मिल मजदूर (1934) |
हिंदी साहित्य में सबसे ज्यादा फिल्में-स्वाभाविक ही उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की रचनाओं पर बनी हैं बंबई (अब मुंबई) में सन 1931 में 'आलम आरा 'के साथ ही बोलती फिल्मो का युग शुरू हो चुका था 31 मई 1933 को प्रेमचंद हिंदी फिल्म जगत में अपनी किस्मत आजमाने मुंबई पहुंचे मोहन दयाराम भागवानी की कंपनी "अजंता सिनेटोन "के प्रस्ताव पर आठ हजार रुपए सालाना के अच्छे-खासे अनुबंध पर वे लेखन का काम करने लगे प्रेमचंद की कहानी पर मोहन भावनानी ने 1934 में मजदूर बनाई। उसका नाम पहले "MILL" हुआ करता था जिसे मिल मालिको के दबाव पर बदला गया
प्रेमचंद ने इस कहानी में मजदूरों की समस्याओं
को बहुत गंभीरतापूर्वक सामने रखा था। फिल्म में भी प्रेमचंद की कहानी के
उन हिस्सों को बहुत गंभीरता से फिल्माया गया है , जिनमें उन्होंने मजदूरों
के अधिकारों को सशक्त ढंग से रखा था अभिनेत्री के रूप में फिल्म मजदूर
में बिब्बो उर्फ़ मनोरमा ने आदर्शवादी मिल मालकिन की पद्मा की भूमिका अदा की
थी बिब्बो की उन दिनों फिल्मो में बड़ी मांग थी इसमें कपड़ा मिलों के
शोषित मजदूरों के जीवन का यथार्थ चित्रण था जिसमें व्यापक रूप से प्रेमचंद
के आदर्शवाद की पूरी छाप थी। उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि अगर
मालिक उदार, दयालु और मजदूरों का हित चिंतक हो तो न केवल मजदूर ख़ुश रहते
हैं, बल्कि वे मेहनत भी ज्यादा करते हैं इसके विपरीत अगर मजदूरों पर
अत्याचार किया जाए तो वे मालिकों से झगड़ा करते हैं और हड़तालें करते हैं।
इस सुखांत फिल्म की शूटिंग एक मिल में की गई थी। भारतीय फिल्मों के इतिहास
में इस तरह की लोकेशन शूटिंग पहली बार की गई थी क्योंकि तब स्टूडियो में
सेट लगाकर ही शूटिंग होती थी। इस फिल्म में सबसे प्रमुख बात यह थी कि इसकी
शूटिंग मुंबई के कपड़ा मिल के मजदूरों के बीच हुई थी
फिल्म की कहानी को पूरी तरह से प्रेमचंद की कहानी नहीं कहा जा सकता। उन्होंने केवल अजंता सिनेटोन द्वारा सुझाए कथा बिंदुओं को ही अपनी पटकथा में ढाला था और इसके संवाद लिखे थे फिल्म मजदूर की कहानी संक्षेप में यह है कि एक बहुत ही सज्जन और दयालु मिल मालिक था जिसकी मृत्यु होने पर उसकी बेटी पद्मा (बिब्बो ) और बेटा विनोद ( एस.बी नायमपल्ली ) साथ मिलकर मिल को चलाने लगते हैं दोनों के चरित्र और स्वभाव में जमीन-आसमान का अंतर है पद्मा अपने पिता के समान बड़ी दयालु, उदार और मजदूरों के हितों का ध्यान रखने वाली है, लेकिन विनोद आवारा, शराबी और अत्याचारी है। वह मजदूरों की उपेक्षा ही नहीं करता, बल्कि उनके साथ निर्मम व्यवहार भी करता है जिस कारण वे हड़ताल कर देते हैं पद्मा अपने एक मित्र कैलाश ( जयराज ) के साथ उन मजदूरों के आंदोलन का नेतृत्व करती है। यह देखकर विनोद को ग़ुस्सा आता है और वह पद्मा की पिटाई करता है। मामला पुलिस के पास जाता है और विनोद को जेल की सजा हो जाती है मिल को फिर से चालू करने और मजदूरों को काम पर वापस लाने के लिए आखिर में गांव की पंचायत के सरपंच को बुलाया जाता है और वह दोनों पक्षों में समझौता कराता है। पद्मा के अनुरोध पर मजदूर फिर से काम पर आ जाते हैं और वह अपने पिता के समान मिल को फिर से बड़ी कुशलता से चलाने लगती है। बाद में उसकी अपने मित्र कैलाश से शादी हो जाती है फिल्म का सुखद अंत होता है
फिल्म में विनोद की
भूमिका एस.बी नायमपल्ली ने अदा की थी और कैलाश की भूमिका जयराज ने फिल्म के
कुछ अन्य प्रमुख कलाकार ताराबाई (कैलाश की मां) खलील आफ्ताब (मिल का
मैनेजर) अमीना अन्नबी (कामकाजी औरत) और एस.एल पुरी (मिल का फोरमैन) थे मजदूर
फिल्म की सिनेमैटोग्राफी बी. मित्रा ने की थी और उसके संगीत निर्देशक थे
बी.एस हूगन. प्रसिद्ध चरित्र अभिनेता कन्हैया लाल ने भी इस फिल्म में छोटा
सा रोल किया था मोहन भवनानी की इच्छा थी कि प्रेमचंद भी फिल्म में अभिनय
करें, लेकिन उन्होंने पहले तो इनकार किया, लेकिन जब भवनानी ने बार-बार
आग्रह किया तो वह इस शर्त पर राजी हुए कि मैं घुटनों तक ऊंची साधारण धोती
