Sunday, August 5, 2018

" मुग़ल-ए-आज़म " (1960 ).......हिंदी सिनेमा का अमर ग्रंथ जिसने आगे आने वाली पुश्तों के लिए फ़िल्म निर्माण के पैमाने ही बदल कर रख दिए

 " मुग़ल ए आज़म " (1960 )

'मुग़ल-ए-आज़म ' केवल एक बीती कहानी नहीं थी जिसमे अनारकली अपनी मोहब्बत का इजहार अकबर से करने में नहीं हिचकिचाई थी और एक नाचीज़ बांदी के लिए अकबर का अपना ही खून 'शहंशाह-ए-हिंदुस्तान' से बगावत कर बैठा था ....कहते हैं कि मुम्बई फ़िल्म इंडस्ट्री में डाइरेक्टर से लेकर स्पॉट बॉय तक हर आदमी के पास सुनाने के लिए ’मुग़ल-ए-आज़म’ से जुड़ी एक कहानी है .......के.आसिफ़ की मुग़ल-ए-आज़म हिन्दुस्तान में बनी पहली मेगा फ़िल्म थी जिसने आगे आने वाली पुश्तों के लिए फ़िल्म निर्माण के पैमाने ही बदल दिए. .....एक बांदी का राजकुमार से प्रेम शहंशाह को नागवार है ,लेकिन वो प्रेम ही क्या जो बंधनों में बँधकर हो, चहुँओर से बंद सामंती व्यवस्था के गढ़ में प्रेम की खुली उद्घोषणा स्वरूप ’प्यार किया तो डरना क्या’ गाती अनारकली को कौन भूल सकता है.?...फिल्म में हर किरदार ने अपना बेहतर योदगान दिया ,पृथ्वी राज कपूर गर्म रेत पर बिना जूतों के पैदल चले, 'मोहब्बत की झूठी कहानी पे रोये ', दृश्यो में जीवंता लाने के लिए अनारकली ( मधुबाला ) ने वास्तविक और काफी भारी भरकम जंजीरों को पहनकर शूट दिया था जबकि उनकी तबियत नासाज़ थी फिर भी उन्होंने फिल्म की शूटिंग जारी रखी क्योंकि मधुबाला का मानना था कि अनारकली के किरदार को निभाने का मौका बार-बार नहीं मिल पाता है। मधुबाला का रोल पहले अभिनेत्री 'सुरैया 'काे दिया जा रहा था लेकिन वर्ष 1960 में जब मुगले आजम प्रदर्शित हुयी तो फिल्म में मधुबाला के अभिनय को देख दर्शक मुग्ध हो गये। हालांकि बदकिस्मती से इस फिल्म के लिये मधुबाला को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्म फेयर पुरस्कार नही मिला लेकिन सिने दर्शक आज भी ऐसा मानते है कि मधुबाला उस वर्ष फिल्म फेयर पुरस्कार की हकदार थी।

