के.एन. सिंह 01 सितंबर, 1908 --- 31 जनवरी, 2000 |
आज की पीढ़ी को बिलकुल विश्वास नहीं करेगी कि एक ज़माने में परदे की
दुनिया में एक ऐसा खलनायक भी आया था जो सूटेड-बूटेड परफ़ेक्ट जैंटिलमैन था
परंतु उसके चेहरे के हाव-भाव, सूट-बूट के ऊपर ओवरकोट, सिर पर हैट और मुंह
में दबी सिगरेट से निकलते धूंए से उसको एक रहस्यमयी कातिलाना विलेन का दरजा
मिलता था उसकी एंट्री के अंदाज़ से ही दर्शक समझ जाते थे कि ये शख्स
विलेन ही हो सकता है और आगे सीन में कुछ अच्छा नहीं होने जा रहा
है मगर आशाओं के विपरीत उसका चेहरा उस वक़्त बिलकुल खामोश दिखता था क्रूर एक्ट के वक्त भी वो कोई बाअवाजे़ बुलंद रोंगटे खड़े करने वाले
वाहियात संवाद नहीं बोलता था उसके संवाद उनके होटों से लगी सिगरेट से
निकलते धूंए, उसकी फैली हुई आखों पर उठती-गिरती भंवों व माथे पर चढ़ी
त्योरियों से पढ़े जा सकते थे। उस ज़माने में यह विलेन की क्रूर
अभिव्यक्ति का एक निराला अंदाज़ था इसे दर्शकों ने पहले कभी नहीं देखा था इसी कातिलाना स्टाईल के दम पर इस शख्स ने लगभग 250 फिल्मों में
धमाकेदार उपस्थिति दर्ज करायीनाम था .......कृष्ण निरंजन सिंह उर्फ़ के.एन.
सिंह.......
के.एन. सिंह उस दौर के सबसे स्टायलिश विलेन थे बेहतरीन सूट,सर पर हैट और
पाइप पीते और एक खास अंदाज़ में साँस उपर खीच कर बोलते के.एन.सिंह ने विलेन
को ''जेंटिल विलेन '' बना दिया अक्सर वो माफिया डान के किरदार में नजर आते
थे के.एन. सिंह अपनी इस खासियत के लिये भी पहचाने जाते थे कि वो किरदार
में घुस कर एक्टिंग तो करते हैं लेकिन ओवर एक्टिंग नहीं उनका किरदार
परदे पर चीखने-चिल्लाने से सख़्त परहेज़ रखता था उन्हें यकीन था कि हर
किरदार में एक क्रियेटीविटी है, स्कोप है सुधारने और संवारने की असीम
संभावनाए हैं बस उसको कायदे से पारिमार्जित करने की ज़रूरत है ताकि परदे पर
उसकी क्षणिक मौजूदगी का अहसास भी पब्लिक को होता रहे परदे पर उनकी पोषाक
अधिकतर सलीकेदार शख्स की रही
के.एन.सिंह के खानदान में सभी लोग
वकील थे उनके पापा चाहते थे वो लन्दन जाकर आगे की पढाई करे पर के.एन.सिंह
नहीं माने बहुत ही कम लोग ये जानते है की.के.एन सिंह जी ने भाला फेंक
और गोला फेंक खेलो में उत्कृष्टता प्राप्त की थी इसी कारण 1936 के
बर्लिन ओलंपिक में इन खेलो में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए उन्हें
चुना भी गया था लेकिन हालात ऐसे बन गए की उन्हें कलकत्ता में अपनी
बीमार बहन को देखने जाना पड़ा और वो ये मौका चूक गए परंतु होता वही है जो
नियति में लिखा होता है और वही एक दिन उनकी मुलाकात पृथ्वीराज कपूर
से हो गयी पृथ्वीराज कपूर ने उनकी मुलाकात देवकी बोस से मुलाक़ात करवा
दी के.एन.सिंह कृष्ण को ‘सुनहरा संसार’ (1936) में एक छोटी भूमिका मिल गई सन 1936 की 09 सितंबर को कृष्ण ने पहली मर्तबा कैमरे का सामना
