Tuesday, September 18, 2018

क्या अपनी खोई हुई पहचान फिर वापिस पा सकेगा वो बचपन की मीठी यादों वाला सर्कस... ?

एशियाड सर्कस
एक समय था जब यह मनोरंजन का सबसे अहम साधन माना जाता था। लोग सर्कस लगने का इंतजार सालों साल करते थे इसका टिकट खरीदने के लिए लंबी कतारें लगती थी तब जाकर टिकट नसीब होता था बाकायदा हाथी,घोड़ो और जोकरों के साथ परेड निकाल कर सडको पर प्रचार किया जाता था रंग बिरंगे पोस्टरों से मुहल्ले पट जाते थे क्या बच्चे ,क्या जवान सर्कस सबके लिए आकर्षण का केंद्र होता था सर्कस का विशाल तम्बू और अहाते में लगे झूले दूर से ही बच्चो को आकर्षित कर लेते थे लेकिन जैसे जैसे समय बीतता गया, इसका अस्तित्व खत्म सा होता गया। आज के समय की आधुनिकता और भाग दौड़ भरी जिंदगी ऐसी है कि लोगों के पास अपने काम को छोड़कर मनोरंजन का समय ही नहीं है। जब समय मिलता है तो लोग कुछ समय के लिए अपने काम को छोड़कर मनोरंजन के लिए फिल्में देखते हैं या घूमने के लिए मूवीज या शॉपिंग मॉल वगैहरा का रूख करते हैं आज सर्कस के लिए किसी के भी पास समय नहीं है

भारत में सर्कस के आदिगुरु होने का गौरव महाराष्ट्र के विष्णुपंत छत्रे को है। वह कुर्दूवडी रियासत में नौकरी करते थे। उनका काम था घोड़े पर करतब दिखाकर राजा को प्रसन्न करना। 1879 में वह अपने राजाजी के साथ मुंबई में  विदेशी ‘रॉयल इटैलियन सर्कस’ में खेल देखने गए। उस सर्कस के मालिक ने भारतीयों का मजाक उड़ाते हुए कह दिया कि सर्कस में खेल दिखाना भारतीयों के बस की बात नहीं है। इस अपमान को विष्णुपंतछत्रे सह नहीं सके और उन्होंने अपनी पत्नी के साथ मिलकर एक साल के भीतर ही भारत की पहली सर्कस कंपनी ‘द ग्रेट इंडियन सर्कस’ की नींव रखी और खेल दिखाया। इसका पहला शो मुंबई में 20 मार्च 1880 को हुआ था। बाद में उनका साथ दिया केरल के कीलेरी कुन्नीकानन ने। वह भारतीय मार्शल आर्ट ‘कालारी पायटू’ के मास्टर थे। उन्होंने सर्कस के कलाकारों को ट्रेनिंग देने के लिए स्कूल खोला। बाद में जितने भी सर्कस भारत में शुरू हुए, उनके अधिकतर मालिक इसी स्कूल से सीखकर सर्कस जगत में आए। उन्हें भारतीय सर्कस का पितामह माना जाता है। भारत के मशहूर सर्कसों में ग्रेट रॉयल सर्कस (1909), ग्रैंड बॉम्बे सर्कस (1920 ) ( यही सर्कस आज ‘द ग्रेट बॉम्बे सर्कस’ के नाम से जाना जाता है ), ग्रेट रेमन सर्कस (1920), अमर सर्कस (1920), जेमिनी सर्कस (1951), राजकमल सर्कस (1958 ) और जम्बो सर्कस (1977) का नाम लिया जाता है।


