे लेकिन उन्हें कुछ शर्तो के साथ इस नाटक में काम करने की इज़ाज़त मिल गई हालाँकि उसके शौहर ने उन्हें नाटक में अभिनय करने की अनुमति देने के लिए भी पाने फायदे के लिए एक चाल चली थी थी उसने इस बात का आकलन करते हुए शहनाज़ को नाटक में काम करने की अनुमति दी थी इस नाटक से मिला प्रचार उनके अपने करियर और सार्वजनिक प्रोफ़ाइल के लिए अच्छा रहेगा उसने जोर देकर कहा था कि। ...... ''शहनाज़ वादा करे की नाटक के दौरान वो दैनिक सार्वजनिक कार्यक्रमों में पहले की तरह भाग लेंगी'' मतलब शहनाज़ उनके साथ राजनैतिक और हाई प्रोफाइल पार्टियों में बिना शर्त आती जाती रहेगी एहसान रिज़वी के नाटक में अनारकली की भूमिका निभाने के लिए शहनाज़ ने अधूरे मन से अपने शौहर की इस शर्त को मान लिया दिन में नाटक करने के बाद थके होने के बावजूद भी वो अपनी इस शर्त का निर्वाह करती एहसान रिज़वी का ये नाटक बेहद कामयाब हुआ और अपने अंतिम पड़ाव पर था तभी इसी नाटक के मंचन के दौरान शहनाज की मुलाकात आसिफ से कुछ इस तरह से होती है आसिफ भी ये नाटक देखने आये हुए थे
वो एक बेहद व्यस्त दिन था नाटक तीन सप्ताह चलने के बाद अंत के करीब था उस दिन शहनाज़ बुरी तरह से थक गई थी तभी उसके ड्रेसिंग रूम के दरवाजे पर दस्तक हुई नाटक के कामयाब होने की वजह से वो मशहूर भी हो गई थी इसलिए वो अक्सर बाहर गुलदस्ते या फूलमाला लिए ऑटोग्राफ की प्रतीक्षा में प्रशंसकों की भीड़ से अभ्यस्त हो गई थी उसने सोचा उनका कोई प्रशंसक होगा वह उस दिन अपने ड्रेसिंग रूम के बाहर किसी को भी मिलने के मूड में नहीं थीं लेकिन दस्तक जोर से और जोर से बढ़ती गई फिर उसने एहसान रिज़वी और थिएटर मालिक विजय डालमिया दोनों की आवाज़ें सुनीं
'मैडम' कृपया दरवाजा खोलो... आसिफ साहब हैं... वह आपसे मिलकर कुछ बात करना चाहते है
जब शहनाज़ ने आखिरकार दरवाज़ा खोला तो उसके सामने एक गहरी आँखों वाला,पेंसिल मूंछें और व्यथित बालों एक हाथ में सिगरेट लिए घबराहट से फुसफुसाते हुआ एक आदमी खड़ा था जैसे ही उसने उसे देखा उसने सिगरेट को फर्श पर ठूंस कर मसल दिया और उसके बगल में अपने घुटनों के बल बैठ गया अपनी बाँहों को फैलाकर शहनाज़ से लगभग याचना करते हुए बोला ''मुझे मेरी फिल्म की 'अनारकली मिल गई ,मैंने तुम्हें आखिरकार तुम्हे पा लिया है और अब मैं तुम्हें भारत की सबसे प्रसिद्ध अभिनेत्री बनाऊंगा क्योंकि तुम मेरी, मुगल-ए-आजम, की अनारकली को परदे पर जीवंत कर दोगी''
शहनाज दंग रह गईं। उसे इस तरह के व्यव्हार की कतई उम्मीद नहीं थी निश्चित रूप से वह जानती थी कि के. आसिफ कौन थे ? उन्होंने फ़िल्मी पार्टियों में बॉम्बे के लगभग सभी फिल्म मेकर्स के मुंह से सुन रखा था की कोई सनकी फिल्म निर्देशक भारतीय उपमहाद्वीप की अब तक की सबसे महंगी 'मुगले-ए-आज़म' फिल्म बना रहा है ज्यादातर लोगों की नजर में एक असफल परियोजना थी जो शायद कभी पूरी नहीं होगी आखिर शहनाज़ ने अपने आप आपको संभालते हुए हकलाते हुए कहा, 'आसिफ साहब, मैं संभवतः किसी फिल्म में अभिनय नहीं कर सकती!'
