Monday, May 27, 2024

'दुविधा (1973)' - एक रहस्मय भूत की अजब और अनोखी लोकगाथा पर बनी बेहतरीन प्रेम कहानी

दुविधा - (1973)

भारत सरकार ने 1960 के दशक के उत्तरार्ध में फिल्म वित्त निगम ( एफ एफ सी ) को मूल रूप से स्वतंत्र फिल्म निर्माताओं की मदद के लिए स्थापित किया गया था भारतीय दर्शको में एक स्थायी वैकल्पिक सिनेमा की आशा  उदयमान हुई थी जिसकी मदद से उन्होंने कम बजट वाली कई फिल्मे बनाई और जब इन बेहतरीन फिल्मों को आलोचनात्मक और व्यावसायिक दोनों तरह की सफलता मिली तो 'समानांतर सिनेमा ' का जन्म हुआ इनमे से कई बेहतरीन फिल्में केरल,तमिलनाडु, कर्नाटक और बंगाल जैसे राज्यों से आई थीं जबकि इससे पहले कमर्शियल फिल्मे ज्यादातर महानगरों की कहानी ही परदे पर कहती थी इस प्रकार जब 1970 के दशक में कमर्शियल हिंदी सिनेमा के समक्ष भारतीय कलात्मक सिनेमा का उदय हुआ था 1960 के दशक के अंत और 70 के दशक की शुरुआत में पुणे के प्रतिष्ठित FTII (फिल्म और टेलीविजन संस्थान) से फिल्म स्नातकों का जो पहला समूह निकला उसमे राजस्थान के जोधपुर में जन्मे फिल्म निर्माता 'मणि कौल 'भी थे जो बाद में समानांतर सिनेमा के एक अग्रणी निर्देशक बन कर उभरे उनकी बनाई फिल्में सादगी, सिनेमाई दृष्टि,बिंबो-रंगो के संयोजन के लिए जानी जाती है जिन्होंने अपनी शुरुआती फिल्मो में खास तौर पर समय और स्थान के साथ भारतीय सिनेमा में अब तक के सबसे रचनात्मक और मौलिक प्रयोगों को सिनेमा के परदे पर दर्शाया उनकी फिल्मो की एक खास बात यह है कि उसमे हमें स्त्रियों के माध्यम से देश-काल का सजीव चित्रण मिलता है उन्होंने बॉलीवुड के महंगे और मशहूर सितारों से सजी काल्पनिक कहानियाँ की जगह समानांतर सिनेमा को आधार बना एक कठोर सामाजिक यथार्थवाद सिनेमा का ऐसा सृजन किया जो एक वर्गवादी, जातिवादी और पीड़ित पुरुषों और महिलाओं की वास्तविक कहानियों को ईमानदारी से दर्शको के सामने रखता है इसलिए निर्माता निर्देशक मणि कौल की फ़िल्में व्यावहारिक रूप से अपरिहार्य बन जाती हैं उनकी 'दुविधा (1973)' समेत 'उसकी रोटी' (1969) ,'आषाढ़ का एक दिन' (1971) ,'सिद्देश्वरी' (1989) ,'नजर' (1991) ,'द क्लाउड डोर' (1994 ) समेत कई फिल्में ललित कला, लोक संगीत, साहित्य और मिथक का अद्भुत मिश्रण हैं  

1973 हिंदी सिनेमा के लिए एक सुनहरा साल था जब राज कपूर की 'बॉबी ,प्रकाश मेहरा की 'ज़ंजीर' और नासिर हुसैन की 'यादों की बारात' जैसी ब्लॉकबस्टर फिल्मे बॉक्स ऑफिस पर सफलता के नए आयाम रच रही थी तो वही निर्माता निर्देशक मणि कौल अपनी कलात्मक फिल्म 'दुविधा ' के माध्यम से कठोर सामाजिक यथार्थवाद का सच दर्शको के सामने मजबूती से रखने में सफल रहे मणि कौल की फिल्म 'दुविधा' राजस्थानी लेखक 'विजयदान देथा' की इसी नाम की कहानी पर आधारित है 'दुविधा' एक अलौकिक कहानी है जो ग्रामीण राजस्थान की एक लोकप्रिय लोककथा पर आधारित है यह कल्पना से परे एक यथार्थवादी कहानी है फिल्म की कहानी के केंद्र में एक सुन्दर नवविवाहित दुल्हन लच्छी और एक भूत है लच्छी विवाह के बाद अपने पति के साथ डोली में उनके पैतृक गाँव जा रही है घने जंगल में बरगद के पेड़ पर रहने वाले एक रसिक भूत उसकी सुंदरता पर मोहित हो जाता ,लच्छी भी उस भूत का ध्यान अनजाने से अपनी और आकर्षित कर लेती है ,दुल्हन लच्छी के रूप लवण्य से प्रभावित यह रसिक भूत अपनी बेकाबू इच्छा से अभिभूत हो एक विलक्षण योजना बनाता है ताकि वो लच्छी के करीब जा सके वह भूत लच्छी से उस के पति किशन का रूप धारण कर मिलता जबकि नवविवाहिता लच्छी का असली पति व्यापार के सिलसिले में विवाह के दूसरे दिन ही परदेस चला गया है ,खुद दुल्हन लच्छी भूत के इस छद्म रूप से अनजान है 