प्राचीन रोम में भी सर्कस हुआ करते थे। दुनिया का सबसे पुराना सर्कस प्राचीन रोम में ही था। आज से करीब 2500 वर्ष पहले बने इस सर्कस का नाम था—‘मैक्सिमम’। मुख्यता सर्कस के बीचो बीच बने सर्कल के कारण ही सर्कस का नाम सर्कस पड़ा था बाद में जिप्सियों ने इस खेल को यूरोप तक पहुंचाया। इंग्लैंड में फिलिप एशले ने पहली बार लंदन में 9 जनवरी 1768 को सर्कस का शो दिखाया था। उसने घोड़ों के साथ कुत्तों के खेल को भी सर्कस में स्थान दिया। पहली बार दर्शकों को हंसाने के लिए उसने सर्कस में जोकर को जोड़ा। इंग्लैंड के जॉन बिल रिकेट्स अमेरिका में 3 अप्रैल 1793 को अपना दल लेकर पहुंचे और वहां के लोगों को सर्कस का अद्भुत खेल दिखाया। रूस के सर्कस बहुत अच्छे माने जाते हैं और वहां 1927 में मास्को सर्कस स्कूल की स्थापना हुई। अमेरिका के 'द रिंगलिंग ब्रदर्स एंड बार्नम एंड बैले ' सर्कस को दुनिया का सबसे बड़ा सर्कस माना जाता है। इस सर्कस को एक जगह से दूसरी जगह शो करने जाने के लिए दो पूरी ट्रेनों का उपयोग किया जाता है। इसके बेड़े में 100 से ज्यादा हाथी और कई अन्य तरह के जानवर शामिल हैं। दुनिया के सबसे पुराने सर्कसों में शुमार रिंगलिंग ब्रदर्स एंड बर्नम एंड बेली सर्कस भी अब इतिहास बन गया है। 28 मई को रिंगलिंग सर्कस का आखिरी शो हुआ। अधिक लागत और टिकटों की बिक्री में गिरावट के चलते इसे बंद करने का निर्णय लिया गया है। अमेरिका के लाखों लोग इस सर्कस और उसके खेल के दीवाने थे, लेकिन जैसे ही इस सर्कस के बंद करने का औपचारिक ऐलान किया, चारों तरफ मायूसी तैर गई

अमेरिका का  'द रिंगलिंग ब्रदर्स एंड बार्नम एंड बैले ' सर्कस

अभी हाल में ही मुझे दिल्ली में लगे पोस्टरों को देखकर अपने बच्चो को सर्कस दिखाने की उत्सुकता जागी क्योंकि फिल्मे वगैरह तो लगती ही रहती है और सब देखते भी है पर सर्कस आज के बच्चो के लिए एक अनजाना सा नाम बन गई है लिहाजा पहुँच गए सर्कस देखने , टिकट अपेक्षाकृत महँगी थी एकाएक बचपन के सर्कस के वो सारे खेल एक बारगी फिर आँखों के सामने ताज़ा हो गए लेकिन जल्दी ही मुझे एहसास हो गया की ये वो सर्कस नहीं नहीं थी जिसकी मीठी यादे मेरे जेहन में जिन्दा थी सर्कस का तम्बू अब सिनेथेटिक और पारदर्शी हो गया था और लकड़ी की कुर्सियां अब प्लास्टिक में तब्दील हो गई थी ,न तो वो लाइटिंग थी न ,उल्लास और न ही वो शोर मचाने वाले दर्शक ,कलाकार अपना सर्वश्रेष्ठ प्रर्दशन करने की कोशिश करते हैं लेकिन उनके प्रर्दशन करने के समय जो मुस्कान उनके चेहरे पर दिखार्इ देती है, उसके पीछे ना जाने कितना दर्द उन्होंने छुपा रखा था जिसे पढ़ना ज्यादा मुश्किल नहीं था जाने कितने दिनों से अपने घरों से दूर रहने के दर्द के बावजूद वे दर्शकों के चेहरों पे मुस्कान लाने और उनसे अपने लिए ताली बजवाने का हर संभव प्रयास करते नजर हैं। वहां जाकर मालूम हुआ आज सर्कस और उसके कलाकार किन विकट परिस्थितियों से गुज़र रहे हैं
 

