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गुलज़ार |
बात उन दिनों की है जब हिंदुस्तान को चीरकर दो हिस्सों में तक़्सीम नहीं किया गया था तब चिनाब, झेलम, सिंधु और रावी का पानी बिना किसी बँटवारे के गुनगुनाता मस्ती से आज़ाद बहता था तब न कोई हिन्दू था, न कोई मुसलमान... तब लोग सिर्फ़'हिंदुस्तानी' हुआ करते थे वो समय था 8 अगस्त 1934 जब वर्तमान पाकिस्तान के पंजाब सूबे के झेलम जि़ले के एक स्थान दीना में जब '
संपूरण सिंह कालरा 'यानी गुलज़ार का जन्म हुआ .....गुलज़ार की परवरिश और बच्चों की तरह नहीं हुई। उनके पिता श्री 'माखन सिंह 'कालरा ने तीन शादियाँ की थीं। गुलज़ार की माँ का नाम 'सुजान' था। अनेक सौतेले भाई-बहिनों के बीच पले-बढ़े उन्होंने अपने जीवन में ‘प्यार’ को बँटते देखा गुलज़ार यदि ‘गुलज़ार’ न होते तो सम्पूर्णसिंह कालरा होते...संपूरण सिंह कालरा को हालांकि 'गुलज़ार ' होने में उम्र के कई बरस सर्फ़ हुए ..... गुलज़ार की पैदाइश सिक्ख परिवार में हुई थी। गुलज़ार को सादे वेश में देखकर कोई अंदाज़ा नहीं लगा सकता कि यह आदमी सिक्ख है, लेकिन सिक्खों की सूफियाना फितरत उनकी रचनाओं में बार-बार उभरकर सामने आई है। 11 बरस की उम्र पाते-पाते मुल्क के हालात बिगड़े और फिर एक दर्दनाक वाक़िआ पेश आया... हुआ ये कि मुल्क के सीने पर लहू से सरहद खींच दी गई और इसके साथ ही मुल्क दो हिस्सों में तक़्सीम हो गया... एक हिस्सा 'हिंदुस्तान' और दूसरा' पाकिस्तान' बना दिया गया इस हादसे में गुलज़ार का बचपन पाकिस्तान में ही छूट गया...... विभाजन के बाद गुलज़ार के परिवार ने अमृतसर में पनाह ली मगर गुलज़ार का ज्यादातर बचपन दिल्ली में ही गुज़रा... विभाजन से पीड़ित परिवार के पास उनकी पढ़ाई के लिए पैसे नहीं थे इसलिए उन्हें पेट्रोल पंप पर नौकरी करना पड़ी... इसी दौरान उनका हाथ, उनके दिलो दिमाग़ के इशारे से काग़ज़ पर शायरी उतारने लगा और फिर अपना मुस्तक़्बिल शायरी में तलाशने वाले गुलज़ार ने मुंबई का रुख़ किया इस मायावी शहर मुंबई ने भी तबीयत से गुलज़ार के इम्तिहान लिए... न जाने कितनी रातें अंधेरा खाकर और उम्मीदें पीकर गुज़ारी होंगी उन्होंने फिर वर्ली के एक गैराज पर बतौर मैकेनिक काम मिला गुलज़ार का नाज़ुक हृदय विभाजन की पीड़ा से अभी भी बिलख रहा था उनकी रचनाओं
से भी साफ झलकता है कि उनके भीतर का शरणार्थी कभी मरा नहीं है
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फिल्म 'आंधी ' ( 1975) में संजीव कुमार ,सुचित्रा सेन और गुलज़ार |
इसके बाद कवि के रूप में गुलजार प्रोग्रेसिव रायटर्स एसोसिएशन ( पीडब्ल्यूए ) से जुड़ गए। जब गुलज़ार साहब फिल्मों में आये तब उस समय फ़िल्मों
में गीतकार के तौर पर जगह बनाना आसान नहीं रहा होगा गुलज़ार साहब को उस
समय
साहिर लुधियानवी, शकील बदायुनी, शैलेन्द्र, हसरत जयपुरी, मजरुह
सुल्तानपुरी, आनंद बक्षी जैसे गीतकारों के बीच जगह बनानी पडी गुलज़ार साहब
ने अपना पहला गीत फिल्म
'श्रीमान सत्यवादी' (1960) के लिए