फिल्म की कहानी के अनुसार एक धनी व्यापारी भंवरलाल का बेटा किशनलाल (रवि मेनन) अपनी नवविवाहिता पत्नी लच्छी (रईसा पदमसी) को अपने माता-पिता के पास छोड़ शादी के दूसरे दिन ही ‘दिसावर’ यानि व्यापार के लिए के लिए पाँच साल की लंबी व्यावसायिक यात्रा पर निकल जाता है लच्छी के रूप सौंदर्य पर बुरी तरह आसक्त  भूत इसे अपने लिए एक सुनहरा अवसर समझता है और लच्छी को हासिल करने के लिए लिए एक कुटिल योजना बनाता है वह लच्छी के पति किशनलाल का छद्म रूप धारण कर उसके घर में प्रवेश पहुँच है सभी घर वाले किशन लाल को इतनी जल्दी वापिस आया देख दंग रह जाते है लच्छी को भी लगता है कि उसका पति किशन लाल उसके प्यार में वशीभूत हो यात्रा छोड़ बीच रास्ते अपने गाँव वापस आ गया है और उसके साथ समय बिताना चाहता है लेकिन उसे एक फर्क महसूस होता है जिस पति किशनलाल ने लच्छी के अपरूप सौंदर्य को कभी एक नजर जी भर कभी देखा नहीं था और धन की चाह में सारा दिन अपने हिसाब-किताब में ही उलझा रहता था वही किशन का रूप धरा प्रेमी भूत लच्छी पर पूर्णयता मोहित है वह उससे बेहद प्रेम करता है उसका ख्याल रखता है असमंजस में लच्छी भी भूत को ही अपना असली पति मान लेती है भूत भी लच्छी के विश्वास का भरपूर फायदा उठा लच्छी के संग खुशी खुशी उस के घर में रहने लगता है भूत की योजना पूर्णयता सफल रहती है और किसी को उस पर शक नहीं होता वो अपनी अलौकिक शक्तियों का प्रयोग कर लालच ,लोभ के जाल में फंसा घर के सदस्यों का दिल जीत लेता है और परिवार और गाँव की कई समस्याओं का समाधान भी करता है इसलिए घर वालो के साथ साथ अब गाँव के लोग भी उससे बेहद खुश है  


लच्छी और भूत चार साल तक एक साथ आनंदपूर्वक रहते हैं फिर एक ऐसा भावुक समय भी आता है कि यह भूत अपनी अंतरात्मा की आवाज़ पर लच्छी को अपनी असली पहचान बता देता है यहाँ दर्शको को फिल्म के शीर्षक शब्द 'दुविधा' का अर्थ समझ में आता है यह दुविधा अब लच्छी के साथ साथ फिल्म देखने वाले को भी विचलित करती है कि वह इस खुशहाल झूठ के साथ अपनी जिंदगी जीना जारी रखे या इस दुखद उपेक्षित सत्य को अस्वीकार कर फिर से नया जीवन शुरू करे यहाँ लच्छी की ईमानदारी फिल्म का केंद्रीय संघर्ष बनती है जो रूढ़िवादी दर्शकों के लिए एक बड़ी समस्या पेश करती है वो यह नहीं समझ पाते हैं कि एक विवाहिता पत्नी अपने परदेस गए पति का इंतज़ार करने की बजाय अपनी स्वेच्छा से एक भूत के साथ क्यों सोएगी ? दर्शको को लगता है कि लच्छी का यह कृत्य समाज के पितृसत्तात्मक मूल्यों के विरुद्ध अपराध है और एक गलत सामाजिक सन्देश देता है लेकिन लच्छी को प्रेमी भूत के रूप में अपनी सभी इच्छाओं के प्रतिनिधित्व के बीच एक अजीब सी दुविधा का सामना करना पड़ता है जिसने उसके वास्तविक पति का छद्म रूप ले लिया है यह दुविधा कई सवाल भी उत्पन्न करती है क्या वो मौन रह कर अपनी स्वतंत्र चेतना का इस्तेमाल करती रहे ? या इसे हमेशा के लिए त्याग दे ,लच्छी अपने अंतर्मन से निर्णय लेती है अंत में वो सभी अवधारणाओं को पीछे छोड़ते हुए अपने पति किशन के इस नए कामुक, अलौकिक,सामाजिक,आत्मविश्वासी रूप को अपना लेती है परंपरागत हिंदी सिनेमा में स्त्री का यह रूप सर्वथा अलग था 