'बेशक, आप कर सकती हैं!' आसिफ उछल पड़ा, 'आखिरकार तुमने एक नाटक में भी तो अभिनय किया है, है ना ?
'हां, लेकिन फिल्में... ? यह पूरी तरह से अलग मामला है शहनाज़ ने अपने आप को संभालते हुए कहा
शहनाज़ जानती थी की समाज में फिल्मो को सम्मानजनक नहीं माना जाता था आसिफ को समझ में आ गया कि उसने क्या अनकहा छोड़ दिया है
'आप निश्चिंत रहें, आपके साथ मेरी बहन जैसा व्यवहार किया जाएगा मैं किसी की छाया भी आप पर नहीं पड़ने दूंगा,'
उसने नाटकीय ढंग से अपने दिल पर हाथ रखा तमाम दलीलें और विरोध तब तक जारी रहा जब तक कि शहनाज़ हार नहीं गई अंत में अगले सोमवार को मोहन स्टूडियो में एक छोटे से फोटो सेशन के लिए शहनाज़ ने आसिफ को अपनी अपने पति से चोरी चुपके सहमति दे दी क्योंकि उन्हें लगता था की सिर्फ फोटो सेशन से पीछा छूट जायेगा फिल्म करना तो दूर की बात है आसिफ की खुशी देखते ही बनती थी उन्होंने शहनाज को फोटो सेशन के लिए कुछ हिदायते दी और विदा ली
वह साल 1952 जून के मध्य का एक उमस भरा आश्चर्यजनक दिन था शहनाज़ तैयार होकर तय समय पर स्टूडियो पहुँच गई शहनाज़ ने हलके गुलाबी रंग की रेशम की शिफॉन की हल्की साड़ी पहनी थी उस समय उसकी शादी को एक साल से थोड़ा अधिक समय हो चुका था उसने अपने मोटे बालों को फैशन के हिसाब से छोटा कर दिया और आज वो अपने बालों को रोलर्स में सेट करने के लिए जल्दी उठी थी ताकि कर्ल उसके चेहरे को ठीक उसी तरह ढँक दे जैसा आसिफ फोटो सेशन के दौरान चाहते थे आसिफ पूरे सेटअप के साथ फोटो सेशन के लिए इनका इंतज़ार कर रहे थे पूरे फोटो सेशन दौरान, आसिफ ने आग्रह किया कि वह सहज रहे आखिर फोटोशूट मुकम्मल हुआ शूटिंग के अंत में आसिफ मुस्कुराया,
'बहुत बढ़िया था, अब मैं शूटिंग करना चाहूंगा, लेकिन इस बार अनारकली के गेटअप एक स्क्रीन टेस्ट लूंगा कही से जेवर और कपड़ो का इंतज़ाम किया जाये। ..... आसिफ
प्रोडक्शन असिस्टेंट सोहराब रंगूनवाला से मुखातिब थे
'प्रोडक्शन असिस्टेंट सोहराब रंगूनवाला ने विरोध किया, 'आसिफ साहब, यह असंभव है! इतनी महँगी पारम्परिक पोशाक सिलने के लिए पर्याप्त चहिये ! ...... आसिफ में माथे पर बल पड़ गए लेकिन उन्होंने ठान रखता की वो ये शूट जरूर करेंगे उन्होंने सोहराब रंगूनवाला से कहा....... 'शहनाज़ को वही पहनने दो जो उसने तुम्हारे नाटक में पहना था,' लेकिन ये क्या रंगूनवाला ने फिर बेफिक्र होकर ना में सिर हिलाया।'
दरअसल, वह पोशाक नहीं थी,' 'वह तो मेरा अपने घर का भोपाली सूट था, धागे सभी असली चांदी और सोने के हैं।' ' शहनाज ने बीच में कहा,
आसिफ ने खुशी से चहक उठे ,ये तो और भी अच्छा है क्योंकि 'असली चीज़ जैसा कुछ नहीं!'
