तलाक (1958) |
फिल्मे समाज का आइना होती है हमारी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में शायद ही
कोई सामाजिक मुद्दा होगा जो फिल्म की कहानी के जरिये ना दिखाया गया हो
सामाजिक प्रथाओं और कुरितियों को समय समय पर फ़िल्मी सांचे में ढाल कर
दिखाया जाता रहा है 1950 में आज़ादी मिलने के बाद देश का
सविंधान बना नए कानून बने और पुराने कानूनों को संशोधित किया गया था
तलाक का कानून भी उनमे एक था जिसे सही मायनो में समझा नहीं जा रहा था
'तलाक 'जैसे संवेदनशील मुद्दे को असल कहानी में पिरो कर कई फिल्मो में
दर्शकों के सामने पेश किया गया आज जब तीन तलाक पर देश की सर्वोच्य
न्यायपालिका का फैसला आया है और ये सामाजिक मुद्दा फिर से गरम है
तलाक (1958) शायद उस समय की पहली ऐसी फिल्म थी जिसमें तलाक के दर्द को
दिखाया गया था ये वो दौर था जब हमारी फिल्मे मनोरंजन के साथ साथ एक समाजिक
भी सन्देश भी देती थी निर्देशक महेश कौल की फिल्म तलाक के आलावा देश में
बढ़ती आबादी और परिवार नियोजन के मसले को नायक राजेन्द्र कुमार कुमार के
मित्र रमाकांत वर्मा के माध्यम से उठाती है जो पिता नहीं बनना चाहते
क्योंकि देश में बढ़ती हुई आबादी उपलब्ध संसाधनों से मेल नहीं खाती कहानी दो
समानांतर पटरियों पर चलती है कि समाज के विभिन्न वर्ग किस
प्रकार एक ही समस्या से निपट रहे है
फिल्म शुरू होती है एक स्कूल के
प्रांगण से जहाँ एक जहां महिला प्रिंसिपल, अपने स्कूल की शिक्षिकाओं को
अत्याचारी पति के खिलाफ तलाक का इस्तेमाल करने की सलाह देती है,वह कहती है
कि समय बदल गया है और परिवारों के मूल्यों को कायम रखने के नाम पर महिलाओं
को अब अधीन नहीं किया जा सकता है और न ही उन्हें चुप रखा सकता है क्योंकि
आज उनके हाथ में तलाक जैसा धारदार सरकारी कानून है जिसका प्रयोग करने से
उन्हें घबराना नहीं चाहिए
इसके विपरीत इसी स्कूल की एक संगीत
शिक्षिका इंदु (कामिनी कदम ) अपनी छात्राओं से परिवार समाज में खुशाली बनाए
रखने के लिए अपनी जिम्मेदारी का निर्वाहन करने के लिए प्रेरित करती है
मध्यम वर्ग की इंदू अपने विधुर और बेरोजगार पिता मूलचंद छब्बे ( राधा
कृष्णन ) के साथ एक किराये के मकान की ऊपरी मंजिल पर रहती है अपने पिता की
सारी जिम्मेदारी अकेली इंदु पर ही है लेकिन मूलचंद अपनी बेटी की मेहनत की
कमाई क्लब में जुंए और दोस्तों के ऊपर बेहरमी से उड़ाता है मूलचंद
किसी अन्य किरायेदार को कोई न कोई बहाना कर के नीचे का कमरा किराये पर नहीं
लेने देते रवि शंकर चौबे ( राजेन्द्र कुमार ) एक इंजिनियर है रवि शंकर
मूलचंद के मना करने के बाद भी नीचे का मकान किराये पर ले लेता है पानी के
नल पर से रवि की अक्सर इंदु से नोक झोक होती रहती है जल्दी ही इन दोनों की