जब लच्छी अपने प्रेमी भूत से गर्भवती हो जाती है तो दूर परदेस में यह खबर उसके पति किशन लाल को भी लग जाती है और किशन यह देखने के लिए घर लौटता है कि क्या उसकी पत्नी की गर्भावस्था के बारे में उड़ने वाली अफवाहें सच हैं ? कुछ समय बाद लच्छी एक बच्चे को जन्म भी देती है पति किशन लाल भी परदेस से वापस घर लौट आता है और सबको सच बताता है अब 'दुविद्या 'यही से शुरू होती है जब किशन लाल व्यापार के दिसावर गया था और लम्बे समय के अंतराल के बाद घर वापिस आया है तो जो व्यक्ति लच्छी के साथ रहता था वो कौन है ? और वो बच्चा किसका है जिसे लच्छी ने जन्म दिया ? सारा गाँव असमंजस में है कोई भी यह निर्धारित करने में असमर्थ है कि कौन असली किशन लाल है और कौन सा नकली है ? किशन गाँव वालो के सामने दुहाई देता है की उसकी अनुपस्थिति में एक कपटी भूत ने उनकी भोली भाली पत्नी का फायदा उठाया है लेकिन लच्छी अपने पति किशन के सामने यह स्वीकार करती है कि भूत ने छल से उसका फायदा नहीं उठाया है बल्कि उससे सच बोला है लेकिन किशन अपनी पत्नी  को भूत के वश में मानता है सभी ग्रामीण कहते है कि अब बात उनके बस की नहीं रही अब तो राजा ही न्याय कर सकता है कौन सा किशन असली है ? और सभी ग्रामीण राजमहल की और चल देते है लेकिन रास्ते में भेड़े चराने वाला एक अनपढ़ गडरिया अपनी कुशाग्र बुद्धि से इस विषम समस्या को हल कर देता है जिसे कोई भी समझ भी नहीं पा रहा था 


बुद्धिमान गड़रिया असली किशन और भूत को जन समूह के सामने तीन बाते सिद्ध करने के लिए कहता है पहली बात उन दोनों को गर्म दहकते कोयले को अपने हाथ से उठाना है लेकिन हाथ नहीं जलना चाहिए ,दूसरा उन्हें उसकी भेड़ों को एक तय समय एक विशेष स्थान पर इकट्ठा करना है ,तीसरा उन दोनों को उसकी छांगल (जानवर की खाल से बनी पीने के पानी की थैली ) में पहले प्रवेश करना होगा फिर वापिस बाहर आकर कर दिखाना होगा जो ये तीनो कार्य समक्ष भीड़ के सामने पूर्ण कर के दिखा देगा वही भंवरलाल का असली बेटा और दुल्हन लच्छी का असली पति किशन लाल माना जायेगा होगा भूत अपनी अलौकिक शक्तियों का इस्तेमाल कर पहली दोनों परीक्षाएं बड़ी आसानी से पार कर लेता है जबकि असली किशन लाल को बेहद परेशानी होती है क्योंकि आखिर वो एक मनुष्य जो ठहरा अब आखिर में उन दोनों को गडरिया की छांगल के भीतर प्रवेश करना है जो किशन के लिए तो लगभग असंभव था लेकिन भूत हवा बनकर थैली में प्रवेश कर जाता है और चतुर गडरिया तुरंत अपनी छांगल का मुँह कसकर बंद कर देता है ताकि भूत वापिस बाहर न आ सके इस घटनाक्रम और नए रहस्योद्घाटन से सब दंग रह जाते है और संतोष व्यक्त करते है कि आखिर समझदार गड़रिए के न्याय से भूत उसकी कैद में है इस प्रकार सबको असली किशन का पता चल जाता है गडरिया किशन को उस छांगल को रेगिस्तान में दूर कही रेत में गाड़ने को कह भेड़ो को हांकता हुआ अपनी राह चला जाता है किशन ऐसा ही करता है गडरिये के न्याय से अभिभूत सभी लोग वापिस अपने अपने घर लौट आते हैं लच्छी प्रेमी भूत के हमेशा के लिए दूर चले जाने के गम में टूट जाती है लेकिन क्लाइमेक्स अभी बाकि है दरअसल यह बात उस भूत के आलावा और कोई जानता कि लच्छी के प्रति अपने सच्चे प्यार को साबित करने के लिए ही उसने अपनी मर्ज़ी से गडरिये की छांगल में प्रवेश किया था 

