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जजमेंट ऑफ अल्लाह - (1935)
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महबूब खान ने सात वर्षों में
आर्देशिर ईरानी के पास काम करते हुए
अनेक दोस्त बनाए थे उस दौर के प्रसिद्ध निर्देशक भगवती प्रसाद मिश्रा
और रमाशंकर चौधरी की निकटता और सहानुभूति हासिल की थी फरदून ईरानी
जिन्होंने उनके द्वारा निर्देशित पहली से आखिरी तक हर फिल्म फोटोग्राफ की, बाबूभाई मेहता जो उनकी कई फिल्मों के लेखक ही नहीं बौद्धिक परामर्शदाता भी
थे ऐसे अनेक दोस्त उनकी प्रतिभा और मेहनत के कायल बने और इन्हीं के सहयोग
से महबूब पहली फिल्म बनाने का मौका हासिल करने में कामयाब हुए। खास तौर
से फरदून ईरानी ने सागर फिल्म कंपनी के बॉस अंबालाल पटेल को भरोसा दिलाया और
महबूब को ये फिल्म मिली ,1935 में महबूब निर्देशित पहली फिल्म
'जजमेंट ऑफ अल्लाह' उर्फ अल हिलाल
प्रदर्शित हुई। इसी के साथ ही अल्लाह के द्वारा ली जा रही महबूब की
परीक्षा पूरी ही नहीं हुई उन्हें अद्वितीय सफलता भी मिली उनकी पहली ही
फिल्म सागर मूवीटोन द्वारा बड़े-बड़े डायरेक्टरों की बनाई फिल्मों से भी
बढ़ चढ़कर सुपरहिट साबित हुई भारत की पहली बोलती फिल्म
'आलम आर(1931) का नायक न बन पाने से हताश महबूब खान के लिए
'जजमेंट ऑफ अल्लाह' की कामयाबी ने संजीवनी का काम किया
'जजमेंट ऑफ अल्लाह' की कहानी
वजाहत मिर्जा की थी जिसे उन्होंने महबूब खान के साथ मिल कर देसी-परदेसी
अनेक फिल्मों के प्रभाव से गढ़ा था रोमन और मुस्लिम शासकों के बीच
अच्छाई और बुराई के युद्ध की कथा में प्रेम त्रिकोण और काल्पनिक इतिहास का
भी समावेश किया गया था ...ओटोमन साम्राज्य में कैसर
( पांडे ) और स्थानीय
मुस्लिम शासकों के साथ संघर्ष होता रहता है सुल्तान
(आसूजी ) के पुत्र
जियाद
( एम्.कुमार ) को रोमन सेना गिरफ्तार कर लेती है और कैद में डाल देती है क्योंकि वो
राजकुमारी राहिल
( इंदिरा ) से प्यार करने लगता है .... राजकुमारी अपने
रक्त से जियाद को खत लिखती है ....उसकी एक वफादार बांदी
( सितारा देवी ) जियाद की कैद से भागने में मदद करती है ... कैसर किसी भी कीमत पर अपने प्यार को खोना
नहीं चाहता ...फिर कैसर का रोमन सेनाओं के साथ के
टकराव शुरू हो जाता होता है .....इस आरंभिक युग में भी फरदून ईरानी ने
फिल्म में युद्ध के ऐसे लोमहर्षक दृश्य चित्रांकित किए कि लोग दाँतों तले
अँगुली दबा ली ये वो दौर था जब ज्यादातर फिल्मे हिन्दू पौराणिक दन्त कथाओं पर बन रही थी ऐसे में दूसरे देश की इस्लामिक कहानी पर अरब और रोम के बीच हुए युद्ध की पृष्ठभूमि पर आधारित यह
फिल्म दर्शकों को काफी पसंद आई जिसमे एक काल्पनिक प्रेम कहानी का तड़का भी था 1958 में इसी नाम से अभिनेता महिपाल और शकीला की एक फिल्म भी आई थी उस दौर के
खुर्राट फिल्म समीक्षक, फिल्म इंडिया नामक पत्रिका के संपादक बाबूराव पटेल
ने जिनके लिए बड़ों-बड़ों की धज्जियाँ उड़ा देना हँसी खेल हुआ करता था
महबूब की पहली फिल्म की तारीफ करते हुए उन्हें एक ऐसा डायरेक्टर बतलाया
जिसके कृतित्व की प्रतीक्षा की जाएगी। महबूब ने बाबूराव पटेल की
भविष्यवाणी को सच साबित किया जैसे उन्होंने कबीर की वाणी की सत्यता अपने
व्यक्तित्व से उजागर कर दी थी - 'पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय/ढाई
आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय।' ..