आखिरकार आसिफ की जिद फिर जीती उन्होंने एक बार फिर शहनाज को फिल्म ऑडिशन के लिए राजी कर लिया ,नाटक के ही सेट के पर बने नकली मुगल मेहराब सजाये गये ,शहनाज़ ने अपना वही भोपाली जोड़ा पहना और सहज भाव से अपने नाटक के संवादों को यादकर दोहराया ,आसिफ शहनाज़ की बेदाग उर्दू और बेदाग बोली से बेहद खुश दिखे उन्होंने शहनाज़ के प्रदर्शन को देखा संवाद बोलते वक्त शहनाज के होठो पर जो सूक्ष्म कामुकता बिखर जाती थी वो गजब थी इन दो गुणों ने शहनाज को 'मुग़ले-ए-आज़म 'की अनारकली की भूमिका के लिए परफेक्ट बना दिया गालो पर सफ़ेद पंख के साथ वाला मशहूर क्लोज-अप देख कर आसिफ निशिचत हो गए की शहनाज़ ही उनकी अनारकली है उन्हें यकीन हो गया कि उन्हें अपने सिनेमाई सपने को पूरा करने के लिए उन्हें एकदम सही पात्र मिल गया है , इस फोटो सेशन में कोई 200 तस्वीरें खींची गई थीं जिसमे अनारकली की गालो को पंख से वाली सहलाने वाली आइकोनिक तस्वीर भी थी उन्होंने तस्वीरों के लैब में तैयार होने पर जल्द ही शहनाज़ से मिलने का वादा किया
तैयार होने के बाद आसिफ ने इन तस्वीरों को अपने निर्माता शापूरजी पल्लोनजी को दिखाया और शापूरजी जी से हरी झंडी मिलने पर उन्होंने बिना समय गंवाए शहनाज़ के घर की और रुख किया आसिफ आश्वस्त थे की शहनाज़ अनारकली के रोल के लिए उन्हें ना नहीं कह सकेगी उसने अपनी कमीज़ की जेब में शहनाज़ को साइनिंग अमाउंट देने के लिए नोटों की गड्डिया तक रख लिए थी शहनाज़ के घर पहुंचकर उन्होंने अपना गला साफ किया और दरवाजा खटखटा दिया लेकिन भाग्य को तो कुछ और ही मंजूर था....
दुर्भाग्य से उसी सुबह शहनाज के भाई, बड़े अलीम मियां और छोटे गनी मियां, अचानक से बंबई आ गए थे वे किसी हॉकी मैच को देखने लिए जा रहे थे जिसमें उनकी प्रसिद्ध घरेलू टीम, भोपाल वांडरर्स भी शामिल थी उन्होंने आसिफ का आदर सत्कार किया उसके साथ चाय पीते पीते आसिफ ने स्टूडियो में खींची शहनाज़ की तस्वीरें कॉफी टेबल पर पर फैलाते हुए कहा........'आपकी बहन शहनाज़ जल्द ही भारत की सबसे प्रसिद्ध अभिनेत्री होंगी बस आसिफ से यही गलती हो गई टेबल पर शहनाज़ की फ़िल्मी तस्वीरें देख शहनाज के भाई सकते में आ गए शहनाज़ शाही परिवार से थीं उनकी नाक के नीचे, उनकी बहन फिल्म के सेट पर ग्लैमरस पोज़ दे रही थी ये बात उन्हें गंवारा नहीं हुई गुस्से से कांपते अलीम मियां ने तस्वीरों को उठाया और टुकड़े-टुकड़े कर दिए 'तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई!' वह स्तब्ध आसिफ पर चिल्लाया'' निकल जाओ हमारे घर से '' !' दोनों भाई भयभीत आसिफ की ओर खतरनाक तरीके से आगे बढ़े और लगभग बेइज़्ज़त करते हुए आसिफ को दोबारा इधर रुख न करने की चेतावनी के साथ अपने घर से बाहर कर दिया मायूस आसिफ ने उस वक्त वहाँ से चले जाना ही मुनासिब समझा लेकिन आसिफ ने हार फिर भी नहीं मानी कई बार उन्होंने शहनाज़ के भाइयो से मिलने की कोशिश की मगर आसिफ़ को हर बार जलील होना पड़ा शहनाज़ के भाइयों ने आसिफ से साफ साफ और सख्त लहजे में दो टूक कह दिया ....''