" मुग़ल-ए-आज़म " (1960  .हिंदी सिनेमा का अमर ग्रंथ

 " मुग़ल-ए-आज़म " (1946 )
के.आसिफ बचपन से ही सलीम,अनारकली की प्रेम कहानी से काफी प्रभावित थे और उन्होंने सोच लिया था कि मौका मिलने पर वह इस पर फिल्म जरूर बनायेगे........वर्ष 1945 में बतौर निर्देशक उन्होंने फिल्म "फूल " से सिने कैरियर की शुरुआत की पृथ्वीराज कपूर, सुरैया और दुर्गा खोटे जैसे बड़े सितारो वाली यह फिल्म टिकट खिडक़ी पर सुपरहिट साबित हुयी। इस फिल्म की सफलता के बाद के.आसिफ ने अपनी महत्वाकांक्षी फिल्म 'मुग़ल-ए-आज़म' बनाने का निश्चय किया और शहजादा सलीम की भूमिका के लिये अभिनेता सप्रू ,अनारकली की भूमिका के लिये अभिनेत्री 'वीणा 'और अकबर की भूमिका के लिये 'चंद्रमोहन 'का चुनाव किया उन्होंने चंद्रमोहन का चयन इसलिये किया क्योंकि उनकी आंख भी अभिनेता सप्रू की तरह नीली थी उस समय की चर्चित फ़िल्मी पत्रिका 'फिल्म इंडिया 'ने 1946 में सप्रू ,चंद्रमोहन के  मुग़ल-ए-आज़म में हैंडमेड पोस्टर अपने कवर पेज पर प्रकाशित भी कर दिए लेकिन फिल्म का निर्माण धीमा रहा लगभग 10 वर्ष लग गये अफ़सोस की अभिनेता चंद्रमोहन की 1949 में हार्टअटैक के कारण मौत हो गई।और सलीम अनारकली की प्रेम कहानी पर बनी एक अन्य फिल्म 'अनारकली '(1953) प्रदर्शित होकर सुपरहिट भी हो गयी ,आसिफ की फिल्म धीमी गति से रेंग रही थी जिस वजह से फिल्म की लागत बढ़ रही थी

इसी दौरान अभिनेत्री वीणा और सप्रू के चेहरे पर उम्र की लकीरे खींच आईं के.आसिफ ने सप्रू के सामने अकबर का किरदार निभाने का प्रस्ताव रखा और अनारकली के किरदार के लिये नरगिस तथा सलीम के किरदार के लिये अभिनेता दिलीप कुमार का चयन किया लेकिन सप्रू जो नरगिस के साथ 'रोमियो एन्ड जूलियट ' (1947) में बतौर अभिनेता काम कर चुके थे। उन्होंने अकबर का किरदार निभाने से मना कर दिया ,बाद में अभिनेत्री नरगिस ने भी 'मुग़ल-ए-आज़म 'में काम करने से मना कर दिया कहा जाता है की राजकपूर की 'आवारा '(1951) हिट होने के बाद राजकपूर का प्रभाव उन पर ज्यादा बढ़ गया था और आवारा में एक मॉर्डन लड़की का अभिनय करने के बाद उनकी ऐतिहासिक फिल्मो में कोई रूचि नहीं रही ,नरगिस ने अनारकली के रोल को अपनी छवि के अनुरूप नहीं पाया 1947 बँटवारे और आजादी के बाद हुए दंगों के चलते फिल्म के निर्माता,फाइनेंसर  'शीराज़ अली हकीम' भी पाकिस्तान चले गए। के.आसिफ की फिल्म बिना पैसाें के रुक गई। और फिल्म 10 रील बनने के बाद बंद हो गई .........लोगो ने आसिफ को समझाया की एक फिल्म 'अनारकली ' ( बीना ,प्रदीप कुमार ) रिलीज़ होकर हिट भी गई है अब ऐसे में भला कोई तुम्हारी अनारकली वाली ' मुग़ल-ए-आज़म 'क्यों देखेगा ? यहाँ आप आसिफ का आत्म विश्वास देखिये  ...के.आसिफ बड़े इत्मियाँन से सिगरेट के कश लगा कर कहते  ....''मुझे किसी और फिल्म से कोई मतलब नहीं ,ये मेरी 'मुग़ल-ए -आज़म 'होगी ''....
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*जानिए कैसे सोहराब मोदी के कारण 'मुग़ले-ए-आज़म' उनके हाथ से फिसलने से बच गई  "https://pawanmehra73.blogspot.com/2018/01/blog-post_24.html