फिल्म के अंत में दर्शको को यह पता चलता है कि चतुर भूत को किशन ने रेत में जहाँ दफनाया था वो छांगल खोल कर वहाँ से निकल भागा है और अपनी प्रेमिका लच्छी के साथ हमेशा रहने के लिए उसने अब उसके पति किशन के ही शरीर पर कब्ज़ा कर लिया है लेकिन यहाँ लच्छी के सामने फिर से एक नई दुविधा खड़ी है कि वो अपने प्रेमी भूत जो अब उसके पति किशन के शरीर में है उसे कैसे पहचाने ? भूत लच्छी की मनोदशा भांप जाता है भूत लच्छी को उस नाम की याद दिलाकर अपनी पहचान उजागर करता है जो नाम वो और लच्छी जन्म से पहले अपने बच्चे  को देने जा रहे थे लच्छी का संदेह मिट जाता इस प्रकार लच्छी अपने असली पति किशन और उसके शरीर में घुस चुके अपने प्रेमी भूत दोनों के साथ खुशी से रहना स्वीकार कर लेती है 



फिल्म 'दुविधा' देखने पर पर नए सवाल और नए अर्थ उद्धाटित होते हैं पूरी कहानी में आखिर कोई लच्छी से उसकी मर्ज़ी  क्यों नहीं पूछता ? किशन लाल ने दुल्हन लच्छी को पांच साल के लिए अपना घर छोड़ने के बारे में पहली बार तब बताता है जब उसे एक पूर्व निर्धारित शुभ तिथि पर नया व्यवसाय शुरू करने के लिए दूर परदेस जाना है ऐसा वो अपने पिता की पिता की इच्छा के लिए कर रहा है लेकिन लच्छी फिर भी अपना पति धर्म निभाते हुए उसके इस कठोर निर्णय का विरोध नहीं करती और पति को राजी खुशी घर से विदा करती है लेकिन किशन लाल का "घर के सम्मान को बनाए रखने" और ''प्रलोभन में न आने '' का उपदेश देकर सिर्फ धन की लालसा में अपनी नई नवेली दुल्हन को छोड़ कर चले जाना क्या न्याय संगत था ? किशन ने अपने पिता की इच्छा तो मान ली लेकिन अपनी पत्नी की इच्छा के बारे में उससे क्यों नहीं पूछा ? दूसरी और भले ही किशन के रूप में होने के बावजूद प्रेमी भूत एक रात खुद लच्छी को अपनी असली पहचान बता देता है लेकिन ये भी तो सत्य है कि उसका प्रेमी भूत भी तो उसके अनुपम सौंदर्य से प्रभावित हो उसके करीब आया है और अपनी कामवासना की पूर्ति के लिए ही उसने किशन का छद्म रूप धरा था उसने भी लच्छी से उसकी अपनी पसंद या इच्छा क्यो नही पूछी ?