उनके खानदान की लड़की फिल्मो में काम नहीं करेगी और वो बार बार यहां तशरीफ़ न लाये तो बेहतर होगा'' जिस शहनाज़ की स्क्रीन टेस्ट में बेपनाह ख़ूबसूरती, सुरीली आवाज़, सटीक लहजा, उर्दू भाषा पर जबरदस्त पकड़ देखकर आसिफ दंग रह गए थे ,जिस शहनाज़ में आसिफ को मुगले ए आज़म की अनारकली की झलक दिखी थी अब उस शहनाज का आसिफ की फिल्म में अनारकली बनना लगभग नामुमकिन था कोई उम्मीद भी नहीं बची थी ये किस्सा अब हमेशा के लिए खत्म होने जा रहा था और इस तरह अपने भाइयो की वजह से' मुग़ले आज़म 'में शहनाज़ को अनारकली बनते देखने का आसिफ सुनहरा का ख्वाब मुकम्मल न हो सका
अब इसे भाग्य की विडंबना कहे या शहनाज़ की बदकिस्मती जहाँ फिल्म 'मुग़ल-ए-आज़म' की अनारकली शंहशाह अकबर और उनके फ़रमानों को चुनौती दे डालती है वहीं असल ज़िंदगी की शहनाज़ मर्दों के बनाये कायदों और उनके फ़रमानों के आगे बेबस दिखी .... पहले शौहर की जिल्लत और रुसवाई मिली अब उनका खुद का भाई उसकी किस्मत का मालिक बन बैठा था .....शहनाज़ का फ़िल्मी कैरियर शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो गया
|
अभिनेता दलीप कुमार शहनाज़ के साथ |
ख़ैर अनारकली की ये दास्तां यहीं ख़त्म नहीं होती के.आसिफ़ अपनी अज़ीमो-शान शाहकार 'मुग़ल-ए-आज़म' के लिए अपनी अनारकली को फिर से तलाशने निकल पड़े 12 अगस्त 1945 को बॉम्बे टॉकीज़ में फ़िल्म 'मुग़ल-ए-आज़म' का महूर्त हुआ जिसमें अनारकली बनी उस समय की उभरती नायिका नर्गिस ......... उस वक्त अनारकली के लिबास में नर्गिस की कई तस्वीरें फिल्म इंडिया और अन्य मैगजीन में छपी थी कुछ रील शूट भी हुई लेकिन दुर्भाग्य से फिल्म की शूटिंग के बीच ही देश का विभाजन हो गया और फिल्म के निर्माता शाहपुरजी ने भारत छोड़कर पाकिस्तान जाने का फैसला कर लिया नतीजा ये हुआ कि के.आसिफ़ को फ़िल्म रोक देनी पड़ी ........ मुल्ख का बंटवारा हुआ .....पाकिस्तान का जन्म हुआ ....सब कुछ बदल गया ....पर नहीं बदला तो अनारकली की कहानी को सिनेमा के रुपहले परदे पर उतारने का आसिफ़ का जुनून......बस फर्क सिर्फ इतना था की अब 'मुग़ल-ए-आज़म' के निर्माता भी खुद आसिफ ही थे ..... साल 1951 में जाकर जब दोबारा फ़िल्म शुरू हुई तो समय के साथ साथ कहानी में बदलाव हुए लेकिन अब नर्गिस को अनारकली बनने में कोई दिलचस्पी नहीं थी तब अनारकली के लिए आसिफ़ ने अभिनेत्री नूतन को चुना.....नूतन के साथ लगभग सारी बातचीत तय हो गई लेकिन अचानक नूतन ने मना कर दिया हर मुमकिन कोशिश के बावजूद नूतन का इनकार इक़रार में कभी न बदला बल्कि उन्होंने आसिफ को सलाह दे डाली कि अनारकली के रोल के लिए उनसे बेहतर नर्गिस या मधुबाला ही रहेंगी
|
अभिनेत्री नर्गिस 'मुग़ले ए आज़म ' के पोस्टर में |
|
अभिनेत्री नूतन और सुरैयां के साथ के.आसिफ |