दलीप कुमार और मधुबाला  'मुग़ल-ए-आज़म ' के एक अहम् दृश्य में


शीश महल का सेट 
उस वक्त 'मुगल-ए-आजम' 1.5 करोड़ में बनकर तैयार हुई थी जिसे आज के दौर में बनाने में तकरीबन 40 करोड़ से भी ज्यादा की लागत लगती।  'मुग़ल-ए-आज़म' को जीनत अमान के पिता अमानुल्लाह खान, कमाल अमरोही, वजाहत मिर्जा और एहसान रिजवी ने मिलकर लिखा था वर्ष 1951 में एक बार फिर से 'मुग़ल-ए-आज़म' के निर्माण का कार्य आरंभ हुआ तब के.आसिफ ने 'मधुबाला' के सामने अनार कली की भूमिका निभाने का प्रस्ताव रखा और अकबर के किरदार के लिये 'पृथ्वीराज कपूर 'का चयन किया...'मुग़ल-ए-आज़म' के सिर्फ 1 गाने 'प्यार किया तो डरना क्या' को फिल्माने में दस लाख रुपये का खर्च आया था जबकि समय एक पूरी फिल्म दस लाख से कम में बन जाती थी इस गाने की शूटिंग के लिए शीश महल का महंगा सेट बनवाया गया ,सैकड़ो कारीगरों ने दिन रात एक कर शीश महल का जो सेट बनाया शीश महल के लिए विशेष किस्म के शीशे विदेश ( बेल्जियम ) से मंगाये गए, शीश महल का सेट बनाने में करीब डेढ़ साल लगे और पसंद ना आने पर इसे कई बार तोडा भी गया   शीश महल का सेट जयपुर में आमेर के किले में बने शीश महल से प्रभावित था। शीश महल का सेट मुम्बई के 'मोहन स्टूडियो' में लगाया था और इस पर शूटिंग के वक्त बड़ी समस्या आई थी। क्योंकि शीशे में शूट करते वक्त उसमे कैमरामेन का प्रतिबिम्ब भी आ जाता था कई माह तक सेट बन कर पड़ा रहा और आखिरकार फ़िल्म के फोटोग्राफर आर.डी. माथुर ये ऐतिहासिक गाना फिल्माने में कामयाब हुऐ ,शीश महल सेट पर मधुबाला के साथ शूट किया गया गाना- 'प्यार किया तो डरना क्या.'.. 'शकील बंदायूनी' ने लिखा है। म्यूजिक डायरेक्टर नौशाद का अप्रूवल मिलने से पहले इसे 105 बार लिखा गया मिक्सिंग जैसी आधुनिक सुविधाएं न होने के कारण इस गाने के अंत की एक लाइन ''मिटा न सकेगा इश्क हमारा ,चारो तरह है उनका नजारा '' को नौशाद ने गाने में गूंज लाने के लिए लता के साथ इसे स्टूडियो के बाथरूम में रिकॉर्ड किया था।.....'मुग़ल-ए-आज़म' फिल्म के ही एक अन्य गीत 'ऐ मोहब्बत जिंदाबाद' के लिए पहली बार 100 गायकों के कोरस स्वर का इस्तेमाल किया गया। ये पहली फिल्म थी जिसमे सेना के घोड़ो और अन्य युद्ध सामग्रियो के लिए सेना की विशेष परमिशन मिली थी ....." मुग़ल-ए-आज़म " में सलीम और अकबर के बीच युद्ध का सीन भारतीय सेना की 56 जयपुर रेजीमेंट के 2000 ऊंट, 400 घोड़े आैर 8000 सैनिकों के साथ शूट किया गया था। यह सीन भारतीय रक्षा मंत्रालय की खास परमिशन के साथ फिल्माया गया था, जो अब लगभग असंभव है। ,युद्ध दृश्यों के लिए फ़ौज़ से हाथी ,घोड़े व् अन्य सामग्री मंगवाई गई पात्रों के लिए विशेष पोशाक ,चमड़े के जूते जूतियां सब कुछ विशेष और आलीशान था .......एक मजेदार किस्सा ये भी है की मुग़ल आज़म में युद्ध के दृश्यों में पूरे भारत वर्ष से हाथी और घोड़े इक्कठे किये जाने के बाद भी घोड़े कम पड़ गए और युद्ध के दूर के शॉर्ट्स में गधो को लेकर काम चलाना पड़ा

