ललिता पंवार |
हमारे हिंदी फिल्म जगत में ललिता पंवार ही एकमात्र ऐसी चरित्र अभिनेत्री रहीं जिन्होंने नकारात्मक और सकारात्मक दोनों भूमिकाओं में दर्शकों का मनोरंजन किया ललिता पवार जी अगर आज हमारे बीच होतीं तो पूरे 102 वर्ष की होती वो एक ऐसी कलाकार थी जिस ने मूक सिनेमा को बोलती फिल्मो और श्याम श्वेत सिनेमा को रंगीन में परिवर्तित होते हुए देखा अपने पूरे करियर में उन्होंने 700 फिल्मों में काम किया और सभी में अपना बेस्ट देने की कोशिश की उनका जन्म नासिक ,महाराष्ट्र में हुआ था और मात्र 9 वर्ष की आयु में उन्होंने अपने अभिनय जीवन की शुरुआत मात्र 18 रुपये माहवार से शुरु की थी ललिता पंवार का असली नाम "अम्बा लक्मण राव शगुन " था लक्मण राव शगुन उनके पिता का नाम था उनकी शादी गणपत पंवार से होने की वजह से उनके नाम में ' पंवार 'जुड़ा उन्होंने हिंदी के आलावा मराठी ,गुज़रती में भी फिल्मे की अपने अभिनय के जलवे दिखाए
बचपन में ललिता जी और उनका भाई शांताराम पिता के साथ किसी काम से पूना गए थे इसी दौरान दोनों ने फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' (1913) देखी यह पहला मौका था जब उन्होंने कोई साइलेंट फिल्म देखी थी ललिता जी के लिए यह अनुभव किसी आश्चर्य से कम नहीं था इससे पहले उन्होंने अपने गांव में होने वाली रामलीला ही देखी थी फिल्म खत्म होने के बाद उन्होंने पर्दे के पीछे जाकर देखा कि वे कौन लोग थे जो अभिनय कर रहे थे लेकिन वहां कोई नहीं मिला इसके बाद वो आर्यन सिनेमा के ऑपरेटर से मिली और पूछा कि..."वो लोग कहां गए जो अभी यहाँ अभिनय कर रहे थे " ? तब प्रोजेक्टर ऑपरेटर ने उन्हें आर्यन फिल्म कंपनी के बारे में बताया जो पार्वती हिल मंदिर पुणे के करीब स्थित थी ललिता जी और उनका भाई शांताराम आर्यन फिल्म कंपनी देखने पहुंचे उन्होंने कंपनी को ध्यान से देखा यह काफी लंबे-लंबे पिलर्स से बनी थी और इसकी छत के लिए सफेद कपड़े का इस्तेमाल किया गया था छत के नीचे एक हॉल था जो कि कपड़े से ही बनाया गया था खिडकियां, दरवाजे आदि को पेंट किया गया था और फर्नीचर भी व्यवस्थित रूप से रखा हुआ था वहां शूटिंग भी चल रही थी डायरेक्टर नानासाहेब सरपोतदार इस कंपनी के पार्टनर थे जब उन्होंने उन्हें वहां देखा तो कहा .." यदि वो चाहें तो फिल्म में काम कर सकते हैं..." इसके बाद उन्होंने ललिता जी के पिता से बात की वे तैयार हो गए बस फिर क्या था उन्होंने बतौर चाइल्ड आर्टिस्ट 18 रुपए प्रति महीने में काम करना शुरू कर दिया और भाई को 7 रुपए के मासिक वेतन पर रखा गया छोटी उम्र में फिल्मे करने की वजह से उनकी पढ़ाई भी पूरी नहीं हो सकी
