Monday, October 8, 2018

पैग़ाम - (1959)....आज़ाद हिंदुस्तान के समाजवाद और पूंजीवाद के संघर्ष को दो महानायको का जवाब

सन 1959 पंडित जवाहर लाल नेहरू का समय था आज़ादी का उत्साह मध्यम होने लगा था देश एक जंग झेलने के बाद भी प्रगति की और अग्रसर था उस समय देश में अधिकांश जरुरत और मशीनरी के समान को विदेशो से आयात किया जाता था देश को स्वभिमानी बनाने के लिए आत्मनिर्भर होना आवश्यक था हिंदी सिनेमा भी संजीदा हो चुका था अब फिल्मो में देश भक्ति के साथ साथ आज़ादी के बाद की समस्याओ को भी दर्शाया जाने लगा था लेकिन ये आसान भी नहीं था अब अधिकांश फिल्म निर्माता अपने कार्य को व्यापार की तरह करते थे जिसका उद्देश्य लाभ कमाना होता था। उसके लिए वे फिल्म की कहानी में भावुकता, उत्सुकता, नाचना-गाना, अंग-प्रदर्शन, कॉमेडी, मार-धाड़ और सुखांत घटनाएं पिरोते थे। उनकी सोच वाज़िब थी क्योंकि फिल्म निर्माण में बहुत बड़ी लागत लगती थी जिसको वसूल करना मज़ाक नहीं था। लेकिन जहाँ सारे 'टोटकों' के बावज़ूद तथाकथित फार्मूला फ़िल्में पिटती थी वहीं पर कम बजट में बनी सामाजिक सरोकार की फ़िल्में न केवल लागत वसूल कर लेती थी वरन लाभ भी कमाती थी क्योंकि इन फिल्मों की कहानी दर्शक के जीवन के यथार्थ से जुडी हुई होती थी जिसे वह सिनेमा-हाल के अँधेरे में देखना चाहता था। वह महसूस करना चाहता था कि उसका संताप और उसकी भावनाएं उसके अकेले की नहीं बल्कि सार्वभौमिक हैं। यद्यपि अनेक फिल्मों में जनसामान्य की समस्या को कहानी का आधार बनाकर मनोरंजन का तानाबाना बुना जाता था ताकि कोई 'अच्छा संदेश' चला जाए और लागत भी वसूल हो जाए। कुछ फ़िल्मकार संदेशवाहक फिल्में बनाने का रिस्क लेते रहे जैसे 'पैगाम' के निर्माता एम.एस. वासन .....जैमिनी फिल्म्स की '' पैगाम '' एक ऐसी ही कहानी पर बनी शानदार फिल्म है जो मनोरंजन के साथ साथ सबको साथ लेकर चलने का सन्देश देती है


जैमिनी फिल्म्स की पैगाम में मजदूरो और मिल मालिको के बीच के संघर्ष को एक प्रेम कहानी के साथ दिखाया गया था। पैगाम फिल्म की कहानी को रामानंद सागर जी ने लिखा था ......... एक विधवा महिला ( प्रतिमा देवी ) अपने दो बेटों और बेटी शीला ( सीतालक्ष्मी ) के साथ अपना जीवन गुज़ार रही है बड़ा बेटा रामलाल ( राजकुमार ) सेठ सेवक राम ( मोती लाल ) की सर्वानंद मिल में मजदूरी करता है  रामलाल सेठ का विश्वासपात्र और वफादार है वही छोटा बेटा रतन लाल ( दलीप कुमार ) कलकत्ता में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा है पढ़ाई पूरी करने के बाद एक दिन सेठ सेवक राम की मिल में एक ख़राब मशीन को रतन लाल अपने कौशल से ठीक कर देता है सेठ सेवकराम रतन लाल के काम से प्रभावित हो कर उसे अपनी मिल में मैकेनिक की नौकरी की पेशकश करता है जिसे रतन लाल स्वीकार कर लेता है

रतन एक बिन बाप की लड़की मंजू ( वैजयंती माला ) के साथ प्यार करने लगता है जो मिल में टाइपिस्ट की नौकरी करती है और सेठ सेवकराम की इकलौती बेटी मालती ( बी.सरोज देवी ) की सहेली भी है ,मालती भी मन ही मन रतन को चाहती है जल्दी ही रतन के सामने मिल में मालिको और मिल मैनेजर ( एस.एन.बेनर्जी ) द्वारा मजदूरो के शोषण की कहानी सामने आती है मिल में मजदूरो को एक महीने का बोनस देकर तीन महीने के बोनस पर हस्ताक्षर करवाये जाते है और दुर्घटना होने पर नाम मात्र का मुवावजा देकर उसे चुप करवा दिया जाता है ...... रतन लाल इस अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करता है तो मिल के सारे मजदूर रतन के साथ हो जाते है और एक मजदूर यूनियन का गठन करते है ..... नंदू  (जॉनी वॉकर ) भी एक मिल मजदूर है जो इस अन्याय के खिलाफ रतन के साथ है सेठ रतन को प्रलोभन देकर यूनियन तोड़ने को कहता है रतन नहीं मानता .....सर्वानंद मिल में मजदूर लंबी हड़ताल पर चले जाते है 