इसलिए यहाँ लच्छी का अपना निजी पक्ष अपेक्षित हो जाता है क्या एक स्त्री को केवल विवाह बंधन के कारण किसी पुरुष के साथ जीवन भर रहना चाहिए या अपने प्रेम के कारण ? आखिर लच्छी को ऐसे पति का इंतज़ार करना चाहिए जो उसे धन की लालसा में सुहाग की सेज़ पर विरह की अग्नि में जलता छोड़ चला गया या उसे उस भूत के साथ जीना है जिसने उसे विवाहित जीवन का सुख और सच्चा प्यार दिया है यह जानते हुए भी कि उसके पति का रूप धरने वाला कोई मनुष्य नहीं एक भूत है और वह उसका वो पति नहीं जिसके साथ उसने विवाह कर साथ जीने मरने की कस्मे खाई थी ,सारी सच्चाई जानते हुए भी लच्छी कोई प्रतिरोध नहीं करती और अपने पति के रूप में उस भूत को सहर्ष स्वीकार करती है वो उस भूत से शारीरिक संबंध बनाने से पहले दोबारा पूर्ण विधि विधान से "विवाह" संपन्न करती है और उसके बच्चे को जन्म भी देती है जिस दृश्य में नवविवाहिता दुल्हन लच्छी कामातुर हो अपने प्रेमी भूत को प्यार से गले से लगाती है यह दृश्य दुल्हन लच्छी की अपनी स्वंय की यौन स्वतंत्रता के चयन को दर्शाता है यहाँ इस दृश्य में लच्छी पुरुष रचित समाज के पितृसत्तात्मक मूल्यों और उनके बनाये निर्धारित नियमो पर भयंकर चोट करती दिखती है प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक सत्यजीत रे ने ‘फोर एंड ए क्वार्टर (1974) शीर्षक लेख में इस फिल्म की आलोचना की थी क्या उसका कारण यह दृश्य तो नहीं था ?


इस फिल्म में जिस तरह से लच्छी के रूप में एक नई अभिनेत्री रायसा पद्मसी को मणि कौल ने परदे पर उकेरा है वह भारत की रॉयल मिनिएचर पेंटिंग से प्रभावित दिखते है क्योंकि मणि कौल की फिल्मों में विभिन्न कला रूपों-पेंटिंग, स्थापत्य और संगीत की आवाजाही सहजता से होती है फिल्म में लच्छी का किरदार निभाने वाली लड़की 'रायसा पद्मसी' एक भारतीय-फ्रांसीसी चित्रकार अकबर पद्मसी और सोलेंज गौनेले की इकलौती बेटी हैं जिसका नामकरण प्रसिद्ध पेंटर एम. एफ. हुसैन ने अपनी खुद की बेटी रायसा के नाम पर किया था जब रायसा ने इस फिल्म में अभिनय किया तब वो मात्र सोलह वर्ष की थी और उसे हिंदी का एक शब्द भी नहीं आता था वह केवल फ्रेंच लेंग्वेज बोलती थीं शायद इसलिए आपको फिल्म में उसके कोई ज्यादा संवाद नहीं मिलते जब मणि कौल ने उन्हें अपनी फिल्म के लिए चुना था तो खूबसूरत राईसा पद्मसी को उन्होंने मजाक-मजाक में कहा था

 ''मेरी फिल्म में तुम्हारी यह अपार सुंदरता किसी काम नहीं आने वाली 

मेरी फिल्म तुम्हारे सौंदर्य को परदे पर क्रश करने वाली है''

रायसा ने अपनी पहली फिल्म 'दुविधा' के बाद किसी भी फिल्म में अभिनय नहीं किया और वापस पेरिस चली गईं जहां वह आज भी अपने परिवार के साथ रहती है उनके पति लॉरेंट ब्रेगेट एक फिल्म निर्माता हैं मणि कौल अक्सर रायसा पद्मसी को अपनी सर्वश्रेष्ठ महिला अभिनेता मानते थे लेकिन रायसा जो अब एक कला इतिहासकार भी हैं फिर कभी भी किसी अन्य फिल्म में दिखाई क्यों नहीं दीं जबकि उसके परिवार के कई लोग फिल्म उद्योग से थे थिएटर हस्ती और विज्ञापन फिल्म निर्माता एलिक पद्मसी रायसा के चाचा हैं उनका विवाह गायिका और अभिनेत्री शेरोन प्रभाकर से हुआ था उनकी बेटी यानि रायसा की चचेरी बहन शाज़ान पद्मसी भी एक बॉलीवुड अभिनेत्री हैं जिसे आपने रॉकेट सिंह (2009),दिल तो बच्चा है जी (2011) और हॉउसफुल -2 (2012) में देखा होगा 