किया के.एन. सिंह ने,हिंदी सिनेमा के उस क्लासिक दौर में विलेन की इमेज
को ही बदल डाला था वो एक आंख थोड़ी दबा कर गर्दन घुमाते हुए ' अपने शिकार '
पर दृष्टिपात करते थे यही उनकी विशिष्ट पहचान थी वो खलनायकी भी बड़ी नफासत
और शालीनता से करते थे ये इतने जिद्दी खलनायक थे कि फिल्म के अंत में जान
दे देते थे पर ना तो खलनायकी से बाज़ आते थे और ना ही नायक के हाथो पिटना
पसंद करते थे
जब के.एन. सिंह बंबई आये थे तो याकूब सबसे कामयाब
विलेन हुआ करते थे। वो इस मैदान के बेताज बादशाह थे मगर के.एन. सिंह
के आगमन से वो परेशान हुये उन्हें लगा - ...‘‘अरे ये तो मेरा भी बाप है।’’
वो समझ गये कि अब यहां दाल नहीं गलेगी इससे पहले कि ज़माना उन्हें नकार दे,
उन्होंने फौरन करेक्टर रोल्स लेने शुरू कर दिये यह बात खुद याकूब ने एक
इंटरव्यू में कबूल की थी इस तरह से एक अच्छे कलाकार ने एक अच्छे कलाकार का
सम्मान किया इसके बाद के.एन. सिंह ‘सिंह इज किंग’ कहलाने लगे थे आम
जीवन में भी वो ख्याल रखते थे कि ड्रेस कायदे की हो। बेहतरीन कपड़ों के
वो सदैव शौकीन रहे। के.एन. सिंह एक बेहतरीन इंसान भी थे दूसरों की मदद
को हमेशा तत्पर रहे वो भूले नहीं थे कि शरूआत में वो खुद भी दूसरों की मदद
से आगे बढ़े थे वो इस सिंद्धांत के कायल थे कि फिल्म इंडस्ट्री से
जितना लिया और सीखा उसे साथ-साथ वापस भी करते चलो। जाने कब ऊपर से बुलावा आ
जाये उन दिनों दिलीप कुमार फिल्म इंडस्ट्रीज़ में नये-नये दाखिल
हुए थे देविका रानी की ‘ज्वार भाटा’ (1944) कर रहे थे यह उनकी पहली फिल्म थी सामने के.एन. सिंह जैसे नामी खतरनाक विलेन को देख कर वह असहज हो
गये तब के.एन. सिंह ने दिलीप का हौंसला बढ़ाया और अहसास कराया कि .....''
पैदाईशी एक्टर कोई नहीं होता सभी ईश्वर के मामूली बंदे हैं, अजूबा
नहीं इस तरह दिलीप नार्मल हुए दिलीप ताउम्र उनके अच्छे दोस्त रहे ज्वार भाटा के बाद उन्होंने दिलीप कुमार के साथ शिकस्त, (1953) , हलचल (1951) और सगीना
(1974) कीं दिलीप कुमार ने एक बार एक इंटरव्यू में बताया था कि ....उनको देखने के बाद
उनके सामने मैं बार-बार अपना डायलॉग भूल जाता था ....अपनी कामयाबी के
दौर में वो हीरो के लिये लिखे गये सीन में भी अपने चेहरे पर आ-जा रहे भावों
से अपनी मौजूदगी का अहसास दर्ज कराते रहे उनका एक लाइन का पसंदीदा
जुमला था- ‘‘अपनी बकवास बंद करो ......"गधे कहीं के" ...’ उनके मुंह से ये लाईन
जैसे ही निकलती थी सारे माहौल में एक डरावनी सी खामोशी छा जाती थी बाकी काम भवों को चढ़ाना, आंखें इधर-उधर घुमाना, माथे पर त्यौरियां चढ़ाने से
हो ही जाता था। इसका दर्शकों पर भी भरपूर प्रभाव पड़ता था उनको गर्व था
कि उनके ज़माने में विलेन का रुतबा इतनी ज्यादा थी कि हीरो की हिम्मत नहीं
करता था कि विलेन को हरामजादा कह दे क्योंकि उसे मालूम था कि विलेन के चोले
के पीछे खड़ा शख्स अभिनय की दुनिया का गाड़फादर है, ......