  जोकर किसी भी सर्कस का प्रमुख आकर्षण होता है सर्कस में सबसे ज्यादा तालियां बजती हैं जोकरों के लिए  बच्चे खासकर इंतजार करते रहते हैं कि ये कब मंच पर आएंगे। रंग-बिरंगे चेहरे, नकली नाक व बाल लगाकर सबको हंसाने वाले जोकर दो प्रोग्राम के बीच के टाइम में फिलर का काम करते हैं। इस समय में वो सबको खूब हंसाते हैं। कई लोगों की नकल करके, जोक सुना के वे ऐसा करते हैं। कई बार तो इनके भी अलग कार्यक्रम होते हैं। आमतौर पर जोकर वे बनते हैं, जो शारीरिक विकास में पिछड़ जाते हैं और कद कम रह जाता है। बच्चों जैसे दिखने वाले ये जोकर कई बार साठ-साठ साल की उम्र तक के होते हैं। कई जोकर आम इंसान जितने भी होते हैं, पर तालियां तो छोटे कद वाले जोकर ही बटोर ले जाते हैं। इनका काम भी काफी मेहनत भरा होता है। सर्कस के कलाकारों की जिंदगी कैसी होती है यह किसी से छुपी नहीं है। वे जगह जगह अपने शोज करते हैं, लड़कियों का एक पहिये की साइकिल चलाने पर बैलेंस हो या हाथी का लड़की को अपने सूंड़ पर बिठाना हो या रिंग मास्टर का शेर के साथ खेल हो या जाली के बीच में लड़के लड़कियों का एक तरफ से दूसरे तरफ जाना हो, यह सब आश्चर्यचकित होने पर मजबूर करता है लेकिन इतने जोखिम भरे करतब दिखाने में वे जरा भी नहीं हिचकते। शो के बाद ये काफी थक जाते हैं। यही उनकी रोजी-रोटी है लेकिन जब वे यह सब हैरान करने वाले करतब दिखाते हैं तो हर बार इसी प्रार्थना के साथ सामने आते हैं कि इस बार उन्हें देखने के लिए जनता पहुंची हो लेकिन उन्हें निराशा ही हाथ लगती है क्योंकि जैसी भीड़ का वे अनुमान लगाते हैं वह उन्हें बड़ी मुश्किल से मिलती है।


आज सर्कस चलाना बहुत मेहनत का काम है। एक सर्कस में 200 से ज्यादा लोग काम करते हैं। सबके रहने-सहने और खानपान की जिम्मेदारी सर्कस कंपनी की होती है। सभी कलाकार नहीं होते। पर वे एक-दूसरे से ऐसे जुड़े होते हैं, जैसे मोतियों की माला। कुछ का काम होता है तंबू लगाना, उखाड़ना व उनकी देखभाल करना, तो कुछ लोग जानवरों की सेवा में लगे रहते हैं। खेल दिखाने वाले कलाकार तो होते ही हैं, परंतु उन्हें कब और क्या करना चाहिए बखूबी पता होता है और कई बार जब उनका शो खराब हो रहा होता है, तो कैसे जोकर व अन्य लोग उस शो को संभाल लेते हैं, यह देखते ही बनता है। यह इन सर्कस चलाने वालों की हिम्मत ही है कि वह इस प्राचीन कला के माध्यम को हर तरह की परेशानी के बाद भी जीवित रखे हुए हैं। सर्कस में काम करने वालो की पूरी दुनिया सर्कस के तम्बू के नीचे ही बसती है ये सर्कस का तम्बू इन कलाकारों के लिए मात्र सर छिपाने की जगह नहीं है कई कलाकारों की शादी और परिवार बनने का मजबूत गवाह भी है उनके बच्चे भी यही पैदा हुए ,जवान हुए और फिर एक दिन इसी सर्कस का हिस्सा बन गए