मणि कौल ने बेहद सूक्ष्मता से किरदारों की भाव-भंगिमा को ब्यौरे के साथ से इस फिल्म में जिस तरह दिखाया गया है वह सिनेमा और रंगमंच के फर्क को हमारे सामने लाता है एक सिन में डोली में हिचकोले खाती लच्छी की ‘एक फांक आंख, एक फांक नाक’ के सौंदर्य को मणि कौल ने जिस संयम से दिखाया है वह उन जैसे कला प्रेमी के बूते ही संभव है ,फिल्म के एक दृश्य का उल्लेख यहाँ जरूरी है जब लच्छी का पति दिसावर जाने को होता है ,किवाड़ की ओट में टिमटिमाती लौ, किवाड़ खोल कर काजल भरी आंखों से लच्छी जिस तरह से घर-आंगन को देखती है क्लोज-अप में रईसा पद्मसी का निराश चेहरा उसकी अंतर्मन की पीड़ा ( विरह ) साफ दर्शाता है ,एक अन्य दृश्य में जब लच्छी एक सफ़ेद दीवार के सामने लाल घूंघट ओढ़े बैठी है उसकी आँखों में काजल की मोटी रेखाएँ हैं और माथे पर एक बड़ी लाल बिंदी लगी है वह एक ऐसी स्त्री की तरह दिखती है जो अमृता शेरगिल की किसी मशहूर पेंटिंग से सीधे निकलकर आई हो



मणि कौल की फिल्में वित्तीय संसाधनों से भी प्रभावित रही है उन्हें हमेशा वित्तीय संकट से जूझना पड़ा उनकी कम बजट की इन फिल्मों को फिल्म वित्त निगम ( एफएफसी ) से सहायता मिली है तभी वो पूरी हो सकी उनकी फिल्मो को देखते हुए आप इस बात को गंभीरता से महसूस कर सकते है उनका बजट बेहद सिमित होता था पैसे के आभाव में उन्हें कई चीजों से समझौता करना पड़ता था इसके बावजूद उनका काम शानदार रहा ‘दुविधा’ की शूटिंग जोधपुर जिले की बिलाड़ा तहसील के बोरुंदा गांव में हुई जो इस कहानी के मूल लेखक विजय दान दे था बिज्जी का गांव भी था शायद इसलिए उनकी कहानी की पृष्ठभूमि भी राजस्थान ही थी इस रेत के मरुस्थलों से    मणि कौल पहले से ही भलीभांति परिचित थे क्योंकि राजस्थान ( जालौर ) में मणि कौल का बचपन बीता और ग्रेजुएशन की शिक्षा भी उन्होंने जयपुर विश्वविद्यालय से ली थी उसके बाद ही वो पुणे फिल्म संस्थान ( एफटीआईआई ) गए ,मणि कौल की फिल्म 'दुविधा' रोटी, सारा आकाश और आषाढ़ का एक दिन के बाद उनकी पहली रंगीन फिल्म भी थी इस फिल्म की सिनेमाटोग्राफी की चर्चा अलग से होनी चाहिए जिसे नवरोज़ कॉन्ट्रैक्टर ने अंजाम दिया उनके कैमरे की कठोर फ़्रेमिंग देहाती राजस्थानी स्थानों को एक भयावह सुंदरता के साथ चित्रित  करती है साथ ही बड़ी कुशलता से रूढ़िवादी आडम्बर में लिपटे ग्रामीण भारत के उस नग्न सत्य से भी परिचित करवाती है जिसमे विवाह ही स्त्री के जीवन का अंतिम खूँटा माना जाता है जिससे न चाहते हुए भी उसे जीवन भर बंधना है लेकिन यहाँ निर्देशक मणिकौल की लच्छी इस कड़वे सत्य का अपवाद बन जाती है वो अपने मन की बात  मानकर शादीशुदा होते हुए भी अपनी इच्छा के लिए ना केवल अपने भूत प्रेमी के सामने खुद को समर्पित कर देती है बल्कि उसके बच्चे को भी जन्म देती है 