'प्यार किया तो डरना क्या' गाने को फिल्माने में दस लाख रुपये का खर्च आया था
'ऐ मोहब्बत जिंदाबाद' गाने में पहली बार 100 गायकों के कोरस स्वर का इस्तेमाल किया गया।

फिल्म निर्माण के लम्बे समय के बीच दिलीप साहब की बहन से आसिफ़ साहब ने शादी कर ली इससे नाराज दिलीप साहब फिल्म के प्रीमियर के वक़्त गैर हाजिर रहे मगर पापा पृथ्वीराज अपने तीनो बेटो के साथ हाजिर हुए राज कपूर रशिया से बुलाये गए.... फिल्म के टायटल पे पहला नाम मेरा आना चाहिये यह दिलीप साहब का कहना था लेकिन आसिफ साहब ने साफ ठुकरा दिया और बोले " मै 'मुग़ल-ए-आज़म' अकबर की फिल्म बना रहा हूं सलीम की नहीं " संगीत के लिए नोशाद साहेब और बड़े गुलाम अली खान को मनाने में के आसिफ को काफी पापड़ बेलने पड़े उस ज़माने में प्लेबैक सिंगिंग आ चुकी थी फिल्म में एक शास्त्रीय गीत के लिए उस्ताद 'बड़े गुलाम अली खान ' को मिन्नतों के बाद तैयार किया गया लेकिन बड़े गुलाम अली साब ने ये दोनों राग सीधे शूटिंग की दौरान ही गाये थे, बाद में इनकी रेकॉर्डिंग स्टूडियो में हुयी थी ... 'मुगले-ए-आजम' ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म थी लेकिन 'मुग़ल-ए-आज़म' बनते बनते लगभग सारी फिल्मे रंगीन बनने लगी थी ,'मुग़ल ए -आज़म 'की काफी शूटिंग करने के बाद जब के आसिफ ने फाइनेंसर  'शापुरजी पालनजी ' से फिल्म को रंगीन बनाने का प्रस्ताव रखा तो उन्होंने हाथ खड़े कर दिए क्योंकि फिल्म में डेढ़ करोड़ रुपए से ऊपर लग चुका था और पैसा लगाने को वह तैयार नहीं थे लेकिन फिल्म का यादगार गीत "प्यार किया तो डरना क्या" जो अनारकली ( मधुबाला ) पर फिल्माया गया और फिल्म का क्लाइमेक्स आसिफ साहेब रंगीन करवाने में सफल रहे अनिल और बोनी कपूर के पिता सुरिंदर कपूर प्रोडक्शन मैनेजर हुआ करते थे एक समय ऐसा भी आया जब निर्माता फायनेन्सर शीराज़ अली हकीम ने के.आसिफ की सनक और ढीले रवैये से तंग आ कर ऐतिहासिक फिल्मे बनाने में माहिर 'सोहराब मोदी 'को फिल्म का निर्देशन देने की कोशिश की थी मगर आसिफ ने फिल्म नहीं छोड़ी,..... दस साल बाद जब परदे पर आवाज गूंजी  'मैं हिंदुस्तान हूँ '  तो हिंदुस्तान ही नहीं पूरी दुनिया आसिफ की कायल हो गई  फिल्म के शुरू में ये आवाज़ 'अमानुल्लाह खान 'की थी वो 'मुग़ल-ए-आज़म' के स्क्रिप्ट राइटर भी थे जिन्हे आप सब अभिनेत्री जीनत अमान के वालिद के रूप में भी जानते है
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'जानिए कैसे 'बड़े गुलाम अली ' ने जुनूनी के.आसिफ के सामने हथियार डाल दिए ....'
https://pawanmehra73.blogspot.com/2018/02/blog-post_10.html