के.आसिफ़ ने भी हार नहीं मानी उन्होंने देशभर के अख़बारों में इश्तिहार छपवाकर नई नई अभिनेत्रियों को किस्मत आज़माने और 'मुग़ल-ए-आज़म' में अनारकली का रोल करने की खुली दावत दे दी .....स्क्रीन मैगज़ीन और फ़िल्म इंडिया में भी इश्तिहार छपा लेकिन बात फिर भी नहीं बनी .....आसिफ को अपनी मनपसंद अनारकली नहीं मिली .....अब आसिफ को नूतन की सलाह पर मधुबाला का नाम याद आया दरअसल आसिफ़ के पास अनारकली का बस एक ख्याली चेहरा था जो जाने-पहचाने चेहरे मधुबाला से थोड़ा सा मेल खाता था उन्हें मधुबाला में अनारकली का अक़्स तो दिखता था पर किसी अन्य फिल्म को लेकर उनका मधुबाला के वालिद अतुल्लाह खान से पहले मन मुटाव हो चुका था और वो मुधबाला का सारा काम देखते थे ऐसे में वो उनकी फिल्म के लिए मधुबाला को काम करने की इज़ाज़त दे या नहीं कुछ कहा नहीं जा सकता था अगर वो मान भी जाते है तो अनगिनित पाबंदिया और शर्ते आसिफ पर लाद देते जिसके लिए वो मशहूर भी थे और शर्तो में बंध कर आसिफ काम करने वालो में से थे नहीं ......जब किस तरह ये सारी बात मधुबाला को पता चली तो मधुबाला आसिफ से खुद मिलने गई और उसने आसिफ से कहा कि ...''.मुझे 'मुग़ल-ए-आज़म' में काम करना है वालिद साहब की जो शर्तें हैं वो मान लें फिल्म करनी तो मुझे है उनकी शर्तें आप पर लागू नहीं होंगी."....और इस तरह शहनाज़, नूतन, नरगिस और कुछ और नामों से होती हुई अनारकली की दास्तां मधुबाला पर आकर रुकी
आसिफ की मुग़ले आज़म को उसकी मनपसंद अनारकली मिल गई बेहद बीमार होने के बावजूद जिस ख़ुलूस, मोहब्बत, नज़ाकत और दृढ़ता से मुधबाला ने ख़ुद को अनारकली के अक़्स में ढाला उसके क़िस्से आज भी सुनाए जाते हैं हुस्न, इश्क़, हिम्मत, ग़ुरूर, हुनर, नफ़ासत, अदा, अंदाज़, आवाज़, लहजा जो कुछ जो भी आसिफ़ को अपनी अनारकली में चाहिए था उसकी कमी मधुबाला ने पूरी की मुगल-ए-आज़म में मधुबाला का अभिनय विशेष उल्लेखनीय है इस फ़िल्म मे सिर्फ़ उनका अभिनय ही नही बल्कि 'कला के प्रति समर्पण' भी देखने को मिलता है बीमार होने और भयंकर शारीरिक कष्ट होने के बाद भी ऐसा समर्पण बहुत ही कम कलाकारों मे देखने को मिलता है असल मे यह मधुबाला की मेहनत ही थी जिसने इस फ़िल्म को सफ़लता के चरम तक पँहुचाया इस फ़िल्म के लिये उन्हें फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार के लिये नामंकित भी किया गया था हालांकि यह पुरस्कार उन्हें मिला नहीं
|
शहनाज़ असल ज़िंदगी में मर्दों के बनाये कायदों और उनके फ़रमानों के आगे बेबस दिखी
|