'' गुलज़ार दीनवी ''
के नाम से लिखा था दरअसल गुलज़ार साहेब का असली नाम
सम्पूरण सिंह कालरा है
और गुलज़ार उनका फ़िल्मी नाम है उनका जन्म पाकिस्तान के झेलम ज़िले में
दीना नाम के उनके पुश्तैनी गांव में हुआ था... ”दीना” की तर्ज पर ही
उन्होंने गुलज़ार के आगे तख़ल्लुस
‘दीनवी’ जोड़ा साल 1961 में रिलीज़ हुई
फ़िल्म
‘काबुलीवाला’ (1961) में उन्होंने तख़ल्लुस “दीनवी” हटाकर पहली बार सिर्फ़
‘गुलज़ार’ के नाम से गीत लिखा था,
‘गंगा आए कहां से गंगा जाए कहां
रे’...यहाँ से गुलज़ार साहब को दुनिया एक गीतकार के रूप में पहचानने लगी थी ,काबुली वाला में उनके लिखे गाने ‘
ऐ मेरे प्यारे वतन’ और ‘गंगा आए कहाँ से’ आज भी ऑल टाइम्स ग्रेटेस्ट साँग के रूप में याद किए जाते हैं। अपने सिने कॅरियर की गीतकार के रूप में गुलजार ने पहला गाना
‘मेरा गोरा अंग लेई ले’ वर्ष 1963 में प्रदर्शित विमल राय की फिल्म
‘बंदिनी’ के लिए लिखा था हालाँकि फिल्म ‘काबुली वाला’ बंदिनी से पहले ही
प्रदर्शित हो गई और गुलज़ार साहब को सफलता फिल्म
'बंदिनी' (1963 ) का
मोरा
गोरा अंग लेइ ले " से ही मिली
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अपनी शादी के अवसर पर राजेश खन्ना और डिम्पल कपाड़िया के साथ गुलज़ार दम्पति |
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फिल्म 'आंधी 'के सेट पर गुलज़ार |
गुलज़ार साहब के इस सबसे पहले गीत को ही स्वर
साम्राज्ञी
लता मंगेशकर की आवाज़ मिली, इस फिल्म में उन्हें
शैलेन्द्र साहब
की सिफारिश पर लिया गया था सारे गाने शैलेन्द्र साहब ने लिखे थे मगर एक
गाना जो हटकर था वो गुलज़ार साहब का था गुलज़ार हिन्दी सिनेमा में शैलेन्द्र
के सबसे ज्यादे करीब हैं शैलेन्द्र को वो सबसे महान गीतकार मानते हैं उसके बाद हेमंत दा के साथ
"हवाओ पे लिख दो हवाओ के नाम " भी हिट हो
गया . मगर
'ख़ामोशी ' (1970) के गानों ने गुलज़ार साहब को दुसरे गीतकारो से मीलो आगे
पंहुचा दिया ,...
'तुम पुकार लो' , 'हमने देखी है इन आँखों की ', 'वो शाम
कुछ अजीब थी',.ये ऐसे गीत है जो आज भी रातों को सुन लो तो रात और भी हसीं
हो जाती है इन गानों के बाद गुलज़ार साहब ने पीछे मुड़ के नहीं देखा ..वर्ष 1972 में प्रदर्शित फिल्म
‘परिचय’ (
1972) के गानों की कामयाबी के बाद संगीतकार आर.डी बर्मन गुलजार के चहेते बन गए और इसके बाद इन दोनों की जोड़ी वाली फिल्मों के गीत-संगीत ने श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। इन दोनों की जोड़ी वाली फिल्मों में ‘
खुशबू’ ,‘आँधी’,(1975) ‘किनारा’,(1977) ‘देवता’,‘घर’(1978),‘गोलमाल’,(1979) ‘खूबसूरत’, (1980) ‘नमकीन’,(1982) ‘मासूम’,(1983) ‘इजाजत’ (1987) और ‘लिबास’(1988) जैसी फिल्में शामिल हैं। अमूमन होता ये है की एक संगीतकार एक धुन बनाकर गीतकार को दे देता है और फिर गीतकार उस धुन पर गीत लिखता है मगर पंचम और गुलज़ार की जोड़ी कुछ अजीब तरह की थी यहाँ उल्टा होता था , गुलज़ार साहब गीत लिख के ले जाते और फिर पंचम दा उसकी ट्यून बनाते थे l गुलजार के गीत हिंदी फिल्मों की गीत परंपरा में अपनी पहचान खुद हैं, प्रकृति के साथ उनके कवि का जैसा अनौपचारिक और घरेलू रिश्ता है, वैसा और कहीं नहीं मिलता। अपने गीतों मे गुलज़ार ने कुछ शब्द भी इजाद कियें हैं। चप्पा-चप्पा, चुपडी चुपडी ,छईयां छईयां, छईं छप्पा छईं, , मय्या मय्या, हुम हुम शब्दों के प्रयोग से गीत और खास हो जाता है।