ये दृश्य हिंदी सिनेमा के इतिहास में बिना किसी अश्लीलता के सबसे 'इरोटिक' माना जाता है
ह सीन भारतीय रक्षा मंत्रालय की खास परमिशन के साथ फिल्माया गया था

'मुग़ले-ए-आज़म ' का पहले दिन ,पहले शो का स्पेशल टिकट

डायरेक्टर के. आसिफ की मुगले आजम 1944 से शुरु होकर 1960 तक पूरी हो पाई। इस तरह हिंदी सिनेमा के एक महान निर्माता के.आसिफ का सपना जिसे जूनून कहना ज्यादा सही होगा सिनेमा घर तक पुहंचा फिल्म का विशेष प्रिंट हाथी पर रख शहनाई और बिगुल बजाते हुए शाही अंदाज में रील मराठा मंदिर तक लाया गया ,प्रीमियर में इंडस्ट्री के 1100 लोग पहुंचे थे हर तरफ सलीम ,अकबर, और अनारकली के विशाल कट आउट नजर आ रहे थे, फिल्म के लिए स्पेशल प्रिंटिंग टिकिट छपवाए गए 5 अगस्त 1960 को निर्देशक के.आसिफ की फिल्म मुग़ल-ए-आज़म देश भर के 150 सिनेमाघरों में एक साथ रिलीज होने वाली पहली फिल्म बनी मुंबई के मराठा मंदिर में जब पहले दिन फिल्म रिलीज़ हुई तो हज़ारो लोग टिकट लेने के लिए लाइन में खड़े थे और जिसमे कई लोग तो रात तो थिएटर के बाहर ही सोये थे कमोबेश यही हाल पूरे भारत में था

सिर्फ मुग़ले-ए-आज़म फिल्म के लिए ही मुंबई के प्रसिद्ध मराठा मंदिर सिनेमाघर को फिर से पेंट किया गया था,तोरण द्वार बनाये गए,सिनेमा के बाहर भव्य सेट बनाया गया था,फिल्म के सभी होर्डिंग्स पूरे भारत में एक ही रंग में पेंट हो सकें इसके लिए के.आसिफ ने उन दिनों की एक मशहूर पेंट कंपनी का पूरा स्टॉक ही खरीद लिया था मराठा मंदिर में एक शो में कुछ हजार लोगों के बैठने की व्यवस्था थी और बाहर लगभग एक लाख लोग टिकट खरीदने के लिए जमा हुए थे थिएटर वालों को पुलिस बुलानी पड़ी लेकिन लोग भागे नहीं ..वही रुके रहे ..लोग तीन-चार दिन लाइन में लगे थे उनका खाना घर से आता है लाइन में लगे दर्शको ने बाकायदा एक रिलीवर को खुद तरोताजा होने और थकान में राहत के लिए रखा हुआ था लोग घर से नहा धोकर वापस आकर लाइन में लग जाते थे एक दिन में चार शो में चार हजार टिकट बिके, चार सप्ताह के लिए प्रति सप्ताह 28 हजार, और उसके बाद अगले एक महीने तक थिएटर में एडवांस बुकिंग बंद रही

 मुंबई के प्रसिद्ध मराठा मंदिर में मुग़ले ए आज़म के पहले ही दिन भारी जनसमूह उमड़ पड़ा था 
उन दिनों साढ़े पांच रुपये एक डॉलर की कीमत हुआ करती थी उस जमाने में सिनेमा टिकट अधिकतम डेढ़ रुपये का हुआ करता था लेकिन, फिल्म 'मुगल-ए-आजम' का टिकट सिर्फ एक टिकट मात्र नहीं था बल्कि यादों का एक पूरा गुलदस्ता था इसमें फिल्म का टिकट, फिल्म की तस्वीरें, फिल्म के गानों की एक बुकलेट और कई अन्य यादगार चीजें थी और कीमत थी पूरे सौ रुपये .........जी हाँ, आप सुनकर चौंक सकते हैं कि सन 1960 में सौ रुपये का सिनेमा टिकट किसने खरीदा होगा ? तो आपको बता दें कि जिस दिन फिल्म की एडवांस बुकिंग खुली उस दिन आस-पास के शहरों से भी लोग लाइन में लगने के लिए बॉम्बे पहुंच गए थे कई लोग विदेशो से भी आये थे उन्होंने मुंहमांगे दामों में की मुगल-ए-आजम' यह स्पेशल टिकट खरीदी थी जिसमे कई लोगो के पास आज यह टिकट सुनहरी यादगार के रूप में सुरक्षित है 