मीठी नौंक झोँक प्यार में बदल जाती है एक कार्यक्र्म में गाये देश भक्ति के
गीत से वो रवि की प्रतिभा की और आकर्षित हो जाती है रवि उसे बताता है की
वो कवि भी है मूलचंद को जब अपनी बेटी के प्यार के बारे में पता चलता है
तो वो आग बबूला हो जाता है क्योंकि वो अच्छी तरह जनता है की अगर इंदू की
शादी हो गई तो उसका खर्च कौन उठाएगा ? इसलिए मूलचंद रवि के सामने ये
शर्त रखता है की वो उसी लड़के से इंदू की शादी करेगा जो घर जमाई बन कर
उसका और बेटी दोनों का खर्च उठाएगा
रवि के फैमिली प्लानिंग
एक्सपर्स्ट दोस्त रेवती चंद वर्मा ( लाल बहादुर ) और उनकी पत्नी कामिनी
(यशोधरा काटजू ) दोनों मिल कर मूलचन्द की शर्त मान कर उसकी शादी इंदु से
करवा देते है इंदु स्कूल की नौकरी छोड़ देती है दोनों का गृहस्थ जीवन
अपने बेटे आशु ( मास्टर अशवनी ) के साथ सुःख से बीत रहा होता है लेकिन मूलचंद
की बेकारी जुए और क्लब की आदत के कारण दोनों में कलह होने लगती है रोज़ रोज़
की आर्थिक दिक्कतों और कलह से तंग आ कर इंदु दुबारा स्कूल में नौकरी
ज्वाइन करने का फैसला करती है रवि अपने ससुर मूलचंद की बुरी आदतों
को पसंद नहीं करता और इंदु अपने पिता को नहीं छोड़ सकती रवि इंदु को
चेतावनी देता है की वो उसे या नौकरी दोनों में से किसी एक को चुन ले इंदु
स्कूल में नौकरी ज्वाइन कर लेती है रवि अपने बच्चे आशु के साथ मूल
चंद का घर छोड़ देता है और आशु के साथ शहर के एक होटल में रहने चला जाता है
दोनों में यह कटुता और कलह उन्हें तलाक की ओर ले जाती है हसंते खेलते
परिवार में दरार आ जाती है इधर होटल में आशु अपनी माँ के
लिए तड़पता है उधर इंदु भी मूल चंद के झूठे अहम् की वजह से अपने बच्चे और
पति को खो देती है ........रवि से तलाक लेने के लिए मूलचंद इंदु को भड़काता
है कोर्ट उन्हें अलग होने के लिए दो साल का वक्त देती है ये सब देख कर
रेवती चंद वर्मा के नौकर मंगल (सज्जन ) और इंदु की नौकरानी तारा (कुसुम
ठाकुर) बड़े दुखी होते है मंगल इंदु के बाप मूल चंद को इस बिखराव का
जिम्मेदार मानता है तारा भी इंदु के घर की नौकरी छोड़ आशु की देखभाल के लिए
रवि के होटल में चली जाती मंगल कपटी मूलचंद के घर जा कर उसकी आत्मा
को झिंझोरता है और कहता है वो बाप होकर अपने स्वार्थ के लिए अपनी अपनी बेटी
का घर उजाड़ रहा है मूलचंद को अपने किये का पश्चाप होता है वो रवि से माफ़ी
मांगता है और इंदु को अपनाने को कहता है लेकिन रवि अपनी पत्नी और उसके बाप
को माफ़ करने से मना कर देता है और इंदु से तलाक लेने पर अड़ जाता
है हालत को बिगड़ते देख रवि के दोस्त रेवती चंद वर्मा उनकी पत्नी
कामिनी ,मंगल और तारा आशु को गायब करवा एक नाटकीय घटनाक्रम के माध्यम से
रवि और इंदु को वापिस एक साथ लाने में सफल होते है
.
