Monday, December 4, 2017

मोतीलाल राजवंश ....हिंदी सिनेमा के पहले नेचुरल एक्टर......


  मोतीलाल राजवंश 
 4 दिसम्बर 1910 -17 जून 1965
मैंने अपने बचपन में एक फ़िल्म वक़्त देखी थी लेकिन उस 3 घंटे की फ़िल्म में मुझे एक धुआंधार वकील का केवल एक सीन ही याद रह गया बाद में बड़ा होने पर केवल इसी एक सीन के कारण जब पूरी फिल्म देखी तो अहसास हुआ कि अभिनेता मोतीलाल अपने इस बहुत छोटे से रोल के बावजूद भी प्रभाव छोड़ते हैं 'अनाड़ी ' फ़िल्म में मोतीलाल का अभिनय अवार्ड विजेता महानायक राज कपूर पर भारी पड़ा था मोतीलाल का जन्म 4 दिसंबर 1910 को शिमला में हुआ था मोतीलाल की विशिष्ट पहचान फेल्ट-हैट से थी, जिसे उन्होंने कभी मुड़ने नहीं दिया शार्क-स्कीन के भड़कीले शर्ट-पैंट, चमचमाते जूते, मस्त चालढाल, राजसी अंदाज, हाव-भाव में नफासत, बातचीत का नटखट लहजा, कुल मिलाकर एक जिंदादिल आदमी की छवि पेश करते थे  'मोतीलाल राजवंश...'

हिन्दी सिनेमा में कुछ अभिनेता कम ही हुए है ,जिन्होंने नैसर्गिक अभिनय (नैचरल एक्टिंग) के सहारे कामयाबी हासिल की इस कोटि में मोतीलाल सर्वप्रमुख हैं जिन्हे आप हिंदी सिनेमा का 'नेचुरल एक्टर 'कह सकते है फिल्म-जगत में मोतीलाल को तुलना 'दादामुनि अशोक कुमार 'से की जाती थी उनके खाते में अनेक अच्छी फिल्में दर्ज हैं युवावस्था में नैवी ज्वॉइन करने के इरादे से मुंबई पँहुचे तो ऐन-परीक्षा के दिन बीमार हो गए और प्रवेश परीक्षा नहीं दे पाए इस बात का उन्हें रंज तो था, लेकिन एक दिन शानदार कपड़े पहनकर शूटिंग देखने के इरादे से सागर स्टूडियों जा पहुँचें वहाँ डायरेक्टर कालीप्रसाद घोष किसी सामाजिक फिल्म की शूटिंग कर रहे थे घोष बाबू तेज-तर्रार युवा मोतीलाल को देखकर दंग रह गए,क्योंकि अपनी फिल्म के लिए उन्हें ऐसे ही हीरो की तलाश कर रहे थे घोष बाबू ने अपनी फिल्म ‘शहर का जादू’ (1934) के नायक के रूप में उन्हें चुन लिया तब फिल्मों में पाश्र्वगायन आम प्रचलन में नहीं था, उसलिए मोतीलाल ने कुछ फिल्मो में गाने खुद गाये मोतीलाल संगीत के ज्ञाता भी थे वे बाँसुरी, वायलिन, हार्मोनियम और तबला बजाना जानते थे उनके अपार्टमेंट के टेरिस पर अक्सर संगीत की महफिले देर रात तक जमती थी