पहले ही सप्ताह में 'मुग़ले-ए-आज़म' ने लगभग 40 लाख रूपये कमाए जो 1960 में एक बहुत बड़ी रकम थी पाकिस्तान के दर्शक भी कहाँ चैन से बैठने वाले थे वे 1960 में मुग़ल-ए-आज़म देखने के लिए भारतीय वीज़ा लेकर अमृतसर जाया करते थे, बाद में 1965 के बाद उन्होंने भारतीय फ़िल्में देखने के लिए काबुल जाना शुरू कर दिया ,मुगले आंजम में मधुबाला के नृत्य और अभिनय को देखने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फीकार भुट्टों भी भारत आये, फिल्म पूरी होने के बाद शीश महल और मुगले आजम के सेट पर ईरान के शाह समेत कई देशी-विदेशी मेहमान पहुंचे। फिल्म में कलाकारों के पहने कॉस्टूयम की प्रदर्शनी भी लगी फिल्म ने लोकप्रयता के सारे रिकार्ड्स तोड़ दिए ,के आसिफ का ख़्वाब दर्शकों के दिलों को छू गया था ,के. आसिफ की ‘मुगल-ए-आजम’ को छायांकन और कला निर्देशन के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सराहना मिली 


बॉलीवुड में फिल्मकार के.आसिफ को एक ऐसी शख्सियत के रूप में याद किया जाता है जिन्होंने तीन दशक लंबे सिने कैरियर में अपनी फिल्मों के जरिये दर्शको के दिल पर अमिट छाप छोड़ी के.आसिफ ने अपने सिने कैरियर में महज तीन-चार फिल्मों का निर्माण या निर्देशन किया लेकिन जो भी काम किया पूरी तबीयत और जुनून के साथ किया। यही वजह है कि फिल्में बनाने की उनकी रफ्तार काफी धीमी रहती थी और उन्हें इसके लिए आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ता था। जब लोग उनसे इस बारे में पूछते तो के. आसिफ बस यही कहते ..हो जायेगा। ........अमन ,वजाहत मिर्जा ,कमल अमरोही ,एहसान रिजवी और आसिफ के संवाद और कसी हुई स्क्रिप्ट राइटिंग ऐसी थी की दर्शक एक मिनट के लिए भी फिल्म छोड़ना नहीं चाहता खास कर अकबर और सलीम के डायलॉग उर्दू में होने के बाद भी सभी ने बेहद पसंद किये