प्राचीन काल से ही सर्कस से जानवर जुड़े हैं। सर्कस का मुख्य आकषर्ण जानवर ही होते थे जिन्हें देखकर बच्चे खुश होते थे लेकिन अब सर्कस में जानवरों के रखने पर मनाही है,सर्कस की कठिन दिनचर्या और ट्रेनिंग जानवरों के लिए बड़ी तकलीफदेह होती है। इसी को लेकर सर्कस में जानवरों के प्रदर्शन पर विरोध होने लगा इसीलिए सर्कस वालो ने अपने सभी पशु बहुत पहले ही चिड़ियाघर के सुपुर्द कर दिए हैं और PETA सहित अन्य संगठनों के प्रदर्शन के बाद कई देशों में जानवरों के सर्कस में प्रयोग पर सख्त पाबंदी लग गई ग्रीस पहला यूरोपियन देश है, जिसने सर्कस में किसी भी जानवर का उपयोग करने पर प्रतिबंध लगाया है। भारत में भी 1990 में भारत में सुप्रीम कोर्ट ने सर्कस में जंगली जानवरों के प्रयोग पर रोक लगा दी थी। तब से कुछ ही जानवर सर्कस में प्रयोग होते हैं और उन्हें भी बैन करने की मुहिम चलाई जा रही है। जब जानवरों को बैन किया गया तो सबसे पहले सर्कस देखने वालों में कमी आई। 2002 तक तो सभी सर्कस से जानवरों को उठाकर जंगल में छोड़ दिया गया। सर्कस में शेरों और बाघों के प्रदर्शन पर पिछले एक दशक से प्रतिबंध के बाद उन्होंने कोशिश की कि इस कमी को कलाकारों की कलाबाजियों से पूरा किया जाए लेकिन सफलता नहीं मिली उन्होंने कहा कि सर्कस में बच्चों के प्रदर्शनों पर प्रतिबंध के बाद इस उद्योग को कलाकारों की कमी का सामना भी करना पड़ रहा है इसके बाद टीवी, इंटरनेट, मॉल की वजह से क्रेज कम हुआ। अब युवा पीढ़ी मॉल में जाकर तो कभी इंटरनेट पर समय बिताती है। यह उनका मनोरंजन का जरिया हैं। बच्चे स्टंट पसंद करते थे, लेकिन अब एक्शन वाली हॉलीवुड की फिल्में बच्चों को पसंद आती हैं. सर्कस के स्टंट में किसी को दिलचस्पी नहीं रही. जब तक सर्कस में नयापन नहीं आएगा इनके खेल दर्शक सबसे ज्यादा पसंद करते हैं।

आज जब कभी भी कहीं भी सर्कस लगता है तो उसमें बड़ी मुश्किल से दर्शकों की भीड़ होती है, एक दौर ऐसा था जब सर्कस के शो हाउस फुल जाया करते थे और अगला शो भी वेटिंग में होता था। 1995 में भारत में 350 के करीब सर्कस थे और अब गिने चुने ही बचे हैं। सर्कस का एक कैंप लगाने में काफी खर्चा आता है। ऐसे में जब लोग कम आते हैं तो घाटा उठाना पड़ता है। अब तो बस सर्कस बचाने के लिए ही इसे कुछ लोग चला रहे ये भी  कब बंद हो जाए यह कह नहीं सकते। कई सर्कस की ओर से सरकार से भी आर्थिक मदद की गुज़ारिश की गई है लेकिन अभी तक किसी भी प्रकार की मदद नहीं मिली है सच तो ये है की 80 फीसदी सर्कस खत्म हो चुका है और मात्र 20 फीसदी जिंदा है मनोरंजन के सभी माध्यमों ने तकनीक की मदद से तरक्क़ी कर ली लेकिन सर्कस आर्थिक कमज़ोरी के कारण पीछे रह गया अभी 15 साल पहले भारत में 350 से भी ज़्यादा सर्कस थे लेकिन अब सिर्फ 11 या 12 ही बचे हैं क़रीब दो दशक पहले तक मनोरंजन का माध्यम माना जाने वाला सर्कस आज भारत में अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है यूं तो सर्कस पर बहुत किताबें लिखी गई हैं हमारी हिंदी फिल्मो में भी सर्कस को महत्त्व दिया गया है सर्कस क्वीन (1941 ) ,खानदान (1965 ) ,मेरा नाम जोकर (1970 ) , दुनिया मेरी जेब में (1979 ) जैसी कई फिल्मो का कलाइमेक्स सर्कस के कथानक पर आधारित था दूरदर्शन पर वर्ष 1989 का लोकप्रिय धारावाहिक 'सर्कस' भी बहुत मशहूर हुआ था 19 मई को पूरी दुनिया में हर साल सर्कस दिवस भी मनाया जाता है लेकिन अनुकूल वातावरण और जरूरी सुविधाओं के अभाव में अब ये यह उद्योग दम तोड़ रहा है सरकार जब तक सर्कस उद्योग को बचाने के लिए मदद नहीं करेगी तब तक कुछ नहीं किया जा सकता इसे मनोरंजन कर से पूरी तरह मुक्त कर दिया जाना चाहिए और इसके लिए शहर में कम से कम दर पर स्थान मुहैया कराना चाहिए