'जजमेंट ऑफ अल्लाह' के गीतकार
और संवाद लेखक थे ...मुंशी एहसान लखनवी और संगीतकार प्राणसुख नायक .....
'ऐ
मोहब्बत तेरे हाथों कैसी रुसवाई' ,'कोई उम्मीद भर नहीं आती' ,
'मैं तो खंजर हूँ
बलम कटारी नहीं ,तुझे ढूंढता था मैं' ,'दुनिया के इंकलाब का सदमा फिजूल है
' जैसे गाने भी चले थे .... मुख्य कलाकार
कुमार, इंदिरा, सितारा देवी,
याकूब, पांडे, आसूजी और अजूरी थे सितारा देवी आगे जा कर एक अभिनेत्री
और मशहूर कत्थक नृत्यांगना बनी ...... जजमेंट ऑफ अल्लाह' के बाद महबूब सागर
मूवीटोन में सर्वोपरि हो गए। इसलिए जब द्वितीय विश्वयुद्ध के आरंभ
होने पर परिस्थितियों वश सागर को समाप्त कर एक नई संस्था 'नेशनल स्टूडियोज'
की नींव रखी गई तो महबूब को भी आवश्यक रूप से वहाँ ले जाया गया। और
क्यों नहीं उनकी फिल्मों ने सागर मूवीटोन को मालामाल कर दिया था। उनका
नाम जुड़ते ही असफलता दूर-दूर तक झांकने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थी इसके बाद 1942 तक महबूब ने सागर मूवीटोन और बाद में इसी के बदले नाम
नेशनल स्टूडियोज के लिए ग्यारह फिल्में बनाई और हर फिल्म न केवल हिट साबित
हुई अपितु बुद्धिजीवियों द्वारा भी सराही गई ....जिस प्रकार
प्रभात फिल्म के लिए '
वी. शांताराम' अपरिहार्य थे, उसी तरह सागर के लिए महबूब
खान...... यह भी संयोग ही है कि 1943 में ही प्रभात से अलग होकर शांताराम
ने अपनी स्वयं की निर्माण संस्था राजकमल कला मंदिर की स्थापना की, उसी तरह
इसी वर्ष महबूब ने भी
'महबूब प्रॉडक्शन 'की नींव रखी परंपरा और आधुनिकता का
अजब तालमेल महबूब खान के व्यक्तित्व में भी था और रचनात्मकता में भी वे
आधुनिक भी थे और परंपरा की खूबियों का आदर करने वाले भी जितना यकीन
कर्म में रखते ,उतना ही खुदा में....उनकी मानवीय मनोभावों की पहचान में
गहरी पैठ थी यही कारण है की वह अपनी सफलता का कारण समर्पण,अहसान को न भूलना और रचनात्मक साथियों के साथ गहरी अंतरंगता को मानते थे सिनेमाटोग्राफर फरदून ईरानी ने अपने अथक प्रयासों से महबूब खान को ये फिल्म दिलवाई तब दिलवाई थी जब महबूब पर किसी को भरोसा नहीं था लेकिन महबूब खान ने अपने शानदार निर्देशन के दम पर सभी का भरोसा जीत कर अपने आलोचकों के मुंह बंद कर दिए इसलिए हिंदी सिनेमा को महबूब खान जैसा फिल्म निर्माता और निर्देशक देने वाली उनकी पहली निर्देशित फिल्म 'जजमेंट ऑफ अल्लाह' उर्फ अल हिलाल को भुलाना आसान नहीं होगा
महबूब
खान उस शख्स नाम था जिसने स्कूल की चौखट पर पाँव तक नहीं रखा लेकिन
उसने खुद को हिंदी सिनेमा का एक स्कूल बनकर दुनिया को दिखा दिया महबूब खान की ये फिल्म
'जजमेंट ऑफ अल्लाह' उर्फ अल हिलाल हिंदी सिनेमा की एक शानदार धरोहर है और इसलिए उन्हें
"One of the Pioneer Directors of Indian Cinema"भी कहा जाता है
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महबूब खान |
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