आर्यन फिल्म कंपनी के साथ ललिता जी ने 'पतित उदार', 'राजा हरिश्चंद्र',(1928) 'भीमसेन', 'शमशेर बहादुर','पृथ्वीराज संयोगिता', 'सुभद्रा हरण' और 'चतुर सुंदरी' जैसी 20 फिल्मों में काम किया 16 साल की छोटी सी उम्र में ललिता ने फिल्म 'कैलाश' (1932) में ट्रिपल रोल निभाया था ललिता पवार ने 1935 तक साइलेंट फिल्मों में काम किया यही वह साल था जब वे पहली बार बोलती फिल्म में नजर आईं यह फिल्म थी 'हिम्मत-ए-मर्दा' फिल्म में ललिता का ग्लैमरस अवतार दर्शकों को देखने को मिला था ललिता पंवार में इस फिल्म में पहली बार टू पीस बिकनी पहन कर सनसनी फैला दी थी खास बात यह है कि इस फिल्म 'हिम्मत-ए-मर्दा' के सभी गाने भी खुद ललिता ने गाए थे जब वो फिल्मो में नायिका बन आने लगी तो इनका मेहनताना भी बढ़ गया इतना ही नहीं आर्थिक रूप से मजबूत होने के बाद उन्होंने निर्मात्री बन फिल्मो का निर्माण भी किया 1936 में उन्होंने खुद फिल्म 'दुनिया क्या है' प्रोड्यूस की थी जो टाल्सटॉय के रिसरेक्शन ( पुनरुत्थान ) नॉवेल पर आधारित थी इस फिल्म को अपार सफलता मिली और ललिता की एक्टिंग की भी खूब तारीफ की गई यहां से वे ड्रामेटिक एक्ट्रेस के रूप में स्थापित हो गईं इस बीच अपने पहले पति गणपत पंवार से अलग होने के बाद उन्होंने फ़िल्म निर्माता राज प्रकाश गुप्ता से विवाह किया मगर नाम अंत तक ‘ललिता पवार’ ही रखा।
लेकिन एक दुःखद घटना से उनके कॅरियर की दिशा ही बदल गई 1942 में रिलीज हुई फिल्म 'जंग-ए-आजादी' के सेट पर मास्टर भगवान दादा ने ललिता पवार को ऐसा थप्पड़ मारा कि उनका करियर ही बर्बाद हो गया इस फिल्म की शूटिंग चल रही रही थी जिसमें एक सीन के लिए भगवान दादा को उन्हें थप्पड़ मारना था भगवान दादा ने इतनी जोर से थप्पड़ मारा कि वो फर्श पर गिर पड़ी शॉट तो काफी अच्छे से हो गया लेकिन थप्पड़ की चोट से ललिता पवार की आंखों के सामने अंधेरा छा गया जहाँ शूटिंग चल रही थी वहां कोई ज्यादा अच्छी मेडिकल सुविधा उन्हें तत्काल उपलब्ध नहीं हो सकी उन्हें बम्बई लाया गया जहाँ डॉक्टरों ने बताया की उन्हें फेशिअल पैरालिसिस हो गया है चार साल तक उनका इलाज चला और इस दौरान वो फिल्मो से दूर रही उनके ये साल काफी मुश्किल भरे थे वो अच्छी तरह जानती थी कि उनका हीरोइन वाला करियर अब खत्म हो गया, चेहरा और बायीं आँख खराब होने के बाद अब वो हिरोइन नहीं बन सकती थी,क्योंकि एक्ट्रेस के लिए सॉफ्ट फेस की जरूरत होती है लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी ललिता जी ने तय किया कि उन्हें जो भी रोल मिलेंगे वो उसी में अपना बेहतर देने की कोशिश करेगी उन्होंने अपने बदले हुए चेहरे से एक चरित्र अभिनेत्री का बखूबी काम लिया जिसमे वो पहले से ज्यादा सफल हुई