 
हमारे देश में सर्कस उद्योग ऐसी समस्याओं से जूझ रहा है जिन्हें यदि सही ढंग से नहीं सुलझाया गया तो यह उद्योग समाप्त हो सकता है इस उद्योग को भारत में जीवित रखने के लिए इस समय सरकार और कॉर्पोरेट प्रायोजकों के सहयोग की जरूरत है हम बचपन में दादा-दादी की कहानियों में सर्कस के किस्से कहानियां अक्सर सुनते थे वो बड़े गर्व से तब बताते थे कि फलां सर्कस में क्या ठसा-ठस भीड़ होती थी सर्कस को देखने के लिए गांवो में तो लोग दूर-दूर से पैदल ही चले आते थे, लोगों में सर्कस देखने का एक गजब का उत्साह होता था लेकिन अब सब कुछ वीराना सा लगता है। काश पहले के दिन वापस आ जाएं लेकिन आज जमाना कितना आगे निकल चुका है। हालात चाहे जैसे हों लेकिन सर्कस मनोरंजन का एक अभिन्न हिस्सा रहा है मैं तो बड़ा उधेड़बुन में हूं कि इसका क्या हल है ? इसलिए यह प्रश्न मैं अपने पाठकों के लिए छोड़ना चाहता हूं, वही फैसला करें कि इसका क्या उपाय है कि सर्कस को अपनी खोयी हुर्इ पहचान वापस मिल जाए। उनके अभिभावकों को चाहिए कि उन्हें वो अपने बच्चो को सर्कस के मनोरंजन की जानकारी दें ताकि अपने स्वर्णिम इतिहास को बचाता आस्तित्व से जूझता हमारे बचपन वाला वो सर्कस जिन्दा रह सके .....मात्र 3 घंटे का खेल .....हवा में करतब दिखाते कलाकार .....अपने यंत्रों पे उनका जबरदस्त बैलेंस.....  जरा सी चूक हो जाने पर सीधा मौत ..... सर्कस में करतब दिखाने वाले किसी भी तरह से फिल्मो में काम करने वाले कलाकार से कम नहीं होते। क्योंकि किसी को लाइव हंसाना और मनोरंजन करना किसी थियटर और फ़िल्मी कला से कम नहीं है हम लोगों को इस कला की कद्र करनी चाहिए और अपने बच्चो को सर्कस के बारे में विस्तार से बताना चाहिए जिससे उनकी जानकारी बढ़े क्योंकि जिस तरह से आज सर्कस का क्रेज कम हो रहा है उसे देखकर लग रहा है कि आने वाले समय में कहीं सर्कस बातों और किताबों में ही सिमट कर न रह जाए।अगर ऐसा होता है तो ये बेहद दुर्भाग्यपूर्ण होगा

2 comments:

  1. is virast ko bachaye rakhene ke liye sarkar ko khuch thos kadam uthane chhaye

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    1. जी आप सही कह रहे है पहले ही सरकार की बेपरवाही की वजह से सिंगल स्क्रीन थियटर बंद हो रहे है अब सर्कस पर भी संकट के काले बादल मंडरा रहे है अभी हाल में ही सर्कस की दुर्दशा देखकर नाम द्रवित हो गया इसलिए इसके बारे में लिखने पर मजबूर हो गया सबसे पहले तो राज्य सरकार मनोरंजन टैक्स में राहत देकर कुछ मदद करे

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