गुलज़ार को हिन्दुस्तान के सिनेमा-जगत में एक संवाद-रचयिता, पटकथा-लेखक,
निर्माता और निर्देशक के रूप में भी उतनी ही शिद्दत से शामिल किया जाता है,
जितनी शिद्दत से एक गीतकार के रूप में शामिल किया जाता है अपने करियर की
शुरुआत से ही गुलजार साहब ने गानों के साथ-साथ फिल्मों के लिए संवाद और
स्क्रीनप्ले भी लिखे निर्देशक बनने के लिए जब गुलजार तैयार हुए तो उनकी
फिल्म पर एन.सी सिप्पी ने पैसा लगाया गुलजार साहब पर'
बिमल रॉय', 'बासु
भट्टाचार्य' और
'ऋषिकेश मुखर्जी' जैसे निर्देशकों का प्रभाव है. इन महान
निर्देशकों ने मिडिल पाथ सिनेमा बनाया इनकी फिल्मों में गंभीर बातों को
सरल, मनोरंजक और दिल को छू लेने के अंदाज में पेश किया जाता था कि सभी को
यह आसानी से समझ आ जाती थी यही बातें गुलजार साहब की फिल्मों में भी देखने
को मिलती हैं
'आशीर्वाद', (1968) , 'आनंद,'(1971) ,'खामोशी' (1970) जैसी यादगार फिल्मों में गुलजार साहब
का योगदान रहा नवाज़ा गया है इसके अलावा गुलज़ार साहब को अवार्ड्स की कोई
कमी नहीं रही उनकी पोटली में 1 ऑस्कर ,5 राष्ट्रीय पुरस्कार ,20 फिल्मफेयर
,और न जाने कितने अवार्ड्स है कहानी, गीत, संवाद, शायरी- साहित्य की लगभग विधा में धाक रखने वाले गुलज़ार ने आज तक कोई उपन्यास नहीं लिखा है
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मीनाकुमारी के साथ गुलज़ार फिल्म 'मेरे अपने ' के सेट पर |
गुलज़ार साहब कहते है
........ " संगीत के लिए हमारे जीवन में एक प्राकृतिक जगह है , सुबह उठ कर पूजा के श्लोक , तकरीबन उसी समय दूधवाला आता है अपनी की साइकिल की घंटी और साथ में सिटी बजाने से लेकर एक फ़क़ीर के गाने की आवाज़ से लेकर हमारी माँ की खाना पकाते समय की गुनगुनाहट , और रात में लोरियों की गरमाहट , संगीत हमारे जीवन की खाली जगह को भर देता है और इसीलिए संगीत सब को पसंद है " गुलज़ार साहब की बात बिलकुल सही है और क्यूँ न हो उन्होंने गाने ही इस तरह के लिखे है जो जीवन और दिल के बहुत करीब महसूस होते है , गुलज़ार साहब को पचास साल से ऊपर हो चुके है फ़िल्मी दुनिया में मगर इस सालो मे उन्होंने लगभग 122 फिल्मों के लिए अपना योगदान दिया है , यानि गुलज़ार ने थोक भाव में गीत नहीं लिखा। संख्या से ज्यादा उन्होंने गुणवत्ता का खयाल रखा। सिनेमा जैसे माध्यम में इसको बचाये रखना निश्चय ही बड़ी उपलब्धी है। इसी कारण से वो लगातार प्रासंगिक बने रहें हैं। उनके कम ही गीत होंगे जो गुमनामी के अंधेरे में खोये होंगे।
आज भी उनका हर एक गाना एक किताब की
तरह महसूस होता है और हर फिल्म एक कविता लगती है जितनी बार सुनो देखो कुछ