1991 में एक निजी चैनल को दिए साक्षात्कार में ललिता जी ने खुलासा किया था कि राज कपूर ने उन्हें पहले ‘आवारा’ के लिए साइन किया था मगर उनके एक बंगले को लेकर उस समय राज कपूर से विवाद हो जाने की वजह से ‘आवारा’ से उन्हें निकाल दिया गया था दरअसल वो बंगला ललिता जी का था और राज कपूर उसे खरीदना चाहते थे क्योंकि वह आर. के. स्टुडियो के सामने था जब ललिताजी ने इस बंगले को बेचने से इनकार कर दिया तो कुछ ही दिनों में उन्हें कानूनी नोटिस मिला जिसमें ये कहा गया था कि फिल्म ‘आवारा’ से उन्हें अलग कर दिया गया है लेकिन फिल्म ‘श्री 420’ के लिए उन्हें फिल्म की स्क्रीनप्ले लिखने वाले के.ए.अब्बास ने मना लिया राजकपूर की ‘श्री 420 ’(1955 ) में ललिता जी ने ममतामयी केले वाली की भूमिका की थी और फिर तो न सिर्फ फिल्म अनाड़ी (1959) में बल्कि ‘संगम’ (1964) और ‘दीवाना’ (1967 ) जिस देश में गंगा बहती है (1960 ) जैसी राज कपूर की मुख्य भूमिका वाली फ़िल्मों में ललिता जी ने काम किया इतना ही नहीं आर.के. स्टुडियो में एक नया मकान बना तब उसका उदघाटन ललिता पवार से रिबन कटवाकर करवाया गया कहा जाता है ऐसा कर राजकपूर ने एक तरह से ललिता पंवार से अपनी गलती की माफ़ी मांग ली राज कपूर और नूतन की ‘अनाडी’ (1959 ) में ऋषिकेश मुकर्जी ने उन्हें
‘‘मिसीस डीसा” की भूमिका दी एक अनोखे अंदाज में ललिता जी ने उपर से सख्त और
अंदर से कोमल स्वभाव की मकान मालिकन के उस पात्र को पर्दे पर जीवित कर
दिया इस रोल में वो अपने किरायेदार में मृत बेटे को तलाशती है अनाड़ी के कई
दृश्यों में वो दर्शको की आँखों में आंसुओं की बरसात लाने में सफल तो
रही ही साथ ही उस साल का सहायक अभिनेत्री का फिल्म फेयर अवार्ड भी ले गई
घराना (1961 ) |
जैमिनी की घराना (1961) से उन्होंने चरित्र भूमिकाओं से अपनी दूसरी पारी का पूरी तरह श्री गणेश कर दिया ललिता पवार का रूढ़िवादी क्रूर सास वाला अवतार जेमिनी की की फ़िल्म ' घराना
'से हुआ था उन पर फ़िल्माया गया गीत 'दादी अम्मा दादी अम्मा मान जाओ ' भी
बड़ा लोकप्रिय हुआ था वो मद्रास की फिल्म कंपनी जेमिनी की एक अनिवार्य
अभिनेत्री बन गई 1962 में उनकी फिल्म ' गृहस्थी 'जुबली हिट हुई इस फिल्म से
उन्हें कई एवार्ड मिले जिसमे पांच तोला सोना भी शामिल था हालाँकि जेमिनी
की फ़िल्म 'गृहस्थी 'में उन्होंने एक सामान्य चरित्र निभाया था इसमें वो
अशोक कुमार की विधवा बहन बनी थी
अगर निरुपा राय को हिंदी फिल्मो में ममतामयी माँ का दर्ज़ा मिला तो ललिता पंवार जी को इसके विपरीत एक क्रूर सास और सौतेली माँ कहा जाता था फिल्मो में ललिता जी जब अपनी बायीं तरफ की आंख छोटी कर किसी पर गुस्सा करतीं या बहु के खिलाफ अपने बेटे के कान भरतीं अपनी बहु को पीड़ा देती तो पूरा सिनेमाहाल उन पर धिक्कार उठता था कभी क्रूर सास तो कभी सख्त मां वो जब पर्दे पर आती थीं तो लोग दातों तले उंगलियां दबा लेते थे उनकी अदाकारी देखकर ये यकीन करना मुश्किल था कि वो एक्टिंग कर रही हैं या सब हकीकत है फ़िल्म में एंट्री होते ही सभी दर्शको को डर लगने लगता कि अभी ये औरत किसी के सुखी संसार में आग लगा उसका घर बर्बाद करेगी आज ऐसे कलाकार कहाँ है ? जिनके परदे पर आते ही दर्शक तुरंत प्रतिक्रिया देते है दहेज़ (1950) ,खानदान (1966 ) ,नील कमल (1968) और गोपी (1970 ), सौ दिन सास के (1980) में उनका रोल इसी तरह का था
