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लंका दहन - (1917 ) |
दादा साहेब फाल्के लंदन से फ़िल्म बनाने की तकनीक तो सीख आए लेकिन पहली फ़ीचर फ़िल्म बनाना अपने आप में एक बड़ा संघर्ष था 25 दिसंबर 1910 की बात है उन्होंने क्रिसमस के अवसर पर मुम्बई में ईसा मसीह के जीवन पर बनी एक फ़िल्म
‘लाईफ़ आफ़ क्राईस्ट’ देखी और फिल्म देखने के दौरान ही निर्णय कर लिया कि उनकी जिंदगी का मकसद फिल्मकार बनना है उन्होंने 5 पाउंड में एक कैमरा खरीदा और शहर के सभी सिनेमाघरों में जाकर फिल्मों का अध्ययन और विश्लेषण किया फिर दिन में 20 घंटे लगातार प्रयोग किए ऐसे निरंतर काम करने का प्रभाव उनकी सेहत पर पड़ा उनकी एक आंख जाती रही लेकिन ऐसे कठिन समय में उनकी पत्नी सरस्वती बाई ने उनका साथ दिया और सामाजिक निष्कासन और सामाजिक गुस्से को चुनौती देते हुए उन्होंने अपने जेवर गिरवी रख दिए पुरूष अभिनेता भी मिल गए लेकिन 'तारामती 'का किरदार निभाने के लिए कोई अभिनेत्री नहीं मिल रही थी दादा साहेब मुंबई के रेड लाइट एरिया में भी गए वहां पर औरतों ने उनसे पूछा ...
."कितने पैसे मिलेंगे." ?...उनका जवाब सुनकर उन्होंने कहा ..
"जितने पैसे आप दे रहे हो उतने तो हम एक रात में कमाते हैं." बात नहीं बनी एक दिन वो होटल में चाय पी रहे थे तो वहां काम करने वाले एक गोरे-पतले लड़के को देखकर उन्होंने सोचा कि इसे लड़की का किरदार दिया जा सकता है उस लड़के को फिल्म में तारामती का किरदार निभाने के लिए राजी किया गया उन्होंने इस लडके मूंछे साफ़ करवा दी उस लड़के का नाम
"अन्ना सालुंके " था 21 अप्रैल 1913 को ओलम्पिया सिनेमा हॉल में
"राजा हरीश चंद्र " रिलीज़ की गई दर्शकों ने ही नहीं, बल्कि प्रेस ने भी इसकी उपेक्षा की मजाक उड़ाया लेकिन फालके जानते थे कि वे आम जनता के लिए अपनी फिल्म बना रहे हैं,.... अतः यह फिल्म ज़बरदस्त हिट रही प्रशिक्षण का लाभ उठाकर और अपनी प्रकृति के चलते प्रथम भारतीय चलचित्र बनाने का असंभव कार्य करने वाले वह पहले व्यक्ति बने
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लंका दहन में अशोक वाटिका का दृश्य |
दादा साहेब के पास सभी तरह का हुनर था ही वह नए-नए प्रयोग करते थे अब उन्हें लगा कि रामायण और महाभारत जैसे पौराणिक महाकाव्यों से फिल्मों के लिए अच्छी कहानियां मिलेंगी और पहली मूक फिल्म "राजा हरिश्चंन्द्र" (1913 ) के बाद दादासाहब ने दो और पौराणिक फिल्में
"भस्मासुर मोहिनी" (1913) और
"सावित्री" (1914) बनाई 1915 में अपनी तीन फिल्मों के साथ दादा साहब विदेश चले गए लंदन में इन फिल्मों की बहुत प्रशंसा हुई अब उन्होंने ज्यादा रिस्क लेते हुए महाकाव्य रामायण के सुंदर कांड पर आधारित फिल्म 'लंका दहन' बनाने का निर्णय लिया दादा साहेब ने तय कर लिया की अब वो सीता के किरदार के लिए फ़िल्म 'लंका दहन ' में किसी महिला कलाकार को लेकर रहेगे लेकिन उस ज़माने में महिलाओं का फ़िल्मों में काम करना बुरा समझा जाता था कोई भी महिला लंका दहन में काम करने के लिए तैयार नहीं हुई बात फिर पुरुष कलाकार पर आकर अटक गई सालुंके इससे पहले दादा साहेब की फिल्म राजा हरीशचंद्र में 'रानी तारामति' का किरदार निभा चुके थे उस किरदार से उनकी लोकप्रियता इतनी बढ़ गई थी कि फाल्के साहब को उन्हें ही सीता के रूप में कास्ट करना ही पड़ा लंका दहन के मुख्य कलाकार अन्ना सालुंके थे अन्ना ने इस फ़िल्म में राम और सीता दोनों के किरदार निभाए इस प्रकार किसी भारतीय फ़िल्म में डबल रोल की शुरुआत करने वाले सालुंके पहले भारतीय कलाकार बने सालुंके उस ज़माने के सबसे लोकप्रिय अभिनेता और अभिनेत्री दोनों थे इसके बाद
फिल्मों में डबल रोल का सिलसिला काफी प्रचलित हुआ था उस वक्त के फिल्म मेकर होमी वाडिया ने सालुंके को सीता के रूप में देखकर मज़ाकिया अंदाज़ में कहा था
...."फाल्के साहब की हीरोइन्स के बाइसेप्स हैं."