दलीप कुमार की ये पहली और आखरी फिल्म है जिसमे उन्होंने कोई मुस्लिम किरदार निभाया था , आज भी हम सबके मन में ये छवि अमिट है जब शहज़ादा सलीम ( दिलीप कुमार ) एक पँखुड़ी से हिन्दी सिनेमा की अनिन्द्य सुंदरी अनारकली ( मधुबाला ) के मुखड़े को सहला रहे हैं और बैकग्राउंड में तानसेन की आवाज़ बनकर ख़ुद उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ ’प्रेम जोगन बन के’ गा रहे हैं ये दृश्य हिंदी सिनेमा के इतिहास में बिना किसी अश्लीलता के सबसे इरोटिक माना जाता है मुग़ल-ए-आज़म सामंती समाज में विरोध स्वरूप तन-कर खड़े ’प्रेम’ का अमर दस्तावेज़ है एक तरफ विशाल मुगल साम्राज्य की शान तो दूसरी तरफ मुहब्बत का जुनून. ...प्रेम के नाम पर हुई बाप बेटे की इस जंग में कला साहित्य की दुनिया को अनारकली मिली,... हिंदी सिनेमा को अपना ट्रेजडी किंग मिला और आने वाले कई दशकों के लिए हिन्दी सिनेमा की ऐतिहासिक फिल्मों को तौलने का पैमाना तय हुआ फिल्म ने लोकप्रयता के सारे रिकार्ड्स तोड़ दिए ..के आसिफ का ख़्वाब दर्शकों के दिलों को छू गया था । 'मुगल-ए-आजम' को 1961 में हिंदी की सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार ( राष्ट्रपति रजत पदक ),1961 में फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार भी मिला। ....दिलीप कुमार ,मधुबाला ,पृथ्वीराज कपूर ,दुर्गा खोटे ,निगार सुल्ताना ,अजीत, एम.कुमार, मुराद ,जलाल आग़ा ,विजयलक्ष्मी ,एस.नज़ीर ,सुरेन्द्र ,जॉनी वॉकर, तबस्सुम जैसे के मंझे हुए अभिनेता 'मुग़ले-ए-आज़म 'का हिस्सा बन अमर हो गए ....संगीतकार नौशाद के "मोहे पनघट पे","प्यार किया तो डरना क्या","मुहब्बत की झूठी",हमें काश तुमसे मुहब्बत","बेकस पे करम कीजिए","तेरी महफ़िल में",ये दिल की लगी","ऐ इश्क़ ये सब दुनियावाले","खुदा निगह्बान","ऐ मुहब्बत जिंदाबाद,"प्रेम जोगन बन के ,"शुभ दिन आयो राजदुलारा" नगमो ने मुग़ले आज़म को और वजनदार बनाने का काम किया.... लता मंगेशकर,शमशाद बेगम,मोहम्मद रफ़ी के आलावा उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली खाँ ने भी गाया इस फिल्म के साथ ही बड़े ग़ुलाम अली खाँ की कसम भी टूट गई की वो फिल्मो में कभी नहीं गायेंगे उन्होंने 'मुगल-ए-आजम' में  दो गाने गाये..."ऐ इश्क़ ये सब दुनियावाले" गाने को कलर वर्जन में नहीं रखा गया था जबकि ये एक सुंदर गीत था
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 *एक कलाकार दूसरे कलाकार का सम्मान कैसे करता है ये बात अच्छी तरह से आसिफ जानते थे '
https://pawanmehra73.blogspot.com/2017/11/blog-post_17.html