फिल्म के कई ऐसे दृश्य है जहाँ  लच्छी किसी विपरीत कार्य का सांकेतिक विरोध करने से भी नहीं चूकती फिल्म के आरम्भ के एक दृश्य में जब किशन अपनी दुल्हन लच्छी को विदा कर अपने गाँव ले कर आ रहा होता उसे रास्ते के किनारे लगे एक जंगली फल 'ढालू' खाने की इच्छा होती है लेकिन किशन लाल उसे बड़े अनमने ढंग से कहता है कि ''वो ऐसा जंगली फल ढालू खाकर क्या करेगी जिसे सिर्फ गरीब किसान खाते है कोई उसे ये फल खाते देखेगा तो हमारे धनी परिवार को उपहास का पात्र बनना पड सकता है क्योंकि हमारे घर में तो महंगे मखाने खाये जाते है '' यहाँ फिल्म देख रहे दर्शको को किशन लाल का सामंती आडम्बरयुक्त चेहरा पहली बार महसूस होता है लेकिन यहाँ लच्छी के चेहरे के भाव ,कैमरे के क्लोज़अप में शक्तिशाली बेहद अभिव्यक्तियाँ व्यक्त करते है जो यह दर्शाते है की वो अपने पति की ऊंच-नीच की सोच से सहमत नहीं है ,फिल्म में फिल्म में रायसा पद्मसी' और रवि मेनन के आलावा हरधन ,शम्भुधन ,मनोहर लालस ,काना राम ,भोला राम जैसे रंगमंच के साधारण कलाकारों ने उम्दा अभिनय किया है फिल्म में सिमित किरदारों में एक अजीब सी उदासीनता महसूस होती है जो कहानी के माहौल में व्याप्त है यह उदासीनता पात्रों को बेजान कठपुतलियों में बदल देती है कल्पना वास्तविकता में तेज़ी से गुम हो धुंधली हो जाती है पूरी फिल्म में दूल्हे और दुल्हन का नाम कभी नहीं बोला गया अधिकांश कैमरा दुल्हन के तंग क्लोज़अप पर रखा गया है एक प्रेम त्रिकोण की कथा के भीतर कोई भी आवाज नहीं उठाता या आंसू नहीं बहाता दिखता हर कोई नीरस,कठोर वाक्यों में बोलता है किरदारों के चेहरे और आंखें बेजान रहती हैं जिससे ही लम्बे पांच साल बीतने का पता दर्शको को लगता है मणि कौल की फिल्मों में ध्वनि के इस्तेमाल का काफी महत्व रहा है हालांकि इस फिल्म में अधिक संवाद नहीं है पर वॉयस ओवर का बखूबी इस्तेमाल किया गया है फ़िल्म का संगीत राजस्थान के लोक संगीतकारों रमज़ान हम्मू,लतीफ़ और साकी खान ने दिया था पारंपरिक राजस्थानी संगीत का उपयोग फिल्म को विशेष रूप से क्षेत्रीय संगीतमयता से भर देता है 


अब विडंबना देखिये जिस लेखक विजयदान देथा की कहानी दुविधा को आधार बना मणि कौल ने 'दुविधा' फिल्म बनाई उसी कहानी को आधार बनाकर निर्देशक ,अभिनेता अमोल पालेकर ने भी 'पहेली (2005)' नाम से एक फिल्म निर्देशित की थी 24 जून 2005 को रिलीज़ हुई फिल्म पहेली  'दुविधा' का ही रीमेक थी जिसमें शाहरुख खान और सुनील शेट्टी ,अमिताभ बच्चन ,जूही चावला ,अनुपम खेर रानी मुखर्जी  प्रमुख भूमिका में थे जहाँ मणि कौल की 'दुविधा' सिर्फ आलोचकों को पसंद आई वही शाहरुख़ खान के रेड चिल्ली बैनर के तले मधुर संगीत और भव्य सेट्स ,बड़ी स्टारकास्ट ,बड़े बजट को लेकर बनी फिल्म 'पहेली' बॉक्स ऑफिस पर हिट रही इसके प्रोडक्शन डिज़ाइन, सिनेमैटोग्राफी, वेशभूषा और विशेष प्रभावों की प्रशंसा हुई पहेली की पूरी शूटिंग भी रिकॉर्ड 45 दिनों की अवधि में राजस्थान (झुंझुनू जिले) में की गई थी फिल्म में हाड़ी रानी की बावड़ी में फिल्माए गए दृश्य आकर्षक थे जहाँ लच्छी (रानी मुखर्जी ) को भूत (शाहरुख़ खान ) की अलौकिक शक्तियों का पहली बार अनुभव होता है यह जगह बाद में पर्यटकों में मशहूर हो गई ‘पहेली’ भारत की तरफ से 79वें ऑस्कर के लिए आधिकारिक एंट्री बनी थी प्रेमी भूत की अलौकिक शक्तियों की दिखने के लिए पहेली में उस समय नई नई वीएफएक्स तकनीक का प्रयोग भी किया गया था जिसे दर्शको खासकर बच्चो ने बेहद पसंद किया था जहाँ 'दुविधा' में किरदारों की आवाज़ वॉयस ओवर की माध्यम से व्यक्त होती है वही 'पहेली' में दो कठपुतलियों द्वारा कहानी सुनाई जाती है जिन्हें नसीरुद्दीन शाह और रत्ना पाठक शाह ने आवाज दी है 51वें फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों में, पहेली को 2 नामांकन प्राप्त हुए - सर्वश्रेष्ठ गीतकार ("धीरे जलना" के लिए गुलज़ार) और सर्वश्रेष्ठ पुरुष पार्श्व गायक ("धीरे जलना" के लिए सोनू निगम)। 53वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में, फिल्म ने सर्वश्रेष्ठ महिला पार्श्व गायिका का पुरस्कार जीता (श्रेया घोषाल "धीरे जलना" के लिए)