के.एन.
सिंह ने लगभग 60 साल तक 200 फिल्मों में काम किया हिन्दुस्तानी सिनेमा
में काम किया.बीते ज़माने की चरित्र अभिनेत्री परवीन पौल से के.एन.सिंह ने
शादी की थी के.एन. सिंह की पत्नी प्रवीण पाल भी सफल चरित्र अभिनेत्री
थीं उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी उनके छोटे भाई विक्रम सिंह थे जो
मशहूर अंग्रेज़ी पत्रिका फिल्मफेयर के कई साल तक संपादक रहे उनके पुत्र
पुष्कर को के.एन. सिंह दंपति ने अपना पुत्र माना था के.एन.सिंह ने हर
तरह के किरदारों को जिया उन्हें अच्छी तरह इल्म था कि वो हीरो के लिये बने
ही नहीं है। और फिर एक एक्टर का काम सिर्फ एक्टिंग करना है। किरदार कैसा भी
हो के.एन.सिंह अपने कैरियर के दौरान कभी किसी विवाद में नहीं पड़े
जैसा भी रोल मिला कर लिया,उन दिनों मेहनताना कम मिलता था
लेकिन
जो फ़िल्मी दुनिया का दस्तूर है उनके साथ भी यही हुआ उनके साथ इन्साफ नहीं
हुआ जब वो हीरो के रोल करते तब और विलन बने बाद में वो चरित्र अभिनेता भी
बने. के.एन.सिंह को आख़िरी वक्त में मुफलिसी का सामना करना पडा
था के.एन. सिंह का कैरीयर सत्तर के दशक में ढलान ‘मोड’ में आ गया।
अस्सी के दशक में बहुत कम फिल्में हाथ आयीं मगर निराश कभी नहीं
हुए हरेक की जिंदगी में अच्छे के बाद खराब दिन आते हैं पुरानी पीढ़ी
का स्थान लेने के लिये नयी पीढ़ी बेताब दिखती है के.एन. सिंह समझदार
थे जो कमाया उसे लुटाया नहीं सोच समझ कर खर्च किया और सही जगह नियोजित
किया ताकि खराब दिनों में गुरबत न देखनी पड़े लेकिन आंख में मोतिया
बिंदू आ जाने के कारण उन्हें दिखाई देना बंद हो गया था उनके कैरीयर में
ढलान का यह भी एक कारण रहा बाध्य होकर 1984 में आंख का आपरेशन कराया
दुर्भाग्यवश आपरेशन सफल नहीं हुआ उनकी दुनिया में अंधेरा छा गया जो आँखे
उनके जबरदस्त अभिनय में प्रभाव छोड़ती थी वहीं आँखे उनका साथ नहीं दे सकी
के.एन. सिंह का जन्म देहरादून में 01 सितंबर, 1908 में हुआ था और 31
जनवरी, 2000 में 92 साल की आयु में देहांत हुआ था ....के.एन.सिंह ने कई
फिल्मों में अपनी आँखों का बेहतरीन इस्तेमाल किया, ...उस दौर के लोग आज भी
पुराने दिनों की याद करते हैं तो कहते हैं ....."विलेन तो था 'के.एन.
सिंह ' जिसकी सिर्फ आँखे देख कर ही हीरो भो सहम जाता था "....
पवन मेहरा
(सुहानी यादे ,बीते सुनहरे दौर की )
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