फिल्म
इस सन्देश के साथ ख़त्म होती है की सरकार द्वारा बनाये तलाक जैसे कानून के
आलावा भी अपने परिवार को टूटने से बचाने के लिए सीमाओं के भीतर समाधान
खोजने की कोशिश करनी चाहिए फिल्म तलाक में राजेंद्र कुमार का
जबरदस्त अभिनय लोगों के दिलों पर छाप छोड़ गया मराठी फिल्मों में
प्रसिद्ध नाम, कामिनी कदम ने इस फिल्म के साथ हिंदी फिल्मो में शुरुआत की
थी राधाकृष्ण अपने समय के मंजे हुए कलाकार थे उन्होंने इंदु के पिता
के रोल में फिल्म को अपनी कॉमेडी से भी संभाला है मैं अगर ये कंहू की
राधाकृष्ण अभिनय में मामले में इस फिल्म में सब पर भरी पड़े तो शायद ये गलत
नहीं होगा लेकिन आज के समय के अनुरूप फिल्म में उनका बोला एक संवाद
थोड़ा असहज कर देता है जब वो नाना बनने पर मोहल्ले में मिठाई बांटते हुए
कहते है की....." लड़का हुआ है लड़का ... लड़की होने पर मिठाई कौन बांटता
है.......? उनका ये संवाद हमें ये सोचने पर भी मजबूर कर देता है लड़कियों
के पैदा होने को लेकर इतने सालो के बाद भी हमारे देश और समाज की सोच में
कोई खास फर्क नहीं पड़ा वही फिल्म के एक दृश्य में राजेंदर कुमार का
अपने आप को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सदस्य बताना उस समय समाज पर
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रभाव को दर्शाता है साजन,कुसुम
ठाकुर दोनों ने फिल्म में अपनी अदाकारी की छाप छोड़ी है इनको आप फिल्म का
सूत्रदार भी कह सकते है दोनों की प्रेम कहानी इंदु और रवि के साथ साथ चलती
है वही रवि के फैमिली प्लानिंग एक्सपर्स्ट दोस्त रेवती चंद वर्मा उनकी
पत्नी कामिनी के रोल में लाल बहादुर और यशोधरा काटजू की नोक झोंक फिल्म को
बांधे रखती है शुरू के एक दृश्य में बाल कलाकार के रूप में
अभिनेत्री मुमताज और अरुणा ईरानी को देखना सुखद लगता है मुख्य बाल कलाकार
आशु के रूप में अश्विनी बेहद मासूम लगा है उसका अभिनय भावुक करता है
तलाक फिल्म की ज्यादातर शूटिंग बम्बई के मशहूर रंजीत स्टूडियो में की गई
थी पंडित मुखराम शर्मा की लिखी कहानी में संगीत दिग्गज सी.रामचंद्र जी ने
दिया था ' मेरे जीवन में किरण बन कर बिखरने वाले ' , 'लगी जो टक्कर खा गए
चक्कर , 'नई उम्र की कालियों' , 'ओ बाबू साब' ,ये दुनिया के मां बाप '
,'बिगुल बजा आज़ादी का ' जैसे कुल 6 गाने थे जिन्हे आशा भोंसले और मन्ना डे
,आरती मुखर्जी ने अपनी आवाज़ दी लेकिन राष्ट्रकवि प्रदीप का लिखा
''संभल के रहना अपने घर में छिपे हुए गद्दारो से'' को छोड़कर कोई भी गाना
हिट नहीं हुआ महान राष्ट्रभक्त कवि प्रदीप ने फिल्म तलाक में खरे शब्दों
में गद्दारो को सीधी चेतावनी देते हुए इस अमर गीत की रचना की थी इसे
अभिनेता राजिंदर कुमार पर फिल्माया गया था आज भी ये गाना देश के हालात पर
प्रासंगिक है 1962 में चीन ने जब हमारे देश पर आक्रमण किया तो उस वक्त
आकाशवाणी के लिये कुछ खास देशभक्ती गाने बजाये जाते थे, दोपहर 12.30 से
1.00 बजे तक देश भक्ती गीतों में प्राय यह गीत सुनाया जाता था यह गीत
स्कूलों में बच्चो की कापी के पीछे गत्ते पर छपा रहता था जिसे स्कूली बच्चे
अक्सर गुनगुनाते थे
फिल्म 'तलाक ' के लिए निर्देशक महेश कौल को
सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के लिए फिल्म फेयर अवार्ड भी दिया जा चुका है साथ ही
फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फिल्म अवार्ड के लिए भी नामित किया गया था.. हिंदी
सिनेमा में तलाक जैसे मुद्दे पर बहुत सी फिल्में बनी हैं, जिसमें अलग अलग
तरह से तलाक के बाद एक औरत के दर्द और तकलीफ को दिखाया गया है ऐसे मुद्दे
को दिखाने का केवल यही मकसद था कि कैसे तलाक शब्द एक औरत की जिंदगी और
परिवार को बर्बाद कर देता है ...तलाक जैसी साफ सुथरी फिल्म को आप अपने पूरे
परिवार के साथ बैठ कर देख सकते है
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