कहानी में एक रोचक मोड़ तब आता है जब मंजू को पता चलता है वो सेठ सेवकराम की नाजायज औलाद है मंजू अपनी माँ को इन्साफ दिलवाने के लिए सेठ सेवकराम के पास जाती है और हताश हो कर मिल में आग लगा देती है जिसका इल्जाम रतन पर आता है .......रतन को पुलिस पकड़ लेती है ......भाई रामलाल अपनी वफ़ादारी का हवाला देकर सेठ सेवकराम को रतन को जेल से रिहा करवाने की गुज़ारिश करता है लेकिन सेठ सेवकराम धक्के मार कर रामलाल को घर से बाहर निकाल देता है रतन और राम लाल की माँ ये सदमा सहन नहीं कर सकती और उसकी मौत हो जाती है बहन शीला की शादी भी टूट जाती है समाज में रामलाल के परिवार की प्रतिष्ठा को भी धक्का लगता है अब रामलाल भी सेठ सेवकराम के खिलाफ हो जाता है और अपने भाई रतन और मिल मजदूरो के साथ हड़ताल में शामिल हो जाता है ..........इधर अदालत में रतन पर मुक़दमा चलता है लेकिन रतन मंजू को बचाने के लिए अदालत में कहता है की सेठ की मिल को आग उसी ने ही लगाई थी लेकिन सेठ सेवकराम की इकलौती बेटी मालती अदालत में आ कर अपने बाप के खिलाफ गवाही दे देती और अदालत को बताती है की मंजू भी सेठ सेवकराम की ही बेटी है अदालत रतन को बरी कर देती है  सेठ सेवक राम अदालत में अपनी हार नहीं देख सकता और अपने आप को अपमानित महसूस करता है सेठ सेवक राम आत्महत्या की कोशिश करता है रतन अपनी जान पर खेल कर सेठ सेवकराम को बचा लेता है सेठ सेवकराम को रतन समझाता है की आज के दौर में मालिक और मजदूर का रिश्ता इंसान और इंसानियत का होना चाहिए बराबरी का होना चहिये तभी देश और समाज आगे बढेगा सेठसेवक राम मजदूरो की सारी मांगे मान लेता है और उनका हक़ देने का फैसला करता है ......सर्वानंद मिल में हड़ताल ख़त्म हो जाती है और फिल्म का सुखद अन्त होता है 



पैगाम में दलीप कुमार नायक थे और राजकुमार ने उनके बड़े भाई की भूमिका अदा की थी .......दलीप कुमार उस समय शिखर पर थे  राजकुमार 'मदर इंडिया ' (1957) की कामयाबी के साथ उभर कर सामने आये थे अब राजकुमार तो राजकुमार ही थे उनके कई किस्से मशहूर है वे किसी भी कीमत पर सामने वाले अभिनेता के समकक्ष दोयम दर्जे की भूमिका स्वीकार नही करते थे अब चाहे सामने वाला बेशक अभिनय सम्राट दलीप कुमार ही क्यों ना हो अब चाहे पूरा हिन्दुस्थान दलीप कुमार को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता मानता हो लेकिन राजकुमार अपने आप को दलीप कुमार से बेहतर अभिनेता मानते थे वो यहाँ तक कहते थे की ....."दलीप कुमार में वो हौंसला ही नहीं जो 'राजकुमार ' से मुकाबला कर सके " अब आप को निर्माता एम.एस.वासन के हौसले की दाद देनी पड़ेगी जो इस कठिन हालात में भी दोनों सितारों को एक साथ ले कर आये जबकि उस समय कोई भी निर्माता दलीप कुमार और राजकुमार को एक साथ अपनी फिल्म में लेकर जोखिम नहीं उठाना चाहता था हलाकि 32 साल बाद ये जोखिम सुभाष घई ने 'सौदागर' में फिर से उठाया.........मोती लाल ,दलीप कुमार, वैजयंती माला ,जोनी वॉकर ,बी सरोज देवी जैसे सितारों के बीच राजकुमार ने अपनी उपस्थिति मजबूती से कायम रखी उन्होंने इस फिल्म में अभिनय सम्राट दलीप कुमार को जोरदार टक्कर दी फिल्म के एक सीन में राजकुमार को दलीप साहेब को थप्पड़ मारना था अब दलीप साहेब राजकुमार से थप्पड़ खाना नहीं चाहते थे कई दिन फिल्म की शूटिंग बंद रही और काफी हस्तक्षेप के बाद दलीप कुमार ये सीन करने को तैयार हुए कहते है की थप्पड़ वाला ये सीन वास्तविक था  जिसे राजकुमार ने अपनी जीत समझा जबकि फिल्म की पूरी यूनिट ने बेहद तनाव के क्षणों में इस सीन को शूट किया