मोतीलाल को बचपन से शिकार का शौक था वे कई बार घोड़े सहित दुर्घटना के शिकार हुए वे दस साल की उम्र में बन्दूक चलाना सीख गए थे उन्हें पेटिंग का चस्का भी था और वे क्रिकेट भी खेलते थे स्टार इलेवन में उन्हें हमेशा शामिल किया जाता था एक बार वह विजय मर्चेंट की गेंद चोटिल भी हुए उनके आँख में लगी थी, जिसके कारण कई दिनों तक बिस्तर पर रहना पड़ा दूसरी तरफ विजय मर्चेंट ने प्रायश्चित स्वरूप वर्षो तक मोतीलाल की हर फिल्म ‘फर्स्ट-डे-फर्स्ट शो’ देखने का व्रत लिया और इसे निभाया चालीं चैपलिन की फिल्म ‘द किड’ से प्रेरित एच.एस. रवैल की फिल्म ‘मस्ताना’ (1954) में मोतीलाल ने एक फक्कड़ की भूमिका को जीवंत किया मोतीलाल ने अपनी शालीन कॉमेडी, मैनरिज्म और स्वाभाविक संवाद अदायगी से तमाम नायकों को पीछे छोड़ दिया बॉम्बे-टॉकीज ने अगर गाँधीजी की प्रेरणा से ‘अछूत-कन्या’ बनाई थी तो रणजीत स्टूडियो ने भी ‘अछूत’ (1940) नामक फिल्म बनाई, जिसमें मोतीलाल के साथ गौहर नायिका थीं फिल्म का नायक बचपन की अछूत सखी का हाथ थामता है और अछूतों के लिए मंदिर के द्वार तक खुलवाता है फिल्म को महात्मा गाँधी और सरदार पटेल का आर्शीवाद प्राप्त था यह फिल्म राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय पुणे के पास आज भी सुरक्षित है उन्होंने अस्सी से अधिक फिल्मों में महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाई, जिनमें राजकपूर अभिनीत ‘अनाड़ी’ (1959) और दिलीपकुमार की ‘पैगाम’ (1959) तथा ‘लीडर’ (1964) भी शामिल है 1950 के बाद मोतीलाल ने चरित्र नायक का रूप धारण कर अपने अद्भुत अभिनय की और भी मिसालें पेश कीं बिमल राय की फिल्म ‘देवदास’ (1955) में उन्होंने नायक दिलीपकुमार के शराबी दोस्त चुन्नी बाबू की भूमिका में जान डाल दी। इस फिल्म के दर्शकों को वह दृश्य अवश्य याद होगा, जब नशे में चूर चुन्नी बाबू घर लौटते हैं और अपनी छड़ी को दीवार पर पड़ रही खूँटी के साए पर टाँगने की नाकाम कोशिशें करते हैं। यह अत्यंत मार्मिक हास्य दृश्य था.फिल्म फेअर ने उन्हें वर्ष के सर्वोत्तम सह अभिनेता का पुरस्कार घोषित किया था, जिसे लेने से उऩ्होंने इनकार कर दिया। बिमल राय की फिल्म ‘परख’ (1960) की चरित्र भूमिका के लिए उन्हें फिल्म फेअर अवॉर्ड मिला राजकपूर की फिल्म ‘जागते रहो’ (1956) में उन्होने शराबी के रोल को चार चाँद लगा दिए एक थी लड़की’ (1949) में ‘लारालप्पा गर्ल’ मीना शौरी और मोतीलाल की चुलबली जोड़ी ने दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया यह जोड़ी ‘एक-दो-तीन’ (1953 ) में भी दोहराई गई और उतनी ही कामयाब रही मोतीलाल के अभिनय के अनेक पहलू थे कॉमेडी रोल में अगर उन्होंने दर्शकों को गुदगुदाया तो फिल्म ‘दोस्त’ (1944 ) और ‘गजरे’(1948 ) में गंभीर अभिनय करके उन्हें अभिभूत कर दिया उनके करियर की मास्टरपीस फिल्म ‘मिस्टर सम्पत’ (1952) थी

'ज़िन्दगी ख्वाब है ख्वाब में झूठ क्या ओर भला सच है क्या ' उन पर फिल्माया ये गाना वाकई उनकी ज़िन्दगी का फलसफा बन गया आखिर उस समय के ज्यादातर हीरो की तरह मोतीलाल का अंतिम समय भी दुःखदाई रहा उन्होंने ‘राजवंश प्रॉडक्शन्स’ की स्थापना कर महत्वाकांक्षी फिल्म ‘छोटी-छोटी बातें’ (1965) शुरू की वे स्वयं इस फिल्म के लेखक, नायक, निर्माता-निर्देशक सब कुछ थे फिल्म को राष्ट्रपति का ‘सर्टिफिकेट ऑफ मेरिट’ जरूर मिला, मगर गर्व का यह पल देखने के लिए वह इस दुनिया में मौजूद नहीं थे  फिल्म बनाते-बनाते वे न सिर्फ दिवालिया हुए, बल्कि परेशानियों से जूझते जीवन से भी किनारा कर गए जैसे गीतकार शौलेन्द्र के लिए ‘तीसरी कसम’ का निर्माण जानलेवा साबित हुआ, वैसा ही हाल मोतीलाल का हुआ 17 जून 1965 को बीच कैंडी अस्पताल में उनका निधन हो गया उनकी अधूरी फिल्म को पूरा करने का वित्तीय भार गायक मुकेश ने उठाया, जो उनसे बहुत स्नेह रखते थे फिल्म ‘पहली नजर’ (1945) में मोतीलाल के लिए गायक मुकेश ने पहली बार पाश्र्वगायन किया था.गायक मुकेश उनके चचेरे भाई थे नीली आँखों वाले अभिनेता चन्द्रमोहन मोतीलाल के अंतरंग मित्र थे मोतीलाल ने अपने समय के सभी प्रसिद्ध कलाकरों के साथ काम किया, जिनमें दिलीपकुमार, राजकपूर, नरगिस, मधुबाला, नसीम बानो, सुरैया, नूरजहाँ, मीनाकुमारी, माधुरी (पुरानी) और वनमाला के नाम उल्लेखनीय हैं मोतीलाल पूरे रईसी अंदाज में दोस्तों के लिए शराब पार्टियाँ आयोजित करते थे और घुडदौड़ में उनके घोड़े भी दौड़ते थे मालाबर हिल्स पर उनका खूबसूरत बंगला था  हमेशा अपने मित्रो के लिए शराब ,संगीत की आलीशान पार्टिया करने वाले मोती लाल के भाग्य की विडम्बना देखिए कि उऩकी अंतिम यात्रा में बॉलीबुड का कोई नामचीन सितारा नहीं था उनके आखिरी वर्षों की दोस्त अभिनेत्री नादिरा ने उनकी चिता को अग्नि दी थी.उन्होंने हिन्दी-सिनेमा की मेलोड्रामाई संवाद-अदायगी और अभिनय की सँकरी-लीक को छोड़कर स्वच्छंद-अभिनय की एक नई शैली से दर्शको को रू-ब-रू कराया अभिनय के लिए मशक्कत करते उन्हें कभी नहीं देखा गया  हिंदी सिनेमा रहते समय तक उनके मौलिक अभिनय का हमेशा ऋणी रहेगा ....

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