चाहे 'मुग़ल-ए-आज़म' में अनारकली बनने का मौका हो या फिर निकाह के बाद शोहर से मिली प्रताड़ना जिंदगी भरी......फिर भाइयो की झूठी इज़्ज़त से बंधी शहनाज की असल ज़िंदगी की ये कहानी शायद गुमनाम ही रहती अगर उनकी बेटी सोफ़ी नाज़ ने अपनी किताब 'शहनाज़ ए ट्रैजिक ट्रू स्टोरी ऑफ़ रॉयल्टी, ग्लैमर एंड हार्टब्रेक' की शक्ल में इसे अपने अलफ़ाज़ नहीं दिए होते ऊपर लिखा सारा घटना क्रम इसी किताब से किया गया है शहनाज़ अब इस दुनिया में नहीं हैं के.आसिफ की 'मुग़ल-ए-आज़म' की रिलीज़ के 52 वर्ष बाद 2012 में पाकिस्तान में उनका निधन हो गया उनकी मौत के बाद उनकी बेटी सोफ़ी नाज़ ने 'मुग़ल-ए-आज़म' से लेकर निजी ज़िंदगी के क़िस्सों को अपनी किताब में बखूबी पिरोया है सोफिया नाज़ ने अपनी माँ शहनाज़ के बीते हुए स्वर्णिम इतिहास और अशांत जीवन, एक अपमानजनक विवाह की वास्तविकता को छुपाकर अपने आप को भावनात्मक और शारीरिक रूप से आघात पहुंचना , एक प्रेमविहीन शादी में शहनाज़ द्वारा सहे गए शारीरिक और मानसिक शोषण ,उसके द्वारा झेली गई वित्तीय बाधाओं के बारे में इस किताब में खुलकर लिखा है उसने बखूबी उजागर किया कैसे शहनाज़ की ये दर्दनाक कहानी आखिरकार तलाक के साथ अपने अंत पर पहुंची, शहनाज़ की दूसरी शादी पाकिस्तान में एक सेना के डॉक्टर से हुई लेकिन दुर्भाग्य से हमारे समाज में पितृसत्ता के अतीत और वर्तमान स्तंभ मजबूती से औरत को जकड़े हुए हैं आखिरकार जिसकी कीमत शहनाज़ ने भी चुकाई उनकी पीढ़ी की अनगिनत अन्य महिलाओं की तरह ही स्वतंत्रता का दावा करने के बदले के रूप में उनके बच्चों को जानबूझकर अलग कर दिया गया एक प्रख्यात बुद्धिजीवी बैरिस्टर और राजनीतिज्ञ पति के हाथों खो उसे अपने दोनों बच्चों की कस्टडी खोनी पड़ी उसकी पहली शादी से जन्मे बच्चो से अलग करने और मातृत्व से वंचित होने पर शहनाज़ का दर्द इस किताब के हर पन्ने पर बिखरा हुआ है
शहनाज़ की बेटी सोफिया नाज़ ने अपनी किताब 'शहनाज़ ए ट्रैजिक ट्रू स्टोरी ऑफ़ रॉयल्टी, ग्लैमर एंड हार्टब्रेक' पुस्तक को छापने का अधिकार पेंगुइन को दिया है हालाँकि किताब में अपनी माँ के साथ हुए दुर्व्यवहार के दर्दनाक विवरण का तो खुलासा तो किया है, लेकिन उसके पहले पति या अपने सौतेले भाई-बहनों का नाम नहीं लिया है यह केवल संबंधित सभी की गोपनीयता की रक्षा करने के लिए नहीं बल्कि अपराधी के बजाय पीड़िता पर ध्यान केंद्रित करने के लिए एक जानबूझकर चुना गया विकल्प है आज शहनाज़ भले ही दुनिया को अलविदा कह चुकी हैं पर उनकी बेटी उनकी ज़िंदगी कुछ यूँ समेटती हैं, शहनाज़ ने अपनी किताब के अंत में लिखा है, ..... "मेरा मानना है कि मेरी माँ की तरह इस दुनिया में अभी भी अनगिनत शहनाज़ हैं जिनकी कहानियाँ अभी तक अनकही हैं मेरी इस बात से शायद ही कोई सहमत होगा ? लेकिन जिसने अपने निजी जीवन में जबरदस्त दर्द का सामना किया, एक अपमानजनक शादी के दर्द को झेला जिसने उसे जीवन भर के लिए डरावना सदमा दिया शायद तब भी कोई #metoo जैसा सोशल मंच होता तो वो भी अपना दर्द भी ज़माने को बता पाती लेकिन आज मैं अपनी माँ से कहना चाहती हूँ कि मैंने आपकी उस घुटन को दूर कर दिया जो आपने ताउम्र सही .... आपकी वो अधूरी कहानी आज मैंने दुनिया से कह दी है जिसे आप अपने जीते जी कभी किसी ने कह नहीं पाई "
No comments:
Post a Comment