उन दिनों उनका नाम एक जुमला बना गया था जिसका लोग अपने बोलचाल में अक्सर इस्तेमाल भी करते थे की “हमारी बेटी तो बेचारी सीधी सादी है मगर उसकी सास बिलकुल ललिता पवार है!” या ''फलां की सास तो बिलकुल ललिता पंवार है '' जब किसी कलाकार का नाम सिर्फ नाम न रहकर विशेषण व उदाहरण बन जाये तो इस से बडी उपलब्धि उस कलाकार के लिए और क्या हो सकती है ? लेकिन ऐसा नहीं की वो इस तरह के रोल में ही कैद हो कर रह गई जंगली (1961) में शम्मी कपूर की सख्त माँ बनी ललिता पंवार का बदला रूप शम्मी कपूर
की ही फिल्म प्रोफेसर (1962 ) में देखने को मिला जिसमे वो हीरोइन कल्पना के
साथ साथ बूढ़े प्रोफेसर शम्मी कपूर से टांका भिड़ाने का कोई मौका नहीं छोड़ती उन्होंने उस समय के दिग्गज कलाकारों दलीप कुमार (दाग-1952) 'राजकपूर (अनाड़ी-1959) और देवानंद (शराबी- 1964) ,गुरुदत्त ( मिस्टर एन्ड मिसेज़ 55 -1955) ,धर्मेंदर (आँखे -1970), मनोज कुमार (नीलकमल-1968),राजेशखन्ना (आनंद-1970) अमिताभ बच्चन (नसीब -1981 ) के साथ काम किया एक सम्पूर्ण कलाकार की तरह ललिता जी ‘संपूर्ण रामायण’ (1961) में ‘मंथरा’ जैसा धिक्कार योग्य रोल करते भी नहीं झिझकी उसी वजह से शायद जब रामानंद सागर ने ‘रामायण’ (1986) सीरियल का निर्माण किया तब ‘मंथरा’ के रोल के लिए ललिता पवार को ही पसंद किया
‘रामायण’ सीरियल - (1986) |
ललिता पवार को जबड़े का कैंसर था इसी के ट्रीटमेंट के लिए वे पति के साथ मुंबई से पुणे शिफ्ट हो गईं लेकिन एक दुःखद बात ये है जब उनकी मौत हुई थी दो दिनों तक किसी को पता ही नहीं चला 1998 में जब उनके पति राज प्रकाश गुप्ता गले की सर्जरी के लिए के लिए मुंबई गये थे तब ललिता पवार पुणे में थी उस दौरान पुणे स्थित अपार्टमेंट में 24 फ़रवरी के दिन उनकी मौत हो गई और किसी को पता ही नहीं चला इसका पता दो दिन बाद तब चला जब उन्होंने पति के फोन नहीं उठाए अपार्टमेंट से बदबू आने पर पुलिस ने दरवाजा तोड़कर ललिता की लाश को बाहर निकाला था तब दुनिया को इस नामचीन अभिनेत्री की मौत का पता चला आज ललिता पवार कों गुजरे सालों हो गए हैं लेकिन आज भी उनका नाम बच्चा-बच्चा जानता है उन्होंने क्रूर सास के ऐसे दमदार अमर किरदार निभाए की लोग आज भी किसी क्रूर सास का उदाहरण देने के लिए उनके नाम को मुहावरे की तरह इस्तेमाल करते है ऐसा सम्मान हर किसी कलाकार के भाग्य में नहीं होता ललिता पवार जैसे कलाकारों ने बरसों तक हमारा मनोरंजन करके हमारे दिलों में ऐसी जगह बनाई है कि वे आज भी हमारे बीच ज़िन्दा ही हैं और हमेशा रहेगी
8,अप्रैल 1916,- -24 फ़रवरी 1998, |
बहुत बडिया जानकारी सर खास कर राज कपूर जी का रिबिन वाली बात दिल को छू लिया
ReplyDeleteधन्यवाद ....राजकपूर की एक विशेषता थी की वो किसी को ज्यादा देर तक नाराज़ नहीं रहने देते थे
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