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"अन्ना सालुंके " | | |
1914 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान फ़िल्मों का कारोबार धीमा पड़ गया था ऐसे में जब लंका दहन 1917 में बम्बई के मैजेस्टिक सिनेमा में रिलीज़ हुई तो दर्शकों ने इसे हाथों हाथ लिया "सालुंके को उस दौर का सुपरस्टार कहा जा सकता है क्योंकि लोग राम और सीता के रूप में फिल्मी पर्दे पर उनके दर्शन के लिए ही आते थे गणपत जी शिंदे ने इस फिल्म में हनुमान का रोल किया था उनके लंका दहन के दृश्य को देख दर्शक आत्म मुग्ध हो गए फिल्म की कहानी रामायण से प्रेरित थी जिसमे हनुमान जी सीता माता की खोज करते हुए अशोक वाटिका में जा पहुंचते है और उन्हें पकड़ कर रावण के आदेश पर उनकी पूंछ में आग लगा दी जाती है और हनुमान जी इसी जलती हुई पूंछ से पूरी सोने की लंका भस्म कर देते है कहा जाता है की इस फिल्म को देखने के लिए लोग सिनेमा हाल के बाहर ही अपने जूते चप्पल उतार देते थे और फिल्म के अंत में स्क्रीन के पास चढ़ावा भी रख देते थे कमाई के मामले में भी 'लंका दहन' काफी आगे रही फिल्म के ज्यादातर शो हाउस फुल होते थे और टिकट खिड़की पर लम्बी कतारे अक्सर देखी जाती थी 'लंका दहन' की टिकट खिड़की पर आमदनी इतनी अधिक थी कि सिक्को को पतिलो में भर कर कड़े पहरे में सशस्त्र सुरक्षा दल से रक्षित बैलगाड़ी में रख कर दादा साहेब के घर तक भेजा जाता था करीब दस दिन में ही इस फ़िल्म ने 35 हज़ार रुपये कमाए थे जो उस ज़माने में बड़ी रकम थी दर्शकों को शायद पता न हो कि 1917 में आयी फिल्म ‘लंका दहन’ ने ही बॉक्स ऑफिस का असली खेल शुरू किया था पहली बार इस फिल्म की कमाई ने सभी को चौंकाया था इस फ़िल्म से पहले दादा साहब फाल्के के पास ओपन एयर स्टूडियो था लेकिन इस फ़िल्म ने इतनी कमाई कर डाली थी कि दादा साहेब ने एक शानदार स्टूडियो बना लिया कह सकते हैं कि इस फ़िल्म की कमाई ने ही भविष्य में आने वाली भारतीय फ़िल्मों के लिए ' बॉक्स ऑफिस ' की नींव रखी
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गणपत जी शिंदे ने इस फिल्म में हनुमान का रोल किया था |
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दादा साहेब फाल्के और उनकी पत्नी सरस्वती बाई |
दादा साहेब फाल्के ने सिनेमा की शुरुआत कर भारत में एक क्रांति की थी और शुरु में उन्होंने बहुत समृद्धि का दौर देखा कहते हैं कि उनके कपड़े पेरिस से आते थे और पैसे से लदी बैलगाड़ियाँ उनके घर आया करती थीं दादा साहेब एक कलाकार थे और पैसे की तरफ़ उनका ध्यान कभी था ही नहीं लेकिन अंतिम दिनों में वो ख़ाली हाथ थे फ़िल्मों में ध्वनि आने के साथ ही दादा साहेब की दिक्क़तें बढ़ती चली गईं क्षुब्ध हो कर वो बनारस चले गए फिर वापिस आए भी थे लेकिन वो मूक फिल्मो की सफलता नहीं दोहरा पाए 1938 में दादासाहब ने अपनी पहली और अंतिम बोलती फिल्म
"गंगावतरण" बनाई अंतिम बरसों में दादा साहेब अल्ज़ाइमर से जूझ रहे थे उनके बेटे प्रभाकर ने उनसे कहा कि........
" चलिए नई तकनीक से कोई नई फ़िल्म बनाते हैं " उस समय ब्रिटिश राज था और फ़िल्म निर्माण के लिए लाइसेंस लेना अनिवार्य कर दिया गया था जनवरी 1944 में दादा साहेब ने लाइसेंस के लिए चिट्ठी लिखी 14 फ़रवरी 1944 को जवाब आया कि आपको फ़िल्म बनाने की इजाज़त अब नहीं मिल सकती उस दिन उन्हें ऐसा सदमा लगा कि दो दिन के भीतर ही वो चल बसे आज जिस सिनेमा की इतनी धमक है उसके जन्मदाता की जब मौत हुई तो अंतिम यात्रा
में शामिल होने के लिए भी चंद लोग ही थे और अख़बारों में भी ख़बर चंद
लाइनों में सिमटी थी उनके जाने के बाद परिवार ने काफ़ी प्रयास किया कि दादा
साहेब को भारत रत्न दिया जाए पर हुआ कुछ नहीं अंतिम दिनों में एक रिपोर्टर
ने फाल्के पर कुछ रिपोर्ट करने के लिए संपर्क किया तो उन्होने इनकार करते
हुए कहा कि ..
."जब फ़िल्म उद्योग ने उन्हें भुला दिया तो इस सबकी क्या ज़रूरत है."...?
सौ साल पहले जब कैमरे के पास डबल रोल प्रस्तुत करने जैसी तकनीक नहीं थी उस समय में
'लंका दहन' फ़िल्म में डबल रोल को अंजाम दिया वो भी एक अलग अंदाज़ में इस प्रकार लंका दहन के नाम पहली बॉक्स ऑफिस हिट होने के साथ साथ एक ही कलाकार द्वारा डबल रोल निभाने के कारण पहली डबल रोल वाली फिल्म का रिकॉर्ड भी है एक सिनेमा हॉल में यह फिल्म 23 सप्ताह तक लगातार दिखाई गयी थी 2017 में लंका दहन के सौ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष में इस फिल्म का एक विशेष डीवीडी जारी किया गया है ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी इस सुनहरे इतिहास से अवगत हो सके
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गणपत जी शिंदे और अन्ना सालुंके |
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