और कुर्ता पहनूंगा। दो-तीन मिनट की छोटी-सी भूमिका में प्रेमचंद को अपने
दैनिक जीवन जैसा अभिनय करना था फिर भी उनका अभिनय बहुत अच्छा रहा अन्य
अभिनेता इतने बड़े लेखक के साथ काम करके वैसे ही बड़े ख़ुश थे। जब उन्होंने
उन्हें अपने बीच प्रेमचंद को एक अभिनेता के रूप में पाया तो और भी गर्व का
अनुभव करने लगे प्रेमचंद ने अपनी पत्नी को लिखे अपने एक पत्र में लिखा था
कि सारे कर्मचारी और अभिनेता मेरी बहुत इज्जत करते है
एस.बी नायमपल्ली और बिब्बो |
मजदूर फिल्म
मजदूरों की समस्याओं को उजागर करने वाली सामाजिक फिल्म थी। ...आखिरकार
फिल्म बनकर पूरी हुई लेकिन रिलीज होने से पहले ही बहुत बवाल हो गया। फिल्म बेहद गलत टाइमिंग पर रिलीज़ हुई दरअसल, 1931 में देशभर के मिल
मालिको ने एक फैसला किया उन्होंने अपनों अपनी मिलो में काम की शिफ्टो की
कटौती कर दी इसने बाद इस कटौती का असर सीधा मिल मजदूरो पर पड़ा 1931 से 1934
तक अनेक कपडा मिले बंद हो गई और मजदूरो का रोजगार छिन चुका था फलस्वरूप
मजदूरो में विरोध की घटनाये तेज़ी से बढ़ी तालाबंदी और हड़तालों का दौर शुरू
हो गया 1934 में बम्बई में एक मशहूर कामगार हड़ताल हुई जिसमे करीब नब्बे
हज़ार मजदूरो में भाग लिया इस कामगार हड़ताल को कई सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट
पार्टियों का समर्थन था उन दिनों फिल्म सेंसर बोर्ड का एक सदस्य
पूंजीपतियों और मिल मालिकों के एसोसिएशन से भी जुड़ा हुआ था और उसको इस
फिल्म के कई दृश्य चुभ गए। वह फिल्म देखने के बाद बौखला गया और इसे
पूंजीपति विरोधी कहकर रिलीज होने से रोक दिया फिर अंग्रेजों के सेंसर ने
फिल्म में काफी काँट-छाँट कर दी यह फिल्म देश के कई शहरों में रिलीज ही
नहीं हुई क्योंकि इससे अनेक प्रभावशाली उद्योगपति नाराज हो गए थे जिन्होंने
अंग्रेज सरकार पर दबाव डालकर देश के अनेक प्रांतों के सेंसर बोर्डो से इस
फिल्म पर प्रतिबंध लगवा दिया लेकिन इस का असर उल्टा हुआ इससे फिल्म का
प्रचार हुआ मुंबई प्रांत; पंजाब/लाहौर; फिर दिल्ली- फिल्म पर प्रतिबंध लगते
गए। इस फिल्म पर मुंबई में पूर्ण प्रतिबंध लग गया और पंजाब में जैसे तैसे
ये यह 'गरीब मजदूर' के नाम से प्रदर्शित हुईं ...दिल्ली में जैसे तैसे जिन
थोड़े-से स्थानों में यह प्रदर्शित हुई वहां के सिनेमाघरों के बाहर दर्शकों
की भीड़ लगी रहती थी
बिब्बो और पी.जयराज |
नायमपल्ली और अमीना अन्नबी फिल्म 'मिल मजदूर ' (1934) के एक दृश्य में |
प्रेमचंद के उपन्यास और कहानियों पर कई फिल्में बनी लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली उनकी कहानियों और उपन्यास को सुन मुग्ध हो जाना स्वाभाविक है लेकिन फिल्मों ने कभी उसके साथ न्याय नहीं किया. दरअसल प्रेमचंद को सिनेमा कभी रास ही नहीं आया वह खुद अपनी किस्मत आजमाने बम्बई गए. अजंता सिनेटोन कंपनी में कहानी लेखक की नौकरी भी की लेकिन एक साल का अनुबंध पूरा करने के पहले ही वाराणसी वापस आ गए
4 अप्रैल 1935 को मुंबई छोड़ बनारस लौट आए
बम्बई और उससे भी ज्यादा वहां की फिल्मी दुनिया का हवा पानी उन्हें रास
नहीं आया और 8 अक्टूबर 1936 में उनका निधन हो गया अगले वर्ष उनके
उपन्यास "नवजीवन " पर फिल्म बनी निधन के बाद उनकी कहानी पर स्वामी (औरत की
फितरत/त्रिया चरित्र), हीरा-मोती (दो बैलों की कथा), रंगभूमि, गोदान, गबन
और बहुत आगे जाकर सत्यजित राय सरीखे फिल्मकार के निर्देशन में शतरंज के
खिलाड़ी और सद्गति बनीं। हिंदी फिल्मों में सत्यजित राय को छोड़कर शायद ही
किसी फिल्मकार ने प्रेमचंद के साहित्य के मर्म को समझने की कोशिश की हो।
गांव देहात से लेकर आम आदमी की जिन्दगी के कुशल चितेरे महान कथाकार मुंशी
प्रेमचंद के उपन्यास और कहानियों पर कई फिल्में बनीं लेकिन हिन्दी चित्रपट
उनकी प्रतिभा का सही दीदार दर्शकों को नहीं करा पाया है करीब 100 साल पहले की उनकी रचनाएं आज के समय में भी उतनी ही प्रासंगिक हैं, जितनी उस जमाने में हुआ करती थीं।
बहुत महत्त्वपूर्ण सन्दर्भों से युक्त है यह जानकारी।
ReplyDeleteश्री पवनजी,कृपया अपना मोबाइल नम्बर दें!
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