पहेली का उद्घाटन हरारे के लिबर्टी सिनेमा कॉम्प्लेक्स में 9वें जिम्बाब्वे अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में हुआ इसे सनडांस फ़िल्म फ़ेस्टिवल और पाम स्प्रिंग्स इंटरनेशनल फ़िल्म फ़ेस्टिवल दोनों में भी प्रदर्शित किया गया था फिल्म का कार्यकारी शीर्षक' फ्रेंड ऑफ ए घोस्ट  'था पहेली बॉक्स ऑफिस पर सफल साबित हुई जिसने दुनिया भर में ₹32 करोड़ की कमाई की लेकिन रिलीज़ होने पर इसे फ़िल्मी आलोचकों से मिली-जुली सकारात्मक समीक्षा मिली  


भारतीय कला फिल्मो के अग्रणी निर्माता निर्देशक 'मणि कौल '

भारतीय निर्देशक मणि कौल द्वारा बनाई गई 'दुविधा 'एक खूबसूरत फिल्म है जो समय और स्थान की परंपराओं से मुक्त होकर फिल्म निर्माण की एक नवीन शैली का प्रदर्शन करती है यह मसाला फिल्मो से अलग अपने आप में एक असाधारण सिनेमाई अनुभव हमें प्रदान करती है फिल्म ने कोई बड़ी व्यावासिक सलफलता तो अर्जित नहीं करी लेकिन मणि कौल की सबसे रहस्यमयी कृति "दुविधा" ने उन्हें सर्वश्रेष्ठ निर्देशन के लिए अत्यधिक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पुरस्कार जरूर दिलाया था ,बाद में 1997 में कन्नड़ फिल्म 'नागमंडला ' भी इसी कहानी से प्रेरित होकर बनी है जो गिरीश कर्नाड के इसी नाम के नाटक पर आधारित थी ,अभिनेता गिरीश कर्नाड के नाटक 'नागमंडला ' की तुलना भी कहानीकार विजयदान देथा की 1970 के दशक की राजस्थानी लोककथा आधारित फिल्म 'दुविधा 'से की जाती है क्योंकि दोनों का कथानक समान है 'नागमंडला 'मे प्रकाश राज और और विजयलक्ष्मी मुख्य भूमिका में हैं फिल्म में एक महिला और उसके लापरवाह पति के भेष में एक सांप के बीच प्रेम कहानी दिखाई गई थी इस कन्नड़  फिल्म को भी 1997 में भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में भारतीय पैनोरमा के लिए चुना गया था


जब दूरदर्शन का सुनहरी दौर था तब भारत के एकमात्र सार्वजनिक टेलीविजन चैनल पर लोकप्रिय कला फिल्मों के लिए एक आरक्षित स्लॉट तय था जहाँ मणि कौल,गोविन्द निहलानी,श्याम बेनेगल ,जैसे फिल्मकारों की कला फिल्मो को दिखाया जाता था मैंने भी यह फिल्म 'दुविधा 'दूरदर्शन पर ही देखी थी अब तो समान्तर सिनेमा की ऐसी फिल्मो को देखना असम्भव सा हो गया है अपनी फिल्मो में भारतीय कला और संस्कृति की स्वदेशी परंपराओं का निर्वाहन करने वाले समांतर सिनेमा के पुरोधा मणि कौल की फिल्म ‘दुविधा (1973)’ के इसी वर्ष पचास साल पूरे हो रहे हैं

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