दिलीप कुमार , बी.सरोजा देवी ,मोतीलाल ,वैजयन्ती माला,राज कुमार ,जॉनी वॉकर पंधारीबाई ,मीनू मुमताज़ ,एस एन बैनर्जी,प्रतिमा देवी,राधा,शिवराज  के आलावा फिल्म के अन्य सितारे थे सेठ सेवकराम के रोल में मोतीलाल प्रभावित करते है उन्होंने सेठ सेवक राम के किरदार में जान डाल दी बी.सरोजा देवी के हिस्से में ज्यादा करने को कुछ नहीं था लेकिन क्लाइमेक्स के दृश्यों में वो अपनी छाप छोड़ती है जोनी वॉकर साहेब पर फिल्माए गाने फिल्म में जान डालते है वैजयन्ती माला इस फिल्म में आकर्षक लगी वैसे भी 'नया दौर '(1957) की सफलता के बाद उनकी दलीप कुमार के साथ जोड़ी चर्चा में थी जिसका लाभ इस फिल्म को मिला बाद में एस.एस. वासन और शिवाजी गणेशन ने Irumbu Thirai के रूप में तमिल में 'पैगाम' का रीमेक भी बनाया जो सफल रहा जिसमे दलीप कुमार का रोल शिवाजी गणेशन ने और वैजयंती माला का रोल सरोजा देवी ने निभाया फिल्म का कथानक हिंदी वाली पैगाम जैसा ही था शिवजी गणेशन की ये तमिल फिल्म दक्षिण भारत में आज भी बड़े चाव से देखी जाती इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी इसके गीत सुने जाते है लेकिन इस तमिल वर्जन में वामपंथ की छाया दिखती है



पैगाम के संगीतकार सी.रामचंद्र थे उनका फिल्म के कलाइमेक्स में ‘इंसान का इंसान से हो भाईचारा, यही पैगाम हमारा’ गीत तो इतिहास में दर्ज है इस गीत को कवि प्रदीप ने लिखा था और गायक मन्ना-डे ने अपनी आवाज दी थी। इस की गीत की लोकप्रियता का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते है की जब 2015 में आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल ने ऐतिहासिक रामलीला मैदान में दिल्ली के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद अपने भाषण के अंत में ‘इनसान का इनसान से हो भाईचारा, यही पैगाम हमारा’ गीत गाया तो रामलीला मैदान में मौजूद लोगों ने पूरे जोश के साथ उनका साथ दिया। ये गाना आज तक हिट है और अक्सर राजनीतिक जलसो और स्कूलों में गाया जाता है ......बदला सारा ज़माना ,दौलत ने पसीने को ,मैं क्यों ना नाचूँ ,कैसे दिवाली मनाये हम रंग रंगीले , ओ अमीरो के परमेश्वर, सुनो सुनो रे भैया आदि गीतों को आशा भोंसले , लता जी, रफ़ी साहेब, मन्ना डे ,सी रामचंद्र , सुमन कल्याणपुर जैसी हस्तियों ने अपनी आवाज़ दी... रफ़ी की आवाज़ में 'अरे सुनो रे भैया ' पूरी तरह से चिरपरिचत जॉनी वॉकर स्टाइल का गीत है

‘इंसान का इंसान से हो भाईचारा, यही पैगाम हमारा’ गीत मजदूरों और मिल मालिकों के बीच के संघर्ष पर बनी पैगाम का मुख्य आकर्षण है लेकिन फिल्म के अन्त में इस गाने का आना कुछ अखरता है जिस समय अधिकांश फिल्म निर्माता बिकाऊ मसाला फिल्मो को बनाने पर जोर दे रहे थे उस समय मजदूरों और मिल मालिकों के बीच के संघर्ष पर बनी जैमिनी की इस फिल्म पैगाम ने ना केवल अच्छा बिजनेस किया बल्कि एक सामाजिक सन्देश देने में भी सफल रही इस के लिए निर्माता एम.एस. वासन बधाई के पात्र है फ़िल्मी दुनिया के इतिहास में इस फिल्म को लंबे समय तक राजकुमार और दलीप कुमार जैसे महानायको की अदाकारी के लिए याद रखा जायेगा दोनों अभिनय के दिग्गज़ों को एक साथ सुनहरी परदे पर देखना सुखद लगता है राजकुमार और दलीप कुमार जब जब भी परदे पर आते है छा जाते है दोनों की अलग अलग शैली की संवाद अदायगी प्रभावित करती है लेकिन दुखद पहलू ये है की दर्शको को ऐसा मौका फिर दुबारा नहीं मिला क्योंकि सौदागर में दलीप साहेब की भाषा शैली बदली हुई थी उर्दू में महारत हासिल दलीप साहेब के संवाद ठेठ देहाती बोली में थे ऐसा क्यों हुआ ? इसका सौदागर के निर्माता सुभाष घई को बेहतर पता होगा ?

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