'मुग़ले -ए-आजम ' (2004 ) कलर में
" मुग़ल-ए-आज़म " पहली फिल्म थी जिसे ब्लैक एंड व्हाइट से कलर में पुनः प्रदर्शित किया गया रंगीन 'मुग़ल-ए-आज़म' भी सफल रही .....के.आसिफ़ की फ़िल्म 'मुग़ल-ए-आज़म' वर्ष 2004 में रंगीन होकर डिजिटल आवाज़ के साथ पर्दे पर आई , 50 भारतीय तकनीशियनों की एक टीम ने फिल्म रंगीन बनाने की प्रक्रिया पर काम किया जिसकी लागत लगभग 3 करोड़ आई थी। फिल्म के मूल संगीतकार,नौशाद साहेब के संगीत को निर्देशक उत्तम सिंह ने बिना छेडे डिजिटल में तब्दील करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ,कई जगह कोरस को नए ओर्केस्ट्रा साथ दुबारा रिकॉर्ड किया गया .........ये काम इतना सरल नहीं था उल्लेखनीय है कि पश्चिमी देशों में जब पुरानी ब्लैक एंड ह्वाइट फ़िल्मों को रंगीन कर रिलीज किया गया था तो दर्शकों ने उन्हें स्वीकार नहीं किया लेकिन 'मुग़ले -ए-आजम ' की बात अलग है इसने 44 साल बाद फिर से बॉक्स ऑफिस पर सफलता के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए ,45 साल बाद ही सही आखिर निर्माता-निर्देशक के. आसिफ का मुगल-ए-आजम को इन्द्रधनुषी रंगों में रिलीज करने का सपना उनकी मौत के बरसों बाद पूरा हो गया।........ 2004 में दोबारा पर्दे पर आकर 'मुग़ले-ए-आजम 'ने एक बार फिर साबित कर दिया कि उसका जादू अभी भी बरकरार है फ़िल्म ने टिकट खिड़की पर कई नई फ़िल्मों को पीछे छोड़ दिया 'मुग़ले -ए-आजम ' मराठा मंदिर थिएटर ( मुंबई ) में दोबारा रीलिज़ हुई , जहाँ पहली बार पर्दे पर आने के बाद 'मुग़ले -ए-आजम ' तीन साल तक चली थी ,इस बात के गवाह अभिनेता दलीप कुमार भी बने दिलचस्प बात ये है की 1960 में जब 'मुग़ले-ए-आजम 'का प्रीमियर हुआ था तो दलीप साहेब इसमें शामिल नहीं हुए थे क्योंकि अपनी बहन अख्तर के आसिफ़ से शादी कर लेने की वजह से वो बेहद नाराज़ थे इसलिए वो इस फिल्म 'मुग़ले -ए-आजम 'के प्रीमियर में नहीं गए ,लेकिन जब 44 साल बाद 'मुग़ले -ए-आजम ' (2004 ) कलर हो कर रिलीज़ हुई तो दलीप कुमार इसके प्रीमियर में शामिल हुए.ये रंगीन मुग़ल-ए-आज़म पाकिस्तान में भी रिलीज़ हुई और ये दोबारा हिट हुई। जो ये बताने के लिए काफी है की 'मुग़ल-ए-आज़म 'कोरा इतिहास नहीं हिन्दुस्तान के लोकमानस में बसी प्रेम-कथा का पुनराख्यान है जिसका महत्त्व कभी भी कम नहीं होगा यह फ़िल्म हिन्दी सिनेमा इतिहास की सफलतम फ़िल्मों में से है। इसे के.आसिफ़ के शानदार निर्देशन, भव्य सेटों, बेहतरीन संगीत के लिये आज भी याद किया जाता है।

निर्माता-निर्देशक के. आसिफ

3 comments:

  1. जबरदस्त, जबरदस्त, जबरदस्त। पवन सर जिस तरह के आसिफ़ साहब ने फ़िल्म को बेजोड़ बना दिया वैसे ही आपने भी इसकी जबरदस्त व्याख्या की। अनेकशः बधाई और शुभकामनाएं। धन्यवाद 👍🙏

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  2. मुग़ल-ए-आज़म
    एक अज़ीम-ओ-शान शाहकार
    जिसके मुक़ाबिल कोई नहीं ठहर पाया
    के आसिफ़, पृथ्वीराज कपूर, दिलीप कुमार, मधुबाला नौशाद इत्यादि इत्यादि सब अमर हो गये
    उस पर
    आपका लेख और विस्तृत वर्णन
    सोने पर सुहागा है
    आपको भी बहुत-बहुत बधाई, शुक्रिया, thank's

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  3. वाह वाह पवन जी,,,,
    आप ने इतना अच्छा और सारगर्भित वर्णन किया है
    इस को पढ़ते हुए पूरी फिल्म आंखों के आगे जैसे चल ही
    रही हो,,,आपने इसकी रिसर्च पर बहुत दिल से मेहनत की है,,, आप के इस जुनून को हजारों प्रणाम

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