नयी बात समझ आ जाती है ,उनकी फिल्मे दिल के साथ छेड़छाड़ करती है, उसे कचोटती
भी है, दिमाग पर एक नशे की खुमारी भी चढ़ाती है और कभी उसे जाग्रतावस्था
में भी ले आती है कभी सम्बंधों के बारे में ऐसा दिखा और समझा जाती है जो अब
तक दर्शक के जेहन से अंजान ही था उनकी फिल्मे खत्म होकर भी खत्म नहीं
होती, यह दर्शक के अंदर घुस कर बस जाती है खुशी और गम के कितने ही दृष्य
आकर उसकी स्मृतियों के साथ छेड़छाड़ करने लगते हैं अगर किसी को ऐसा लगता हो
कि वह ज़िन्दगी को समझने लगा है तो उसे गुलज़ार साहेब की फिल्मे 'दिखा देनी
चाहिये,.... यकीं मानिये उसका गुरुर टूट जायेगा यदि किसी को गुलज़ार की आवाज़ सुनने का मौका मिला है, तो उसने यह ज़रूर महसूस किया होगा कि एक परिपक्व आयु में जैसे एक अबोध बालक अपने अतीत की कच्ची समझ को मन में लिए सारी दुनिया को मासूमियत समझाने आया है
'गुलज़ार साहब 'के गीतों में व्यापक विविधता है उनके गीतों में रात,
चांद, धूप, प्रेम जैसे बार बार आते हैं वैसे ही कुछ खास ट्रेंड या प्रवृति
को हम पहचान सकते हैं
कवि, गीतकार, लेखक, डायलॉग राइटर और निर्देशक
गुलज़ार कहते हैं, “ कि ज़िंदगी लम्हों से बनती है न कि बरसों से....
ज़िंदगी लम्हों को जोड़ कर बनाई जा सकती है,..... ज़िंदगी बरसों की नहीं
होती.... हासिल तो वो लम्हें ही हैं उसी में मुझे ज़िंदगी के आसार ज़्यादा
नज़र आते हैं बजाय कि किसी बड़े फ़लसफ़े के. ......मैं कोई फ़िलोसॉफ़र नहीं
हूं.मेरे दिमाग़ में बहुत ज़्यादा नहीं है लेकिन दिल में है,..... इसलिए
महसूस ज़्यादा करता हूं और सोचता कम हूं.”.
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गुलज़ार साहेब ,राखी और बेटी बोस्की के साथ |
अपनी सादगी के कारण उन्होंने फ़िल्मी और गैर फ़िल्मी जगत् के न जाने कितने लोगों को अपना हमराज़ बनाया। अपने ज़माने की मशहूर अभिनेत्री मीनाकुमारी जो हिंदी सिनेमा की 'ट्रेजडी क्वीन 'कही जाती है, ने अपनी मौत से कुछ ही पहले अपनी शायरी का डायरियाँ गुलज़ार को सौंप दी। गुलज़ार ने मीनाकुमारी के भरोसे को एक खूबसूरत किताब
- 'मीनाकुमारी की शायरी '- की शक्ल देकर प्रकाशित करवाया।
आज जब तेज संगीत और शोर
शराबे वाले बेमतलब गाने गला घोट देते है ,वही गुलज़ार साहब के गाने इस
जिन्दगी को बचाए रखने के लिए शुद्ध हवा का काम करते है जिस उम्र में आकर
सभी नये दौर और नयी पीढी को कोसते हैं गुलज़ार साहब आज भी सक्रिय है इस
उम्र में भी वो टाप टेन की सूची में टाप पर बजते है मुझे अफ़सोस है की
जब मैंने उन्हें समझना शुरू किया उन्होंने फिल्मे निर्देशित करना बंद कर
दिया ...... गुलज़ार साहब एक किवदंती है , न जाने कितने गीतकार आये है और
चले गए पर गुलज़ार साहब आज भी वही एक स्तम्भ की तरह मौजूद है ,भगवान
उन्हें लम्बी आयु देकर हमेशा
''गुलज़ार '' रखे .....
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गुलज़ार |
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